बृजेश्वरी देवी मंदिर

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बृजेश्वरी देवी मंदिर
बृजेश्वरी देवी मंदिर, काँगड़ा
बृजेश्वरी देवी मंदिर, काँगड़ा
वर्णन 'बृजेश्वरी देवी मंदिर' हिमाचल प्रदेश के प्रसिद्ध हिन्दू मंदिरों में से एक है। इस मंदिर को भी देवी के शक्तिपीठों में गिना जाता है।
स्थान काँगड़ा, हिमाचल प्रदेश
संबंधित लेख शक्तिपीठ, सती
मान्यता माना जाता है कि इसी स्थान पर माता सती का 'दाहिना वक्ष' गिरा था और माता यहाँ शक्तिपीठ रूप में स्थापित हो गईं।
तीन पिण्डियाँ मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित पहली और मुख्य पिण्डी 'मां बृजेश्वरी' की है। दूसरी 'मां भद्रकाली' और तीसरी और सबसे छोटी पिण्डी 'मां एकादशी' की है।
अन्य जानकारी एकादशी के दिन चावल का प्रयोग नहीं किया जाता है, लेकिन इस शक्तिपीठ में माँ एकादशी स्वयं मौजूद हैं, इसलिए यहां भोग में चावल ही चढ़ाया जाता है।

बृजेश्वरी देवी मंदिर हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा ज़िले में स्थित है। माना जाता है कि इसी स्थान पर माता सती का दाहिना वक्ष गिरा था और माता यहाँ शक्तिपीठ रूप में स्थापित हो गईं। यह मंदिर काँगड़ा क्षेत्र के लोकप्रिय मंदिरों में से एक है। देवी को प्रसाद तीन भागों- 'महालक्ष्मी', 'महाकाली' और 'महासरस्वती' के लिए विभाजित कर चढ़ाया जाता है। माँ बृजेश्वरी देवी के इस शक्तिपीठ में प्रतिदिन माँ की पांच बार आरती होती है। दोपहर बाद मंदिर के कपाट दोबारा भक्तों के लिए खोल दिए जाते हैं और भक्त माँ का आशीर्वाद लेने पहुंच जाते हैं। मंदिर में देवी माँ एक पिंडी के रूप में पूजी जाती हैं।

पौराणिक कथा

बृजेश्वरी देवी के धाम के बारे मे कहते हैं कि जब सती ने पिता के द्वारा किए गए शिव के अपमान से कुपित होकर अपने पिता राजा दक्ष के यज्ञ कुंड में कूदकर अपने प्राण त्याग दिए, तब क्रोधित शिव उनकी मृत देह को लेकर पूरी सृष्टि में घूमे। शिव का क्रोध शांत करने के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। शरीर के यह टुकड़े धरती पर जहां-जहां गिरे वह स्थान 'शक्तिपीठ' कहलाया। मान्यता है कि काँगड़ा के इस स्थान पर माता सती का दाहिना वक्ष गिरा था, इसलिए बृजेश्वरी शक्तिपीठ में माँ के वक्ष की पूजा होती है।

ऐतिहासिक तथ्य

कहा जाता है कि पहले यह मंदिर बहुत समृद्ध था। इसे बहुत बार विदेशी लुटेरों द्वारा लूटा गया। ग़ज़नवी शासक महमूद ने 1009 ई. में इस शहर को लूटा और मंदिर को नष्ट कर दिया। मस्जिद भी बना दी गई थी। मंदिर 1905 ई. में जोरदार भूकंप से पूरी तरह नष्ट हो गया था। 1920 में इसे दोबारा बनवाया गया।[1]

तीन धर्मों की आस्था का प्रतीक

माता बृजेश्वरी का यह शक्तिपीठ अपने आप में अनूठा और विशेष है, क्योंकि यहां मात्र हिन्दू भक्त ही शीश नहीं झुकाते, बल्कि मुस्लिम और सिक्ख धर्म के श्रद्धालु भी इस धाम में आकर अपनी आस्था के फूल चढ़ाते हैं। कहते हैं कि बृजेश्वरी देवी मंदिर के तीन गुंबद इन तीन धर्मों के प्रतीक हैं। पहला हिन्दू धर्म का प्रतीक है, जिसकी आकृति मंदिर जैसी है तो दूसरा मुस्लिम समाज का और तीसरा गुंबद सिक्ख संप्रदाय का प्रतीक है।[2]

माँ की पिण्डियाँ

तीन गुंबद वाले और तीन संप्रदायों की आस्था का केंद्र कहे जाने वाले माता के इस धाम में माँ की पिण्डियां भी तीन ही हैं। मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित पहली और मुख्य पिण्डी माँ बृजेश्वरी की है। दूसरी माँ भद्रकाली और तीसरी और सबसे छोटी पिण्डी माँ एकादशी की है। माँ के इस शक्तिपीठ में ही उनके परम भक्त 'ध्यानु' ने अपना शीश अर्पित किया था। इसिलिए माँ के वे भक्त, जो ध्यानु के अनुयायी भी हैं, वे पीले रंग के वस्त्र धारण कर मंदिर में आते हैं और माँ का दर्शन पूजन कर स्वयं को धन्य करते हैं।

मान्यता

कहते हैं जो भी भक्त मन में सच्ची श्रद्धा लेकर माँ के इस दरबार में पहुंचता है, उसकी कोई भी मनोकामना अधूरी नहीं रहती। फिर चाहे मनचाहे जीवन साथी की कामना हो या फिर संतान प्राप्ति की लालसा। माँ अपने हर भक्त की मुराद पूरी करती हैं।

आरती

मां के इस दरबार में पांच बार आरती का विधान है, जिसका गवाह बनने की इच्छा हर भक्त के मन में होती है। माँ बृजेश्वरी देवी के इस शक्तिपीठ में प्रतिदिन माँ की पांच बार आरती होती है। सुबह मंदिर के कपाट खुलते ही सबसे पहले माँ की शैय्या को उठाया जाता है। उसके बाद रात्रि के श्रृंगार में ही माँ की मंगला आरती की जाती है। मंगला आरती के बाद माँ का रात्रि श्रृंगार उतार कर उनकी तीनों पिण्डियों का जल, दूध, दही, घी और शहद के पंचामृत से अभिषेक किया जाता है। उसके बाद पीले चंदन से माँ का श्रृंगार कर उन्हें नए वस्त्र और सोने के आभूषण पहनाएं जाते हैं। प्रात: काल की आरती चना, पूरी, फल और मेवे का भोग लगाकर संपन्न होती है।[2]

दोपहर की आरती और भोग चढ़ाने की रस्म को यहाँ गुप्त रखा जाता है। दोपहर की आरती के लिए मंदिर के कपाट बंद रहते हैं, तब श्रद्धालु मंदिर परिसर में ही बने एक विशेष स्थान पर अपने बच्चों का मुंडन करवाते हैं। मान्यता है कि यहां बच्चों का मुंडन करवाने से माँ बच्चों के जीवन की समस्त आपदाओं को हर लेती हैं। मंदिर परिसर में ही भगवान भैरव का भी मंदिर है, लेकिन इस मंदिर में महिलाओं का जाना पूर्ण रूप से वर्जित हैं। यहां विराजे भगवान भैरव की मूर्ति बड़ी ही ख़ास है। कहते हैं, जब भी कांगड़ा पर कोई मुसीबत आने वाली होती है तो इस मूर्ति की आंखों से आंसू और शरीर से पसीना निकलने लगता है। तब मंदिर के पुरोहित विशाल हवन का आयोजन कर माँ से आने वाली आपदा को टालने का निवेदन करते हैं।

भोग तथा प्रसाद

दोपहर के बाद मंदिर के कपाट दोबारा भक्तों के लिए खोल दिए जाते हैं और भक्त माँ का आशीर्वाद लेने पहुंच जाते हैं। कहते हैं एकादशी के दिन चावल का प्रयोग नहीं किया जाता है, लेकिन इस शक्तिपीठ में माँ एकादशी स्वयं मौजूद हैं, इसलिए यहां भोग में चावल ही चढ़ाया जाता है। सूर्यास्त के बाद इन पिण्डियों को स्नान कराकर पंचामृत से इनका दोबारा अभिषेक किया जाता है। लाल चंदन, फूल व नए वस्त्र पहनाकर माँ का श्रृंगार किया जाता है और इसके साथ ही सांय काल आरती संपन्न होती है। शाम की आरती का भोग भक्तों में प्रसाद रूप में बांटा जाता है। रात को माँ की शयन आरती की जाती है, जब मंदिर के पुजारी माँ की शैय्या तैयार कर माँ की पूजा-अर्चना करते हैं।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बृजेश्वरी देवी मंदिर, काँगड़ा (हिन्दी) औदिच्य बंधु। अभिगमन तिथि: 28 सितम्बर, 2014।
  2. 2.0 2.1 2.2 काँगड़ा के बृजेश्वरी शक्तिपीठ में माँ हर लेती है भक्तों के हर दुख (हिन्दी) आज तक। अभिगमन तिथि: 28 सित्म्बर, 2014।

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