दुनागिरि शक्तिपीठ

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दुनागिरि शक्तिपीठ
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दुनागिरि शक्तिपीठ
वर्णन 'दुनागिरि शक्तिपीठ' उत्तराखंड के प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों में से एक है। यह शक्तिपीठ सती के अंग पतन से निर्मित नहीं हुआ, बल्कि यह स्वयंभू शक्तिपीठ है।
स्थान दूनागिरि, अल्मोड़ा, उत्तराखंड
भौगोलिक स्थिति अल्मोड़ा से 65 कि.मी. और रानीखेत से 38 कि.मी. दूर और द्वाराहाट से 14 कि.मी. की ऊंचाई पर स्थित।
विशेष अश्विन नवरात्रों में सप्तमी की रात को पुत्र प्राप्ति की कामना से महिलाएं दुनागिरि देवी के प्रांगण में सारी रात जलता हुआ दीपक हाथ में लेकर खड़ी रह कर मनौती मांगती हैं और मनौती पूरी होने पर अपने नवजात शिशु को लेकर माता के दर्शन को आती हैं।
अन्य जानकारी जम्मू की वैष्णो देवी के समान ही उत्तराखंड की इस वैष्णवी शक्ति की प्रसिद्धि है, लेकिन प्रचार-प्रसार के अभाव में राष्ट्रीय स्तर पर इसकी महत्ता उभर कर नहीं आ पाई है।

दुनागिरि शक्तिपीठ उत्तराखंड के अल्मोड़ा में स्थित है। यह हिमालय की गोद में बसा हुआ बहुत प्राचीन स्थल है। जम्मू की वैष्णो देवी की ही तरह यह भी एक सिद्ध शक्तिपीठ है। इस शक्तिपीठ का पता बहुत बाद में लग पाया। यह शक्तिपीठ सती के अंग पतन से निर्मित नहीं हुआ, बल्कि यह स्वयंभू शक्तिपीठ है। यहाँ कोई मूर्ति नहीं है। प्राकृतिक रूप से निर्मित सिद्ध पिण्डियां माता भगवती के रूप में पूजी जाती हैं। ऐसी मान्यता है कि इस शक्तिपीठ में जो कोई भी शुद्ध बुद्धि से आता है और सच्चे मन से कामना करता है, वह अवश्य पूरी होती है।

स्थिति

अल्मोड़ा से 65 कि.मी. और रानीखेत से 38 कि.मी. दूर, द्वाराहाट से 14 कि.मी. की ऊंचाई पर स्थित दुनागिरि को गोपनीय शक्तिपीठ माना जाता है। यही कारण है कि 51 शक्तिपीठों में इसकी गणना नहीं की जाती। उत्तराखंड का समस्त भूभाग आध्यात्मिक महिमा से मंडित और नैसर्गिक प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है। यहां देवी-देवताओं के कई सिद्ध पीठ हैं। भारत में वैष्णवी शक्तिपीठ के नाम से विख्यात दो शक्तिपीठ हैं और दोनों हिमालय में ही विद्यमान हैं। उनमें से एक जम्मू-कश्मीर में स्थित वैष्णो देवी और दूसरा उत्तराखंड में स्थित द्रोणगिरि के नाम से प्रसिद्ध है। लोकमानस में इसे 'दुनागिरि' के नाम से जाना जाता है।[1]

जम्मू की वैष्णो देवी के समान ही उत्तराखंड की इस वैष्णवी शक्ति की प्रसिद्धि है, लेकिन प्रचार-प्रसार के अभाव में राष्ट्रीय स्तर पर इसकी महत्ता उभर कर नहीं आ पाई है। जम्मू स्थित वैष्णो देवी की गुफ़ा में देवी भगवती ने असुरों का संहार कर घोर तपस्या की थी और दुनागिरि शक्तिपीठ में उसी महाशक्ति ने उमा हैमवती का रूप धारण कर इंद्र आदि देवताओं को ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया था। यहां देवी भगवती के दो सिद्ध शिला विग्रह हैं।

पर्वत श्रृंखलाएँ

दुनागिरि के शिखर पर पहुंचते ही विराट हिमालय की गगनचुंबी पर्वत श्रृंखलाएं अत्यंत निकट दिखाई देती हैं। ऐसा लगता है वास्तव में हम हिमालय के आंगन में पहुंच गए हों। प्रकृति की छटाएं जहां मन को मोहित कर आत्मविभोर कर देती हैं, वहीं वे भावभक्ति से परिपूर्ण अलौकिक अनुभूति जगत् जननी भगवती के चरणों के प्रति प्रगाढ़ होती चली जाती है।

पौराणिक कथा

इस शक्तिपीठ के उद्भव के बारे में एक पौराणिक कथा के अनुसार- "पद्यकल्प में असुरों ने इन्द्र आदि देवताओं को पराजित करके उनके संपूर्ण अधिकार जब स्वयं हस्तगत कर लिए तो ब्रह्मा के नेतृत्व में सभी देवताओं ने हिमालय में महादेव एवं विष्णु को अपनी व्यथा सुनाई। देवताओं की रक्षा करने के लिए भगवान विष्णु के शरीर से एक दिव्य तेजपुंज प्रकट हुआ, जिससे ‘वैष्णवी शक्ति’ का जन्म हुआ। इस ‘वैष्णवी शक्ति’ ने सिंह की सवारी करके असुरों का संहार कर देवताओं की रक्षा की। यही वैष्णवी शक्ति दुनागिरि की अधिष्ठात्री देवी हुई।" कुमाऊं के शक्ति मंदिरों में दुनागिरि अत्यंत प्राचीन और ऐतिहासिक शक्तिपीठ है। इस शक्तिपीठ की गणना शक्ति के प्रधान उग्र पीठों में भी होती है। स्कंद पुराण के ‘मानस खंड’ के 'द्रोणाद्रिमाहात्म्य' के अनुसार यह देवी शिव की शक्ति हैं, क्योंकि उसे ‘महामाया हरप्रिया’ के रूप में वर्णित किया गया है। इसी सिंह वाहिनी दुर्गा को ‘वह्निमती’ के रूप में जाना जाता है।[1]

एक अन्य कथा के अनुसार एक गाय इस स्थान पर अपना दूध निथार कर चली जाती थी। एक दिन देवी ने स्वप्न में एक ग्वाले को दर्शन दिए। सपने में देवी से प्राप्त मार्गदर्शन के अनुसार प्रातःकाल ग्वाला उस स्थान पर गया और उसने देखा वहां दो प्रस्तर शिलाएं विद्यमान हैं। ग्वाले ने वहां पर श्रद्धापूर्वक देवी भगवती की पूजा-अर्चना की। तभी से इस शक्तिपीठ का गुप्त रहस्य सार्वजनिक हो गया और दुनागिरि पूरे हिमालय क्षेत्र में पूजी जाने लगी।

देवी की ख्याति

कत्यूरी राजाओं ने दुनागिरि देवी के अव्यक्त विग्रहों को रूपाकृति प्रदान की। उन्होंने इस मंदिर में गणेश, शिव एवं पार्वती के कलात्मक भित्तिचित्रों को स्थापित किया। दुनागिरि देवी की महिमा दूर-दूर तक फैली हुई है।

  • उत्तराखंड के नवविवाहित जोड़े यहां माता का आशीर्वाद लेने अवश्य आते हैं।
  • गृहस्थ लोग अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए दूर-दूर से यहां आते हैं।
  • ऐसी मान्यता है कि सच्चे मन से दर्शनों को आने वाले श्रद्धालुओं की कामना माता दुनागिरि अवश्य पूर्ण करती है। मनोकामना पूर्ण होने के बाद माता के दरबार में चढ़ाई गई सैकड़ों घंटियां इस बात का प्रमाण हैं।
  • भक्तजन दुनागिरि देवी की पूजा एक सुहागिन देवी के रूप में करते हैं, इसलिए चूड़ी, चरेऊ, सिंदूर आदि श्रृंगार की वस्तुएं पूजा सामग्री में अवश्य ले जाते हैं।
  • अश्विन नवरात्रों में सप्तमी की रात को पुत्र प्राप्ति की कामना से महिलाएं दुनागिरि देवी के प्रांगण में सारी रात जलता हुआ दीपक हाथ में लेकर खड़ी रह कर मनौती मांगती हैं और मनौती पूरी होने पर अपने नवजात शिशु को लेकर माता के दर्शन को आती हैं। अश्विन नवरात्र में दुर्गाष्टमी को यहां बहुत बड़ा मेला लगता है।[1]

कैसे पहुँचें

पहले इस शक्तिपीठ तक आ पाना काफ़ी मुश्किल था। अब यहां आसानी से जाया जा सकता है। अल्मोड़ा और रानीखेत दोनों स्थान सड़क मार्ग से सभी जगहों से जुड़े हुए हैं। वहां से द्वाराहाट जाना होता है। द्वाराहाट से मंगलीखान के लिए जीप सेवा हर समय उपलब्ध रहती है। मंगलीखान से ऊपर लगभग एक किलोमीटर तक सीढ़ियों का रास्ता बना है। ‘श्री दुनागिरि मंदिर सुधार समिति’ की ओर से यात्रियों के उचित मार्गदर्शन हेतु एक व्यवस्थापक की नियुक्ति की गई है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 दुनागिरि:एक रहस्यमय शक्तिपीठ (हिन्दी) फ्यूचर समाचार। अभिगमन तिथि: 27 सितम्बर, 2014।

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