पदार्थ मीमांसा -जैन दर्शन

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जैन दर्शन में उक्त सात तत्त्वों में पुण्य और पाप को सम्मिलित कर देने पर नौ पदार्थ कहे गए हैं।[1] इन नौ पदार्थों का प्रतिपादन आचार्य कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय (गाथा 108) में सर्वप्रथम दृष्टिगोचर होता है। उसके बाद नेमिचन्द्र सिद्धांतिदेव ने भी उनका अनुसरण किया है।[2] तत्त्वार्थ सूत्रकार ने सात तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यक्दर्शन कहकर उन सात तत्त्वों की ही प्ररूपणा की है। नौ पदार्थों की उन्होंने चर्चा नहीं की[3] यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र के आठवें अध्याय के अन्त में उन्होंने पुण्य और पाप दोनों का कथन किया है। किन्तु वहाँ उनका पदार्थ के रूप में निरूपण नहीं है। बल्कि बंधतत्त्व का वर्णन करने वाले इस अध्याय में समग्र कर्म प्रकृतियों को पुण्य और पाप दो भागों में विभक्तकर साता वेदनीय, शुभायु:, शुभनाम और शुभगोत्र को पुण्य तथा असातावेदनीय, अशुभायु:, अशुभनाम और अशुभगोत्र को पाप कहा है।[4] ध्यान रहे यह विभाजन अघातिप्रकृतियों की अपेक्षा है, घातिप्रकृतियों की अपेक्षा नहीं, क्योंकि वे सभी (47) पाप-प्रकृतियां ही हैं।)


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जीवा जीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं। संवर-णिज्जर बंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठ॥–पंचास्ति., गा. 108
  2. द्रव्य सं. गा. 28 । 'इह पुण्यपापग्रहणं कर्त्तव्यम्, नव पदार्था इत्यन्यैरप्युक्तत्वान्॥
  3. तत्त्व सूत्र 1-4
  4. तत्त्व सूत्र 8-25, 26

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