द्रव्य मीमांसा -जैन दर्शन

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वैशेषिक, भाट्ट और प्रभाकर दर्शनों में द्रव्य और पदार्थ दोनों को स्वीकार कर उनका विवेचन किया गया है। तथा सांख्य दर्शन और बौद्ध दर्शनों में क्रमश: तत्त्व और आर्य सत्यों का कथन किया गया है, वेदान्त दर्शन में केवल ब्रह्म (आत्मतत्व) और चार्वाक दर्शन में भूत तत्त्वों को माना गया है, वहाँ जैन दर्शन में द्रव्य, पदार्थ, तत्त्व, और अस्तिकाय को स्वीकार कर उन सबका पृथक-पृथक् विस्तृत निरूपण किया गया है।[1]

  • जो ज्ञेय के रूप में वर्णित है और जिनमें हेय-उपादेय का विभाजन नहीं है पर तत्त्वज्ञान की दृष्टि से जिनका जानना ज़रूरी है तथा गुण और पर्यायों वाले हैं एवं उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त हैं, वे द्रव्य हैं।
  • तत्त्व का अर्थ मतलब या प्रयोजन है। जो अपने हित का साधक है वह उपादेय है और जो आत्महित में बाधक है वह हेय है। उपादेय एवं हेय की दृष्टि से जिनका प्रतिपादन के उन्हें तत्त्व कहा गया है।
  • भाषा के पदों द्वारा जो अभिधेय है वे पदार्थ हैं। उन्हें पदार्थ कहने का एक अभिप्राय यह भी है कि 'अर्थ्यतेऽभिलष्यते मुमुक्षुभिरित्यर्थ:' मुमुक्षुओं के द्वारा उनकी अभिलाषा की जाती है, अत: उन्हें अर्थ या पदार्थ कहा गया है।
  • अस्तिकाय की परिभाषा करते हुए कहा है कि जो 'अस्ति' और 'काय' दोनों है। 'अस्ति' का अर्थ 'है' है और 'काय' का अर्थ 'बहुप्रदेशी' है अर्थात् जो द्रव्य है' होकर कायवाले- बहुप्रदेशी हैं, वे 'अस्तिकाय' हैं।[2] ऐसे पाँच द्रव्य हैं-
  1. पुद्गल,
  2. धर्म,
  3. अधर्म,
  4. आकाश और
  5. जीव,
  6. कालद्रव्य एक प्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं है।

द्रव्य का स्वरूप

आचार्य कुन्दकुन्द[3] और गृद्धपिच्छ[4] ने द्रव्य का स्वरूप दो तरह से बतलाया है। एक है, जो सत है वह द्रव्य है और सत वह है जिसमें उत्पाद (उत्पत्ति), व्यय (विनाश) और ध्रौव्य (स्थिति) ये तीनों पाये जाते हैं। विश्व की सारी वस्तुएँ इन तीन रूप हैं। उदाहरणार्थ एक स्वर्ण घट को लीजिए। जब उसे मिटाकर स्वर्णकार मुकुट बनाता है तो हमें घट का विनाश, मुकुट का उत्पाद और स्वर्ण के रूप में उसकी स्थिति तीनों दिखायी देते हैं। इसका सबसे बड़ा साक्ष्य (प्रमाण) यह है[5] कि घट चाहने वाले को उसके मिटने पर शोक, मुकुट चाहने वाले को मुकुट बनने पर हर्ष और स्वर्ण चाहने वाले को उसके मिटने पर न शोक होता है और मुकुट बनने पर न हर्ष होता है किन्तु वह मध्यस्थ (शोक-हर्ष विहीन) रहता है, क्योंकि वह जानता है कि स्वर्ण दोनों अवस्थाओं में विद्यमान रहता है।

द्रव्य के भेद

मूलत: द्रव्य के दो भेद हैं[6]-

  1. जीव और
  2. अजीव।
  • चेतन को जीव और अचेतना को अजीव द्रव्य कहा गया है। तात्पर्य यह कि जिसमें चेतना पायी जाती है वह जीव द्रव्य है और जिसमें चेतना नहीं है वह अजीव द्रव्य है। चेतना का अर्थ है जिसके द्वारा जाना और देखा जाए और इसलिए उसके दो भेद कहे हैं-
  1. ज्ञान चेतना और
  2. दर्शन चेतना। ज्ञान चेतना को ज्ञानोपयोग और दर्शनचेतना को दर्शनोपयोग भी कहते हैं। व्यवसायात्मक रूप से जो वस्तु का विशेष ग्रहण होता है वह ज्ञानचेतना अथवा ज्ञानोपयोग है और अव्यवसाय (विकल्परहित) रूप से जो पदार्थ का सामान्य ग्रहण होता है वह दर्शनचेतना अथवा दर्शनोपयोग है। पूज्यपाद-देवनंदि ने कहा है[7] 'साकारं ज्ञानं निराकारं दर्शनम्' आकार विकल्प सहित ग्रहण का नाम ज्ञान है और आकार रहित ग्रहण का नाम दर्शन है।

जीवद्रव्य और उसके भेद

जीवद्रव्य दो वर्गों में विभक्त है[8]-

  1. संसारी और
  2. मुक्त।
  • संसारी जीव वे हैं, जो संसार में जन्म-मरण–व्याधि आदि के चक्र में फँसे हुए हैं। ये नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव-इन चारों गतियों में बार-बार पैदा होते और मरते हैं तथा जैसा उनका कर्मविपाक होता है तदनुसार वे वहाँ अच्छा-बुरा फल भोगते हैं। ये दो तरह के हैं[9]-
  1. त्रस और
  2. स्थावर।
  • दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रिय के भेद से जीव चार प्रकार के हैं।[10] दो इन्द्रिय आदि जीवों की भी अनेक जातियाँ हैं। उदाहरण के लिए पंचेन्द्रिय जीवों को लें। इनके दो भेद हैं[11]
  1. संज्ञी,
  2. असंज्ञी।
  • जिनके मन पाया जाए वे संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव कहे जाते हैं। मनुष्य, देव, और नारकी संज्ञी पंचेन्द्रिय ही होते हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव वे हैं जिनके मन न हो और जो सोच-विचार न कर सकते हों तथा न शिक्षा ग्रहण कर सकते हों। तिर्यंचगति में एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी, संज्ञी पंचेद्रिय सभी प्रकार के जीव होते हैं।
  • संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के भी तीन भेद हैं-
  1. जलचर- जल में रहने वाले मगर, मत्स्य आदि।
  2. थलचर- ज़मीन पर चलने वाले गाय, भैंस, गदहा, शेर, हाथी आदि और
  3. नभचर- आकाश में उड़ने वाले कौआ, कोयल, कबूतर, चिड़िया आदि पक्षी।
  • जिनके मात्र एक स्पर्शन इन्द्रिय, स्पर्श बोध कराने वाली इन्द्रिय पायी जाती है, वे स्थावर जीव हैं।[12] ये पांच प्रकार के होते हैं।–
  1. पृथ्वी-कायिक,
  2. जलकायिक,
  3. अग्निकायिक,
  4. वायुकायिक और
  5. वनस्पतिकायिक।
  • मुक्तजीव वे कहे गए हैं[13] जो संसार के बंधनों और दु:खों से छूट मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। जैन दर्शन में ऐसे जीवों को 'परम-आत्मा' परमात्मा कहा गया है। ये दो प्रकार के होते हैं-
  1. सकल परमात्मा (आप्त), और
  2. निकल परमात्मा (सिद्ध)।
  • जिनका कुछ कल अवशेष है वे सकल परमात्मा, जीवन मुक्त ईश्वर हैं। जिनका वह कल, अघाति कर्ममल दूर हो जाता है वे नि: निर्गत:- निष्क्रान्त: कलोऽघातिचतुष्टयरूपो येषाम् ते, निकल परमात्मा, सिद्ध परमेष्ठी है।

अजीवद्रव्य और उसके भेद

चेतना-रहित द्रव्य अजीव द्रव्य है। इसे निर्जीव जड़, अचेतन आदि नामों से भी कहा जाता है। जैसे- काष्ठ, लोष्ठ आदि। इसके पांच भेद हैं[14]-

  1. पुद्गल
  2. धर्म
  3. अधर्म
  4. आकाश
  5. काल। इनमें पुद्गल तो सभी के नेत्र आदि पांचों इन्द्रियों द्वारा अनुभव में अहर्निश आता है। शेष चार द्रव्य अतीन्द्रिय हैं। जीव और पुद्गल की गति, स्थिति, आधार और परिणमन में अनिवार्य निमित्त (सहायक) होने से उनकी उपयोगिता एवं आवश्यकता सिद्ध है। तथा युक्ति और आगम से भी वे सिद्ध हैं।
  • पुद्गल[15]- जो पूरण-गलन (बनने-मिटने) के स्वभाव को लिए हुए है, उसे पुद्गल कहा गया है। जैसे घड़ा, कपड़ा, चटाई मकान, वाहन आदि। यह सूक्ष्म और स्थूल अथवा अणु और स्कन्ध के रूप में समस्त लोक में पाया जाता है। यह इन्द्रिय ग्राह्य और इन्द्रिय-अग्राह्य दोनों प्रकार का है। इसमें रूप, रस, गन्ध, और स्पर्श पाये जाते हैं, जो उस के गुण हैं।
  1. रूप पांच प्रकार का है- काला, पीला, नील, लाल और सफ़ेद। इन्हें यथा योग्य मिलाकर और रूप भी बनाये जा सकते हैं। इनका ज्ञान चक्षु:इन्द्रिय से होता है।
  2. रस भी पांच तरह का है- खट्टा, मीठा, कडुवा, कषायला और चर्परा। इनका ग्रहण रसना (जिह्वा) इन्द्रिय से होता है।
  3. गन्ध दो प्रकार का है- सुगन्ध और दुर्गन्ध। इन दोनों गन्धों का ज्ञान घ्राण (नासिका) इन्द्रिय से होता है।
  4. स्पर्श के आठ भेद हैं- कड़ा, नरम, हलका, भारी, ठंडा, गर्म, चिकना और रूखा। इन आठों स्पर्शों का ज्ञान स्पर्शन इन्द्रिय से होता है। ये रूपादि बीस गुण पुद्गल में ही पाये जाते हैं[16], अन्य द्रव्यों से नहीं। अत: पुद्गल को ही रूपी (मूर्तिक) और शेष द्रव्यों को अरूपी (अमूर्तिक) कहा गया है।
  • धर्म-द्रव्य- यह द्रव्य[17] गमन करते हुए जीवों और पुद्गलों की गति में उदासीन (सामान्य) सहायक उसी प्रकार होता है जिस प्रकार मछली की गति में जल, रेल के चलने में रेल की पटरी अथवा वृद्ध के गमन में लाठी। यह द्रव्य 'तिलेषु तैलम्' की तरह लोक में सर्वत्र व्याप्त है। इसके बिना कोई भी जीव या पुद्गल गति नहीं कर सकता। इसके कुम्हार के चाक की कीली आदि और उदाहरण दिये जा सकते हैं।
  • अधर्म द्रव्य- यह[18] धर्म द्रव्यसे विपरीत है। यह जीवों और पुद्गलों की स्थिति (ठहरने) मं सामान्य निमित्त है। जैसे वृक्ष की छाया पथिकको ठहरने में सहायक होती है अथवा यात्री को धर्मशाला या स्टेशन। ध्यातव्य है कि यह अधर्म द्रव्य और उपर्युक्त धर्मद्रव्य दोनों अप्रेरक निमित्त हैं[19] और अतीन्द्रिय हैं तथा दोनों पुण्य एवं पापरूप धर्म-अधर्म नहीं है- उनसे ये दोनों पृथक् हैं।
  • आकाश-द्रव्य[20]- यह जीव आदि सभी (पांचों) द्रव्यों को अवकाश देता है। सभी द्रव्य इसी में अवस्थित हैं। अत: सबके अवस्थान में यह सामान्य निमित्त हैं यह दो भागों में विभक्त है[21]
  1. लोकाकाश
  2. आलोकाकाश

जितने आकाश में, जो उसका असंख्यात वां भाग है, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल ये पांच द्रव्य पाये जाते हैं वह लोकाकाश है और उसके चारों ओर केवल एक आकाश द्रव्य है और जो चारों ओर अनन्त-अनन्त है वह अलोकाकाश हे। यह इसकी अवगाहन शक्ति की विशेषता है कि असंख्यात प्रदेशी लोकाकाश में अनन्तानन्त जीव, अनन्तानन्त पुद्गल, असंख्यात कालाणू, एक असंख्यात प्रदेशी धर्मद्रव्य और एक असंख्यात प्रदेशी अधर्म द्रव्य ये सब परस्पर के अविरोधपूर्वक अवस्थित हैं। अलोकाकाश में आकाश के सिवाय अन्य कोई द्रव्य नहीं है।

  • कालद्रव्य- यह[22]द्रव्यों की वर्तना, परिणमन, क्रिया, परत्व (ज्येष्ठत्व) और अपरत्व (कनिष्ठत्व) के व्यवहार में सहायक (उदासीन-अप्रेरक निमित्त) होता है। यह द्रव्य न हो, तो जीवों में बाल्य, युवा, वार्धक्य और पुद्गलों में नवीनता, जीर्णता जैसा परिवर्तन, ऋतु-पलटन, दिन-रात पक्ष-मास-वर्ष आदि का विभाग, आयु की अपेक्षा ज्येष्ठ-कनिष्ठ आदि का व्यवहार सम्भव नहीं है। यह दो प्रकार का है-
  1. निश्चय काल
  2. व्यवहारकाल

जो द्रव्यों की वर्त्तना (सत्ता) में निमित्त है वह निश्चय काल अथवा परमार्थ काल है तथा जो द्रव्यों के परिवर्तन आदि से जाना जाता है वह व्यवहार काल है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं नवपदसहितं जीवषट्काय - लेश्या:, पंचान्ये चास्तिकाया व्रत समिति-गति-ज्ञान- चारित्रभेदा:। इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितै: प्रोक्तमर्हदिभरीशै: प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् य: स वै शुद्धदृष्टि:॥ - स्तवनसंकलन।
  2. पंचास्तिकाय, गा. 4-5 द्रव्य सं. गा. 24
  3. पंचास्तिकाय, गा. 10
  4. तत्त्व सूत्र 5-29, 30
  5. घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्। शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम्॥– समन्तभद्र, आप्तमी. का 59
  6. द्रव्यसं. गा. 1, त.सू. 5-1, 2, 3
  7. सर्वार्थसिद्धि 2-9
  8. तत्त्व सूत्र 2-10, पंचास्तिकाय, गा. 109
  9. तत्त्व सूत्र 2-12
  10. तत्त्व सूत्र 2-14
  11. तत्त्व सूत्र 2-11, 24
  12. तत्त्वार्थसूत्र 2-13, 22। द्रव्यसं. गा. 11
  13. द्रव्यसं., गा. त.सू. 10-1, 2, 3
  14. तत्त्व सूत्र 5-1, 2, 4, द्रव्यसं. गा. 15
  15. तत्त्व सूत्र 5-5, द्रव्यसं. गर. 15, 16
  16. द्रव्यसं. गा. 15, त.सू. 5-23
  17. द्रव्य. सं. गा. 17, त.सू. 5-17, पंचास्ति. 85
  18. द्रव्यसंग्रह गा. 18, त.सू. 5-17 पंचास्ति गा. 86
  19. पंचास्ति, गा. 88, 89, द्रव्यसं. गा. 17, 18
  20. द्रव्यं सं. गा. 19, त.सू. 5-18, पंचास्ति. गा. 90
  21. पंचास्ति गा. 91, द्रव्यसं. गा. 20
  22. पंचास्ति गा. 100, द्रव्य सं. गा. 21, 22

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