अनेकान्त विमर्श -जैन दर्शन

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जैन दर्शन में 'अनेकान्त' जैनदर्शन का उल्लेखनीय सिद्धान्त है। वह इतना व्यापक है कि वह लोक (लोगों) के सभी व्यवहारों में व्याप्त है। उसके बिना किसी का व्यवहार चल नहीं सकता। आचार्य सिद्धसेन ने कहा है[1] कि लोगों के उस आद्वितीय गुरु अनेकान्तवाद को हम नमस्कार करते हैं, जिसके बिना उनका व्यवहार किसी तरह भी नहीं चलता। अमृतचन्द्र उसके विषय में कहते है[2] कि अनेकान्त परमागम जैनागम का प्राण हे और वह वस्तु के विषय में उत्पन्न एकान्तवादियों के विवादों को उसी प्रकार दूर करता है जिस प्रकार हाथी को लेकर उत्पन्न जन्मान्धों के विवादों को उसी प्रकार दूर करता है जिस प्रकार हाथी को लेकर उत्पन्न जन्मान्धों के विवादों को सचक्षु: (नेत्रवाला) व्यक्ति दूर कर देता है। समन्तभद्र का कहना है[3] कि वस्तु को अनेकान्त मानना क्यों आवश्यक है? वे कहते हैं कि एकान्त के आग्रह से एकान्त समझता है कि वस्तु उतनी ही है, अन्य रूप नहीं है, इससे उसे अहंकर आ जाता है और अहंकार से उसे राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते हैं, जिससे उसे वस्तु का सही दर्शन नहीं होता। पर अनेकान्ती को एकानत का आग्रह न होने से उसे न अहंकार पैदा होता है और न राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते हैं। फलत: उसे उस अनन्तधर्मात्मक अनेकान्त रूप वस्तु का सम्यक्दर्शन होता है, क्योंकि एकान्त का आग्रह न करना दूसरे धर्मों को भी उसमें स्वीकार करना सम्यग्दृष्टि का स्वभाव है। और इस स्वभाव के कारण ही अनेकान्ती के मन में पक्ष या क्षोभ पैदा नहीं होता, वह साम्य भाव को लिए रहता है।

अनेकान्त के भेद

अनेकान्त दो प्रकार का है-

  1. सम्यगनेकान्त
  2. मिथ्या अनेकान्त

परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशन करने वाला सम्यगनेकान्त है अथवा सापेक्ष एकान्तों का समुच्चय सम्यगनेकान्त है[4] निरपेक्ष नाना धर्मों का समूह मिथ्या अनेकान्त है। एकान्त भी दो प्रकार का है-

  1. सम्यक एकान्त
  2. मिथ्या एकान्त

सापेक्ष एकान्त सम्यक एकान्त है। वह इतर धर्मों का संग्रहक है। अत: वह नय का विषय है और निरपेक्ष एकान्त मिथ्या एकान्त है, जो इतर धर्मों का तिरस्कारक है वह दुनर्य या नयाभास का विषय है। अनेकान्त के अन्य प्रकार से भी दो भेद कहे गये हैं।[5]

  1. सहानेकान्त
  2. क्रमानेकान्त

एक साथ रहने वाले गुणों के समुदाय का नाम सहानेकान्त है और क्रम में होने वाले धर्मों-पर्यायों के समुच्चय का नाम क्रमानेकान्त है। इन दो प्रकार के अनेकान्तों के उद्भावक जैन दार्शनिक आचार्य विद्यानंद हैं। उनके समर्थक वादीभसिंह हैं। उन्होंने अपनी स्याद्वादसिद्धि में इन दोनों प्रकार के अनेकान्तों का दो परिच्छेदों में विस्तृत प्रतिपादन किया है। उन के नाम हैं- सहानेकान्तसिद्धि और क्रमानेकान्त सिद्धि। अनेकान्त को मानने में कोई विवाद होना ही नहीं चाहिए। जो हेतु[6] स्वपक्ष का साधक होता है वही साथ में परपक्ष का दूषक भी होता है। इस प्रकार उसमें साधकत्व एवं दूषकत्व दोनों विरुद्ध धर्म एक साथ रूपरसादि की तरह विद्यमान हैं। सांख्यदर्शन, प्रकृति को सत्त्व, रज और तमोगुण रूप त्रयात्मक स्वीकार करता है और तीनों परस्पर विरुद्ध है तथा उनके प्रसाद-लाघव, शोषण-ताप, आवरण-सादन आदि भिन्न-भिन्न स्वभाव हैं और सब प्रधान रूप हैं, उनमें कोई विरोध नहीं है।[7] वैशेषिक द्रव्यगुण आदि को अनुवृत्ति-व्यावृत्ति प्रत्यय कराने के कारण सामान्य-विशेष रूप मानते हैं। पृथ्वी आदि में 'द्रव्यम्' इस प्रकार का अनुवृत्ति प्रत्यय होने से द्रव्य को सामान्य और 'द्रव्यम् न गुण:, न कर्म, आदि व्यावृत्ति प्रत्यय का कारण होने से उसे विशेष भी कहते हैं और इस प्रकार द्रव्य एक साथ परस्पर विरुद्ध सामान्य-विशेष रूप माना गया है।[8] चित्ररूप भी उन्होंने स्वीकार किया है, जो परस्पर विरुद्ध रूपों का समुदाय है। बौद्ध दर्शन में भी एक चित्रज्ञान स्वीकृत है, जो परस्परविरुद्ध नीलादि ज्ञानों का समूह है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडइ।
    तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमोऽणेयंत वायस्स॥ - सिद्धसेन।
  2. परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यन्ध- सिन्धुरविधानम्।
    सकल-नय-विलसितानां विरोधमथानं नमाम्यनेकान्तम्॥ -अमृतचन्द्र, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, श्लो. 1।
  3. एकान्त धर्माभिनिवेशमूला रागादयोऽहं कृतिजा जनानाम्।
    एकान्तहानाच्च स यत्तदेव स्वाभाविकत्वाच्च समं मनस्ते॥ - समन्तभद्र, युक्तयनुशासन कारिका 51
  4. समन्तभद्र, आप्तमी., का. 107
  5. विद्यानन्द तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 5-38-2
  6. एकस्य हेतो: साधक दूषकत्वाऽविसंवादवद्धा'- त.वा. 1-6-13
  7. 'केचित्तावदाहु:- सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रधानमिति, तेषां
    प्रसादलाघवशोषतापावरणासादनादिभिन्नस्वभावानां प्रधानात्मनां मिथश्च न विरोध:।'
  8. अपरे मन्यन्ते- अनुवृत्तिविनिवृत्तिबुद्धयभिधानलक्षण: सामान्यविशेष इति। तेषां च सामान्यमेव विशेष: सामान्यविशेष इति। एकस्यात्मन उभयात्मकत्वं न विरुध्यते। त.वा. 1-6-14 । 2. समन्तभद्र, आप्तमी. का 104

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