ईथर

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ईथर सलफ्यूरिकस (जिस नाम से यह चिकित्सा के क्षेत्र में विख्यात है) एथिल एल्कोहल और सलफ्यूरिक अम्ल के योग से बनाया जाता है। एथिल और ईथर दोनों ही शब्द लैटिन ईथर अथवा यूनानी एथीन शब्दों से निकले हैं, जिनका अर्थ ज्वलन या जलाना है। यह कहना कठिन है कि सबसे पहले ईथर किसने तैयार किया। 13 वीं शती का रसायनज्ञ, रेमंड लली, इसके बनाने की विधि से परिचित था। बाद को बेसिल वैलेंटाइन और वेलेरियस कॉर्डस के लेखों में भी ईथर और उसके गुणधर्मो का उल्लेख पाया जाता है। पर ईथर नाम इस द्रव्य को बाद में ही मिला। वस्तुत: 1730 ई. में जर्मनी के फ्रोबेन ने इसको ईथरियस स्पिरिटस नाम दिया।

रसायनशास्त्र की वर्तमान शब्दावली में उस वर्ग के समस्त यौगिकों को ईथर कहा जाता है जो पानी के अणु के दोनों हाइड्रोजनों को ऐलकिल मूलकों द्वारा प्रतिस्थापित करके बनते हैं। पानी के अणु का यदि एक ही हाइड्रोजन ऐलकिल मूलक द्वारा प्रतिस्थापित हो तो ऐलकोहल वर्ग के यौगिक बनते हैं

H-O-H R-O-H R-O-R

पानी ऐलकोहल ईथर

यहाँ (R) का अर्थ कोई ऐलकिल मूलक, जैसे (CH3) (C2H5),(C3H7), इत्यादि। इस रचना के अनुसार हम ईथरों को डाइऐलकिल आक्साइड भी कह सकते हैं। यदि किसी ईथर के अणु में दोनों ऐलकिल मूलक एक ही हों, अर्थात (R-R), तो इन्हें सरल ईथर कहा जाता है, पर यदि दोनों मूलक भिन्न भिन्न हो तो इन्हें मिश्रित ईथर कहते हैं। कुछ सरल ईथरों के क्वथनांक नीचे दिए जाते हैं-

ईथर सूत्र क्वथनांक

द्वि-मेथिल ईथर CH3-O-CH3 -23.6°

द्वि-एथिल ईथर C2H5-O-C2H5 +34.6°

द्वि-प्रोपिल ईथर C3H7-O-C3H7 +90.7°

द्वि-नार्मल-ब्यूटिल ईथर C4H9-O-C4H9 +141°

द्वि-आइसो-एमिल-ईथर C5H11-O-C5-H11 61+61°

(10 मि.मी.)

हमारा साधारण प्रचलित ईथर द्विएथिल ईथर है और यह एथिल ऐलकोहल और सलफ्यूरिक अम्ल के योग से तैयार किया जाता है। प्रसिद्ध रसायनज्ञ विलियमसन ने सर्वप्रथम उन सब अभिक्रियाओं का विस्तृत अध्ययन किया जिनके द्वारा ऐलकोहल ईथर में परिणत हो जाता है। पहले तो ऐलकोहल सल्फ्यूरिक अम्ल से संयुक्त होकर एथिल हाइड्रोजन सलफेट बनाता है-

C2H5OH+H.HSO4-- C2H5.H.SO4+H2O

(एथिल हाइड्रोजन सलफेट)

यह एथिल हाइड्रोजन सलफेट ऐलकोहल के दूसरे अणु से संयुक्त होकर ईथर देता है और सलफ्यूरिक अम्ल फिर मुक्त हो जाता है-

C2H5.H.SO4+C2H5OH--C2H5.O.C2H5+H2SO4

इस प्रकार अभिक्रिया दो पदों में समाप्त होती है। ऐलकोहल में जब सांद्र सलफ्यूरिक अम्ल मिलाया जाता है तो उष्मा उत्पन्न होती है और मिश्रण गरम हो उठता है। बाहर से गरम करके ताप और ऊँचा किया जाता है और ऐसा करने पर ईथर का आसवन आरंभ होता है। साथ ही साथ भभके में ऐलकोहल की धार सतत पड़ती जाती है। उष्मा इस प्रकार नियमित रखते हैं कि ताप 130° सें. के निकट स्थायी बना रहे। जब सलफ्यूरिक अम्ल के आयतन का पाँच गुना ऐलकोहल क्रिया कर चुकता है, तो ताप राप 141° सें. तक बढ़ा देते हैं। इस प्रकार जो ईथर मिलता है उसमें कुछ ऐलकोहल, कुछ सलफ्यूरिक अम्ल और कुछ पानी भी मिला होता है। कैलसियम क्लोराइड मिलाकर पानी अलग कर दिया जाता है और दो तीन बार पुन: आसवन करके शुद्ध ईथर प््त कर लिया जाता है।

ईथर (द्वि-एथिल ईथर) निरंग, पारदर्शक, वाष्पशील द्रव है, इसका वर्तनांक भी काफी ऊँचा है। इसमें एक विशिष्ट गंध होती है। इसके वाष्पों को अधिक देर तक सूँघा जाए तो निश्चेतना या मूर्छा आ जाती है। यदि शरीर के किसी अंग पर ईथर डाला जाए तो वह शीघ्र उड़ जाता है और ठंडक प्रतीत होती है। इसका स्वाद आरंभ में तो जलता सा पर बाद में ठंडा सा प्रतीत होता है। 15.5° सें. ताप पर इसका आपेक्षिक घनत्व 0.72 है, अर्थात्‌ यह पानी से हलका है। 34.6° पर यह उबलता है और हवा इसकी भाप से ढाई गुना भारी होती है। यदि द्रव को-129° सें. तक ठंडा किया जाए तो यह जमकर हिम बन जाता है। ईथर पानी के साथ अंशत: मिश्र्‌य है और इसका 12 प्रतिशत के लगभग पानी में घुल जाता है। ईथर में भी पानी थोड़ा विलेय है। ईथर बहुत अधिक ज्वलनशील है। इसका वाष्प तत्काल आग पकड़ लेता है, अत: इसे आग से दूर रखना चाहिए। जब यह जलता है तो इसकी ज्वाला पीत श्वेत रंग की होती है। भारतवर्ष की ग्रीष्मऋतु के ताप पर यह उड़ जाता है, अत: इसे शीत कमरों में रखना आवश्यक है।

वसा, मज्जा और तेलों के घोलने के लिए ईथर बहुत ही अच्छा विलायक है और इस गुण के कारण ईथर का उपयोग रसायनशालाओं में विलायक के रूप में बहुत किया जाता है। तेलहनों की खली को यदि ईथर द्वारा क्षुब्ध किया जाए, तो खली का समस्त तेल ईथर में घुल जाएगा, और आसवन करके ईथर और तेल अलग किए जा सकेंगे। ईथर में आयोडीन, गंधक, फासफरस एवं स्ट्रिकनिन आदि ऐलकलायड भी विलेय हैं।

ईथर का उपयोग हिममिश्रण तैयार करने में भी किया जाता है। ठोस कार्बन डाइआक्साइड और ईथर के मिश्रण द्वारा अति नीचा ताप उपलब्ध हो सकता है।

यदि मनुष्य अथवा पशुओं को ईथर का सेवन कराया जाए, तो आरंभ में तो मादक उत्तेजना प्रतीत होती है पर थोड़ी देर में ही तंद्रा आने लगती है और शनै:शनै: चेतना सुप्त होने लगती है। इस गुण के कारण शल्यचिकित्सा के प्रारंभिक युग में ईथर का उपयोग संवेदनाहारी या निश्चेतक के रूप में किया जाने लगा था। बाद में यह पता चला कि इस कार्य के लिए क्लोरोफार्म अधिक उपयोगी है। सन्‌ 1795 में डाक्टर पियरसन ने ईथर वाष्पों का प्रयोग दमा के रोगों के कष्टनिवारण में किया। ईथर द्वारा निश्चेतना उत्पन्न की जा सकती है, इस संबंध में ऐतिहासिक प्रयोग गॉडविन (1822), मिचेल (1832),जैक्सन (1833) एवं वुड और बेच (1834) के हैं। डाक्टर मॉर्टन ने 1846में पहली बार ईथर का प्रयोग दाँत निकालने में किया। इस प्रयोग की सफलता का समाचार लंदन में 17 दिसंबर, 1846 को पहुँचा और 22 दिसंबर को डॉ. रॉबिन्सन और लिस्टन ने शल्यकर्म में ईथर के प्रयोग को दोहराया। एक वर्ष तक शल्यकर्म में ईथर के उपयोग की धूम रही। इसके बाद ही एडिनबरा के सर जे.वाइ. सिंपसन ने क्लोरोफार्म में ईथर से भी अच्छे निश्चेतक गुणों का अनुभव किया।[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 26 |

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