अनुनाद और आयनीकरण विभव
अनुनाद और आयनीकरण विभव इस शताब्दी के अनुसंधान के फलस्वरूप हमारे १९वीं शताब्दी के परमाणु संबंधी विचारों में मूलभूत परिवर्तन हुआ-परमाणु अविभाज्य न होकर अनेक अवयवों का समुदाय हो गया। हमारे आज के ज्ञान के अनुसार (द्र. परमाणु) परमाणु के दो मुख्य भाग हैं-एक है नाभिक (न्यूक्लिअस) और दूसरा है ऋणाणू (इलेक्ट्रॉन) मेघ। सरलतम प्रतिमा मे अनुसार धनावेश युक्त नाभिक के परित: ऋणाणु उसी प्रकार प्रदक्षिणा करते है जैसे ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते है। नाभिक पर उतनी ही इकाइयाँ धन आवेश की होती हैं जितना ऋण आवेश परिक्रमा करनेवाले ऋणाणुओं पर होता है। हाँ, ऋणाणु चाहे जिस कक्षा में नहीं रह सकते। उनकी कक्षाएँ नियम होती है, जिन्हे स्थायी कक्षाएँ (स्टेशनरी ऑर्बिटस) कहते है। प्रत्येक कक्षा में अधिक से अधिक कितने ऋणाणु रहेंगे, यह संख्या भी निश्चित है। यह सरलता से देखा जा सकता है कि जैसे-जैसे इलेक्ट्रॉन भीतरी कक्षा से बाहरी कक्षाओ में जाता है कि परमाणु की ऊर्जा में वृद्धि होती है। जब सब ऋणालु अपनी निम्नतम कक्षाओं में रहते हैं तब परमाणु की ऊर्जा न्यूनतम होती है और कहा जाता है कि परमाणु अपनी सामान्य अवस्था में है। परंतु जब परमाणु को कहीं से इतनी ऊ र्जा मिले कि उसके शोषण से सबसे बाहरी ऋणाणु अगली कक्षा में पहुँच जाएँ तो कहते हैं कि परमाणु उत्तेजित हो गया है, और यह ऊर्जा अनुनाद ऊर्जा कहलाती है। स्पष्ट है कि यदि ऊर्जा कुछ कम हो तों ऋणाणु अगली कक्षा में न जा सकेगा। जिस प्रकार ध्वनि के दो उत्पादकों के आवर्तन भिन्न होने पर शक्ति का आदान प्रदान नहीं होता, परंतु जब आवर्तन भिन्न होने पर शक्ति का आदान-प्रदान नहीं होता, परंतु जब आवर्तन अनुकूल (समान या दुगुने, तिगुने आदि) होते हैं तब यह आदान प्रदान होता है, उसी प्रकार परमाणु मे भी ऊर्जा का आदान प्रदान तभी होता है जब आनेवाली ऊर्जा परमाणु की दो अवस्थाओं के अंतर की ऊर्जा के बराबर हो । जब कोई ऋणाणु बाहरी कक्षा से भीतरी कक्षा मे आता है तो परमाणु की ऊर्जा में कमी होती है और यह ऊर्जा विकिरण के रूप मे प्रकट होती है। इसके विपरीत जब परमाण ऊर्जा का अवशोषण करता है तब ऋणाणु भीतरी कक्षा से बाहरी कक्षाओं में जाते है। बर्णपट में प्रकाश की रेखाओं का विकिरण मे देखा जाना, या उनका अवशोष्ण होना, इन दोनों क्रियाओं के अस्तित्व की पुष्टि करता है। प्राय: सभी रेखाओं का अस्तित्व परपाणु की दो ऊर्जा अवस्थाओं के भेद के रूप मे व्यक्त किया जा सकता है। इस प्रकार, की ऊर्जा क्रमश: ऊ१और ऊ २ है तब
प्ल सं ऊ2-ऊ 1, (1)
[hn=E2-E1]
जहाँ प्ल प्लांक का स्थिरांक है।
प्रश्न उठता है कि क्या वर्णपट की रेखाओं के अतिरिक्त भी परमाणु में ऊर्जा अवस्थाओं के अस्तित्व के संबंध के कोई और अधिक सीेधा प्रमाण है। इसका उतर फ्रैक और हर्ट्ज के प्रयोगों से मिलता है। यदि किसी परमाणु पर ऊर्जित कणों की बौछार की जाए तो दो फल हो सकते है :
(1) टक्कर प्रत्यास्थ (इलैस्टिक) हो और कण तथा परमाणु प्रत्यस्थ टक्कर के नियमों के अनुसार भिन्न-भिन्न वेग से दूर हो जाएँ:
(2) कण अपनी ऊर्जा परमाणु को दे दे और फलस्वरूप परमाणु का बाहरी ऋणाणु किसी और बाहरी कक्षा में पहुँच जाए और परमाणु को ऊर्जा में वृद्धि हो जाए। ऊर्जायुक्त कण सरलता से उपलब्ध किए जा सकते हैं। यदि ऋणाणु, जिनका आवेश आ है, विभवांतर वि से गुजरे तो उनकी ऊर्जा आ वि होगा ( जहाँ आ और वि दोनों एक ही इकाई में मापे गए हैं)। यदि ये ऋणाणु परमाणु को एक अवस्था से दूसरो में पहुँचाने में सफल होते हैं तो प्रत्यक्ष हैं कि
आ वि = 1/2 द्र वे2 =ऊ२-ऊ1, (2)
[QV=1/2 mv2=E2-E1]
जहाँ द्र ऋणाणु का द्रव्यमान और वे विभव के कारण उत्पन्न उसका वेग है। अब हम परमाणु के अवस्था भेदों को ऋणाणु के विभव के रूप मे व्यक्त कर सकते हैं, समीकरण (2)। ऊपर की व्याख्या के अनुसार जब परमाणु सामान्य अवस्था से केवल अगली अवस्था में जाता हैं, तो हम उस ऊ र्जा को परमाणु का अनुनाद विभव कहते हैं। अन्य अवस्थाओं में जाने के लिए जो ऊर्जा आवश्यक है वह उत्तेजना विभव कहलाएगी। ऋणाणु इतनी दूर चला जाए कि सामान्यत: वह बचे हुए परमाणु य आयन के क्षेत्र (या पहुँच) के बाहर हो। इसको संपन्न करने के लिए प्राय: अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होगी (मौलिक रूप से ऋणाणु अनंत कक्षा में पहुँचता है)। इस ऊर्जा को परमाणु का आयनीकरण विभव कहते हैं। यह कहा जा सकता है कि अनुनाद विभव और आयनीकरण विभव उत्तेजना विभव के विशेष रूप मात्र है।
मूल रूप मे इन विभवों को निम्नलिखित रीति से हम ज्ञात कर सकते हैं। एक वायुहीन नली में उस तत्व के परमाणु भर देते हैं जिसके उत्तेजना विभवों को ज्ञात करना है। (द्र. चित्र)।
फिलामेंट फ से निकलते हुए ऋणाणु फिलामेंट और ग्रिड ग्र के बीच विभवांतर वि१ के कारण त्वरित होते हैं । विभव व विभव वि1 से बहुत कम परंतु विपरीत दिशा में ग्र और प्लेट प के बीच लगाया जाता है। वि१ को धीरे-धीरे बढ़ाया जाता है और फलत: गैल्वैनोमापी ग में विद्युद्वारा की वृद्धि होती हैं, क्योंकि द्रुतगामी ऋणाणुओं की ऊर्जा फ और प के बीच के स्थान कें स्थित परमाणुओं की ऊर्जा अवस्था के अंतर के बराबर होगी, वे अपनी यह ऊर्जा परमाणुओं को दे देंगे ओर स्वयं प तक पहुँचने में असमर्थ होंगे। अत: वि१ के उचित मूल्य का होने पर गैल्वैनोमापी घारा में ्ह्रास दिखलाएगा। परंतु वि१ को और अधिक बढाने पर, ऋणाणुओं की आवश्यक ऊर्जा परमाणुओं को मिल जाने के बाद भी, उनमें इतनी ऊर्जा रह जाएगी कि वे फिर प तक पहुँचने में समर्थ हों। इस प्रकार ग की विद्युद्धारा बढ़ती घटती रहेगी और धारा के मूल्य के दो उतारों से संबंधित विभवों का अंतर परमाणु की दो अवस्थाओं की ऊर्जा के अंतर के बराबर होगा। सामान्यत: इस सरल रीति में कुछ कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं। अधिक विस्तार के लिए देखें रूआर्क और यूरी : ऐटम्स, मॉलीकयूल्स ऐंड क्वांटा, तथा आनोंट : कलीतन प्रोसेसेज इन गैसेज (मेथुअन)।[1]
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 122 |