"कंगलीबिहू": अवतरणों में अंतर
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"काती–बिहू" या "कंगलीबिहू", सामान्यतः [[अक्टूबर]]<ref>हिन्दू कलेन्डर के अनुसार कार्तिक</ref> में मनाया जाता है। असमिया लोग [[आषाढ़ मास|आषाढ़]]—[[श्रावण मास]] में धान की खेती करते हैं। आश्विन के अन्त में यह धान पककर सुनहला स्वरूप ले लेता है। प्रकृति पर निर्भर किसान खेत की लक्ष्मी 'उपज' को सादर घर पर लाने के लिए तैयार होता है और आश्विन–कार्तिक की [[संक्रान्ति]] के [[दिन]] उपज की मंगलकामना से खलिहान एवं [[तुलसी|तुलसी के वृक्ष]] के नीचे दीप प्रज्ज्वलित करके अनेक नियमों का पालन करता है। इसे ही "काती बिहू" कहते हैं। [[बिहू]] के दिन किसान के खलिहान | "काती–बिहू" या "कंगलीबिहू", सामान्यतः [[अक्टूबर]]<ref>हिन्दू कलेन्डर के अनुसार कार्तिक</ref> में मनाया जाता है। असमिया लोग [[आषाढ़ मास|आषाढ़]]—[[श्रावण मास]] में धान की खेती करते हैं। आश्विन के अन्त में यह धान पककर सुनहला स्वरूप ले लेता है। प्रकृति पर निर्भर किसान खेत की लक्ष्मी 'उपज' को सादर घर पर लाने के लिए तैयार होता है और आश्विन–कार्तिक की [[संक्रान्ति]] के [[दिन]] उपज की मंगलकामना से खलिहान एवं [[तुलसी|तुलसी के वृक्ष]] के नीचे दीप प्रज्ज्वलित करके अनेक नियमों का पालन करता है। इसे ही "काती बिहू" कहते हैं। [[बिहू]] के दिन किसान के खलिहान ख़ाली रहते हैं। इसीलिए यह महाभोज या उल्लास का पर्व न होकर प्रार्थना व ध्यान का दिन होता है। चूंकि कोई फ़सल काटने का यह समय नहीं होता। इसलिए किसान के पास धन नहीं होता, परन्तु इसका प्रयोग ध्यानादि कार्यक्रम में किया जाता है। इसलिए इसे "कंगाली–बिहू" भी कहते हैं। युवक और युवतियाँ मितव्यय करना भी इस पर्व के माध्यम से ही सीखते हैं। धान के खेतों में [[लक्ष्मी|माँ लक्ष्मी]] की प्रतिमा पर एक माह तक प्रत्येक रात [[दीपक]] जलाया जाता है। तुलसी के पवित्र पौधे को घर के आँगन में लगाकर उसे [[जल]] अर्पित किया जाता है। | ||
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"काती–बिहू" या "कंगलीबिहू", सामान्यतः अक्टूबर[1] में मनाया जाता है। असमिया लोग आषाढ़—श्रावण मास में धान की खेती करते हैं। आश्विन के अन्त में यह धान पककर सुनहला स्वरूप ले लेता है। प्रकृति पर निर्भर किसान खेत की लक्ष्मी 'उपज' को सादर घर पर लाने के लिए तैयार होता है और आश्विन–कार्तिक की संक्रान्ति के दिन उपज की मंगलकामना से खलिहान एवं तुलसी के वृक्ष के नीचे दीप प्रज्ज्वलित करके अनेक नियमों का पालन करता है। इसे ही "काती बिहू" कहते हैं। बिहू के दिन किसान के खलिहान ख़ाली रहते हैं। इसीलिए यह महाभोज या उल्लास का पर्व न होकर प्रार्थना व ध्यान का दिन होता है। चूंकि कोई फ़सल काटने का यह समय नहीं होता। इसलिए किसान के पास धन नहीं होता, परन्तु इसका प्रयोग ध्यानादि कार्यक्रम में किया जाता है। इसलिए इसे "कंगाली–बिहू" भी कहते हैं। युवक और युवतियाँ मितव्यय करना भी इस पर्व के माध्यम से ही सीखते हैं। धान के खेतों में माँ लक्ष्मी की प्रतिमा पर एक माह तक प्रत्येक रात दीपक जलाया जाता है। तुलसी के पवित्र पौधे को घर के आँगन में लगाकर उसे जल अर्पित किया जाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दू कलेन्डर के अनुसार कार्तिक
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख
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