गोरूबिहू
गोरूबिहू का दिन गऊ के महत्व का प्रतीक है। गाय सर्वप्रिय पशु है, इसका दूध बच्चों के लिए पुष्टिकारक होता है। गाय गोमाता है। इन्हें प्रातः काल ही नदी या पोखरों में ले जाकर स्नान कराया जाता है। इसके बाद त्रिशूल के आकार के बाँस से बने 'चांट' से लौकी, बैंगन, दीघलती[1] आदि गौ पर फेंकते हैं व उसकी पूजा–अर्चना करते हैं। लोक विश्वास है कि त्रिशूल के प्रयोग से सदाशिव प्रसन्न होते हैं। मूंग की दाल व हल्दी[2] के मिश्रण को इसके सींगों व खुरों पर लगाया जाता है। बैल, जो कि किसान के बहुत ही काम आते हैं, को भी इस गौ–सम्मान की प्रक्रिया में सम्मिलित किया जाता है।
बैंगल, हल्दी व लौकी के टुकड़ों को पशुओं की ओर फेंका जाता है तथा सभी समवेत स्वर में 'लौ खा, बैंगन खा, बचारे, बचारे बरही जा" कहते हैं। पशुओं का नयी रस्सियों से बाँधा जाता है तथा भिन्न–भिन्न पत्रों की मालाएँ उन्हें पहनायी जाती हैं।
एक अनूठे कार्यक्रम के अन्तर्गत सभी पशुओं को बाहर बड़े स्थान पर एकत्रित किया जाता है तथा पुरुष इन्हें नागफली व बैंगन खिलाते हैं। लोकसंगीत की धुनों के बीच इन पर पंखा भी झला जाता है। इनके माथे पर सिन्दूर लगाने के बाद इन्हें वापस इनके स्थान पर ले जाया जाता है।
यद्यपि यह सब धार्मिक महोत्सव के रूप में किया जाता है। लेकिन सच यह है कि यह भारतीय जन–जीवन और किसान के पशु–प्रेम विशेषकर गौवंश के प्रति प्रेम को प्रकट करता है। अंततः पशु ही किसान के साथ में कड़ी मेहनत करते हैं। ताकि हम सबको भोजन उपलब्ध हो सके।
घरों में लोग विशेष प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन बनाते हैं। सादे चावल के स्थान पर कुटे–भुने चावल के भिन्न–भिन्न प्रकार के पकवान बनाए जाते हैं। सभी उपस्थित लोगों व बच्चों को मिठाइयाँ बाँटी जाती हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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