कुश्ती

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कुश्ती (अंग्रेज़ी:Kushti) एक प्रकार का द्वंद्वयुद्ध है, जो बिना किसी शस्र की सहायता के केवल शारीरिक बल के सहारे लड़ा जाता है। इसमें प्रतिद्वंद्वी को बिना अंगभंग किए या पीड़ा पहुँचाए परास्त किया जाता है। पुराणों में इसका उल्लेख मल्लक्रीड़ा के रूप में मिलता है। इन उल्लेखों से ज्ञात होता है कि इसके प्रति उन दिनों विशेष आकर्षण और आदर था। मध्य काल में मुस्लिम साम्राज्य और संस्कृति के प्रसार के साथ भारतीय मल्लयुद्ध पद्धति का मुस्लिम देशों की युद्ध पद्धति के साथ समन्वय हुआ। यह समन्वय विशेष रूप से मुग़ल काल में हुआ। आधुनिक काल में देशी रजवाड़ों ने कुश्ती कला को संरक्षण प्रदान किया। पटियाला, कोल्हापुर, मैसूर, इंदौर, अजमेर, बड़ौदा, भरतपुर, जयपुर, बनारस, दरभंगा, बर्दवान, तमखुई[1] के राजाओं के अखाड़ों की देशव्यापी ख्याति रही है। वहाँ कुश्ती लड़ने वाले पहलवानों को हर प्रकार की सुविधाएँ प्राप्त थीं और इन अखाड़ों के नामी पहलवान देश में घूम-घूम कर कुश्ती के दंगलों में भाग लेते और कुश्ती का प्रचार किया करते थे।

इतिहास

कुश्ती का आरंभ संभवत: उस युग में हुआ होगा, जब मनुष्य ने शास्रास्रों का उपयोग जाना न था। उस समय इस प्रकार के युद्ध में पशु बल ही प्रधान था। पशु बल पर विजय पाने के लिए मनुष्य ने विविध प्रकार के दाँव पेंचों का प्रयोग सीखा होगा और उससे मल्ल युद्ध अथवा कुश्ती का विकास हुआ होगा। शत्रुता निवारण के इस द्वन्द्व युद्ध ने विशुद्ध व्यायाम और खेल का रूप ले लिया है। इस खेल अथवा व्यायाम से शरीर के सभी स्नायु एवं इंद्रियाँ सबल और कार्यक्षम होती हैं। इस खेल की कला से परिचित व्यक्ति कम शक्ति वाला होकर भी अधिक शक्तिशाली व्यक्ति पर विजय प्राप्त कर सकता है। कुश्ती से न केवल शरीर बनता है वरन मानसिक विकास भी होता है और आत्मविश्वास बढ़ता है। धैर्य, अनुभवशीलता, चपलता आदि अनेक बातें पैदा होती हैं।[2]

विकास

मिस्र में नील नदी के तट पर स्थित बेंने-हसन की शव-समाधि के दीवारों पर मल्लयुद्ध के अनेक दृश्य अंकित हैं। उनसे अनुमान होता है कि लगभग 3000 वर्ष ईसा पूर्व मिस्र में मल्ल्युद्ध का पूर्ण विकास हो चुका था। कुछ लोगों की धारणा है कि इसका विकास भारतवर्ष में वैदिक काल में हुआ होगा, किंतु वैदिक साहित्य में स्वास्थ्य वर्धन और शक्तिसंचय के निमित्त, आसन, प्राणायम आदि यौगिक क्रियाओं के साथ घुड़सवारी, रथों की दौड़, शस्त्रास्त्रों के अभ्यास के उल्लेख तो मिलते है; किंतु उसमें मल्लयुद्ध की कहीं कोई चर्चा नहीं है। अत: इस देश में इका आरंभ वैदिक काल के बाद ही किसी समय हुआ होगा।

पौराणिक उल्लेख

'रामायण' और 'महाभारत' में कुश्ती की पर्याप्त चर्चा हुई है। रामायण से बाली-सुग्रीव का युद्ध और महाभारत से भीम-दुर्योधन के युद्ध का उल्लेख उदाहरण स्वरूप दिया जा सकता है। इस प्रकार के द्वंद्वयुद्ध की अपनी एक नैतिक संहिता थी, ऐसा इन युद्धों के वर्णन से प्रकट होता है। उसके विरुद्ध आचरण करने वाला निंदनीय माना जाता था। श्रीकृष्ण के संकेत पर भीम द्वारा जरासंध की संधियों के चीरे जाने और दुर्योधन की जाँघ पर प्रहार करने की निंदा लोगों ने की है।[2]

मल्लयुद्ध का आयोजन

पुराणों में इसका उल्लेख मल्लक्रीड़ा के रूप में मिलता है। इन उल्लेखों से ज्ञात होता है कि इसके प्रति उन दिनों विशेष आकर्षण और आदर था। विशिष्ट उत्सव प्रसंगों पर राजा लोग मल्लयुद्ध का आयोजन किया करते थे और प्रसिद्ध मल्लों को आमंत्रित करते थे। मल्लक्रीड़ा आरंभ होने से पूर्व धनुर्यज्ञ होता था, जिसमें मल्ल लोगों को अपनी शक्ति का परिचय देने के लिए एक भारी धनुष की प्रत्यंचा खींचकर चढ़ानी होती थी। ऐसे ही एक उत्सव प्रसंग पर मथुरा के राजा कंस ने कृष्ण और बलराम को आमंत्रित कर उनकी हत्या का षड़यंत्र किया था, किंतु कृष्ण बलराम ने कंस के मल्ल चाणूर और मुष्टिक को अपने मल्ल कौशल से पराजित कर दिया। इसी प्रकार जिन दिनों पांडव छद्मवेश में विराट नगरी में रह रहे थे, उन दिनों वहाँ ब्रह्मोत्सव का आयोजन हुआ था। उसमें भीम ने जीमूत नामक मल्ल को परास्त किया था।

भारतीय मल्लयुद्ध पद्धति का समन्वय

मध्यकाल में मुस्लिम में साम्राज्य और संस्कृति के प्रसार के साथ भारतीय मल्लयुद्ध पद्धति का मुस्लिम देशों की युद्ध पद्धति के साथ समन्वय हुआ। यह समन्वय विशेष रूप से मुगलकाल में हुआ। बाबर मध्य एशिया में प्रचलित कुश्ती पद्धति का कुशल और बलशाली पहलवान था। अकबर भी इस कला का अच्छा जानकार था। उसने उच्चकोटि के मल्लों को राजाश्रय प्रदान कर कुश्ती कला को प्रोत्साहित किया। वह समन्वयवादी सम्राट था। उसने सभी क्षेत्रों में हिंदू तथा मुस्लिम संस्कृतियों में सामंजस्य लाने का प्रयत्न किया। फलत: कुश्ती कला भी उसकी उदार नीति से वंचित नहीं रही। उसी समय से कुश्ती को राज्य संरक्षण प्राप्त होता रहा। मुगल सेनाओं में कुश्ती लड़नेवाले पहलवानों का विशेष सम्मान था। विजयनगर नरेश कृष्णदेश राय के राज दरबार में नित्य मल्लयुद्ध का प्रदर्शन होता था। पेशवा परिवार के लोग मल्लयुद्ध प्रवीण थे, ऐसा तत्कालीन आलेखों से ज्ञात होता है। थामस ब्राउटन नामक अंग्रेज सैनिक अधिकारी ने दौलताराव सिंधिय के सैनिकों के बीच मल्लविद्या के प्रचार का विस्तृत वर्णन किया है। पेशवा कल में स्रियाँ भी मल्लयुद्ध में भाग लेती थीं और वे इस कला में इतनी प्रवीण होती थीं कि वे पुरुषों को चुनौती देती थीं और पुरुष पराजित होने की आशंका से उनकी चुनौती स्वीकार करने में संकोच करते थे।[2]

जातक कथाओं में कुश्ती का उल्लेख

जातक कथाओं में भी कुश्ती के उल्लेख प्राप्त होते हैं। उनमें अखाड़े, अखाड़े के सामने प्रक्षकों के बैठने की जगह, उसकी सजावट, मल्लयुद्ध आदि के संबंध में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। विनयपिटक में उल्लिखित एक प्रसंग से ज्ञात होता है कि स्रियाँ भी मल्लयुद्ध में भाग लेती थी। उसमें शेवती नामक एक मल्ली के भिक्षुणी हो जाने का उल्लेख है। जैनियों के प्रसिद्ध ग्रंथ कल्पसूत्र से ज्ञात होता है कि राजा लोग भी कुश्ती में भाग लेते थे।

आधुनिक समय में कुश्ती का प्रचार

आधुनिक समय में देशी रजवाड़ों ने कुश्ती कला को संरक्षण प्रदान किया था। पटियाला, कोल्हापुर, मैसूर, इंदौर, अजमेर, बड़ौदा, भरतपुर, जयपुर, बनारस, दरभंगा, बर्दवान, तमखुई[3] के राजाओं के अखाड़ों की देशव्यापी ख्याति रही हैं। वहाँ कुश्ती लड़ने वाले पहलवानों को हर प्रकार की सुविधाएँ प्राप्त थीं और इन अखाड़ों के नामी पहलवान देश में घूम-घूम कर कुश्ती के दंगलों में भाग लेते और कुश्ती का प्रचार किया करते थे। कुछ अन्य लोग भी अच्छे पहलवानों को प्रोत्साहित करते थे। कुश्ती कला में पारंगत होने के लिए मल्ल को चित्तनिरोध, मनोयोग तथा संयम की सतत साधना करनी पड़ती है। भारतीय मल्ल का भोजन काफी पुष्टिकारक होता है। मल्ल को अपनी रसना पर नियंत्रण रखना चाहिए। भारतीय मल्ल अधिकतर दूध, घी, बादाम आदि का सेवन करते हैं। शक्ति वर्धन के लिए कुछ मल्ल मांस के शोरवे का भी प्रयोग करते हैं। आज भी देश के कोने-कोने में, चाहे वह नगर हो या गाँव, अखाड़े पाए जाते हैं। सफल मल्ल बनने के लिए तीन बातों का ध्यान रखना पड़ता है-

  1. नियमित व्यायाम
  2. उचित भोजन तथा
  3. कुश्ती का नियमित अभ्यास एवं विकास।

कुश्ती की पद्धतियाँ

भारतीय कुश्ती की निम्न चार पद्धतियाँ हैं

  1. भीमसेनी
  2. हनुमंती
  3. जांबवंती
  4. जरासंधी

महत्व

हनुमंती कुश्ती में दाँवपेंच और कला की प्रधानता होती है। भीमसेनी कुश्ती में शरीर की शक्ति का विशेष महत्व है। जाबवंती कुश्ती में हाथ-पैर से इस प्रकार प्रयास किया जाता है कि प्रतिस्पर्धी चित्त न कर पाए, उसमें शारीरिक शक्ति और दाँवपेंच की अपेक्षा शरीर साधना का महत्व है। जरासंधी कुश्ती में हाथ-पाँव मोड़ने का प्रयास प्रधान है।

मल्लयुद्ध के माध्यम से भारत का विदेशों में संपर्क 19वीं शताब्दी के अंतिम दशक में हुआ। सन1892 ई. में इंग्लैंड का प्रसिद्ध मल्ल टाम कैनन, रुस्तमेहिंद गुलाम से लड़ने के लिए भारत आया, किंतु वह गुलाम के शिष्य करीमबख्श से हारकर लौट गया। गुलाम का छोटा भाई कल्लू भी अपने युग का प्रसिद्ध पहलवान था। उस समय के अन्य प्रसिद्ध मल्लों में किक्करसिंह का नाम उल्लेखनीय है, जिसका भार लगभग 7 मन तथा वक्ष:स्थल की परिधि 70 इंच थी। सन 1900 ई. में स्वर्गीय मोतीलाल नेहरू गुलाम तथा कल्लू को लेकर पेरिस की विश्व प्रदर्शिनी में गए। गुलाम की कुश्ती यूरोप के प्रसिद्ध मल्ल अहमद मद्राली से हुई जो बराबर पर छूटी। गुलाम की मृत्यु के पश्चात कल्लू रुस्तमेहिंद हुए। सन्‌ 1910 ई. में, रुस्तमेहिंद के रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए प्रयाग में एक विराट दंगल का आयोजन हुआ। इसमें गामा की कुश्ती रहीम पहलवान से हुई। चोट आ जाने के कारण रहीम को अखाड़ा छोड़ना पड़ा और गामा रुस्तमेहिंद हुए। इसके पूर्व गामा ने अपने भाई इमामबख्श तथा अन्य मल्लों के साथ इंग्लैंड की यात्रा की थी। वहाँ इन्होंने बेंजामिन लोलर पर, तथा इमामबख्श ने स्विट्ज़रलैंड के निपुण मल्ल जान लेम पर विजय प्राप्त की। इसके पश्चात गामा की कुश्ती पोलैंड के प्रसिद्ध मल्ल जिविस्को से हुई। प्रथम दिन, दो घंटे पैंतालीस मिनट तक मल्लयुद्ध हुआ, किंतु जिविस्को चित्त नहीं किया जा सका। इन मल्लों की कुश्ती पुन: दूसरे दिन होने का निश्चय किया गया, किंतु जिविस्को इंग्लैंड छोड़कर भाग खड़ा हुआ। दूसरे वर्ष, अहमदबख्श ने मॉरिरा डेरियाज तथा आरमैंड चेयरपिलोड को परास्त कर भारतीय मल्ल-युद्ध-पद्धति का गौरव बढ़ाया। सन 1928 ई. में जिविस्को गामा से मल्लयुद्ध करने भारत आए, किंतु इस बार गामा ने इन्हें 42 सेकेंड में ही परास्त कर दिया। गामा की अंतिम कुश्ती जे. सी. पीटरसन से हुई, जो अपने को सर्वजेताओं का विजेता[4] कहता था। गामा ने उसे 1 मिनट 45 सेकेंड में ही हरा दिया। अपने को विश्व विजयी समझकर गामा नेसन 1915 में रुस्तमेहिंद की पदवी के लिए अपने भाई इमामबख्श को खड़ा किया। रहीम, जिसकी अवस्था ढल चुकी थी, पुन: मैदान में आया, किंतु इमामबख्श विजयी हुआ और उसने रुस्तमेंहिंद की उपाधि धारण की।[2]

मल्लयुद्ध के क्षेत्र में प्रसिद्धि

इस समय तीन अन्य भारतीय मल्ल, गूँगा, बुर्द तथा हमीदा ने मल्लयुद्ध के क्षेत्र में प्रसिद्धि प्राप्त की। नवयुवक मल्ल गुँगा ने इमामबख्श को कुश्ती के लिए ललकारा और पहली बार उसे आसमान दिखला दिया, किंतु बाद की कुश्तियों में इमामबख्श गूँगा पर विजय प्राप्त कर रुस्तमेहिंद बला रहा। इधर हमीदा और बुर्द की कई कुश्तियाँ अनिर्णीत रहीं, किंतु 1938 ई. में हमीदा ने बुर्द को परास्त कर दिया। इसी समय बंबई में एक अंतर्राष्ट्रीय दंगल हुआ जिसमें रूमानिया, हंगरी, जर्मनी, तुर्की, चीन, फिलिस्तीन आदि देशों के मल्लों ने भाग लिया। इस प्रतियोगिता में जर्मनी के मल्ल क्रैमर ने अजेय गूँगा को परास्त कर भारत को चकित कर दिया, किंतु उसे दरभंगा में पूरणसिंह को बड़े से हार माननी पड़ी तथा कलकत्ते में राजवंशी सिंह भी उस पर सबल पड़े। अंत में इमामबख्श ने उसे चित्त कर भारतीय मल्लों का गौरव अक्षुण्ण रखा। हमीदा ने किंग कांग को परास्त कर विदेशी मल्लों के हृदय में भारतीय मल्लयुद्ध की श्रेष्ठता का सिक्का जमा दिया।

देश के विभाजन से मल्लयुद्ध के क्षेत्र में भारत की बहुत बड़ी क्षति हुई है। उच्च कोटि के प्राय: सभी मल्ल पंजाबी मुसलमान थे, जो बटवारे के बाद पाकिस्तान के नागरिक हो गए। इमामबख्श का पुत्र भोलू आजकल रुस्तमे-पाकिस्तान है तथा उसके अन्य भाई असलम, अकरम, गोगा आदि भी उच्चकोटि के पहलवान हैं। इस प्रकार गामा परिवार की परंपरा अक्षुण्ण है। उच्चकोटि के भारतीय पहलवान मंगला राय, केशर सिंह तथा पूरणसिंह[5] हैं।

अन्य देशों में कुश्ती का विकास

भारत के बाहर कुश्ती अन्य कई देशों में प्रचलित है। किंतु वहाँ इसका प्राचीनतम प्रचार यूनान में ही ज्ञात होता है। होमर के प्रसिद्ध काव्य इलियड[6] में एजैक्स तथा यूलिसीज के मल्लयुद्ध का विस्तृत वर्णन है। उसमें यूलिसीज द्वारा बाहरी टाँग मारकर एजैक्स को धराशायी कर देने का विवरण है। क्रोटोन निवासी मिलो उस काल का सर्वविख्यात मल्ल था, जिसने लगातार छह ओलंपिक खेलों में सर्वोच्च विजय चिह्न[7] प्राप्त किया था। मिलो के संबंध में यह किंवदंती है कि उसने पाइथागोरस के विद्यालय की गिरती हुई छत को अकेले ही संभाल लिया था। यूलिसीज तथा एजैक्स की कुश्ती का विवरण बहुत कुछ बेनीहसन की कब्र पर निर्मित भवनों पर अंकित चित्रों से मिलता है। इस आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि मल्ल-युद्ध-कला यूनानियों ने मिस्रवासियों से ही सीखी, यद्यपि यूनानी परंपरा के अनुसार थीसियस[8] यूनानी मल्लयुद्ध के जन्मदाता तथा विधिनिर्माता माने जाते हैं। यूनान की भाँति ही रोम में भी कुश्ती की कला का विकास हुआ था। यूनान और रोम की प्राचीन कुश्ती कला की समन्वय ग्रीको रोमन पद्धति के रूप में हुआ है, ऐसी लोगों की धारणा है। किंतु इस समय यूरोप में जिस ग्रीको रोमन शैली का प्रचार है, वह प्राचीन शैली से सर्वथा भिन्न है। आधुनिक पद्धति का प्रादुर्भाव 1860 ई. के लगभग फ्रांस में हुआ और यह क्रमश: सारे यूरोप में फैल गई। रूस निवासी हैकन एशिमिड इस पद्धति का सबसे प्रसिद्ध मल्ल हुआ है। पेशेवर पहलवान अब इस पद्धति को बहुत कम अपनाते हैं।

फ्री स्टाइल

विश्व ओलंपिक में ग्रीको-रोमन पद्धति में भी कुश्ती होती है। इस पद्धति में कमर के नीचे का भाग पकड़ना वर्जित है। प्रतिद्वंद्वी एक दूसरे का शरीर केवल खुले हाथ से ही पकड़ सकते हैं। हाथ और बाँह का पकड़ना इस नियम के अपवाद हैं। भौंह तथा मुँह के बीच के भाग को छूना निषिद्ध है। गला दबाना, कपड़े पकड़ना, बाल पकड़ना, पाँव से मारना, धक्का देना या अँगुली मरोड़ना वर्जित है। कैंची लगाकर प्रतिद्वंद्वी को दोनों पावों के बीच दबाना वर्जित है। पाँव का प्रयोग किसी भी रूप में नहीं किया जा सकता, न तो लगाने में और न बचाव करने में। इस पद्धति का मल्लयुद्ध 1896 से 1912 तक ओलंपिक के खेलों में होता रहा। 1920 में ऐंटवर्प में जो ओलंपिक खेल आयोजित हुआ उसमें इस पद्धति के साथ एक नई पद्धति का मल्ल्युद्ध भी सम्मिलित किया गया जिसे ‘फ्री स्टाइल कहते’ हैं। ओलंपिक खेलों में कोई भी दोनों पद्धतियों में निष्णात मल्ल विरले ही होते हैं। अब तक स्वेडन के आइवर जोहांसन और इस्टोनिया के पालू सालू ही ऐसे पहलवान हैं जिन्हें क्रमश: लास ऐंजेल्स[9] और बर्लिन[10] के ओलंपिक खेलों में दोनों पद्धतियों में एक साथ विश्व विजयी होने का गौरव प्राप्त हुआ है।

कुश्ती की श्रेणियाँ

कुश्ती निमित्त वजन के अनुसार होती हैं तथा इसकी निम्न 8 श्रेणियाँ मानी गई हैं-

  1. फ्लाई वेट 114 1/2 पाउंड तक
  2. बैंटेम वेट 125 1/2 पाउंड तक
  3. फेदर वेट 136 1/2 पाउंड तक
  4. लाइट वेट 147 1/2 पाउंड तक
  5. वेल्टर वेट 160 1/2 पाउंड तक
  6. मिडिल वेट 174 पाउंड तक
  7. लाइट हेवी वेट 191 पाउंड तक
  8. हेवी वेट 191 पाउंड के ऊपर।

प्रतिद्वंद्वी को विधानत: यह अधिकार है कि वह चाहे तो अपने भार से एक भार ऊपर से कुश्ती लड़े। अपने निश्चय की सूचना भार लेने के पूर्व ही संबद्ध अधिकारी को दे देना प्रतिद्वंद्वी के लिए आवश्यक है। नाम के पुकारे जाने पर दोनों प्रतिद्वंद्वी अपने अपने कोने में आकर खड़े हो जाते हैं। एक के पाँव में लाल तथा दूसरे के पाँव में हरा फीता बँधा रहता है। निर्णायक[11] बीच में खड़ा होकर दोनों को बुलाता है और उनके जूते, नाखून आदि का निरीक्षण के पश्चात दोनों प्रतिद्वंद्वी अपने अपने कोने में वापस चले जाते हैं। निर्णायक सदैव डाक्टर हुआ करते हैं। उनके पास लाल, हरे तथा सफेद तीन तीन लैंप, एक एक स्टॉप वाच[12], घंटा, लाल हरे रंग के पट्टे, फेंकने वाला लाल हरे रंग का बिंब[13] होता है।[2]

शांबो

ओलंपिक खेल में एक तीसरे प्रकार की कुश्ती को भी मान्यता प्राप्त है। उसे शांबो कहते हैं। यह कुश्ती एक विशेष प्रकार का मोटे कपड़े वाला जैकेट पहनकर लड़ी जाती है और जैकेट को पकड़कर ही दाँवपेंच मारा जाता है। उसमें बदन को नहीं छुआ जा सकता। इसमें ग्रीको रोमन अथवा फ्री स्टाइल की भाँति कंधों का लगाना अनिवार्य नहीं हैं।

भारतीय पहलवान

भारत के पहलवानों ने 1920 में पहली बार पेरिस में हुए ओलंपिक में भाग लिया था। उसमें भाग लेने वाले पहलवान थे महाराष्ट्र के नावले और बड़ौदा के शिंदे। 1936 के बर्लिन ओलंपिक में करम रसूल[14], अनवर रशीद[15] और ए. थोरेट[16] सम्मिलित हुए थे। 1948 से भारतीय पहलवान नियमित रूप से ओलंपिक में भाग ले रहे हैं। उस वर्ष लंदन में ओलंपिक हुआ था उसमें के. डी. यादव को छोटे वज़न (फ्लाई वेट) में छठा स्थान मिला था। 1952 के हेलसिंकी ओलंपिक में इन्हीं यादव को 57 किलो वेट में तीसरा और 62 किलो वेट में के. डी. मंगावे[17] को चौथा स्थान प्राप्त हुआ था। इसके बाद तो प्रत्येक ओलंपिक में भारतीय पहलवान बराबर सफलता प्राप्त कर रहे हैं। इसी प्रकार भारतीय पहलवान विश्व कुश्ती प्रतियोगिता, एशियाई खेल, और राष्ट्रमंडलीय खेल में भी भाग लेते हैं और सफलता प्राप्त करते हैं।[2] भारत सरकार ने नेताजी सुभाष राष्ट्रीय खेल प्रतिष्ठान[18] शांबो में आधुनिक विश्व मान्य पद्धतियों द्वारा पहलवानों को प्रशिक्षित करने की व्यवस्था की है ताकि वे विश्व की विभिन्न प्रतियोगिताओं में अधिकाधिक सफलता प्राप्त कर सकें। साथ ही सफल पहलवानों को सम्मानित करने के लिए अर्जुन पुरस्कार की व्यवस्था की हैं। अब तक यह पुरस्कार निम्नलिखित पहलवानों को दिया गया है- मलुआ [19], उदयचंद[20], विशंभर सिंह[21], मुख्तियार सिंह[22], गनपत अंदेलकर[23], चंदगीराम[24], भीम सिंह (सेना), प्रेमनाथ[25], जगरूप सिंह\हरियाणा, सुदेश कुमार[26]

सुशील कुमार

सुशील कुमार कुश्ती के पहलवान है। 'बीजिंग ओलिंपिक' खेलों में देश के लिए 'कांस्य पदक' जीतकर सुशील कुमार 'नज़फगढ़ के नए सुल्तान' बन गए। दिल्ली के नज़फगढ़ से भारतीय क्रिकेट को वीरेंद्र सहवाग जैसा नायाब हीरा मिला, लेकिन अब दिल्ली के सुदूर पश्चिम में बसा यह स्थान पहलवान सुशील कुमार के कारण जाना जाता है। रेलवे के कर्मचारी सुशील ने 2006 में 'दोहा एशियाई खेलों' में 'कांस्य पदक' जीतकर अपनी प्रतिभा का परिचय दिया था। दिल्ली के छत्रसाल स्टेडियम में रोज़ाना सुबह पांच बजे से कुश्ती के दांवपेच सीखने वाले अर्जुन पुरस्कार विजेता सुशील ने अगले ही साल मई, 2007 में 'सीनियर एशियाई चैम्पियनशिप' में 'रजत पदक' जीता।

दैशिक शैलियाँ

अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त कुश्ती की उपर्युक्त शैलियों के अतिरिक्त कुछ अन्य दैशिक शैलियाँ भी हैं जिनमें निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं- कंबरलैंड तथा वेस्टमोरलैंड कुश्ती

रेफरी होल्ड

इस कुश्ती का प्रचलन उत्तरी इंग्लैंड तथा दक्षिणी स्कॉटलैंड में हैं। मल्लयुद्ध प्रारंभ होने से पूर्व प्रतिद्वंद्वी सीने से सीना मिलाकर, एक दूसरे से, इस प्रकार लिपट जाते हैं कि एक मल्ल की बाईं भुजा दूसरे मल्ल की दाहिनी भुजा के ऊपर तथा एक की ठुड्डी दूसरे के दाहिने कंधे पर पड़ती है। इसके पश्चात्‌ वे अपने हाथों को एक दूसरे की पीठ पर रखकर बंद कर लेते हैं। इस अवस्था को रेफरी होल्ड[27] कहते हैं और वह सावधान होने की अवस्था समझी जाती है। जिस मल्ल के हाथों की पकड़ शिथिल होकर छूट जाती है, उसकी पराजय मानी जाती है।

डॉग फाल

इस पद्धति की कुश्ती में जय-पराजय का निर्णय बड़ी सरलता से हो जाता है। निर्णय में दो मतों की संभावना अत्यल्प है। जिस प्रतिद्वंद्वी का, पावों के अतिरिक्त, कोई भी अंग भूमि से छू जाता है उसकी पराजय मानी जाती है। जब दोनों प्रतिद्वंद्वी साथ ही भूमि पर गिरते हैं तो भूमि को पहले स्पर्श करनेवाला प्रतिद्वंद्वी पराजित माना जाता हैं। जब दोनों सीधे गिरकर भूमि को साथ ही स्पर्श करते हैं तो कुश्ती बराबर मानी जाती है। इसको डॉग फाल[28] कहते हैं। ऐसी अवस्था के प्रतिद्वंद्वियों में पुन: कुश्ती कराई जाती है। दाँव लगाने या अन्य किसी अवस्था में भी पाँव के अतिरिक्त किसी अंग से भूमि छू जाने पर प्रतिद्वंद्वी की हार हो जाती है। इस कुश्ती में भुजाओं में बँध जाने के कारण पाँवों का मुक्त प्रयोग किया जाता है। यद्यपि प्रतिद्वंद्वी को पाँव से सीधे आघात करना वर्जित है, तथापि इस पद्धति के कलाकार पाँव संबंधी दाँव-पेंचों में बड़े कुशल होते हैं।

सूमो कुश्ती

सूमो जापानियों का राष्ट्रीय व्यायाम है। इसका प्रयोग जापानी युवक अपने शरीर को शक्तिशाली एवं संगठित बनाने के लिए करते हैं। प्रथम सूमों कुश्ती, जिसका लिखित विवरण उपलब्ध है, ईसा से 23 वर्ष पूर्व हुई थी। विजयी व्यक्ति का नाम सुकुने था। सुकुने आज तक जापानी मल्लों का आराध्य देवता माना जाता है। आठवीं शताब्दी में सम्राट शोम ने फसल कटने के अवसर पर मल्ल युद्धोत्सव मनाया था, तभी से यह जापान का राष्ट्रीय पर्व बन गया है। इस अवसर पर विजेता को विजय-चिह्न-स्वरूप एक पंखा प्रदान किया जाता है। यह विजेता अगले वर्ष की कुश्ती का निर्णायक होता है। राज्य संरक्षण के अभाव में सन 1175 ई. के पश्चात सूमो का ह्रास होने लगा, किंतु सन 1600 ई. के लगभग इसका पुनरुत्थान हुआ। तभी से मल्लों को बड़े सामंतो के यहाँ आश्रय मिलने लगा तथा सूमो सैनिक प्रशिक्षण का प्रमुख अंग बन गया।

श्विंजेन[29] मल्लयुद्ध

इस पद्धति में प्रतिद्वंद्वियों को बिरजिस[30] पहनकर कुश्ती लड़ना पड़ता है, जो सुदृढ़ पेटी सहित कमर पर बँधी रहती है। दाँवपेंच इस पेटी को पकड़कर किया जाता है। सूमो की भाँति इस युद्ध पद्धति में भी पाँव का प्रयोग करना, या प्रतिद्वंद्वी की उठाकर फेंक देना, वर्जित नहीं है। जो मल्ल भूमि को पहले स्पर्श कर लेता है, उसकी हार हो जाती है। आइसलैंड की ग्लीमा पद्धति भी बहुत कुछ इस पद्धति से मिलती है। अंतर केवल रान और कमर पर धारण किए जाने वाले वस्त्रों में है।

अमरीकन फ्री स्टाइल मल्लयुद्ध

18वीं शताब्दी के अंतिम चरण के पूर्व अमरीका में त्यौहारों के अवसर पर स्थानीय मल्लों की कुश्तियाँ होती थीं। सन 1780 ई. के लगभग, हारवर्ड विश्वविद्यालय में इसका प्रचार आरंभ हुआ। वहाँ नए छात्रों तथा पुराने स्नातको के बीच मल्ल-युद्ध होने की परंपरा चल पड़ी। ऐसे ही एक कुश्ती में अब्राहम लिंकन ने जैक आर्मस्ट्रांग को परास्तकर अच्छी ख्याति पाई थी। 19वीं सदी के अंतिम चरण में पेशेवर मल्लों की कुश्तियों का प्रचार बढ़ा। विलियम मलडून अमरीका का सर्वप्रथम विजेता माना जाता है। इसके पश्चात फार्मर बर्न्स का नाम आता है। फ्रैंक गॉच ने जार्ज हैवन रूशमिड को हराकर विश्व विजयी की उपाधि प्राप्त की। अमरीकन फ्री स्टाइल कुश्ती अत्यंत निर्दयता से लड़ी जाती है। इस पद्वति की तुलना प्राचीन पान क्रोशन पद्धति से की जा सकती है, जिसमें मुक्केबाजी का खुलकर प्रयोग होता था। पान क्रोशन[31]पद्धति में अत्यंत क्रूर दाँवपेंच भी वर्जित नहीं थे। प्राचीन ओलंपिक खेलों में इसका प्रचलन था। अमरीकन फ्री स्टाइल मल्लयुद्ध में पशुबल का प्रयोग नृशंसता से होता है, उसमें कला का नितांत अभाव है। इसकी नृशंसता बहुत कुछ गॉच की देन है; उन्होंने अपने विपक्षी हैकन इशमिड के विरुद्ध ऐसे दाँवपेचों का भी प्रयोग किया जो उस समय तक वर्जित माने जाते थे। उनके पश्चात स्ट्रैंगलर ल्यूइस जोजेफ़ स्टेचर को परास्त कर विश्वविजयी की उपाधि से विभूषित हुआ। गस सोननबर्ग द्वारा अमरीकन कुश्ती में नटों की कलाबाजी का प्रसार हुआ। वे अपने फुटबाल टैकिल[32] दाँव के लिए विख्यात थे और इसी का प्रयोगकर स्ट्रैंगलर ल्यूइस को उन्होंने पराजित किया था। अन्य विजेताओं में जिंम लंड्स तथा ओमोहोनी के नाम उल्लेखनीय है। अमरीका के आधुनिक मल्लों में लाउथेज ने भी विशेष ख्याति प्राप्त की है।[2] अमरीकन ढंग की इस कुश्ती में मल्लों के लिए वर्जित दाँवपेंचों तथा क्रियाकलापों की संख्या नहीं के बराबर है। केवल गला दबाना, केश खींचना तथा आँखों में अँगुली करना इसमें वर्जित है। कभी-कभी तो क्रुद्ध मल्ल निर्णायक तक पर आक्रमण कर बैठता है। अत: उसे अखाड़े में अत्यंत सर्तक रहना पड़ता है।

  1. विरोधी की दाहिनी बाँह के नीचे से गोता मार उसके पीछे पहुँच जाने की चेष्टा करें
  2. आपका विरोधी इस दाँव की रोक अपना दाहिना पैर एक कदम पीछे हटाकर करता है
  3. अब फुर्ती से अपना विरोधी की बाईं भुजा के नीचे से निकालकर
  4. कोल्हुवा दाँव[33] लगाएँ
  5. आपका विरोधी आपकी दाहिनी टाँग में अपनी बाईं टाँग फँसाकर आपके दाँव की रोक करता हैं
  6. अब आप अपनी दाहिनी टाँग से उसकी दोनों टाँगों में पीछे से लँगड़ी मारकर, उसे पीछे की तरफ गिराने की चेष्टा करें
  7. आपका विरोधी तुरंत हाथ के बल आगे की ओर झुककर अपने को बचाता है
  8. इस अवस्था में आप उसकी गर्दन को अपने बाएँ हाथ से पकड़ें और अपने बाएँ पैर से उसके बाएँ पैर को पीछे से फँसाकर, भीतर से लँगड़ी मारें
  9. विरोधी इसी दाँव को आपपर उलटा लगाकर रोक करता है
  10. दाहिनी तरफ से जोर का झटका देकर अपने बाएँ और टाँग को छुड़ा लें और विरोधी को दबाकर उसे अपने नीचे हाथों के बल झुक जाने को विवश करें। फुर्तीक से उसका जाँघिया दाहिने हाथ से पकड़ें। टिके हुए उसके दाहिने हाथ पर अपने बाएँ पाँव की टेक लगाकर उसे उखाड़िए
  11. अपने दाँव की रोक करने का अवसर विरोधी को न दीजिए। पहले फुर्ती से बैठ जाइए और उसे उठाकर जोर से अपने बाएँ घुमा दीजिए
  12. साथ ही साथ उसे दृढ़ता अपने शरीर के सहारे से उलट दीजिए और पीठ के बल भूमि पर दबाए रखिए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गोरखपुर
  2. 2.0 2.1 2.2 2.3 2.4 2.5 2.6 कुश्ती (हिन्दी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 10अगस्त, 2015।
  3. गोरखपुर
  4. चैंपियन ऑव चैंपियन्स
  5. कनिष्ठ
  6. XXIII700
  7. पदक
  8. Theseus
  9. (1932 ई.)
  10. (1936 ई.)
  11. Referee
  12. विराम घड़ी
  13. disc
  14. पंजाब
  15. उत्तर प्रदेश
  16. महाराष्ट्र
  17. महाराष्ट्र
  18. पटियाला
  19. दिल्ली
  20. सेना
  21. रेलवे
  22. सेना
  23. महाराष्ट्र
  24. हरियाणा
  25. दिल्ली
  26. दिल्ली
  27. Referee hold
  28. Dog fall
  29. Schwingen
  30. breeches
  31. Pan crotion)
  32. Football Tackle
  33. Cross buttock

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