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====स्मिथ के अनुसार====
 
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स्मिथ ने अपने एक परवर्ती लेख में बोधिसत्व के प्राप्ति-स्थान के संदर्भ में आपत्ति की जिस पर कनिंघम का सिद्धांत आधारित था। स्मिथ का यह अनुमान तर्कसंगत नहीं प्रतीत होता, क्योंकि पर्याप्त साहित्यिक और पुरातात्त्विक प्रमाणों ने श्रावस्ती का सहेत-महेत से समीकरण प्रमाणित कर दिया है। अधिक संभव है कि स्मिथ द्वारा अन्वेषित बालापुर के भग्नावशेष सेतव्य के हों। साहित्यक प्रमाणों से भी इस बात की पुष्टि होती है। पालि साहित्य<ref>सुत्तनिपात (सारनाथ संस्करण), पृष्ठ 212-13; जी.पी. मललसेकर, डिक्शनरी आफ पालि प्रापर नेम्स, भाग दो, (लंदन 1960), पृष्ठ 1126</ref> में सेतव्य को श्रावस्ती और राजगृह के मार्ग के बीच में स्थित कहा गया है। इस प्रकार सेतव्य, संभवत: श्रावस्ती और कपिलवस्तु के बीच कहीं स्थित रही होगी। अत: स्मिथ का यह कथन कि सेतव्या ही श्रावस्ती थी, उचित नहीं प्रतीत होता।  
 
स्मिथ ने अपने एक परवर्ती लेख में बोधिसत्व के प्राप्ति-स्थान के संदर्भ में आपत्ति की जिस पर कनिंघम का सिद्धांत आधारित था। स्मिथ का यह अनुमान तर्कसंगत नहीं प्रतीत होता, क्योंकि पर्याप्त साहित्यिक और पुरातात्त्विक प्रमाणों ने श्रावस्ती का सहेत-महेत से समीकरण प्रमाणित कर दिया है। अधिक संभव है कि स्मिथ द्वारा अन्वेषित बालापुर के भग्नावशेष सेतव्य के हों। साहित्यक प्रमाणों से भी इस बात की पुष्टि होती है। पालि साहित्य<ref>सुत्तनिपात (सारनाथ संस्करण), पृष्ठ 212-13; जी.पी. मललसेकर, डिक्शनरी आफ पालि प्रापर नेम्स, भाग दो, (लंदन 1960), पृष्ठ 1126</ref> में सेतव्य को श्रावस्ती और राजगृह के मार्ग के बीच में स्थित कहा गया है। इस प्रकार सेतव्य, संभवत: श्रावस्ती और कपिलवस्तु के बीच कहीं स्थित रही होगी। अत: स्मिथ का यह कथन कि सेतव्या ही श्रावस्ती थी, उचित नहीं प्रतीत होता।  
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==सहेत का उत्खनन==
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‘सहेत’ जो कि प्राचीन जेतवन विहार था, एक अत्यंत प्राचीन और महत्त्वपूर्ण स्थल था। यह संपूर्ण क्षेत्र 457.2 X 152.4 मीटर विस्तृत क्षेत्र में फैला था। यह टीला मैदान से 16 फुट ऊँचाई पर स्थित था। इस पुरातात्त्विक स्थल पर बड़ी संख्या में छोटे-छोटे टीले मिले हैं। इन टीलों में 20 का उत्खनन कनिंघम ने करवाया था। श्री होवी ने भी सहेत का उत्खनन करवाया था, लेकिन किसी भी भवन का पूर्ण उत्खनन न होने से तत्कालीन इतिहास पर प्रकाश नहीं पड़ता।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया (वार्षिक रिपोर्ट 1907-8), पृष्ठ 117</ref> विभिन्न उत्खननों से सहेत का जेतवन से समीकरण निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है। बौद्ध-स्थल होने के कारण यहाँ विशेष रूप से मंदिर, स्तूप और विहार मिलते हैं। इनमें से कुछ प्रमुख पुरातात्विक स्थल निम्नलिखित हैं-
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==== मंदिर और मठ स्थल 19 ====
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इसकी खोज सर्वप्रथम श्री होवी ने की थी।<ref>जर्नल आफ दि एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल, भाग 1, अतिरिक्त् संख्या 1892, प्लेट 5 </ref> उन्होंने सतह से 3 फुट नीचे इस भवन के चारों तरफ खुदाई करवाई जिससे इस मंदिर के दो बार निर्मित होने की पुष्टि होती है। निर्माण संरचना से यह भवन 10वीं शताब्दी का प्रतीत होता है, परंतु कालांतर में फोगल की अध्यक्षता में इस क्षेत्र का पुन: उत्खनन प्रारंभ हुआ, जिससे यह ज्ञात हुआ कि यह जेतवन में स्थित एक विशाल भवन था, जिसका प्रवेश-द्वार पूर्व की ओर था। इस मठ में एक मंदिर भी था। आँगनयुक्त इस मठ में बौद्ध भिक्षुओं के निवास के लिए 24 कमरे बने हुए थे।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-8, पृष्ठ 119 </ref> इस संरचना का निर्माण तीन बार इसी नींव पर हुआ था। प्रारंभिक भवन का निर्माण, जिसकी दीवार पर स्पष्ट हैं, छठी शताब्दी में हुआ था और मध्यवर्ती भवन का निर्माण-गुप्त काल में हुआ था। इसका काल-निर्धारण दीवारों की निर्माण-पद्धति एवं एक कमरे से प्राप्त पकाई मिट्टी की मुहर से संभव हुआ। इस मुहर में बुद्ध को धर्मचक्र-प्रवर्तन मुद्रा में अंकित दिखाया गया है और नीचे गुप्त-लिपि में तीन पंक्तियाँ अंकित हैं। परवर्ती भवन इसी नींव पर 10वीं शताब्दी में निर्मित हुआ था। श्री होवी के उत्खनन से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है।
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;अन्य उत्खनित वस्तु
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अन्य उत्खनित वस्तुओं में बुद्ध प्रतिमाओं की संख्या अधिक है। इनमें से एक प्रतिमा अविलोकितेश्वर व मैत्रेय के साथ भूमि स्पर्श मुद्रा में है। एक अन्य मूर्ति में भगवान् बुद्ध एक बंदर से कटोरा ग्रहण कर रहे हैं। यह दृश्य वैशाली की उस घटना का विवरण प्रस्तुत करता है। जिसमें बुद्ध एक बंदर से शहद ग्रहण करते हुए प्रदर्शित किए गए हैं। ये दोनों मूर्तियाँ 9वीं-10वीं शताब्दी की हैं।
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;नवीनतम संरचना
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इस स्थान पर नवीनतम संरचना 11वीं-12वीं शताब्दी में हुई, जो चौकोर है। इसका एक भाग 35.90 मीटर विस्तृत है। इसके आंतरिक भाग के बीच में एक खुला आँगन था, जिसके चारों ओर कक्ष बने हुए थे। कक्ष और आँगन के मध्य गलियारा भी था। इसमें बने कमरे छोटे आकार के हैं। एक कमरे में पश्चिमी दीदीवार ओर एक ईंट का बना 1.20 मीटर का चबूतरा था। यहीं एक कमरे से कन्नौज के शासक गोविंद्रचन्द्र गहड़वाल का लिखित ताम्रपत्र मिला है।<ref>देबला मित्रा, बुद्धिस्ट मानुमेंट्स (कलकत्ता, प्रथम संस्करण, 1971), पृष्ठ 77 </ref> इन महत्त्वपूर्ण सूचनाओं से जेतवन की सहेत से समानता निश्चित हो जाती है। साथ ही इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ बौद्ध धर्म का प्रभाव 12वीं शताब्दी तक स्थाई रहा।
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;स्तूप
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मठ के समीपवर्ती पूर्व और उत्तर-पूर्व कई स्तूपों का निर्माण हुआ, जिनमें आठ स्तूप मुख्य है। इनमें से एक स्तूप का नवीनीकरण दयाराम साहनी द्वारा किया गया यहाँ से 5वीं शताब्दी की एक लिपियुक्त मुहर मिली है जिस पर बुद्धदेव का नाम अंकित है। इन स्तूपों के उत्तर-पश्चिम एक अष्टभुजीय कुआँ स्थित था, जो आज भी वर्तमान है।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-8, पृष्ठ 120 </ref>
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====मंदिर स्थल 11 और 12====
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ये दोनों भवन एक समान थे। इनका प्रवेश-द्वार उत्तराभिमुख था। प्रत्येक मंदिर एक केंद्रीय कक्ष से युक्त था जो अंदर से 2.10 मीटर (7 फुट) चौकोर क्षेत्र में विस्तृत था। इस कक्ष में एक 6 इंच ऊँचा ईंटों का चबूतरा था। मंदिर के दोनों किनारे के कक्ष अपेक्षाकृत बड़े थे, जिनकी भीतरी लंबाई-चौड़ाई 10 फुट X 9 फुट थी। केंद्रीय कक्ष की बनावट से ऐसा प्रतीत होता है कि उसमें बुद्ध प्रतिमा स्थापित रही होगी और किनारे के कमरों में अन्य देवताओं की प्रतिमाएँ स्थापित रही होंगी। कनिंघम का मत है कि मध्य का कमरा बुद्ध प्रतिमा से युक्त रहा होगा और किनारे के कमरे बौद्ध-भिक्षुओं के आवासगृह रहे होंगे।<ref>तत्रैव, 1907-8, पृष्ठ 121</ref>
  
  

12:06, 29 जून 2011 का अवतरण

प्राचीन जैन मंदिर के अवशेष, श्रावस्ती

भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के गोंडा-बहराइच ज़िलों की सीमा पर यह बौद्ध तीर्थ स्थान है। गोंडा-बलरामपुर से 12 मील पश्चिम में आधुनिक सहेत-महेत गांव ही श्रावस्ती है। पहले यह कौशल देश की दूसरी राजधानी थी, भगवान राम के पुत्र लव ने इसे अपनी राजधानी बनाया था, श्रावस्ती बौद्ध जैन दोनों का तीर्थ स्थान है, तथागत श्रावस्ती में रहे थे, यहाँ के श्रेष्ठी अनाथपिण्डिक ने भगवान बुद्ध के लिये जेतवन बिहार बनवाया था, आजकल यहाँ बौद्ध धर्मशाला, मठ और मन्दिर है।

प्राचीन नगर

यह कोसल-जनपद का एक प्रमुख नगर था। वहाँ का दूसरा प्रसिद्ध नगर अयोध्या था। श्रावस्ती नगर अचिरावती नदी के तट पर बसा था, जिसकी पहचान आधुनिक राप्ती नदी से की जाती है। इस सरिता के तट पर स्थित आज का सहेट-महेट प्राचीन श्रावस्ती का प्रतिनिधि है। इस नगर का यह नाम क्यों पड़ा, इस संबन्ध में कई तरह के वर्णन मिलते हैं। बौद्ध धर्म -ग्रन्थों के अनुसार इस समृद्ध नगर में दैनिक जीवन में काम आने वाली सभी छोटी-बड़ी चीजें बहुतायत में बड़ी सुविधा से मिल जाती थीं, अतएव इसका यह नाम पड़ गया था।

स्थिति

प्राचीन श्रावस्ती के अवशेष आधुनिक ‘सहेत’-‘महेत’ नामक स्थानों पर प्राप्त हुए हैं।[1] यह नगर 27°31’ उत्तरी अक्षांश और 82°1’ पूर्वी देशांतर पर स्थिर था।[2] ‘सहेत’ का समीकरण ‘जेतवन’ से तथा ‘महेत’ का प्राचीन श्रावस्ती नगर से किया गया है। प्राचीन टीला एवं भग्नावशेष गोंडा एवं बहराइच ज़िलो की सीमा पर बिखरे पड़े हैं, जहाँ बलरामपुर स्टेशन से पहुँचा जा सकता है। बहराइच एवं बलरामपुर से इसकी दूरी क्रमश: 26 एवं 10 मील है।[3] आजकल ‘सहेत’ (जेतवन) का भाग बहराइच ज़िले में और ‘महेत’ गोंडा जिले में पड़ता है। बलरामपुर-बहराइच मार्ग पर सड़क से 800 फुट की दूरी पर ‘सहेत’ स्थित है जबकि ‘महेत’ 1/3 मील की दूरी पर स्थित है।[4]विंसेंट स्मिथ ने सर्वप्रथम श्रावस्ती का समीकरण चरदा से किया था जो ‘सहेत-महेत’ से 40 मील उत्तर-पश्चिम में स्थित है।[5] लेकिन जेतवन के उत्खनन से गोविंद चंद गहड़वाल के 1128 ई. के एक अभिलेख की प्राप्ति से इसका समीकरण ‘सहेत-महेत’ से निश्चित हो गया है।[6]

प्राचीन श्रावस्ती नगर अचिरावती नदी (आधुनिक राप्ती) के तट पर स्थित था।[7] यह नदी नगर के समीप ही बहती थी। बौद्ध युग में यह नदी नगर को घेर कर बहती थी।[8] बौद्ध साहित्य में श्रावस्ती का वर्णन कोशल जनपद की राजधानी और राजगृह से दक्षिण-पश्चिम में कालक और अस्सक तक जाने वाले राजमार्ग पर सावत्थी नामक दो महत्त्वपूर्ण पड़ावों के रूप में मिलता है।[9][10]

जेतवन, श्रावस्ती
Jetavana, Sravasti

नाम की उत्पत्ति

श्रावस्ती कोशल का एक प्रमुख नगर था। भगवान बुद्ध के जीवन काल में यह कोशल देश की राजधानी थी।[11] इसे बुद्धकालीन भारत के 6 महानगरों (चंपा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत, कोशांबी और वाराणसी) में एक माना जाता था।[12] इसके नाम की व्युत्पत्ति के संबंध में कई मत प्रतिपादित है। सावत्थी, संस्कृत श्रावस्ती का पालि और अर्द्धमागधी रूप है।[10] बौद्ध ग्रन्थों में इस नगर के नाम की उत्पत्ति के विषय में एक अन्य उल्लेख भी मिलता है। इनके अनुसार सवत्थ (श्रावस्त) नामक एक ऋषि यहाँ पर रहते थे, जिनकी बड़ी ऊँची प्रतिष्ठा थी। इन्हीं के नाम के आधार पर इस नगर का नाम श्रावस्ती पड़ गया था। पाणिनि ने, जिनका समय आज से नहीं कुछ तो चौबीस या पचीस सौ साल पहले था, अपने प्रसिद्ध व्याकरण-ग्रन्थ 'अष्टाध्यायी' में साफ लिखा है कि स्थानों के नाम वहाँ रहने वाले किसी विशेष व्यक्ति के नाम के आधार पर पड़ जाते थे। महाभारत के अनुसार श्रावस्ती के नाम की उत्पत्ति का कारण कुछ दूसरा ही था। ब्राह्मण साहित्य, महाकाव्यों एवं पुराणों के अनुसार श्रावस्ती का नामकरण श्रावस्त या श्रावस्तक के नाम के आधार पर हुआ था। श्रावस्तक युवनाश्व का पुत्र था और पृथु की छठी पीढ़ी में उत्पन्न हुआ था। [13][10] वही इस नगर के जन्मदाता थे और उन्हीं के नाम के आधार पर इसका नाम श्रावस्ती पड़ गया था। पुराणों में श्रावस्तक नाम के स्थान पर श्रावस्त नाम मिलता है। महाभारत में उल्लिखित यह परम्परा उपर्युक्त अन्य परम्पराओं से कहीं अधिक प्राचीन है। अतएव उसी को प्रामणिक मानना उचित बात होगी। मत्स्य एवं ब्रह्मपुराणों में इस नगर के संस्थापक का नाम श्रावस्तक के स्थान पर श्रावस्त मिलता है। [14][10]बाद में चल कर कोसल की राजधानी, अयोध्या से हटाकर श्रावस्ती ला दी गई थी और यही नगर कोसल का सबसे प्रमुख नगर बन गया। एक बौद्ध ग्रन्थ के अनुसार वहाँ 57 हज़ार कुल रहते थे और कोसल-नरेशों की आमदनी सबसे ज़्यादा इसी नगर से हुआ करती थी। गौतम बुद्ध के समय में भारतवर्ष के 6 बड़े नगरों में श्रावस्ती की गणना हुआ करती थी। यह चौड़ी और गहरी खाई से घिरा हुआ था। इसके अतिरिक्त इसके इर्द-गिर्द एक सुरक्षा-दीवाल भी थी, जिसमें हर दिशा में दरवाजे बने हुये थे। हमारी प्राचीन कला में श्रावस्ती के दरवाजों का अंकन हुआ है। उससे ज्ञात होता है कि वे काफ़ी चौड़े थे और उनसे कई बड़ी सवारियाँ एक ही साथ बाहर निकल सकती थीं। कोसल के नरेश बहुत सज-धज कर बड़ी हाथियों की पीठ पर कसे हुये चाँदी या सोने के हौदों में बैठ कर बड़े ही शान के साथ बाहर निकला करते थे। चीनी यात्री फाहियान और हुयेनसांग ने भी श्रावस्ती के दरवाजों का उल्लेख किया है। श्रावस्ती एक समृद्ध, जनाकीर्ण और व्यापारिक महत्त्व वाली नगरी भी। यहाँ मनुष्यों के उपभोग-परिभोग की सभी वस्तुएँ सुलभी थीं अत: इसे सावत्थी (सब्ब अत्थि) कहा जाता था।[15] पहले यह केवल एक धार्मिक स्थान था, किंतु कालांतर में इस नगर का समुत्कर्ष हुआ। जैन साहित्य में इसके लिए चंद्रपुरी[16] तथा चंद्रिकापुरी नाम भी मिलते हैं। महाकाव्यों एवं पुराणों में श्रावस्ती को राम के पुत्र लव की राजधानी बताया गया है। कालिदास[17] ने इसे ‘सारावती’ नाम से अभिहित किया है। उच्चारण संबंधी समानता के आधार पर ‘श्रावस्ती’ और ‘सारावती’ दोनों एक ही प्रतीत होते हैं और एक निश्चित स्थान की तरफ इंगित भी करते हैं।

श्रावस्ती न केवल बौद्ध और जैन धर्मों का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र था अपितु यह ब्राह्मण धर्म एवं वेद विद्या का भी एक महत्वपूर्ण केंद्र था। यहाँ वैदिक शिक्षा केंद्र के कुलपति के रूप में जानुस्सोणि का नामोल्लेख मिलता है।[18] कालांतर में बुद्ध के जीवन-काल से संबंधित तथा प्रमुख व्यापारिक मार्गों से जुड़े होने के कारण श्रावस्ती की भौतिक समृद्धि में वृद्धि हुई।[10]

नगर का विकास

स्तूप, जेतवन, श्रावस्ती

हमारे कुछ पुराने ग्रन्थों के अनुसार कोसल का यह प्रधान नगर सर्वदा रमणीक, दर्शनीय, मनोरम और धनधान्य से संपन्न था। इसमें सभी तरह के उपकरण मौजूद थे। इसको देखने से लगता था, मानों देवपुरी अकलनन्दा ही साक्षात धरातल पर उतर आई हो। नगर की सड़कें चौड़ी थीं और इन पर बड़ी सवारियाँ भली भाँति आ सकती थीं नागरिक श्रृंगार-प्रेमी थे। वे हाथी, घोड़े और पालकी पर सवार होकर राजमार्गों पर निकला करते थे। इसमें राजकीय कोष्ठागार (कोठार) बने हुये थे जिनमें घी, तेल और खाने-पीने की चीजें प्रभूत मात्रा में एकत्र कर ली गई थीं। वहाँ के नागरिक गौतम बुद्ध के बहुत बड़े भक्त थे। 'मिलिन्दप्रश्न' नामक ग्रन्थ में चढ़ाव-बढ़ाव के साथ कहा गया है कि इसमें भिक्षुओं की संख्या 5 करोड़ थी। इसके अलावा वहाँ के तीन लाख सत्तावन हज़ार गृहस्थ बौद्ध धर्म को मानते थे। इस नगर में जेतवन नाम का एक उद्यान था जिसे वहाँ के जेत नामक राजकुमार ने आरोपित किया था। इस नगर का अनाथपिण्डिक नामक सेठ जो बुद्ध का प्रिय शिष्य था, इस उद्यान के शान्तिमय वातावरण से बड़ा प्रभावित था। उसने इसे ख़रीद कर बौद्ध संघ को दान कर दिया था। बौद्ध ग्रन्थों में कथा आती है कि इस पूँजीपति ने जेतवन को उतनी ही मुद्राओं में ख़रीदी थीं जितनी की बिछाने पर इसकी पूरी फर्श को भली प्रकार ढक देती थीं। उसने इसके भीतर एक मठ भी बनवा दिया जो कि श्रावस्ती आने पर बुद्ध का विश्रामगृह हुआ करता था। इसे लोग 'कोसल मन्दिर' भी कहते थे। अनाथपिंडिक ने जेतवन के भीतर कुछ और भी मठ बनवा दिये जिनमें भिक्षु लोग रहते थे। इनमें प्रत्येक के निर्माण में एक लाख मुद्रायें ख़र्च हुई थीं। इसके अतिरिक्त उसने कूएँ, तालाब और चबूतरे आदि का भी वहाँ निर्माण करा दिया था। बौद्ध ग्रन्थों में वर्णन मिलता है कि जेतवन में रहने वाले भिक्षु सुबह और शाम राप्ती नदी में नहाने के लिये आते थे। लगता है कि यह उद्यान इसके तट के समीप ही कहीं स्थित था। अनाथपिंडिक ने अपने जीवन की सारी कमाई बौद्ध संघ के हित में लगा दी थी। उसके घर पर श्रमणों को बहुसंख्या में प्रति दिन यथेष्ट भोजन कराया जाता था। गौतम बुद्ध के प्रति श्रद्धा के कारण श्रावस्ती नरेशों ने इस नगर में दानगृह बनवा रखा था, जहाँ पर भिक्षुओं को भोजन मिलता था।

जेतवन, श्रावस्ती
Jetavana, Sravasti

महाकाव्यों तथा पुराणों में वर्णित श्रावस्ती

महाकाव्यों में श्रावस्ती का विशद वर्णन मिलता है। वायु पुराण[19] और रामायण[20] में दो कोशल नगरों की चर्चा है:-

  • उत्तर कोशल जिसकी राजधानी श्रावस्ती थी,
  • दक्षिण कोशल जिसकी राजधानी कुशावती थी।

राम के शासन काल में इन दोनों राजधानियों का वर्णन मिलता है। राम ने अपने पुत्र लव को श्रावस्ती का और कुश को कुशावती का राजा बनाया था।[21] वर्तमान समय में श्रावस्ती बलरामपुर से 10 मील, अयोध्या से 58 मील तथा राजगीर से 720 मील दूर स्थित है।[22] मत्स्य, लिंग और कूर्म पुराणों में श्रावस्ती को गौडा में स्थित बतलाया गया है, जिसका समीकरण कनिंघम ने आधुनिक गोंडा से किया है।[23] श्रावस्ती की संस्थापना श्रावस्तक ने की थी। वायु पुराण के अनुसार श्रावस्तक के पिता का नाम अंध था।[24] मत्स्य[25] और ब्रह्म पुराणों[26] में श्रावस्त (श्रावस्तक) को युवनाश्व का पुत्र और अद्र का पौत्र कहा गया है (वायुपुराण के अनुसार यह अंध्र तथा भागवत पुराण के अनुसार चंद्र था)।[27] महाभारत में इनसे अलग सूचना मिलती है। इसमें श्रावस्तक को श्राव का पुत्र तथा युवनाश्व का पौत्र कहा गया है।[28] कुछ पुराणों में श्रवस्तक (श्रावस्तक) को युवनाश्व का पुत्र और आद्र का पौत्र कहा गया है।[29]

जातकों में वर्णित श्रावस्ती

जातकों में श्रावस्ती का विशद वर्णन मिलता है। इनके अनुसार श्रावस्ती का धार्मिक वायुमंडल बौद्ध धर्म से अधिक प्रभावत था। इस नगर में गौतम बुद्ध के अनेक व्याख्यान हुए थे, जिनसे प्रभावित होकर समस्त वर्गों के अनेक व्यक्तियों ने इस धर्म को अपना लिया था। नगर-श्रेष्ठी अनाथपिंडक बुद्ध का परम भक्त था। उसके घर में पाँच सौ भिक्षुओं के निमित्त प्रतिदिन भोजन तैयार कराया जाता था।[30] कहा जाता है कि अनाथपिंडक ने अपने द्वारा बनवाए हुए सभी भवनों को बौद्ध संघ को समर्पित कर दिया था। समर्पण की यह क्रिया बड़े समारोह के साथ संपादित हुए थी। इसमें उसने 18 करोड़ मुद्राएँ व्यय की थीं।[31] इन निवास गृहों में गंधकुटी, करेरिकुटी तथा कोसंबकुटी उल्लेखनीय हैं। कोसंबकुटी एवं करेरिकुटी का नामकरण उसके समीप करेरि और कोसंब वृक्षों के नाम के आधार पर हुआ।[32] गंधकुटी जेतवन के मध्य बनी हुई थी।[33] पाटिकाराम नामक एक अन्य विहार भी श्रावस्ती के ही समीप था। जब सुनक्षत्र लिच्छवि पुत्र भिक्षु संघ को छोड़कर गया, तब भगवान् इस विहार में ही निवास कर रहे थे।[34] एक अन्य विहार राजकाराम था जो पसेनादि (प्रसेनजित) द्वारा बनवाया गया था। यह नगर के दक्षिण-पश्चिम स्थित था।[35] यहीं पर आम्रवनों के बीच एक बड़ा तालाब था जिसे जेतवन पोक्खरणि के नाम से जाना जाता था। इसके चारों तरफ उपवन इतने घने थे कि यह एक जंगल के समान प्रतीत होता था।[36] श्रावस्तीवासियों ने बुद्ध प्रमुख भिक्षु संघ को आतिथ्य सत्कार की इच्दा से दान दिया। उन्होंने विहार में एक धर्मघोष[37] नामक भिक्षु को नियुक्त किया।[38] श्रावस्ती से व्यापार का भी उल्लेख जातकों में आया है। व्यापारियों द्वारा एक पुराने जलाशय को खोदने से लोहा, जस्ता, शीशा, रत्न, सोना, मुक्ता और बिल्लौर आदि धातुएँ प्राप्त हुई थीं।[39] कुंभ जातक में श्रावस्ती में सामूहिक सुरा-उत्सव मनाने का उल्लेख मिलता है।[40]

बौद्ध साहित्य में श्रावस्ती

बुद्ध काल में कोशल जैसे समृद्धशाली जनपद की राजधानी होने के कारण श्रावस्ती का ऊँचा स्थान था। साथ ही बौद्ध धर्म के प्रचार का प्रमुख केंद्र होने के कारण बौद्ध साहित्य में इस नगर का विशद वर्णन मिलता है। ललितविस्तर[41] के अनुसार श्रावस्ती कोशल जनपद की राजधानी थी। यह राजाओं, राजकुमारों, मंत्रियों, सभासदों तथा उनके समर्थकों-क्षत्रियों, ब्राह्मणों एवं गृहस्वामियों से भरी हुई थी।[42] इस नगर के नागरिक तथागत के बड़े प्रशंसक थे। बौद्ध धर्म के प्रचार की ओर संकेत करते हुए मिलिंदपन्हों में भिक्षुओं की संख्या 5 करोड़ बतलायी गई है[43], जो निश्चय ही अतिरंजना है। बुद्धघोष के अनुसार उस समय श्रावस्ती में 57 हजार परिवार निवास करते थे। [44] इसी ग्रंथ में यहाँ की जनसंख्या 18 करोंड़ बताई गई है, जो स्पष्टत: अतिरंजित है।[45]

व्यापार का केंद्र

श्रावस्ती की भौतिक समृद्धि का प्रमुख कारण यह था कि यहाँ पर तीन प्रमुख व्यापारिक पथ मिलते थे जिससे यह व्यापार का एक महान केंद्र बन गया था। यह नगर पूर्व में राजगृह से, उत्तर-पश्चिम में तक्षशिला से और दक्षिण में प्रतिष्ठान से जुड़ा हुआ था।[46] राजगृह से 45 योजन दूर आकर बुद्ध (शास्ता) ने श्रावस्ती में विहार किया था।[47] श्रावस्ती से राजगृह का रास्ता वैशाली होकर गुजरता था। यह मार्ग सेतव्य, कपिलवस्तु, कुशीनारा ([48]), पावा, भोगनगर और वैशाली से होकर जाता था।[49] प्रतिष्ठान को जाने वाला मार्ग साकेत, कोशांबी, विदिशा, गोनधा और उज्जैन से होकर गुजरता था। इस नगर का संबंध वाराणसी से भी था।[50] इन दोनों के मध्य कोटागिरी नामक स्थान पड़ता था।[51] श्रावस्ती से तक्षशिक्षा का मार्ग सोरेय्य (सोरों) होते हुए जाता था। इस मार्ग में सार्थ निरंतर चलते रहते थे।[52] इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रावस्ती का बौद्ध काल में भारत के सभी प्रमुख नगरों से घनिष्ट व्यापारिक संबंध था।

पालि साहित्य में श्रावस्ती

पालि साहित्य में विभिन्न नगरों से श्रावस्ती की दूरी दी हुई है, जिससे उसका व्यापारिक महत्त्व प्रकट होता है। श्रावस्ती से तक्षशिला 192 योजन[53], संकाश्य (संकीसा) से 30 योजन[54], साकेत 6 योजन, राजगृह 60 योजन, मच्छिकासंड 30 योजन[55] उग्रनगर 120 योजन तथा चंद्रभागा नदी (चेनाव) 120 योजन[56] पर थी। प्राचीन भारत में ‘योजन’ की माप निश्चित न होने के कारण श्रावस्ती से इन स्थानों की वास्तविक दूरी निश्चित करना कठिन है।

श्रावस्ती से भगवान बुद्ध के जीवन और कार्यों का विशेष संबंध था। उल्लेख्य है कि बुद्ध ने अपने जीवन के अंतिम पच्चीस वर्षों के वर्षावास श्रावस्ती में ही व्यतीत किए थे। बौद्ध धर्म के प्रचार की दृष्टि से भी श्रावस्ती का महत्त्वपूर्ण स्थान था। भगवान् बुद्ध ने प्रथम निकायों के 871 सुत्तों का उपदेश श्रावस्ती में दिया था, जिनमें 844 जेतवन में, 23 पुब्बाराम में और 4 श्रावस्ती के आस-पास के अन्य स्थानों में उपदिष्ट किए गए।[57] बौद्ध धर्म प्रचार केंद्र के रूप में श्रावस्ती की ख्याति का ज्ञान यहाँ उपदिष्ट सूत्रों के आधार पर निश्चित हो जाता है।

जेतवन

बुद्ध के जीवन-काल में श्रावस्ती के दक्षिण में स्थित जेतवन एवं पुब्बाराम दो प्रसिद्ध वैहारिक अधिष्ठान एवं बौद्धमत के प्रभावशाली केंद्र थे। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार जेतवन का आरोपण, संवर्धन तथा परिपालन जेत नामक एक राजकुमार द्वारा किया गया था।[58] राजगृह मे वेणुवन और वैशाली के महावन के ही भाँति जेतवन का भी विशेष महत्त्व था।[59] इस नगर में निवास करने वाले अनाथपिंडक ने जेतवन में विहार (भिक्षु विश्राम स्थल), परिवेण (आँगनयुक्त घर), उपस्थान शालाएँ (सभागृह), कापिय कुटी (भंडार), चंक्रम (टहलने के स्थान), पुष्करणियाँ और मंडप बनवाए।[60] अनाथपिंडक के निमंत्रण पर भगवान बुद्ध श्रावस्ती स्थित जेतवन पहुँचे। अनाथापिण्डक ने उन्हें खाद्य भोज्य अपने हाथों से अर्पित कर जेतवन को बौद्ध संघ कोदान कर दिया। इसमें अनाथ पिंडक को 18 करोड़ मुद्राओं को व्यय करना पड़ा था। उल्लेखनीय है कि इस घटना का अंकन भरहुत कला में भी हुआ है।[61] तथागत ने जेतवन में प्रथम वर्षावास बोधि के चौदहवें वर्ष में किया था। इससे यह निश्चित होता है कि जेतवन का निर्माण इसी वर्ष (514-513 ई. वर्ष पूर्व) में हुआ होगा। उल्लेखनीय है कि जेतवन के निर्माण के पश्चात् अनाथपिण्डक ने तथागत को निमंत्रित किया था।

पुब्बाराम

जेतवन के पश्चात दूसरा महत्त्वपूर्ण स्थान पुब्बाराम (पूर्वाराम) था। इसका निर्माण नगर के एक प्रमुख धनिक सेठ मिगार (मृगधर) की पुत्रवधू विशाखा ने कराया था। यह नगर के पूर्वी द्वार के पास स्थित था।[62] संभवत: इसीलिए इसका नाम पूर्वाराम पड़ा। इसके निर्माण तथा समर्पण में लगभग 27 करोड़ मुद्राओं का व्यय करना पड़ा था। यह लकड़ी (रुक्ख) तथा पत्थर द्वारा निर्मित था, जिसमें दो मंजिलें थीं।[63] पूर्वाराम विहार की आधुनिक स्थिति सहत-महेत के पास उनके पूर्व का हनुमनवा स्थान है।

नगर का वर्णन

इसके अतिरिक्त बौद्ध साहित्य में मल्लिकाराम का निर्माण प्रसेनजित की महारानी मल्लिका द्वारा किया गया था। यह एक परिब्राजकाराम था; जहाँ विभिन्न सम्प्रदायों के मध्य शास्त्रार्थ होता था। तीर्थकाराम एक बड़ा आराम था जिसमें 700 से 3000 तक परिब्राजक निवास कर सकते थे। इस नगर की परिखा, प्राकार एवं नगर द्वार के विषय में प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख मिलते हैं। उस समय भवन निर्माण में मुख्यत: लकड़ी का उपयोग होता था। नगर के चारों ओर मिट्टी के प्राकार बने थे। नगर के द्वार एवं राजमार्ग पर्याप्त चौड़े थे। संयुक्त-निकाय में उल्लेख है कि यहाँ के नागरिक हाथी (हत्थिखंडम् भारोहेय्य) राजमार्गों पर निकलते थे।[64] श्रावस्ती में मूख्यत: चार दरवाजे थे, जिनमें तीन तो उत्तर-पूर्व एवं दक्षिण दरवाजों के नाम से प्रसिद्ध थे। इनमें से जेतवन से नगर में आने का प्रवेश द्वार दक्षिण द्वार था। पूर्वाराम पूर्व दरवाजे के सामने था। इनके अतिरिक्त पश्चिम दरवाजे का होना भी स्वाभाविक है तथापि इसका वर्णन त्रिपिटक या अट्ठकथा में नहीं मिलता। उल्लेखनीय है इन प्रवेश-द्वारों के अतिरिक्त उत्खनन से कई अन्य प्रवेश द्वारों का भी पता चला है लेकिन ये दरवाजे वास्तविक नहीं थे। बल्कि समय-समय पर प्राकारों के बिर जाने के कारण सुविधानुसार प्रयोग में लाए गए स्थानापन्न दरवाजे थे।[65]

अन्य प्रसिद्ध स्थान

इस नगर के अन्य प्रसिद्ध स्थानों में पूर्वाराम और मल्लिकाराम उल्लेखनीय हैं। पूर्वाराम का निर्माण नगर के धनिक सेठ मृगधर की पुत्रवधु विशाखा के द्वारा कराया गया था। यह नगर के पूर्वी दरवाजे के पास बना था। संभवत: इसीलिये इसका नाम पूर्वाराम (अर्थात पूरबी मठ) पड़ा। यह दो मंज़िला भवन था, जिसमें मजबूती लाने के लिये पत्थरों की चुनाई की गई थी। लगता है कि मल्लिकाराम इससे बड़ा विश्राम-भवन था, जिसमें ऊपर और नीचे कई कमरे थे। इसका निर्माण श्रावस्ती की मल्लिका नाम की साम्राज्ञी के द्वारा कराया गया था। नगरों में आने वाले बौद्ध परिब्राजक, निर्ग्रन्थ, जैन साधु-संन्यासी और नाना धर्मों के अनुयायियों के विश्राम तथा भोजन-वस्त्र की पूरी सुख-सुविधा थी। गौतम बुद्ध के प्रिय शिष्य आनन्द, सारिपुत्र, मौद्गल्यायन तथा महाकाश्यप आदि ने भी वहाँ के नागरिकों को अपने सदुपदेशों से प्रभावित किया था। उनकी अस्थियों के ऊपर यहाँ स्तूप बने हुये थे। अशोक धर्म-यात्रा के प्रसंग में श्रावस्ती आया हुआ था। उसने इन स्तूपों पर भी पूजा चढ़ाई थी।

जैन धर्म

जेतवन, श्रावस्ती
Jetavana, Sravasti

इस नगर में जैन मतावलंबी भी रहते थे। इस धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी वहाँ कई बार आ चुके थे। नागरिकों ने उनका दिल खोल कर स्वागत किया और अनेक उनके अनुयायी बन गये। वहाँ पर ब्राह्मण मतावलंबी भी मौजूद थे। वेदों का पाठ और यज्ञों का अनुष्ठान आदि इस नगर में चलता रहता था। मल्लिकाराम में सैकड़ों ब्राह्मण साधु धार्मिक विषयों पर वादविवाद में संलग्न रहा करते थे। विशेषता यह थी कि वहाँ के विभिन्न धर्मानुयायियों में किसी तरह के सांप्रदायिक झगड़े नहीं थे।


लगता है कि जैसे-जैसे कोसल-साम्राज्य का अध:पतन होने लगा, वैसे-वैसे श्रावस्ती की भी समृद्धि घटने लगी। जिस समय चीनी यात्री फाहियान वहाँ पहुँचा, उस समय वहाँ के नागरिकों की संख्या पहले की समता में कम रह गई थी। अब कुल मिला कर केवल दो सौ परिवार ही वहाँ रह गये थे। पूर्वाराम, मल्लिकाराम और जेतवन के मठ खंडहर को प्राप्त होने लगे थे। उनकी दशा को देखकर वह दुखी हो गया। उसने लिखा है कि श्रावस्ती में जो नागरिक रह गये थे, वे बड़े ही अतिथि-परायण और दानी थे। हुयेनसांग के आगमन के समय यह नगर उजड़ चुका था। चारों ओर खंडहर ही दिखाई दे रहे थे। वह लिखता है कि यह नगर समृद्धिकाल में तीन मील के घेरे में बसा हुआ था। आज भी अगर आप को गोंडा ज़िले में स्थित सहेट-महेट जाने का अवसर मिले, तो वहाँ श्रावस्ती के विशाल खंडहरों को देख कर इसके पूर्वकालीन ऐश्वर्य का अनुमान आप लगा सकते हैं।

जैन ग्रंथों में वर्णित श्रावस्ती

बौद्ध मतावलंबियों की भाँति जैन धर्मानुयायी भी इस नगर को इस प्रमुख धार्मिक स्थान मानते थे। वे इसे चंद्रपुरी या चंद्रिकापुरी के नाम से अभिहित करते थे। जैन धर्म के प्रचार कंद्र के रूप में भी यह विख्यात था। श्रावस्ती जैन धर्म के तीसरे तीर्थंकर संभवनाथ[66] व आठवें तीर्थंकर चंद्रप्रभानाथ[67] की जन्मस्थली थी। महावीर ने भी यहाँ एक वर्षावास व्यतीत किया था।[68] जैन साहित्य में सावत्थि अथवा सावत्थिपुर के प्रचुर उल्लेख मिलते हैं। तृतीय तीर्थंकर संभवनाथ के गर्भ, जनम, तप और केवल ज्ञान कल्याणक यहीं संपन्न हुए थे। एक मत के मतानुसार श्रीवास्त द्वारा इस नगर की स्थापना की गई और इन्हीं के नाम पर इसका श्रावस्ती नाम पड़ा।[69] श्रावस्ती के महाश्रेष्ठि नंदिनीप्रिय, नागदत्त आदि से जैन धरृम के अध्ययनार्थ श्रावस्ती में लोग दूर-दूर से आते थे। इसमें कश्यप के पुत्र कपिल एवं जैन विद्वान केशी के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।[70] जैन ग्रंथ भगवती सूत्र (320 ई.पू. से 600 ई. से मध्य) के अनुसार श्रावस्ती नगर आर्थिक क्षेत्र में भौतिक समृद्धि के चरमोत्कर्ष पर थी। यहाँ के व्यापारियों में शंख और मक्खलि मुख्य थे जिन्होंने यहाँ के नागरिकों के भौतिक समृद्धि के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था।[71]

इस नगर में एक बहुत ही धनी श्रेष्ठि मिगार था जो जैन धर्म का प्रबल समर्थक था जबकि उसकी पुत्रवधू विशाखा बौद्ध धर्म की अनुयायी थी।[72] भगवती मूत्र से पता चलता है कि आजीवक संप्रदाय का प्रधान मक्खलिपुत्र गोशाल महावीर का शिष्य था। जैने स्रोतों से पता चलता है कि कालांतर में श्रावस्ती आजीवक संप्रदाय का एक प्रमुख केंद्र बन गया। हरमन जैकोबी[73] और बी.एम. बरुआ[74] का मत है कि कुछ दिनों तक महावीर, मक्खलिपुत्र गोशाल के शिष्य थे। मक्खलिपुत्र गोशाल का जन्म श्रावस्ती में हुआ था। गोशाल महावीर से उम्र में बड़ा था। बाद में सिद्धांतीय मतभेदों के कारण गोशाल ने महावीर का साथ छोड़ दिया और आजीवक संप्रदाय के प्रमुख के रूप में श्रावस्ती में 16 वर्ष व्यतीत किए।[75]

संभवनाथ का मंदिर

ईसा के पूर्व ही यहाँ संभवनाथ का एक मंदिर निर्मित हुआ था। फाह्यान ने जब श्रावस्ती की यात्रा की थी उस समय इस मंदिर का अवशेष मात्र शेष था। इस स्थल पर उत्खनन से एक नवीन जैन-मंदिर (शोभनाथ) के अवशेष मिले हैं, जिसकी ऊपरी बनावट से यह मध्य युग का प्रतीत होता था। साथ ही बहुत सी जैन प्रतिमाएँ भी मिली हैं।[76] यह नगर अधिक समय तक श्वेतांबर जैन श्रमणों की केंद्र-स्थली था, किन्तु बाद में यह दिगंबर संप्रदाय का केंद्र बन गया।[77]

फाह्यान का इतिवृत्त

फाह्यान साकेत से दक्षिण दिशा की ओर आठ योजन चलकर कोशल[78] जनपद के नगर श्रावस्ती[79] में पहुँचा था। फाह्यान लिखता है कि नगर में अधिवासियों की संख्या कम है और वे बिखरे हुए हैं। उसकी यात्रा के दौरान यहाँ पर सब मिलाकर केवल दो सौ परिवार ही रह गए थे। वह आगे लिखता है कि इस नगर में प्राचीन काल में राजा प्रसेनजित[80] राज्य करते थे। यहाँ पर महा प्रजापति का प्राचीन विहार विद्यमान है। नगर के दक्षिणी द्वार के बाहर 1200 कदम की दूरी पर वह स्थान है जहाँ वैश्याधिपति अनाथपिंडक (सुदत्त) ने एक विहार बनवाया था। जेवतन विहार से उत्तर-पश्चिम चार ली की दूरी पर ‘चक्षुकरणी’ नामक एक वन है, जहाँ जन्मांध लोगों को श्री बुद्धदेव की कृपा से ज्योति प्राप्त हुई थी। जेतवन संघाराम के श्रमण भोजनांतर प्राय: इस वन में बैठकर ध्यान लगाया करते थे। फाह्यान के अनुसार जेतवन विहार के पूर्वोत्तर 6.7 ली की दूरी पर माता विशाखा द्वारा निर्मित एक विहार था।[81]

फाह्यान पुन: लिखता है कि जेतवन विहार के प्रत्येक कमरे में, जहाँ कि भिक्षु रहते है, दो-दो दरवाजे हैं; एक उत्तर और दूसरा पूर्व की ओर। वाटिका उस स्थान पर बनी है जिसे सुदत्त ने सोने की मुहरें बिछाकर खरीदा था। बुद्धदेव इस स्थान पर बहुत समय तक रहे और उन्होंने लोगों को धर्मोपदेश दिया। बुद्ध ने जहाँ चक्रमण किया, जिस स्थान पर बैठे, सर्वत्र स्तूप बने हैं, और उनके अलग-अलग नाम है। यहीं पर सुंदरी ने एक मनुष्य का वध करके श्री बुद्धदेव पर दोषारोपण किया था।[82] फाह्यान आगे उस स्थान को इंगित करता है जहाँ पर श्री बुद्धदेव और विधर्मियों के बीच शास्त्रार्थ हुआ था। यहाँ एक 60 फुट ऊँचा विहार बना हुआ था।

ह्वेनसाँग का इतिवृत्त

ह्वेनसाँग लिखता है कि विशोका ज़िले से 500 ली (100 मील) उत्तर-पूर्व श्रावस्ती देश स्थित था। यह देश 6000 ली परिधि में फैला हुआ था। इस समय यह नगर पूर्णत: विनष्ट एवं जनशून्य हो गया था। जिससे इसकी सीमा निर्धारित करना कठिन है। नगर के दीवालों की परिधि नगभग 20 ली में फैली थी।[83] यहाँ की जलवायु अनुकूल थी और अन्नादि की उपज अच्दी होती थी। प्रकृति उत्तम और स्वाभावानुकूल थी तथा मनुष्य शुद्ध आचरण वाले व धर्मिष्ठ थे। यहाँ कई सौ संघाराम थे, जिनमें से अधिकांशत: विनष्ट हो गए हैं। इसके अतिरिक्त 100 देव मंदिर भी हैं, जिसमें असंख्य धर्मावलंबी उपासना करते थे। ह्वेनसाँग के अनुसार राजधानी के पूर्व थोड़ी दूरी पर एक छोटा-सा स्तूप है जो प्रसेनजित द्वारा भगवान बुद्ध के लिए बनवाया गया था। इसके पार्श्व में एक अन्य स्तूप है। यह उसी स्थान पर बना है जहाँ अंगुलिमाल ने नास्तिकता का परित्याग कर बौद्ध धर्म को अंगीकृत किया था।[84] नगर से 5-6 ली दक्षिण जेतवन है जहाँ सुदत्त (अनाथपिंडाद)[85] द्वारा भगवान बुद्ध के लिए विहार एवं मंदिर बनवाए गए थे। प्राचीन काल में यहाँ एक संघाराम भी था जो ह्वेनसाँग के समय में पूर्णत: नष्ट हो गया था।[86]

ह्वेनसाँग के अनुसार जेतवन मठ के पूर्वी प्रदेश-द्वार पर दो 70 फुट ऊँचे प्रस्तर स्तंभ थे। इन स्तंभों का निर्माण अशोक ने करवाया था। बाएँ खंभे में विजय प्रतीक स्वरूप चक्र तथा दाएँ खम्भे पर बैल की आकृति बनी हुई थी।[87] ह्वेनसाँग आगे लिखता है कि अनाथपिंडाद विहार के उत्तर-पूर्व एक स्तूप है, वह यह वह स्थान है जहाँ भगवान बुद्ध ने एक रोगी भिक्षु को स्नान कराकर रोग-निवृत्त किया था।[88] स्तूप के निकट ही एक कूप है जिसमें से तथागत अपनी आवश्यकता के लिए जल लिया करते थे। इसके समीप अशोक निर्मित एक स्तूप है, जिसमें बुद्ध के अस्थि अवशेष रखे गए थे। इसके अतिरिक्त यहाँ पर कई ऐसे स्थल हैं जहाँ पर बुद्धदेव के टहलने और धर्मोपदेश करने के स्थानों पर स्तूप बने हुए हैं।

ह्वेनसाँग पुन: लिखता है कि जेतवन मठ के 60-70 कदम की दूरी पर 60 फुट ऊँचा एक विहार है जिसमें पूर्वाभिमुख बैठी हुई भगवान् बुद्ध की एक मूर्ति है। भगवान बुद्ध ने यहाँ पर विरोधियों से शास्त्रार्थ किया था। इस विहार के 5-6 ली पूर्व दिशा में एक स्तूप है जहाँ सारिपुत्र ने तीर्थकों से शास्त्रार्थ किया था।[89] इस स्तूप के पार्श्व में एक मंदिर है जिसके सामने एक बुद्ध स्तूप है। जेतवन विहार के 3-4 ली उत्तर-पूर्व आप्तनेत्रवन नामक एक जंगल था। इस स्थल पर तथागत भगवान तपस्या करने के लिए आए थे। इसके स्मृतिस्वरूप श्रद्धालुओं ने यहाँ शिलालेखों एवं स्तूपों का निर्माण करवाया था।[90] नगर के दक्षिण एक स्तूप है, यह वन स्थान है जहाँ बुद्ध ज्ञान प्राप्त करके अपने पिता से मिले थे। नगर के उत्तर में भी एक स्तूप है जहाँ बुद्ध के स्मृति अवशेष संगृहीत हैं। ये दोनों स्तूप सम्राट अशोक द्वारा बनवाए गए थे।[91]

पुरातत्त्व में श्रावस्ती

श्रावस्ती के प्राचीन इतिहास को प्रकाश में लाने के लिए प्रथम प्रयास जनरल कनिंघम ने किया। उन्होंने सन 1863 ई. में उत्खनन प्रारंभ करके लगभग एक वर्ष के कार्य में जेतवन का थोड़ा भाग साफ कराया। इसमें उनको एक बोधिसत्व की 7 फुट 4 इंच ऊँची प्रतिमा प्राप्त हुई जिस पर अंकित लेख से इसका श्रावस्ती विहार में स्थापित होना ज्ञात होता है। यह मूर्ति भिक्षुबल द्वारा कोसंबकुट्टी के विहार में स्थापित की गई थी। इस प्रतिमा के अधिष्ठान पर अंकित लेख में तिथि नष्ट हो गई है, परंतु लिपिशास्त्र के आधार पर यह लेख कुषाण-काल का प्रतीत होता है।[92] कनिंघम ने इस आधार पर सहेत के क्षेत्र को जेतवन और महेत के क्षेत्र को श्रावस्ती से समीकृत किया था।[93] कनिंघम के अनुकरण पर डब्ल्यू. सी. बेनेट ने पक्की कुटी टीले की कुछ खुदाई करवाई थी।[94] चीनी यात्रियों के यात्रा विवरणों के आधार पर इस टीले का समीकरण कनिंघम ने अंगुलिमाल स्तूप[95] से किया था।

सन् 1876 ई. में कनिंघम ने इन स्थानों की खुदाई पुन: आरंभ करवाई, जिसमें 16 इमारतों की नीवें प्रकाश में आईं। इनमें अधिकांश स्तूप और परवर्ती काल के मंदिर थे।[96] इस बार उनको यहाँ से सिक्के और मृण्मूर्तियाँ भी मिलीं। उत्खनन से यह निश्चित हुआ कि जिस स्थान पर बोधिसत्व की विशाल मूर्ति मिली थी, वहाँ कोशंब-कुट्टी नामक विहार था। उसी के उत्तर में गंधकुटी अथवा मुख्य विहार था।

डब्ल्यू. होवी का उत्खनन

कनिंघम के सहेत में उत्खनन के समय (1875-76) डब्ल्यू. होवी ने महेत में खुदाई की। इसमें उन्हें महेत के पश्चिम में स्थित शोभनाथ जैन मंदिर के खंडहरों में कुछ मूर्तियाँ मिली।[97] श्री होवी ने इस क्षेत्र का गहन अन्वेषण 15 दिसम्बर 1884 से 15 मई 1885 तक किया तथा इसे क्षेत्र में बड़ी संख्या में स्मारकों का पता लगाया। अपनी रिपोर्ट में[98] होवी ने कुछ स्मारकों का समीकरण चीनी यात्रियों द्वारा वर्णित स्मारकों से करने का प्रयास किया, पंरतु अधिकांश स्मारकों के विषय में प्रर्याप्त प्रमाण का अभाव है। होवी द्वारा उत्खनित वस्तुओं में कुछ निम्नलिखित हैं[99]-

  • संवत् 1176 (1119 ई.) का एक शिलालेख।[100]
  • गुप्तलिपि में अभिलिखित एक लाल रंग का बलुए पत्थर का टुकड़ा।
  • जैन तीर्थंकरों की मूर्तियों पर अंकित दो अभिलेखों के छ: टुकड़े।
  • एक प्राचीन दावात।
  • एक अग्निमुख नाग की काँसे की प्रतिमा
  • कच्ची मिट्टी की दस मुहरें। ये सभी बौद्ध धर्म संबंधित हैं।
  • कच्ची मिट्टी की 500 मुहरें।
  • कर्नेकी (संभवत: कनिष्क) की एक तांबे की मुद्रा।

जे.पी.एच.फोगल तथा श्री दयाराम साहनी का उत्खनन

होवी के उत्खनन के 23 वर्ष उपरांत फरवरी-अप्रैल 1908 ई. में जे.पी.एच.फोगल तथा री दयाराम साहनी ने उत्खनन किया। फोगल ने महेत के प्राचीर की दीवालों और उसके प्रवेश-द्वारों की खोज की तथा उसके विस्तार को निरूपित किया। महेत के प्रमुख टीलों में उन्होंने पक्की कुटी, कच्ची कुटी और शोभनाथ मंदिर की खोज की। कच्ची कुटी में विशेष रूप से मिट्टी की मूर्तियाँ, खिलौने आदि मिले, जिनका कलात्मक एवं ऐतिहासिक दोनों महत्व है। शोभनाथ मंदिर से अनेक जैन मूर्तियाँ भी प्राप्त हुईं। सहेत के क्षेत्र से भी अनेक विहारों, स्तूपों और मंदिरों की रूपरेखा स्पष्ट की गई और बुद्ध तथा बोधिसत्व की मूर्तियाँ, सिक्के, मृण्मूर्तियाँ व मुहरें निकाली गईं।[101] इन वस्तुओं में सबसे महत्त्वपूर्ण कन्नौज के राजा गोविदचंद्र का एक दानपत्र है। इसी लेख के आधार पर विद्वानों ने सहेत को जेतवन से और महेत को श्रावस्ती से समीकृत किया है।

सन 1910-11 ई. में विख्यात पुरातत्त्ववेत्ता सर जान मार्शल की अध्यक्षता में दयाराम साहनी ने इस क्षेत्र की पुन: खुदाई की। इनका मुख्य कार्यस्थल जेतवन टीला था। उस उत्खनन में कुछ अभिलेख, मूर्तियाँ, बड़ी मात्रा में मुद्राएँ तथा लेखयुक्त मुहरें, साँचे, मृण्मूर्तियाँ, मृण्भांड और ईंटें आदि मिली हैं।[102] यद्यपि कनिंघम और होवी के उत्खननों में महेत और श्रावस्ती के समीकरण में कोई संदेह नहीं रह जाता फिर भी विंसेंट स्मिथ ने 1898 में एक लेख प्रकाशित करके कनिंघम के इस समीकरण पर आपत्ति प्रस्तुत की।[103] स्मिथ के तर्क का अनुमान चीनी यात्रियों के यात्रा-विवरणों पर आधारित था। उन्होंने श्रावस्ती को नेपाल की तराई में बालापुर, कामदी और इंतावा गाँवों के मध्य में स्थित बतलाया है।

स्मिथ के अनुसार

स्मिथ ने अपने एक परवर्ती लेख में बोधिसत्व के प्राप्ति-स्थान के संदर्भ में आपत्ति की जिस पर कनिंघम का सिद्धांत आधारित था। स्मिथ का यह अनुमान तर्कसंगत नहीं प्रतीत होता, क्योंकि पर्याप्त साहित्यिक और पुरातात्त्विक प्रमाणों ने श्रावस्ती का सहेत-महेत से समीकरण प्रमाणित कर दिया है। अधिक संभव है कि स्मिथ द्वारा अन्वेषित बालापुर के भग्नावशेष सेतव्य के हों। साहित्यक प्रमाणों से भी इस बात की पुष्टि होती है। पालि साहित्य[104] में सेतव्य को श्रावस्ती और राजगृह के मार्ग के बीच में स्थित कहा गया है। इस प्रकार सेतव्य, संभवत: श्रावस्ती और कपिलवस्तु के बीच कहीं स्थित रही होगी। अत: स्मिथ का यह कथन कि सेतव्या ही श्रावस्ती थी, उचित नहीं प्रतीत होता।

सहेत का उत्खनन

‘सहेत’ जो कि प्राचीन जेतवन विहार था, एक अत्यंत प्राचीन और महत्त्वपूर्ण स्थल था। यह संपूर्ण क्षेत्र 457.2 X 152.4 मीटर विस्तृत क्षेत्र में फैला था। यह टीला मैदान से 16 फुट ऊँचाई पर स्थित था। इस पुरातात्त्विक स्थल पर बड़ी संख्या में छोटे-छोटे टीले मिले हैं। इन टीलों में 20 का उत्खनन कनिंघम ने करवाया था। श्री होवी ने भी सहेत का उत्खनन करवाया था, लेकिन किसी भी भवन का पूर्ण उत्खनन न होने से तत्कालीन इतिहास पर प्रकाश नहीं पड़ता।[105] विभिन्न उत्खननों से सहेत का जेतवन से समीकरण निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है। बौद्ध-स्थल होने के कारण यहाँ विशेष रूप से मंदिर, स्तूप और विहार मिलते हैं। इनमें से कुछ प्रमुख पुरातात्विक स्थल निम्नलिखित हैं-

मंदिर और मठ स्थल 19

इसकी खोज सर्वप्रथम श्री होवी ने की थी।[106] उन्होंने सतह से 3 फुट नीचे इस भवन के चारों तरफ खुदाई करवाई जिससे इस मंदिर के दो बार निर्मित होने की पुष्टि होती है। निर्माण संरचना से यह भवन 10वीं शताब्दी का प्रतीत होता है, परंतु कालांतर में फोगल की अध्यक्षता में इस क्षेत्र का पुन: उत्खनन प्रारंभ हुआ, जिससे यह ज्ञात हुआ कि यह जेतवन में स्थित एक विशाल भवन था, जिसका प्रवेश-द्वार पूर्व की ओर था। इस मठ में एक मंदिर भी था। आँगनयुक्त इस मठ में बौद्ध भिक्षुओं के निवास के लिए 24 कमरे बने हुए थे।[107] इस संरचना का निर्माण तीन बार इसी नींव पर हुआ था। प्रारंभिक भवन का निर्माण, जिसकी दीवार पर स्पष्ट हैं, छठी शताब्दी में हुआ था और मध्यवर्ती भवन का निर्माण-गुप्त काल में हुआ था। इसका काल-निर्धारण दीवारों की निर्माण-पद्धति एवं एक कमरे से प्राप्त पकाई मिट्टी की मुहर से संभव हुआ। इस मुहर में बुद्ध को धर्मचक्र-प्रवर्तन मुद्रा में अंकित दिखाया गया है और नीचे गुप्त-लिपि में तीन पंक्तियाँ अंकित हैं। परवर्ती भवन इसी नींव पर 10वीं शताब्दी में निर्मित हुआ था। श्री होवी के उत्खनन से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है।

अन्य उत्खनित वस्तु

अन्य उत्खनित वस्तुओं में बुद्ध प्रतिमाओं की संख्या अधिक है। इनमें से एक प्रतिमा अविलोकितेश्वर व मैत्रेय के साथ भूमि स्पर्श मुद्रा में है। एक अन्य मूर्ति में भगवान् बुद्ध एक बंदर से कटोरा ग्रहण कर रहे हैं। यह दृश्य वैशाली की उस घटना का विवरण प्रस्तुत करता है। जिसमें बुद्ध एक बंदर से शहद ग्रहण करते हुए प्रदर्शित किए गए हैं। ये दोनों मूर्तियाँ 9वीं-10वीं शताब्दी की हैं।

नवीनतम संरचना

इस स्थान पर नवीनतम संरचना 11वीं-12वीं शताब्दी में हुई, जो चौकोर है। इसका एक भाग 35.90 मीटर विस्तृत है। इसके आंतरिक भाग के बीच में एक खुला आँगन था, जिसके चारों ओर कक्ष बने हुए थे। कक्ष और आँगन के मध्य गलियारा भी था। इसमें बने कमरे छोटे आकार के हैं। एक कमरे में पश्चिमी दीदीवार ओर एक ईंट का बना 1.20 मीटर का चबूतरा था। यहीं एक कमरे से कन्नौज के शासक गोविंद्रचन्द्र गहड़वाल का लिखित ताम्रपत्र मिला है।[108] इन महत्त्वपूर्ण सूचनाओं से जेतवन की सहेत से समानता निश्चित हो जाती है। साथ ही इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ बौद्ध धर्म का प्रभाव 12वीं शताब्दी तक स्थाई रहा।

स्तूप

मठ के समीपवर्ती पूर्व और उत्तर-पूर्व कई स्तूपों का निर्माण हुआ, जिनमें आठ स्तूप मुख्य है। इनमें से एक स्तूप का नवीनीकरण दयाराम साहनी द्वारा किया गया यहाँ से 5वीं शताब्दी की एक लिपियुक्त मुहर मिली है जिस पर बुद्धदेव का नाम अंकित है। इन स्तूपों के उत्तर-पश्चिम एक अष्टभुजीय कुआँ स्थित था, जो आज भी वर्तमान है।[109]

मंदिर स्थल 11 और 12

ये दोनों भवन एक समान थे। इनका प्रवेश-द्वार उत्तराभिमुख था। प्रत्येक मंदिर एक केंद्रीय कक्ष से युक्त था जो अंदर से 2.10 मीटर (7 फुट) चौकोर क्षेत्र में विस्तृत था। इस कक्ष में एक 6 इंच ऊँचा ईंटों का चबूतरा था। मंदिर के दोनों किनारे के कक्ष अपेक्षाकृत बड़े थे, जिनकी भीतरी लंबाई-चौड़ाई 10 फुट X 9 फुट थी। केंद्रीय कक्ष की बनावट से ऐसा प्रतीत होता है कि उसमें बुद्ध प्रतिमा स्थापित रही होगी और किनारे के कमरों में अन्य देवताओं की प्रतिमाएँ स्थापित रही होंगी। कनिंघम का मत है कि मध्य का कमरा बुद्ध प्रतिमा से युक्त रहा होगा और किनारे के कमरे बौद्ध-भिक्षुओं के आवासगृह रहे होंगे।[110]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. द्रष्टव्य आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया रिपोर्टस , भाग 1, पृष्ठ 330; तत्रैव, भाग 11, पृष्ठ 78 और आगे।
  2. एम. वेंक्टरम्मैया, श्रावस्ती, (आर्कियोलाजिकल् सर्वे आफ इंडिया, दिल्ली 1981), पृष्ठ 1
  3. विमलचरण लाहा, प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल (उत्तर प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, लखनऊ, 1972), पृष्ठ 210
  4. दि मेमायर्स आफ दि आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया, भाग 50 (दिल्ली 1935) में उद्धृत विमलचरण लाहा का लेख ‘श्रावस्ती इन इंडियन लिटरेचर’, पृष्ठ 1
  5. जर्नल ऑफ़ दि रायल एशियाटिक सोसाइटी, 1900, पृष्ठ 9
  6. आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस 1907-08, पृष्ठ 131-132; तुलनीय, विशुद्धनन्द पाठक, हिस्ट्री ऑफ़ कोशल, (मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी, 1963 ई.) पृष्ठ 63
  7. विनय महावग्ग, पृष्ठ 191-192; परमत्थजोतिका, पृष्ठ 511
  8. राहुल सांकृत्यायन, पुरातत्त्व निबंधावली (इलाहाबाद, 1958), पृष्ठ 24
  9. 9- विमलचरण लाहा, प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल, (उत्तर प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, लखनऊ, प्रथम संस्करण, 1972), पृष्ठ 211
  10. 10.0 10.1 10.2 10.3 10.4 सिंह, डॉ. अशोक कुमार उत्तर प्रदेश के प्राचीनतम नगर (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: वाणी प्रकाशन, 98-124।
  11. भरत सिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल (हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, संवत् 2018), पृष्ठ 236, दीधनिकाय, पृष्ठ 152; राखिल, दि लाइफ आफ दि बुद्ध लीजेंड एंड हिस्ट्री पृष्ठ 136
  12. दीधनिकाय, पृष्ठ 152; राखिल, दि लाइफ आफ दि बुद्ध लीजेंड एंड हिस्ट्री, पृष्ठ 136
  13. विश्वगश्वा पृथो: पुत्र पुत्रस्तस्मादार्दश्चजज्ञिवान्। आर्द्रात्तु युवनाश्वस्तु श्रावस्तस्य तु चात्मज: ॥ तस्य श्रावस्तको ज्ञेय श्रावस्ती येन निर्मित:। श्रावतस्य तु दायादो वृहदाश्वो महाबल: ॥महाभारत, आदिपर्व, अध्याय 201, श्लोक 3-4;
  14. श्रावस्तश्च महातेजा वत्सकस्तत्सुतोऽभवत् निर्मिता येन श्रावस्ती गौडदेशे द्विजोत्तम्॥ मत्स्यपुराण, अध्याय 12, श्लोक 29 ;
  15. ‘यं किं च मनुस्सान उपभोग- परिभोगं सब्बं एत्थ अत्थीति सावत्थो।’ एक किंवदंती के अनुसार एक बार काफिले वालों ने आकर यहाँ पूछा कि यहाँ क्या सामान है? (किं भण्डं अत्थि) इसके उत्तर में उनसे कहा गया ‘सब कुछ है।’ (सब्बं अत्थीति) ‘सब्बं अतीति वचनमुपादाय सावत्थि’ पपंचसूदनी, भाग 1, पृष्ठ 59-60
  16. जैन हरिवंशपुराण, पृष्ठ 717; देखें, विशुद्धानंद पाठक, हिस्ट्री आफ कोशल पृष्ठ 61
  17. कालिदास, रघुवंश, अध्याय 15, श्लोक 97; देखें, विशुद्धानंद पाठक, हिस्ट्री आफ कोशल, (मोलीलाल बनारसीदास, वाराणसी, 1963), पृष्ठ 59
  18. दीघनिकाय, (पालि टेक्स्ट सोसायटी, लंदन), भाग 1, पृष्ठ 235; सुमंगलविलासिनी, भाग 2, पृष्ठ 399; मच्झिमनिकाय, भाग 1, पृष्ठ 16
  19. कुशस्य कोशलो राज्यं पुरी वापि कुशस्थली। रम्या निर्मिता तेन विंध्यपर्वत सानुषु॥ उत्तर कोशले राज्ये लवस्य च महात्मन:। श्रावस्ती लोकविख्याता कुशवशं निबोधत॥ वायु पुराण, अध्याय 88, 197-98
  20. कोशलेष कुशम् वीरम् उत्तरेषु लवं तथा। अभिषिज्य महात्मानावुभौ राम: कुशीलवौ॥ कुशस्य नगरी रम्या विंध्यपर्वत रोधसि। कुशावतीति नाम्ना सा कृता रामेण धीमता ॥ श्रावस्तीति पुरी रम्या श्रावीता च लवस्य च। अयोध्यां विजना कृत्वा राधवो भरस्तदा॥ रामायण, उत्तरकांड, सर्ग 1, 20-22
  21. मेमायर्स ऑफ़् दि आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया, भाग 50, पृष्ठ 7
  22. रामायण, उत्तरकांड, अध्याय 121; नंदूलाल डे, दि ज्योग्राफिकल डिक्शनरी आफ ऐंश्येंट एंड मिडिवल इंडिया, पृष्ठ 197
  23. ए. एनिंघम, दि ऐंश्येंट ज्योग्राफी आफ इंडिया, पृष्ठ 343
  24. वायुपुराण, अध्याय 88, पृष्ठ 24-26; द्रष्टव्य, विष्णुपुराण, अध्याय 4, पृष्ठ 2-12
  25. मत्स्यपुराण, अध्याय 12, पृष्ठ 29-30
  26. ब्रह्मपुराण, अध्याय 7, पृष्ठ 53; द्रष्टव्य, मेमायर्स आफ आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया, संख्या 50. पृष्ठ 6
  27. भागवतपुराण, अध्याय 9, पृष्ठ 20-21
  28. महाभारत, वनपर्व, 20/3-4; 11/21-22
  29. ब्रह्मपुराण, 6, 53; मत्स्यपुराण, 12 29-30 26- मत्स्यपुराण, अध्याय 12, पृष्ठ 29-30
  30. जातक, भाग 4, पृष्ठ 91 (भदंत आनंद कौसल्यायन संस्करण)
  31. तत्रैव, भाग 1, पृष्ठ 92
  32. ‘करेरिमंडपो तस्सा कुटिकाय द्वारेथितो तस्मा करेरिकुटिकाय द्वारेथितो तस्म करेरिकुटिका ति वुच्चति’ ‘कोसंबरुक्खस्स द्वारे थित्तता कोसंबकुटिका ति’ सुगंलबिलासिनी, भाग 2, पृष्ठ 407
  33. तत्रैव, भाग 1, पृष्ठ 92 (सो मज्झे गंधकुटीं कारेसि)
  34. तत्रैव, भाग 1, पृष्ठ 389
  35. तत्रैव, भाग 2, पृष्ठ 15
  36. जातक, भाग 4, पृष्ठ 228
  37. वह भिक्षु जो धर्मोपदेश की घोषणा किया करता था।
  38. जातक, (भदंत आनंद कौसल्यायन संस्करण), खंड तृतीय, पृष्ठ 15
  39. तत्रैव, पृष्ठ 24 ‘जरुदपानं खणमाना, वाणिजा उदकत्थका अजझगंसू अयोलोहं, तिपुसीसन्ची वाणिजा। रतनं जातरूपंच मुक्ता बेकुरिया बाहु॥
  40. तत्रैव, भाग 5, पृष्ठ 98
  41. ललितविस्तर अध्याय 1
  42. विमलचरण लाहा, श्रावस्ती इन इंडियन लिटरेचर, दि मेमायर्स आफ दि आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया भाग 50, पृष्ठ 20
  43. ‘नगरे महाराज पंचकोटिमत्ता अरियसावका भगवती उपासक-उपासिकायो सत्तण्णा सहसानि तोझि सतहससानि अनागामि फले पतित्थिता ने सब्बेऽपि गिही न पच्चजिता।’ मिलिंदपन्हो, पृष्ठ 349
  44. परमत्थजोतिका, भाग 1, पृष्ठ 371; सामंतपासादिका, भाग 3, पृष्ठ 636
  45. 46- भरतसिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल (हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, संवत् 2018), पृष्ठ 237
  46. विशुद्धानंद पाठक, हिस्ट्री आफ कोशल, (मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी 1963), पृष्ठ 59
  47. ‘राजगंह कपिलवस्थुतो दूरं सट्ठि योजनानि, सावत्थि पन पंचदश। सत्था राजगहतो पंचतालीसयोजनं आगन्त्या सावत्थियं विहरति।’ मच्झिमनिकाय, अट्ठकथा, 1/3/4
  48. कुशीनगर
  49. पावामोतीचंद्र, सार्थवाह, (बिहार राष्ट्र-भाषा परिषद, पटना, 1953), पृष्ठ 17
  50. सुत्तनिपात (सारनाथ संस्करण), पृष्ठ 212-13
  51. मच्झिमनिकाय, (पालि टेक्स्ट् सोसायटी, लंदन), भाग 1, पृष्ठ 473; मोतीचंद्र, सार्थवाह, पृष्ठ 17
  52. भरतसिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृष्ठ 239
  53. ‘वुक्कसाति नाम कुलपुत्रो (तक्कसलातो) अट्ठ हि उनकानि योजनसतानि गतो जेतवनद्वारकोठकस्थ पर समीपे गच्छत्तो’ मच्झिमनिकाय, अट्ककथा, 3/4/10
  54. ‘सावत्थितो संकस्य नगरं तिसयोजनानि’ धम्मपद अट्ठकथा, 14/2
  55. राहुल सांकृत्यायन, पुरातत्त्व निबंधावली, पृष्ठ 20
  56. ‘वीसं योजनसतं पच्चुग्गत्वा चंद्रभागाय नदियातोरे’ धम्मपद अट्ठकथा 6/4
  57. भरतसिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृष्ठ 237
  58. तंहि जेतेन राजकुमारेन रोपितं संवर्द्धिंत परिपालित। सो च तस्सि सामी अहोसि, तस्मा, जेतवने ति वुच्चति॥ पपंचसूदनी, भाग 1, पृष्ठ 60
  59. उदयनारायण राय, प्राचीन भारत में नगर तथा नगर जीवन, पृष्ठ 118
  60. विनयपिटक (हिन्दी अनुवाद), पृष्ठ 462; बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृष्ठ 240; तुल. विशुद्धानन्द पाठक, हिस्ट्री आफ कोशल, (मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी, 1963), पृष्ठ 61
  61. बरुआ, भरहुत, भाग 2, पृष्ठ 31
  62. धम्मपदटीका, भाग 1, पृष्ठ 384; अंगुत्तरनिकाय, प्रथम भाग (हिन्दी अनुवाद, भदंत आनंद कौसल्यायन, महाबोधि सभा, कलकत्ता 1957, पृष्ठ 212 मेमायर्स आदि दि आर्कियोलाजिक सर्वे आफ इंडिया भाग 50, पृष्ठ 25
  63. राहुल सांकृत्यायन, पुरातत्व निबंधावली, पृष्ठ 79
  64. मज्झिमनिकाय, भाग 2, पृष्ठ 22
  65. देखें, आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-08, पृष्ठ 84
  66. जैन हरिवंशपुराण, पृष्ठ 717
  67. एस. स्टीवेंसन, हार्ट आफ जैनिज्म, (दिल्ली, 1970) पृष्ठ 42
  68. सी. जे. शाह, जैनिज्म इन नार्थ इंडिया, पृष्ठ 26
  69. कोशल, रिसर्च आफ दि इंडियन रिसर्च सोसायटी आफ अवध, भाग 3, पृष्ठ 23
  70. तत्रैव, पृष्ठ 24
  71. ोगेन्द्र चंद्र शिकदार, स्टडीज इन भगवती सूत्राज, (रिसर्च इंस्टीट्यूट आफ प्राकृत जैनोलाजी एंड अहिंसा, मुजफ्फरपुर, 1964), पृष्ठ 307
  72. के.सी.जैन, लार्ड महावीर एंड हिज टाइंस, पृष्ठ 63
  73. हरमन याकोबी, से.बु.ई. (जैन सूत्राज), मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1964, पुनर्मुद्रित), भाग 45, पृष्ठ 30
  74. बेनी माधव बरुआ, एक हिस्ट्री आफ बुद्धिस्टिक इंडियन फिलासफी, पृष्ठ 300
  75. के.सी. जैन, लार्ड महावीर एंड हिज टाइंस, पृष्ठ 165
  76. जर्नल ऑफ़ दि रायल एशियाटिक सोसायटी, 1908, पृष्ठ 102
  77. वृहत्कथाकोश (ए. एन. उपाध्याय द्वारा संपादित), पृष्ठ8, 348
  78. इस नाम के दो भारतीय राज्य थे- उत्तरी एवं दक्षिणी कोशल। यह उत्तरी कोशल था जो कि आधुनिक अवध का एक भाग था।
  79. इसका आधुनिक समीकरण सहेत-महेत हैं; द्रष्टव्य, जेम्स लेग्गे, दि ट्रैवेल्स् आफ फाह्यान, (ओरियंटल पब्लिशर्स, दिल्ली, 1972), पृष्ठ 56
  80. यह राजा गौतम बुद्ध का समकालीन था।
  81. जेम्स लेग्गे, दि ट्रेवल्स आफ फाह्यान, पृष्ठ 59
  82. जेम्स लेग्गे, दि ट्रैवेल्स आफ फाह्यान, पृष्ठ 60
  83. थामस् वाटर्स, आन् युवान् व्चाँग्स् टैवेल्स इन इंडिया (पुनर्मुद्रित, मुंशीराम मनोहरलाल, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1961), भाग 1, पृष्ठ 377
  84. सेमुअल बील, जाइनीज् एकाउंट्स आफ इंडिया, भाग 3 (कलकत्ता, 1958), पृष्ठ 260
  85. सुदत्त का नाम अनाथपिंडाद भी लिखा है, अर्थात् अनाथ और दीन पुरुषों का मित्र।
  86. थामस् वाटर्स, आन युवान च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 382
  87. तत्रैव, पृष्ठ 383
  88. तत्रैव, पृष्ठ 387
  89. तत्रैव, पृष्ठ 394
  90. थामस वाटर्स, आन युवॉन च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 397
  91. तत्रैव, पृष्ठ 400
  92. उल्लेखनीय है कि इसी प्रकार की बोधिसत्त्व की एक और लेखयुक्त प्रतिमा सारनाथ से मिली है जो इसी भिक्षु बल द्वारा कनिष्क के राज्यकाल के तृतीय वर्ष में स्थापित की गई थी। अत: यह प्रतिमा प्रारंभिक कुषाणकाल की प्रतीत होती है। देखें, ब्लाक, जर्नल ऑफ़ दि रायल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल, भाग 67 (1898), प्लेट 1, पृष्ठ 274 और आगे (प्लेट के साथ)। एपिग्राफिया इंडिका, भाग 8 (1905-06), पृष्ठ 179 और आगे (प्लेट के साथ)।
  93. ए. कनिंघम, आर्कियोलाजिकल सर्वे रिपोटर्स भाग 1, पृष्ठ 377 और आगे।
  94. बेनेट के उत्खनन के लिए द्रष्टव्य, गजेटियरऑफ़ दि प्राविंसऑफ़ अवध (इलाहाबाद, 1878), पृष्ठ 286
  95. पूर्ववर्ती लेखक इसे अंगुलिमालिय स्तूप कहते हैं, जबकि इसका सही प्राकृत रूप अंगुलिमाल होना चाहिए। देखें, जातक, (फाउसबोल संस्करण), भाग 5, पृष्ठ 466
  96. ए. कनिंघम, आर्कियोलाजिकल सर्वे रिपोटर्स, भाग 11, पृष्ठ 78
  97. आर्कियोलाजिकल सर्वेऑफ़ इंडिया, (वार्षिक रिपोर्ट), 1907-08, पृष्ठ 83
  98. जर्नलऑफ़ एशियाटिक सोसायटीऑफ़ बंगाल (1892), प्लेट 1, अतिरिक्त संख्या (भाग 61)
  99. आर्कियोलाजिकल सर्वेऑफ़ इंडिया, (वार्षिक रिपोर्ट), 1907-8, पृष्ठ 131-132
  100. इस शिलालेख पर 18 पंक्तियों में देवनागरी लिपि एवं संस्कृत भाषा में एक लेख खुदा हुआ है। लेख भगवान् बुद्ध की वंदना से प्रांरभ होता है, जिसे छोड़कर शेष संपूर्ण लेख छंदों में हैं।
  101. विस्तार के लिए द्रष्टव्य, आर्कियोलाजिकल सर्वेऑफ़ इंडिया (एनुअल रिपोर्ट), 1907-08, पृष्ठ 117
  102. मेमायर्स ऑफ़ दि आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया, संख्या 50, पृष्ठ 3
  103. वी.ए. स्मिथ, कौशांबी एंड श्रावस्ती, जर्नल आफ दि रायल एशियाटिक सोसाइटी (1898) पृष्ठ 527
  104. सुत्तनिपात (सारनाथ संस्करण), पृष्ठ 212-13; जी.पी. मललसेकर, डिक्शनरी आफ पालि प्रापर नेम्स, भाग दो, (लंदन 1960), पृष्ठ 1126
  105. आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया (वार्षिक रिपोर्ट 1907-8), पृष्ठ 117
  106. जर्नल आफ दि एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल, भाग 1, अतिरिक्त् संख्या 1892, प्लेट 5
  107. आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-8, पृष्ठ 119
  108. देबला मित्रा, बुद्धिस्ट मानुमेंट्स (कलकत्ता, प्रथम संस्करण, 1971), पृष्ठ 77
  109. आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-8, पृष्ठ 120
  110. तत्रैव, 1907-8, पृष्ठ 121

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