जॉर्ज फ़र्नांडिस

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जॉर्ज फ़र्नांडिस
जॉर्ज फ़र्नांडिस
पूरा नाम जॉर्ज मैथ्यू फ़र्नांडिस
जन्म 3 जून, 1930
जन्म भूमि मैंगलोर, कर्नाटक
मृत्यु 29 जनवरी, 2019
मृत्यु स्थान नई दिल्ली, भारत
अभिभावक पिता- जॉन जोसफ़ फ़र्नांडिस, माता- एलीस मार्था फ़र्नांडिस
पति/पत्नी लैला कबीर
संतान शॉन फ़र्नांडिस
नागरिकता भारतीय
पद रक्षा मंत्री व रेल मंत्री
कार्य काल रक्षा मंत्री - 21 अक्टूबर 2001 से 22 मई 2004

रेल मंत्री - 2 दिसंबर 1989 से 10 नवंबर 1990

राजनीतिक दल संता मंच
अन्य राजनीतिक सम्बद्धताएँ जनता दल, जनता पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी
अन्य जानकारी रक्षामंत्री रहते हुए जॉर्ज फ़र्नांडिस के बंगले के दरवाजे कभी बंद नहीं होते थे और वे किसी नौकर की सेवा नहीं लेते थे। अपने काम स्वयं किया करते थे।

जॉर्ज मैथ्यू फ़र्नांडिस (अंग्रेज़ी: George Mathew Fernandes, जन्म- 3 जून, 1930, मैंगलोर, कर्नाटक; मृत्यु- 29 जनवरी, 2019, नई दिल्ली) एक पूर्व ट्रेड यूनियन नेता थे, जो राजनेता, पत्रकार और भारत के रक्षामंत्री रहे। उन्होंने व्यापारिक संघ के नेता, पत्रकार, राजनेता और एक मंत्री के तौर पर अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई। आजीवन उन्होंने मजदूरों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया। जॉर्ज फ़र्नांडिस जनता दल के प्रमुख नेता थे और बाद में समता पार्टी का भी गठन किया। अपने राजनैतिक जीवन में उन्होंने केंद्र में कई महत्वपूर्ण मंत्रालयों की जिम्मेदारी संभाली। उन्होंने संचार, उद्योग, रेलवे और रक्षा मंत्री के रूप में कार्य किया। वे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में अकेले ईसाई मंत्री थे। भारत सरकार ने उन्हें 2020 में मरणोपरांत 'पद्म विभूषण' से सम्मानित किया है।

परिचय

जॉर्ज फ़र्नांडिस का जन्म जॉन जोसफ़ फ़र्नांडिस और एलीस मार्था फ़र्नांडिस के यहां मैंगलोर में 3 जून, 1930 को हुआ था। उनकी मां किंग जॉर्ज पंचम की बहुत बड़ी प्रशंसक थीं, जिनका जन्म भी 3 जून को हुआ था। इस कारण उन्होंने इनका नाम जॉर्ज रखा। उन्होंने अपना सेकंडरी स्कूल लीविंग सर्टिफिकेट मैंगलोर के एलॉयसिस से पूरा किया। स्कूल की पढ़ाई के बाद परिवार की रूढि़वादी परंपरा के चलते बड़े पुत्र होने के नाते जॉर्ज फ़र्नांडिस को धर्म की शिक्षा के लिए बैंगलोर में सेंट पीटर सेमिनेरी भेज दिया गया। 16 वर्ष की उम्र में उन्हें 1946-1948 तक रोमन कैथोलिक पादरी का प्रशिक्षण दिया गया। 19 वर्ष की आयु में उन्होंने हताशा के कारण धार्मिक विद्यालय छोड़ दिया, क्योंकि स्कूल में फादर्स उंची टेबलों पर बैठकर अच्छा भोजन करते थे, जबकि प्रशिक्षणार्थियों को ऐसी सुविधा नहीं मिलती थी। उन्होंने इस भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने 19 वर्ष की आयु में ही काम करना शुरू कर दिया। उन्होंने मैंगलोर के सड़क परिवहन उद्योग, रेस्टोरेंट और होटल में कार्यरत श्रमिकों को एकजुट किया।[1]

अनथक विद्रोही

जॉर्ज फ़र्नांडिस ने खुद बताया था कि इस दौरान वे चौपाटी की बेंच पर सोया करते थे और लगातार सोशलिस्ट पार्टी और ट्रेड यूनियन आंदोलन के कार्यक्रमों में हिस्सा लेते थे। जॉर्ज फ़र्नांडिस की शुरुआती छवि एक जबरदस्त विद्रोही की थी। उस वक्त मुखर वक्ता राम मनोहर लोहिया फ़र्नांडिस की प्रेरणा थे। 1950 आते-आते वे टैक्सी ड्राइवर यूनियन के बेताज बादशाह बन गए। बिखरे बाल और पतले चेहरे वाले फ़र्नांडिस, तुड़े-मुड़े खादी के कुर्ते-पायजामे, घिसी हुई चप्पलों और चश्मे में खांटी एक्टिविस्ट लगा करते थे। कुछ लोग तभी से उन्हें अनथक विद्रोही (रिबेल विद्आउट ए पॉज़) कहने लगे थे।

भले ही मध्यवर्गीय और उच्चवर्गीय लोग उस वक्त जॉर्ज फ़र्नांडिस को बदमाश और तोड़-फोड़ करने वाला मानते थे, पर बंबई के सैकड़ों-हजारों गरीबों के लिए वे एक हीरो थे, मसीहा थे। इसी दौरान 1967 के लोकसभा चुनावों में जॉर्ज फ़र्नांडिस उस समय के बड़े कांग्रेसी नेताओं में से एक एस.के. पाटिल के सामने मैदान में उतरे। बॉम्बे साउथ की इस सीट से जब उन्होंने पाटिल को हराया तो लोग उन्हें जॉर्ज द जायंट किलर भी कहने लगे।[2]

सबसे बड़ी हड़ताल

सन 1973 में जॉर्ज फ़र्नांडिस ‘ऑल इंडिया रेलवेमेंस फेडरेशन’ के चेयरमैन चुने गए। इंडियन रेलवे में उस वक्त करीब 14 लाख लोग काम किया करते थे। यानी भारत कुल संगठित क्षेत्र के करीब सात फीसदी। रेलवे कामगार कई सालों से सरकार से कुछ जरूरी मांगें कर रहे थे, पर सरकार उन पर ध्यान नहीं दे रही थी। ऐसे में जॉर्ज ने 8 मई, 1974 को देशव्यापी रेल हड़ताल का आह्वान किया। रेल का चक्का जाम हो गया। कई दिनों तक रेलवे का सारा काम ठप्प रहा। न तो कोई आदमी कहीं जा पा रहा था और न ही सामान। पहले तो सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया, लेकिन यह यूनियनों का स्वर्णिम दौर था। कुछ ही वक्त में इस हड़ताल में रेलवे कर्मचारियों के साथ इलेक्ट्रिसिटी वर्कर्स, ट्रांसपोर्ट वर्कर्स और टैक्सी चलाने वाले भी जुड़ गए तो सरकार की मुश्किलें बढ़ गईं।

राजनीति में प्रवेश

सारे घटनाक्रम को देखते हुए आपातकाल लागू कर दिया गया था। आपातकाल लगने की सूचना जॉर्ज को रेडियो पर मिली। उस वक्त वे उड़ीसा में थे। उनको पता था, सबसे पहले निशाने पर होने वालों में वे भी शामिल हैं। इसलिए वे पूरे भारत में कभी मछुआरे के तो कभी साधु के रूप में घूमते फिरे। आखिर में उन्होंने अपनी दाढ़ी और बाल बढ़ जाने का फायदा उठाते हुए एक सिक्ख का भेष धरा और भूमिगत होकर आपातकाल के खिलाफ आंदोलन चलाने लगे। जॉर्ज और उऩके साथियों को जून, 1976 में गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद उन सहित 25 लोगों के खिलाफ सीबीआई ने मामला दर्ज किया, जिसे "बड़ौदा डायनामाइट केस" के नाम से जाना जाता है।

इंदिरा गांधी द्वारा चुनावों की घोषणा के साथ ही इमरजेंसी का अंत हो गया। जॉर्ज फ़र्नांडिस ने 1977 का लोकसभा चुनाव जेल में रहते हुए मुजफ्फरपुर लोकसभा सीट से रिकॉर्ड मतों से जीता। जनता पार्टी की सरकार में वे उद्योग मंत्री बनाए गये। बाद में जनता पार्टी टूटी, जॉर्ज फ़र्नांडिस ने अपनी पार्टी समता पार्टी बनाई और भाजपा का समर्थन किया। फ़र्नांडिस ने अपने राजनीतिक जीवन में कुल तीन मंत्रालयों का कार्यभार संभाला- उद्योग, रेल और रक्षा मंत्रालय। पर वे इनमें से किसी में भी बहुत सफल नहीं रहे। कोंकण रेलवे के विकास का श्रेय उन्हें भले जाता हो, लेकिन उनके रक्षा मंत्री रहते हुए परमाणु परीक्षण और ऑपरेशन पराक्रम का श्रेय अटल बिहारी वाजपेयी को ही दिया गया। रक्षामंत्री के रूप में जॉर्ज फ़र्नांडिस का कार्यकाल खासा विवादित रहा।[2]

विशेष

  • जॉर्ज फ़र्नांडिस भारत के एकमात्र रक्षामंत्री रहे, जिन्होंने 6,600 मीटर ऊंचे सियाचिन ग्लेशियर का 18 बार दौरा किया था।
  • उनके ऑफिस में हिरोशिमा की तबाही की एक तस्वीर भी हुआ करती थी।
  • रक्षामंत्री रहते हुए जॉर्ज फ़र्नांडिस के बंगले के दरवाजे कभी बंद नहीं होते थे और वे किसी नौकर की सेवा नहीं लेते थे। अपने काम स्वयं किया करते थे।
  • अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में जॉर्ज फ़र्नांडिस जब रक्षा मंत्री थे, तो उनका आवास हुआ करता था '3 कृष्णा मेनन मार्ग'। उस समय उन्होंने अपने आवास का एक फाटक हमेशा के लिए हटवा दिया था। कोई उनसे मिलने आए और दरवाजे पर ही रोक दिया जाए, ये उन्हें पसंद नहीं था।

पारिवारिक विवाद

एक हवाई यात्रा के दौरान जॉर्ज फ़र्नांडिस की मुलाकात लैला कबीर से हुई थी। लैला पूर्व केंद्रीय मंत्री हुमायूं कबीर की बेटी थीं। बाद में दोनों ने विवाह कर लिया था। उनका एक बेटा शॉन फ़र्नांडिस है, जो न्यूयॉर्क में इंवेस्टमेंट बैंकर है। कहा जाता है बाद में जया जेटली से जॉर्ज की नजदीकियां बढ़ने पर लैला उन्हें छोड़कर चली गई थीं। बाद में वे जॉर्ज की बीमारी की बात सुनकर 2010 में वापस लौट आईं। इस समय तक जॉर्ज फ़र्नांडिस को अल्जाइमर और पार्किंसन जैसी बीमारियां घेर चुकी थीं और वे सार्वजनिक जीवन से कट चुके थे। लैला के साथ रहने के बाद जॉर्ज के भाइयों ने भी उन पर हक जताया था। मामला अदालत तक गया। फैसला हुआ कि वे लैला और शॉन के साथ ही रहेंगे, भाई चाहें तो जॉर्ज को देखने आ सकते हैं। अदालत ने जया जेटली को भी लैला फ़र्नांडिस के मना करने के बाद जॉर्ज से मिलने से रोक दिया था। इस सारे बवाल की वजह जॉर्ज की संपत्ति को माना गया।[2]

योगदान

भारतीय राजनीति में जॉर्ज फ़र्नांडिस का योगदान अहम है और संसद के सदस्यों द्वारा उन्हें हमेशा स्नेह और सम्मान मिलता रहा। उनके प्रमुख योगदान में राज्यसभा में किए गए उनके कार्य तथा भारत के समाजवादी आंदोलन में दी गईं सेवाएं हैं। जनता दल के संस्थापक सदस्य, लोकसभा के सदस्य, रेलवे व रक्षा मंत्री और एनडीए के संयोजक के तौर पर जॉर्ज फ़र्नांडिस भारतीय राजनीति में बहुत ही अहम शख्सियत रहे हैं। उन्होंने कई किताबें लिखकर लोगों तक अपने विचार भी पहुंचाए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जॉर्ज फ़र्नांडिस (हिंदी) itshindi.com। अभिगमन तिथि: 27 जनवरी, ।
  2. 2.0 2.1 2.2 एक ‘अनथक विद्रोही’ या ‘बिना रीढ़ का नेता’? (हिंदी) satyagrah.scroll.in। अभिगमन तिथि: 27 जनवरी, ।

बाहरी कड़ियाँ

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