ह्वेन त्सांग

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ह्वेन त्सांग
ह्वेन त्सांग
पूरा नाम ह्वेन त्सांग
अन्य नाम युवानच्वांग, युवान चांग या युआन-त्यांग, चेन आई
जन्म 602 ई.
मृत्यु 5 फ़रवरी, 664 ई.
भाषा संस्कृत, चीनी
पुरस्कार-उपाधि सान-त्सांग
प्रसिद्धि दार्शनिक, घुमक्कड़ और अनुवादक
विशेष योगदान बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार
धर्म बौद्ध धर्म
अन्य जानकारी भारत में ह्वेन त्सांग ने बुद्ध के जीवन से जुड़े सभी पवित्र स्थलों का भ्रमण किया और उपमहाद्वीप के पूर्व एवं पश्चिम से लगे इलाक़ों की भी यात्रा की।

ह्वेन त्सांग / ह्वेन सांग / युवान चांग या युआन-त्यांग (संस्कृत: मोक्षदेव, अंग्रेज़ी:Xuanzang, जन्म: 602 ई. लगभग मृत्यु: 5 फ़रवरी, 664 ई. लगभग) मेम त्रिपिटक के रूप में ज्ञात एक प्रसिद्ध चीनी बौद्ध भिक्षु था जिसका जन्म चीन के लुओयंग स्थान पर सन् 602 ई. में हुआ था। इसके साथ ही वह एक दार्शनिक, घुमक्कड़ और अनुवादक भी था। उनका मूल नाम चेन आई था। ह्वेन त्सांग, जिन्हें मानद उपाधि सान-त्सांग से सुशोभित किया गया। उन्हें मू-चा ति-पो भी कहा जाता है। जिन्होंने बौद्ध धर्मग्रंथों का संस्कृत से चीनी अनुवाद किया और चीन में बौद्ध चेतना मत की स्थापना की। इसने ही भारत और चीन के बीच आरम्भिक तंग वंश काल में समन्वय किया था। ह्वेन त्सांग चार बच्चों में सबसे छोटा था। इसके प्रपितामह राजधानी के शाही महाविद्यालय में 'निरीक्षक' थे, और पितामह प्राध्यापक थे। इसके पिता एक कन्फ़्यूशस वादी थे, जिन्होंने अपनी राजसी नौकरी त्याग कर राजनीतिक उठापलट, जो कि चीन में कुछ समय बाद होने वाला था, से अपने को बचाया।

यात्रियों का राजकुमार

फ़ाह्यान की तरह ह्वेन त्सांग भी चीनी बौद्ध भिक्षु था। वह फ़ाह्यान के करीब 225 वर्ष उपरांत भारत पहुंचा था। ह्वेन त्सांग ने गांधार, कश्मीर, पंजाब, कपिलवस्तु, बनारस, गया एवं कुशीनगर की यात्रा की थी लेकिन भारत में सबसे महत्वपूर्ण समय कन्नौज में बीता। तब वहां का राजा हर्षवर्धन था। उसके निमंत्रण पर वह 635 से 643 ईसवी तक 8 साल कन्नौज में रहा। यहीं से वह स्वदेश रवाना हुआ। ऐसा माना जाता है कि ह्वेन त्सांग भारत से 657 पुस्तकों की पांडुलिपियां अपने साथ ले गया था। चीन पहुंचकर उसने अपना शेष जीवन इन ग्रंथों का अनुवाद करने में बिता दिया। तथागत बुद्ध की जन्मस्थली में बौद्ध धर्म का प्रचार और वैभव देखकर ह्वेन त्सांग निहाल हो गया था। उसने 6 वर्षों तक नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन भी किया। चीनी यात्रियों में सर्वाधिक महत्व ह्वेनसांग का ही है। उसे ‘प्रिंस ऑफ ट्रैवलर्स ‘अर्थात' यात्रियों का राजकुमार कहा जाता है।[1]

शिक्षा व अध्ययन

विद्वानों की पीढ़ियों वाले परिवार में जन्मे ह्वेन त्सांग ने प्राचीन कन्फ़्यूशियाई शिक्षा प्राप्त की। इसकी जीवनियों के अनुसार, यह प्रतिभाशाली छात्र रहे। इसके पिता के कन्फ़्यूशस वादी होने के बावजूद भी शुरुआती काल से ही इसने बौद्ध भिक्षु बनने की इच्छा व्यक्त की थी। इसके एक बड़े भ्राता ने ऐसा ही किया था। यहीं एक बुद्धिमान प्रज्ञावान बौद्ध भिक्षु के साथ दो वर्ष व्यतीत किये लेकिन अपने एक बड़े भाई के प्रभाव में बौद्ध धर्मग्रंथों के प्रति उनकी रुचि जागी और उन्होंने शीघ्र ही बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। चीन में उस समय जारी राजनीतिक उथल-पुथल से बचने के लिए अपने भाई के साथ उन्होंने चांग-अन बाद में सू-चूआन (आधुनिक सेच्वान) की यात्रा की। सू-चूआन में ह्वेन त्सांग ने बौद्ध दर्शन का अध्ययन शुरू किया, लेकिन शीघ्र ही मूल ग्रंथ में कई विसंगतियों एवं विरोधाभासों से परेशान हो गए। अपने चीनी गुरुओं से कोई समाधान न मिलने पर उन्होंने बौद्ध धर्म के स्रोत भारत में जाकर अध्ययन करने का फ़ैसला किया। यात्रा अनुमति पत्र हासिल न कर पाने के कारण उन्होंने चोरी-छिपे सू-चुआन छोड़ दिया। उसने यहाँ थेरवड़ा लेखों का अध्ययन किया।

भारत यात्रा

चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने हर्षवर्धन के शासन काल में भारत की यात्र की थी। उसने अपनी यात्रा 29 वर्ष की अवस्था में 629 ई. में प्रारम्भ की थी। यात्रा के दौरान ताशकन्द, समरकन्द होता हुआ ह्वेन त्सांग 630 ई. में ‘चन्द्र की भूमि‘ (भारत) के गांधार प्रदेश पहुँचा। गांधार पहुंचने के बाद ह्नेनसांग ने कश्मीर, पंजाब, कपिलवस्तु, बनारस, गया एवं कुशीनगर की यात्रा की। कन्नौज के राजा हर्षवर्धन के निमंत्रण पर वह उसके राज्य में लगभग आठ वर्ष (635-643 ई.) रहा। इसके पश्चात् 643 ई. में उसने स्वदेश जाने के लिए प्रस्थान किया। वह काशागर, यारकन्द, खोतान होता हुआ, 645 ई. में चीन पहुंचा। वह अपने साथ भारत से कोई 150 बुद्ध के अवशेषों के कण, सोने, चांदी, एवं सन्दल द्वारा बनी बुद्ध की मूर्तियाँ और 657 पुस्तकों की पाण्डुलिपियों को ले गया था।

भारत का वर्णन

ह्वेन त्सांग की भारत यात्रा का वृतांत हमें चीनी ग्रंथ ‘सी यू की‘, वाटर्ज की पुस्तक ‘On Yuan Chwang's Travel In India ‘ एवं ह्मुली की पुस्तक 'Life of lliven Tsang' में मिलता है। ह्वेन त्सांग के विवरण से तत्कालीन भारत के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक एवं प्रशासकीय पक्ष पर प्रकाश पड़ता है। ह्वेन त्सांग ब्राह्मण जाति का ‘सर्वाधिक पवित्र एवं सम्मानित जाति‘ के रूप में उल्लेख करता है। क्षत्रियों की कर्तव्यपरायणता की प्रशंसा करता हुआ उसे ‘राजा की जाति‘ बताता है और वैश्यों का वह व्यापारी के रूप में उल्लेख करता है। ह्वेन त्सांग के विवरण के अनुसार उस समय मछुआरों, कलाई, जल्लाद, भंगी जैसी जातियां नगर सीमा के बाहर निवास करती थीं। नगर में भवनों, दीवारों का निर्माण ईटों एवं टाइलों से किया जाता था।

ह्नेनसांग ने तत्कालीन भारत को हर क्षेत्र में समृद्धिशाली बताया है। इस समय गाय का मांस खाने पर पूर्णतः प्रतिबन्ध था। ह्नेनसांग ने पाटलिपुत्र के पतन एवं उत्तर भार के नवीन नगर कन्नौज के उत्थान पर प्रकाश डाला है। उसके अनुसार कन्नौज में लगभग 100 संघाराम एवं 200 हिन्दू मन्दिर थे। ह्नेनसांग ने उस समय रेशम एवं सूत से निर्मित 'कौशेय' नामक वस्त्र का भी वर्णन किया है। इसके अतिरिक्त उसने क्षौम, लिनन, कम्बल जैसे वस्त्र का भी वर्णन किया है। ह्नेनसांग के अनुसार इस लोख खेती का कार्य करते थे। ह्नेनसांग के अनुसार इस समय औद्योगिक क्षेत्र में व्यावसायिक श्रेणियों एवं निगमों की पकड़ मज़बूत थी। शूद्र लोग खेती का कार्य करते थे। ह्नेनसांग के अनुसार इस समय अन्तर्जातीय विवाह, विधवा विवाह एवं पर्दे की प्रथा का प्रचलन नहीं था जबकि सती प्रथा का प्रचलन था। शिक्षा पर प्रकाश डालते हुए ह्नेनसांग ने बताया कि शिक्षा धार्मिक थी, लिपि ब्राह्नी एवं भाषा संस्कृत थी जो विद्धानों की भाषा थी। इस समय शिक्षा ग्रहण करने की आयु 9 वर्ष से 30 वर्ष के बीच मानी जाती थी। उसका उल्लेख अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के रूप करता है जिसे हर्ष ने 200 ग्रामों का अनुदान किया था।

बलि का प्रयास

ह्वेन त्सांग कन्नौज की धर्मसभा का अध्यक्ष था, तथा उसने प्रयाग के छठें 'महोमोक्षपरिषद' में भाग लिया था। तत्कालीन भारत में ब्राह्मण धर्म (वैष्णव, शैव) बौद्ध धर्म के साथ साथ शाक्त सम्प्रदाय के प्रचलन का भी संकेत करता है। देवी दुर्गा को शिव की शक्ति मानते हुए बलि की प्रथा का भी प्रचलन था। एक समय जैसे ही ह्वेन त्सांग स्वयं दुर्गा की बलि के लिए समर्पित किया जाने वाला था, भीषण तूफ़ान आने के कारण वह इससे त्राण पा सका।

ह्वेन त्सांग की प्रतिमा

इसी काल में चौथी बौद्ध सम्मेलन हुआ, कुषाण राजा कनिष्क की देख रेख में। सन् 633 ई. में ह्वेन त्सांग ने कश्मीर से दक्षिण की ओर चिनाभुक्ति जिसे वर्तमान में फ़िरोज़पुर कहते हैं, को प्रस्थान किया। वहाँ भिक्षु विनीतप्रभा के साथ एक वर्ष तक अध्ययन किया। सन् 634 ई. में पूर्व में जालंधर पहुँचा। इससे पूर्व उसने कुल्लू घाटी में हीनयान के मठ भी भ्रमण किये। फिर वहाँ से दक्षिण में बैरत, मेरठ और मथुरा की यात्रा की।

मथुरा में आगमन

अपनी इतनी यात्रा के बाद ह्वेन त्सांग गंगा नदी के माध्यम से नौका द्वारा मथुरा पहुँचे और उसके बाद गंगा के पूर्वी इलाक़े में बौद्ध धर्म की पवित्र भूमि में 633 ई. में पहुँचे। फिर गंगा नदी पार करके दक्षिण में संकस्य (कपित्थ) पहुँचा, जहाँ कहते हैं, कि गौतम बुद्ध स्वर्ग से अवतरित हुए थे। यमुना के तीरे चलते-चलते ह्वेन त्सांग मथुरा पहुँचा। मथुरा में 2000 भिक्षु मिले और हिन्दू बहुल क्षेत्र होने के बाद भी दोनों ही बौद्ध शाखाएँ वहाँ थीं। उसने श्रुघ्न नदी तक यात्रा की और फिर पूर्ववत मतिपुर के लिये नदी पार की। यह सन् 635 ई. की बात है।

वहाँ से उत्तरी भारत के महासम्राट हर्षवर्धन (606-647 ई.) की राजधानी 'कान्यकुब्ज', वर्तमान कन्नौज पहुँचा। यहाँ सन् 636 ई. में उसने सौ मठ और 10,000 भिक्षु देखें (महायान और हीनयान, दोनों ही)। वह सम्राट की बौद्ध धर्म की संरक्षण और पालन से अति प्रभावित हुआ। इसने क़रीब 10 वर्षो तक भारत में भ्रमण किया। उसने 6 वर्षो तक नालन्दा विश्वविद्यालय में अध्ययन किया। उसकी भारत यात्रा का वृत्तांत 'सी-यू-की' नामक ग्रंथ से जाना जाता है जिसने लगभग 138 देशों के यात्रा विवरण का ज़िक्र मिलता है। 'हूली' ह्वेन त्सांग का मित्र था जिसने ह्वेन त्सांग की जीवनी लिखी। इस जीवनी में उसने तत्कालीन भारत पर भी प्रकाश डाला। चीनी यात्रियों में सर्वाधिक महत्त्व ह्वेन त्सांग का ही है। उसे ‘प्रिंस ऑफ पिलग्रिम्स‘ अर्थात् 'यात्रियों का राजकुमार' कहा जाता हैं।

भारत में ह्वेन त्सांग ने बुद्ध के जीवन से जुड़े सभी पवित्र स्थलों का भ्रमण किया और उपमहाद्वीप के पूर्व एवं पश्चिम से लगे इलाक़ो की भी यात्रा की। उन्होंने अपना अधिकांश समय नालंदा मठ में बिताया, जो बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र था, जहाँ उन्होंने संस्कृत, बौद्ध दर्शन एवं भारतीय चिंतन में दक्षता हासिल की।

सम्मान

जब ह्वेन त्सांग भारत में थे, तो एक विद्वान के रूप में ह्वेन त्सांग की ख्याति इतनी फैली की उत्तर भारत के शासक शक्तिशाली राजा हर्षवर्धन ने भी उनसे मिलना एवं उन्हें सम्मानित करना चाहा। इस राजा के संरक्षण के कारण, 643 ई. में ह्वेन त्सांग की वापसी चीन यात्रा काफ़ी सुविधाजनक रही। उनकी ख्याति मुख्य रूप से बौद्ध सूत्रों के अनुवाद की व्यापकता एवं भिन्नता तथा मध्य एशिया और भारत की यात्रा के दस्तावेज़ों के कारण है, जो विस्तृत एवं सटीक आंकड़ों के कारण इतिहासकारों एवं पुरातत्त्वविदोम के लिए अमूल्य हैं।

राजधानी में वापसी

ह्वेन त्सांग, तांग की राजधानी चांग-अन में 16 साल के बाद 645 ई. में लौटे। राजधानी में ह्वेन त्सांग का भव्य स्वागत हुआ और कुछ दिनों बाद शहंशाह ने उन्हें दरबार में बुलाया, जो विदेशी भूमि के उनके वृतांत से इतने रोमांचित हुए कि उन्होंने इस बौद्ध भिक्षु को मंत्री पद का प्रस्ताव दिया। लेकिन ह्वेन त्सांग ने धर्म की सेवा को प्राथमिकता दी, इसलिए उन्होंने सम्मानपूर्वक शाही प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।

बौद्ध धर्म का प्रचार

ह्वेन त्सांग ने अपना शेष जीवन बौद्ध धर्मग्रंथों के अनुवाद में लगा दिया जो 657 ग्रंथ थे और 520 पेटियों में भारत से लाए गए थे। इस विशाल खंड के केवल छोटे से हिस्से (1330 अध्यायों में क़रीब 73 ग्रंथ) के ही अनुवाद में महायान के कुछ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ शामिल हैं।

योगाचार में रुचि

ह्वेन त्सांग की रुचि मुख्यतः योगाचार (विज्ञानवाद) दर्शन पर केंद्रित थी तथा वह और उनके शिष्य क्वी-ची (632-682) ने चीन में वी-शिह (एकमात्र चेतना मत) की स्थापना की। इसका सिद्धांत ह्वेन त्सांग के चेंग-वे-शिह लुन (चेतना मात्र सिद्धांत की स्थापना पर शोध निबंध) में प्रतिपादित है, जो मुख्य योगाचार लेखों का अनुवाद एवं क्वी-ची की व्याख्या है। इस मत की मुख्य अवधारणा है:-

पूरा विश्व केवल मन की प्रतिच्छवि है।

जब ह्वेन त्सांग एवं क्वी-ची जीवित रहे, इस मत को कुछ प्रतिष्ठा और लोकप्रियता मिली, लेकिन इसका जटिल प्रदर्शन, गूढ़ शब्दावली तथा मन और इंद्रियों का बाल की खाल निकालने वाला विश्लेषण, चीनी परंपरा के लिए नया था। इसलिए इन दोनों हस्तियों की मृत्यु के बाद इस मत का तेज़ीसे ह्रास हुआ। लेकिन ऐसा होने से पहले जापान के एक भिक्षु दोशो, ह्वेन त्सांग से शिक्षा के लिए 653 में चीन आए और अध्ययन पूरा करने के बाद जापान लौटने के बाद उन्होंने ‘मात्र उद्-भावना’ मत की स्थापना की। सातवीं और आठवीं सदी के दौरान यह मत, जापानी जिसे होसो कहते थे, जापान के सभी बौद्ध मतों में सबसे प्रभावशाली बन गया।

व्यापक वृत्तांत

ह्वेन त्सांग की प्रतिमा

अनुवाद के अलावा ह्वेन त्सांग ने ता-तांग सी-यू-ची ( महान् तांग राजवंश के पश्चिमी क्षेत्र का दस्तावेज़) भी लिखा। यह उन देशों का व्यापक वृत्तांत है, जहां से वह अपनी यात्रा के दौरान गुज़रे थे। इस निर्भीक एवं समर्पित बौद्ध भिक्षु और तीर्थयात्री के सम्मान में तांग सम्राट ने ह्वेन त्सांग की मृत्यु के बाद तीन दिन तक सभी सभाएँ रद्द कर दीं। ह्वेन त्सांग के बारे में दो अध्ययन हैं:-

  • आर्थर वेली का द रियल त्रिपिटिक पृष्ठ 11-130 (1952),
  • एक जीवंत और रोचक शैली में लिखी जीवनी तथा रेने ग्रुसेट द्वारा लिखी अपेक्षाकृत व्यापक जीवनी सर लेस ट्रेसेज़ द बुद्धा (1929; इन द फुटस्टेप्स ऑफ़ द बुद्धा), जिसमें तांग इतिहास और बौद्ध दर्शन की पृष्ठभूमि में इस चीनी तीर्थयात्री के जीवन की चर्चा की गई हैं।

हर्ष के प्रशासन की प्रशंसा

ह्नेनसांग ने दक्षिण के काञ्ची एवं चालुक्य राज्य की भी यात्रा की थी। पुलकेशिन द्वितीय की शक्ति की उसने प्रशंसा की है। हर्ष के प्रशासन एवं प्रजा कल्याण की भावना का वह प्रशंसक था। ह्नेनसांग ने अपराधी प्रवृत्ति के लोगों की संख्या के उल्प होने की बात कही है। शारीरि दण्ड का प्रचलन कम था तथा सामाजिक बहिष्कार एवं अर्थ दण्ड के रूप में दण्ड दिया जाता था। ह्नेनसांग के अनुसार राजा वर्ष के अधिकांश समयों में निरीक्षण यात्रा पर रहता था और यात्रा के दौरान वह अस्थायी निर्माण कार्य करवा कर उसमें निवास करता था। हर्ष का समूचा दिन तीन भागों में विभाजित था-

  • प्रथम भाग (दिन का) राज्य के कार्यो में
  • शेष दो भाग (दिन का) धर्मार्थ कार्यों पर व्यतीत होता था।

ह्नेनसांग ने हर्ष की सैन्य व्यवस्था पर प्रकाश डालते हुए बताया कि उसकी सेना में क़रीब 50,000 पैदल सैनिक, लगभग एक लाख घुड़सवार एवं 60,000 हाथियों की संख्या थी। सेना का महत्त्वपूर्ण भाग रथ सेना होती थी।

मृत्यु

ह्वेन त्सांग की मृत्यु 5 फ़रवरी, 664 ई. में हुई थी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अहा! ज़िन्दगी, अप्रैल 2018, पृष्ठ संख्या- 68

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