गांव की सड़क खुद बनाईं -शारदा प्रकाश जौहरी

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गांव की सड़क खुद बनाईं -शारदा प्रकाश जौहरी
रमेश भाई से जुडे आलेख
संपादक अशोक कुमार शुक्ला
प्रकाशक भारतकोश पर संकलित
देश भारत
पृष्ठ: 80
भाषा हिन्दी
शैली संस्मरण
विषय रमेश भाई के प्रेरक प्रसंग
मुखपृष्ठ रचना प्रेरक प्रसंग‎

गांव की सड़क खुद बनाईं


आलेख: शारदा प्रकाश जौहरी
संरक्षक सदस्य सर्वोदय आश्रम हरदोई
(आदरणीय रमेश भाई के मामाजी)

बात उन दिनों की है जब रमेश भाई के पैत्रिक गांव थमरवा से हरदोई जाने का कोई उपयुक्त मार्ग नहीं था। किसी तरह हरियावां से पेंग तक सड़क का निर्माण स्वीकृत हुआ। पी0डब्लू0डी0 ने जोर-शोर से काम शुरू भी किया परन्तु थमरवा तक पहंुचते-पहंुचते काम रोक देना पड़ा क्योंकि मार्ग के मध्य थमरवा के उत्तर-दक्षिण जमींदारी के समय का एक गहरा तालाब स्थित था जिसे पाटने या उस पर पुल आदि बनाये जाने का सरकारी इस्टीमेट में कोई प्राविधान नहीं था सड़क या तो दक्षिण की ओर से काफ़ी लम्बी दूरी तक घुमा कर पूर्व की ओर लेजाकर बनाई जाती अथवा तालाब को बीचों-बीच से पाटकर उस पर पुल बनाकर उस पर से सड़क बनाई जाती। दोनों अवस्थाओं में भूमि के अधिग्रहण करने और बढ़ी हुई कीमत की स्वीकृत लेने में अनेक दिक्कतें थी। एकाएक सड़क का निर्माण कार्य रूकने से थमरवा के आम निवासियों के साथ रमेश भाई को भी बहुत बुरा लगा।

उन्होंने मन ही मन कुछ निश्चय किया और कुछ ही समय पश्चात् थमरवा आदर्श इन्टर कालेज में सर्वोदयी कार्यकर्ताओं का एक तीन दिवसीय शिविर का आयोजन किया। इसमें लगभग 40-45 पुरुष व महिलाओं ने भाग लिया। ऐसे शिविरों में आम तौर पर श्रमदान की परंपरा थी। रमेश भाई ने इस श्रमदान में उक्त तालाब को सड़क की औसत चौड़ाई में पाटने का प्रस्ताव किया। काम बड़ा था क़रीब 100 मीटर की लम्बाई में इसे 10-11 फुट गहराई में मिट्टी लाकर तालाब को बीच में पाटकर सड़क बनानी थी। लोग असमंजस में थे कैसे हो पायेगा यह काम। इतने में श्री रमेष भाई ने नारा लगाया “युवा शक्ति जिन्दाबाद’’ और फावडा लेकर अपने एक-दो साथियों के साथ काम शुरू कर दिया। फिर क्या था-धीरे-धीरे शिविरार्थी जुटते गये और युवाशक्ति जिन्दाबाद के नारे लगाते हुये जोर-शोर से काम शुरू हुआ।

उत्साह का आलम यह था कि मुख्य अतिथि के रूप में दिल्ली से आये लक्ष्मी दास जी ने जल्दी-जल्दी जलदान की औपचारिकता पूरी की और सिर पर अपनी लंुगी का मुरैठा बांध कर सिर पर टोकरी रख मिट्टी ढोने का काम शुरू किया। कुसुम जी के नेतृत्व में महिलायें भी जुटी थीं। उत्साह इतना था कि लगभग 4-5 वर्ष की रश्मि(रमेश भाई जी की पुत्री) छोटी प्लेट में मिट्टी उठाकर लाती और पटान स्थल पर डाल रही थी। एक फोटोग्राफर को हरदोई से शिविर की गतिविधियों को फोटो लेने के लिये बुलाया गया था। उसने आकर यह समां देखा तो फोटो खीचना छोड कर वह भी इस काम में जुट गया। इतना सब होने पर भी शिविर के तीसरे दिने के अवसान तक काफ़ी काम शेष था। सड़क अभी अधूरी थी। प्रयोजन पूरा नहीं हुआ था। शिविर की अवधि दो दिन और बढ़ाई थी। बढ़ाई गई यह अवधि भी खत्म हुई। काम अभी शेष था। रात की सभा में सभी चिन्ता में थे।

लेखक भी उस शिविर में सहभाग कर रहा था। चिन्ता की वजह से सुबह जल्दी आंख खुल गई थी। स्कूल के बाहर आकर कार्यस्थल की ओर देखा तो एक अद्भुत नज़ारा सामने था। हुआ यह कि गांव के नवयुवकों ने जब यह सिथति देखी तो उनकी चेतना जागृत हो चुकी थी। ग्रामवासी गांव की तरफ से ’’ग्रामशक्ति जिन्दाबाद’’ के नारे लगाते हुये जोर शोर से तालाब पाटने में लगे थे। शिविरार्थियों में फिर से जोश भर गया। शिविर के समापन की बात भूलकर लोग पुनः काम में जुटे। शाम होते-होते कार्य लगभग पूरा था। अगले दिने के लिये कोई 2-3 घंटे का काम शेष रह गया था। लेखक जब सोकर उठा तो उसने देखा कि गांव की ओर से दो-तीन बच्चे और एक आदमी कुछ कर रहे थे। चिन्ता हुई कि ये लोग कुछ बिगाड़ तो नहीं रहे। पास जाकर देखा तो पाया कि वे तालाब पाटने के शेष काम में लगे थे। पूंछा तो मालूम हुआ कि वह व्यक्ति एक मज़दूर था जो पिछले दिन मज़दूरी पर गया था और इस कारण वह अन्य ग्रामीणों के साथ श्रमदान नहीं कर सका था। उसे पेट भरने के लिये आज भी काम पर जाना था। इस जनोपादानी कार्य में मेरे परिवार की भागीदारी कहीं शेष न रह जाय-इसी भावना से वह व्यक्ति अपने बच्चों सहित प्रातः अंधेरे से ही काम में जुटा था। उस मज़दूर की भावना सबके मन को गहरे से छू गई थी।

अन्ततः काम पूरा हुआ। हरदोई में उस समय जिलाधिकारी थे श्री रामकृष्ण श्रीवास्तव जी। उन्होंने जब इस पुरुषार्थ की बावत सुना तो इस सड़क को तकनीकी रूप से ठीक करने और उस पर पुल बनाये जाने के आदेश दिये यह पुल बना भी परन्तु कदाचित निर्माण कार्य में कुछ कमी होने के कारण काम बीच में रोक दिया गया। फिर भी सड़क पूरी है और प्रयोग में आ रही है और अब हरियावां से पेंग (गोपामऊ - हरदोई) रोड तक आवागमन सम्भव है।

यद्यपि इस सड़क पर रमेश भाई मील का कोई पत्थर नहीं लगा है परन्तु क्षेत्र में अभी बहुत से ऐसे लोग जीवित हैं जो इस पुरुषार्थ के चश्मदीद गवाह हैं और यह जानते हैं कि यदि रमेश भाई ने साहस न किया होता तो शायद थमरवा वासियों को तालाब में उतर करही आज भी पेंग तक आना पड़ता।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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