सांस्कृतिक भाषा के रूप में हिन्दी का विकास -डॉ. त्रिलोचन पांडेय

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लेखक- डॉ. त्रिलोचन पांडेय

          सांस्कृतिक भाषा के दो अर्थ हो सकते हैं-
(1) संस्कार की गई भाषा अर्थात् परिष्कृत भाषा और
(2) संस्कृति विशेष के व्यापक तत्वों को समाहित करने वाली भाषा।
प्रस्तुत संदर्भ में सांस्कृतिक भाषा का दूसरा अर्थ ग्रहण किया जा रहा हे। विगत सौ वर्षों में, मुख्यतः स्वातंयोत्तर काल में हिन्दी भाषा का एकाधिक दृष्टियों से विकास हुआ है। राष्ट्रभाषा के रूप में तो इसके विकास से सभी परिचित है। किंतु विशेष प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होने के कारण आज ‘राजभाषा हिन्दी’, ‘कामकाजी हिन्दी’, तकनीकी हिन्दी जैसे अनेक शब्द चल पड़े है जो उसके निरंतर विकासमान स्वरूप के परिचायक हैं। हिन्दी के ये सभी रूप उसके मानक रूप के आधार पर निर्मित हुए हैं जिनसे भाषा की आंतरिक संरचना भी प्रभावित हुई है।
          देखना यह है कि सांस्कृतिक प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए हिन्दी का किस प्रकार प्रयोग हुआ है और इन प्रयोगों ने उसकी संरचना को कहाँ तक प्रभावित किया है।
          भारतीय संस्कृति के एकाधिक तत्वों को आत्मसात करने की प्रवृत्ति हिन्दी में प्राचीन काल से ही लक्षित होने लगती है। इसी गुण के कारण मध्ययुगीन साधु संतों से उसे सार्वदेशिक रूप प्रदान किया था। ब्रजभाषा गुजरात से लेकर असम तक भारतीय संस्कृति की संवाहिका बनी थी और अवधी कोसल जनपद को लाँघकर छत्तीसगढ़ तक फैल गई थी। आधुनिक काल में खड़ी बोली की प्रतिष्ठा होने पर इसने भी सार्वजनिक होने का प्रयास किया और यह अखिल भारतीय राजकाज की भाषा बन गई। इस समय यह ‘नागर संस्कृति’ के साथ साथ 'लोक संस्कृति’ को भी उजागर करती है। आधुनिक हिन्दी लेखन द्वारा खड़ी बोली हिन्दी के इस सांस्कृतिक स्वरूप का जो निखार और परिष्कार हुआ है, उसी का यहाँ पर्यवेक्षण किया जा रहा है।
          सांस्कृतिक भाषा के रूप में हिन्दी के विकास पर दो दृष्टियों से विचार कर सकते हैं-
(1) इतिहास की दृष्टि से, और
(2) साहित्यिक रचनाओं की दृष्टि से।
          इतिहास की दृष्टि से इस विषय पर भारतेंदु काल से विचार करना समीचीन होगा क्योंकि उसके पूर्व हिन्दी गद्य का विकास हो जाने पर भी लेखकों की सांस्कृतिक चेतना उद्बुद्ध नहीं हुई थी। जब भारतेंदु ने सन् 1873 में लिखा कि ‘हिन्दी नई चाल में ढली’ तो उनका तात्पर्य हिन्दी की ऐसी सर्वागीण उन्नति से था जिसके उदाहरण ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ तथा ‘भारतेंदु ग्रंथावली’ में मिलते हैं। राजा शिवप्रसाद ‘सितारेहिन्द’ की अरबी फारसी मिश्रित हिन्दी तथा राजा लक्ष्मणसिंह की संस्कृत प्रधान हिन्दी को अनुपयुक्त समझ कर उन्होंने जनसाधारण की भाषा का पक्ष लिया था। सन् 1879 में प्रकाशित ‘कवि वचन सुधा’ की एक विज्ञप्ति से ज्ञात होता है कि उन्होंने भारत की उन्नति के लिए विविध उपायों में से उच्चस्तरीय कविताओं के अतिरिक्त लोकगीत रचना पर ध्यान दिया था जिनसे ग्राम ग्राम तक नव जागृति का संदेश सुनाया जा सके।
          भारतेंदु मंडल के लेखकों ने इसी उद्देश्य से अनुप्राणित होकर साहित्य रचना करते हुए हिन्दी भाषा पर अपने विचार प्रकट किए थे। प्रताप नारायण मिश्र ने ‘निज देश’ तथा ‘निज भाषा’ के लिए तन मन धन न्यौछावर करने की कामना की थी। ‘प्रेमघन’ ने उर्दू की व्युत्पत्ति देते हुए नागरी हिन्दी की प्रशंसा की थी और कचहरी आदि कार्यों के लिए हिन्दी को योग्य ठहराया था। ये लेखक चूंकि जनसाधारण को उनकी वास्तविक दशा से परिचत कराना चाहते थे, अतः इसके लिए सरल भाषा ही उपयुक्त हो सकती थी। इस स्थिति ने हिन्दी को सांस्कृतिक भाषा बनने की दिशा में उन्मुख किया।
          भाषा राष्ट्रीय चेतना का अनिवार्य अंग होती है, वह मनुष्य के विचारों को ही अभिव्यक्त नहीं करती बल्कि देश के संगठित रूप का भी बोध कराती है। भारत जैसे बहुजातीय, बहुवर्गीय देश में, जिसे रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने ‘महा मानव समुद्र’ कहा है, एकमात्र हिन्दी ही एकता का प्रतीक हो सकती है - इसे तत्कालीन लेखक समझ गए थे। उनके साथ राष्ट्रीय आंदोलनों के पुरस्कर्ता नेताओं ने जब अंग्रेज़ी का विरोध करते हुए हिन्दी का पक्ष लिया और राष्ट्रीय जागरण के लिए हिन्दी का शंख फूँका तो इसके सांस्कृतिक विकास को गति मिलना स्वाभाविक था।
          सन् 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना होने पर उसकी कार्रवाई बहुत वर्षों तक अंग्रेजी में चलती रही। अदालतों की भाषा उर्दू थी और जैसा किशोरीदास वाजपेयी ने लिखा है कि हिन्दी में अर्जी देने पर वह फाड़ कर फेंक दी जाती थी। ऐसी स्थिति में पंजाब के लाला लाजपत राय, महाराष्ट्र के बाल गंगाधर तिलक, बंगाल के शादराचरण मिश्र, गुजरात के स्वामी दयानंद जेसे विद्धानों ने स्वतंत्रता आंदोलन के साथ राष्ट्रभाषा के प्रश्न को जोड़कर हिन्दी की जो अविस्मरणीय सेवा की, वह भारतीय इतिहास का गौरवपूर्ण अध्याय है।
          शारदाचरण मिश्र ने हिन्दी, बंगला, गुजराती के लेखें को नागरी लिपि में प्रकाशित करने की योजना बनाई थी। उनके एक निबंध से ज्ञात होता है कि वे किस प्रकार हिन्दी को राष्ट्रीय सम्मिलन की एकमात्र शक्ति मानते थे। उन्होंने लिखा था हिन्दी समस्त आर्यावर्त (भारत) की भाषा है। कलकत्ता की एक लिपि विस्तार परिषद् समस्त भारतवर्ष में एक नागरी लिपि के प्रचार करने में तन मन से लगी हुई है। यद्यपि मैं बंगाली हूँ , तथापित मेरे दफ्तर की भाषा हिन्दी है। इस वृद्धावस्था में मेरे लिए यह गौरव का दिन होगा जिस दिन में हिन्दी स्वच्छंदता के साथ्ज्ञ बोलने लगूँगा और प्लेटफार्म के ऊपर खड़ा होकर हिन्दी में वक्तृता दूँगा। उसी दिन मेरा जीवन सफल होगा, जिस दिन मै सारे भारतवासियों के साथ साधु हिन्दी में वार्तालाप करूँगा।
          बीसवी शताब्दी के पूर्व में मदनमोहन मालवीय, महात्मा गांधी, पुरुषोत्तमदास टंडन जैसे राष्ट्र नेताओं के अथक प्रयत्नों द्वारा तथा नागरी प्रचारिणी सभा, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभी जैसी अखिल भारतीय संस्थाओं द्वारा हिन्दी भाषा का क्षेत्र उत्तरोत्तर व्यापक होता गया। वह कचहरी, शिक्षा, व्यवसाय, दैनिक पत्राचार आदि के लिए निरंतर स्वीकृत होती गई। दूसरी ओर जो हिन्दी लेखक राष्ट्रीय आंदोलन के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े थे, वे उसे आंतरिक रूप से पल्लावित करते रहे। वे मूलतः लेखक थे और व्यवहार से देशभक्त थे। ये लोग उस समय किस प्रकार हिन्दी को अखिल भारतीय स्तर विकसित करना चाहते थे, यह महावीर प्रसाद द्विवेदी की भाषा नीति से स्पष्ट होता है।
          कहा जाता है कि महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भाषा परिष्कार का लक्ष्य निर्धारित करने के कारण हिन्दी के सहज बोलचाल वाले रूप की उपेक्षा की। भाषा को कांटा छांट कर उन्होंने हिन्दी को परिनिष्ठित किया। किंत यह बात संभवतः बहुत कम लोगों को मालूम होगी कि उन्होंने विभिन्न भाषाभाषियों कों एक संपर्क भाषा के रूप में हिन्दी सीखने का परामर्श दिया था। ‘सरस्वती’ का संपादन ग्रहण करने के कुछ समय पश्चात् उन्होंने गुजराती, बंगला, मराठी आदि भाषाभाषियों से हिन्दी अपनाने का आग्रह किया था। द्विवेदी जी के मतानुसार देशव्यापी भाषा के लिए केवल इतना आवश्यक है कि हमारे यहाँ जो भिन्न भिन्न भाषाएँ प्रचलित है, उनके उत्तम ग्रंथ का प्रतिबिंब देशव्यापी भाषा में उतरना चाहिए। अर्थात वे हिन्दी को सफल अनुवाद की भाषा के रूप में देखना चाहते थे। कहना न होगा कि सफल अनुवाद की भाषा किसी देश की सांस्कृतिक भाषा ही बन सकती है।
          आगे चलकर जिस गति से राजनीतिक क्षितिज पर राष्ट्रीय आंदोलन गहराजा गया, उसी गति से राष्ट्रभाषा का संघर्ष तीव्र होता गया। हिन्दी के ही नहीं, अन्य भाषी लेखक भी उसकी अभिव्यंजना को निखारने लगे। सन् 1935 के उपरांत ‘प्रगतिवाद’ के आंदोलन ने हिन्दी के सांस्कृतिक विकास को एक नई दिशा प्रदान की। जैसा कि सभी जानते है ‘प्रगतिवाद’ एक विशिष्ट जीवन दर्शन है जो समाज के विकासशील तत्वों को विविध अंर्तविरोधों से उत्पन्न मानता है। उसने एक और राजनीतिक धरातल पर उग्रवादी चिंतनधारा को जन्म दिया जिसके फलस्वरूप राजनेताओं के समाज सुधार संबंधी उद्गार अब असहयोग तथा अधिकारपूर्ण माँगें में बदलने लगे। दूसरी ओर उसने भाषा, साहित्य के धरातल पर लेखकों का ध्यान भारत के विस्तीर्ण ग्रामीण अंचलों तथा उनके समस्याओं की ओर आकर्षित किया। यहीं से उस जनपदीय आंदोलन का सूत्रपात हुआ जिसकी चर्चा राहुल सांकृत्यायन, बनारसीदास चतुर्वेदी, वासुदेवशरण अग्रवाल जैसे विद्वानों ने समय समय पर विस्तारपूर्वक की।
          हिन्दी भाषा को इससे सर्वाधिक लाभ यह हुआ कि अब जनपदीय भाषाओं के संपर्क में आने पर उसकी अभिव्यक्ति क नए द्वार खुल गए। अभी तक वह उर्दू, फारसी, अंग्रेज़ी जैसे विदेशी भाषाओं से अथवा बंगला, मराठी, गुजराती, जैसी समकक्ष भारतीय भाषाओं से अपने सांस्कृतिक कलेवर को संवारती थी। अब उसने अपनी जनपदीय बोलियाँ बुंदेली, भोजपुरी, अवधी, कुमाँऊनी आदि से सांस्कृतिक तत्व ग्रहण करने प्रारंभ किए जिसके सुपरिणाम छायावादोत्तर काल में परिलक्षित होते है। प्रेमचंद, दिनकर, गुलाबराय, माखनलाल चतुर्वेदी की भाषा में यदि पहले प्रकार के तत्व प्रमुख हैं तो वृंदावनलाल वर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन की रचनाओ में दूसरे प्रकार के तत्व अधिक दिखाई देते हैं।
          राष्ट्रीय आंदोलनों की चरम परिणति विदेशी शासन के पराभाव में हुई। इसने एक राष्ट्रव्यापी जीवन दृष्टि का विकास किया जिसके आधार पर संपूर्ण देश का पुनर्गठन किया गया। विगत 35 वर्षाें में देश की भावनात्मक एकता के लिए हमारे नेताओं ने पर्याप्त ध्यान दिया है। और इसके माध्यम भाषा के रूप में हिन्दी को ही स्वीकार किया है।
          स्मरण रखना चाहिए कि इस अवधि में हिन्दी की सांस्कृतिक समृद्धि का दायित्व केवल हिन्दी भाषी लेखकों तक सीमित नहीं रहा। हिन्दीत्तर प्रदेशों के एकाधिक लोगों ने इसमें उच्चकोटि के ग्रंथ लिखे तथा इसी के माध्यम से भारत की जटिल सांस्कृतिक समस्याओं पर विचार किया। अन्य भारतीय भाषाओं की उत्कृष्ट रचनाओं के हिन्दी अनुवादों से भाषा की नई नई अर्थ छायाओं (शेड्स आफ मीनिंग) का ज्ञान होता है। हिन्दी की सांस्कृतिक समृद्धि के लिए यह एक शुभ लक्षण है।
          उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होगा कि आधुनिक काल में सांस्कृतिक दृष्टि से हिन्दी भाषा का क्रमिक विकास तथा भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की उत्तरोत्तर बढ़ती हुई शक्तियाँ वस्तुत एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अब साहित्यिक रचनाओं के आधार पर हिन्दी भाषा के सांस्कृतिक विकास को सरलतापूर्वक समझा जा सकेगा।
          भारतेंदु मंडल के लेखकों पर प्रायः दोषपूर्ण भाषा लिखने का आक्षेप किया गया है। भारतेंदु की भाषा में अनगढ़ शब्दावली की, प्रतापनारायण मिश्र की भाषा में पूर्वीपन की, ‘प्रेमधन’ की भाषा में पंडिताऊपन की ओर बालमुंकद गुप्त की भाषा में उर्दूपन की बात कही गई है। यह बात हिन्दी के मानस स्वरूप को आधार बनाकर की जाती है और व्याकरण की दृष्टि से विचारणीय है। किंतु सांस्कृतिक दृष्टि से देखने पर यह उनकी भाषागत शिथिलता का नहीं, बल्कि व्यंजनशाशक्ति का विरोध कराती हैं। इन लेखकों ने बोलचाल के मुहावरों तथा लोकोक्तियों का जो चमत्कारपूर्ण प्रयोग किया है, अरबी फारसी के साथ अंग्रेजी के शब्दों को स्वीकार किया, वह उनकी व्यापक दृष्टि का परिचायक है।
          भारतेंदु ने स्वयं बनारसी शैली पर लगभग 30 ‘कजलियाँ’ और 100 से अधिक ‘होलियाँ’ लिखी थी जिनमें या तो राधारानी की चाकरी वर्णित है अथवा विशुद्ध श्रृंगार की व्यंजना हुई है। उर्दू काव्य से प्रेरणा लेकर उन्होने एक ‘सेहरा’ भी लिखा जो कलापूर्ण होने के साथ साथ इस महत्वपूर्ण तथ्य की ओर भी संकेत करता है कि उनकी दृष्टि प्रारंभ से ही अन्य भाषाओं के लोक तत्वों से अपने साहित्य को पुष्ट करने की ओर गई थी।
          प्रतापनारायण मिश्र को लोकगीतों की धुनें विशेष आकर्षित करती थी। राधाचरण गोस्वामी ने स्वरचित एक ‘लावनी’ में ब्रिटिश शासन की तीखी आलोचना करते हुए लोकप्रचलित भाषा का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत किया था। ‘प्रेमघन’ ने स्वयं 250 के ऊपर कजलियाँ लिखी और ‘कबीर लोक छंद में भंग पीने, नशा करने के बुरे परिणामों का उल्लेख किया। इन लेखकों ने ‘मुकरियाँ ‘पहेलियाँ’ तक लिखकर हिन्दी भाषा को बोलचाल के निकट लाने का प्रयत्न किया ताकि उसके द्वारा नवीन विचारों की अभिव्यक्ति हो सके। तत्कालीन मानक हिन्दी और बोलचाल की हिन्दी में कदाचित कोई अन्तर नहीं था।
          द्विवेदी काल में सुधारात्मक प्रवृत्ति प्रमुख होने के कारण भाषा के परिमार्जन की ओर विशेष ध्यान दिया गया। परिणाम यह हुआ कि हिन्दी का एक परिनिष्ठित रूप उभरने लगा जो लोकभाषा के सहज प्रभाव से पर्याप्त दूर था। तत्कालीन साहित्यिक निबंधों में ‘हिन्दी की वर्तमान व्यवस्था’, ‘अनुप्रास का अन्वेषण हमारी शिक्षा किस भाषा में हो ‘हिन्दी लिग विचार’ (द्वारिका प्रसाद चतुर्वेदी) जैसे विषयों की प्रधानता दिखाई देती है। ‘कछुआ धरम’ मोरिस माँहि कुठाऊ’ (चंद्रधर शर्मा गुलेरी) जैसे ललित निबंध अपवाद स्वरूप लिख गए हैं।
          काव्य के भीतर छायावादी कवियों ने खड़ी बोली को सूक्ष्म भावनाओं की अभिव्यक्ति का साधान बनाने के लिए बड़ा श्रम किया जिससे अमूर्त का मूर्तीकरण तोसंभव हुआ किंतु हिन्दी लाक्षणिक प्रयोगों में उलझकर रह गई। इसके साहित्यिक परिष्कार के कारण सांस्कृतिक विकास की धारा अवरुद्ध जैसे होने लगी। कहानी, उपन्यास और निबंध के क्षेत्रों में प्रेमचंद ने इस अवरोध को दूर करने के लिए हिन्दी को ‘हिन्दुस्तानी' बनाया। वे कुछ दूर तक इस उद्देश्य में सफल हुए। किंतु प्रेमचंद की भाषा लोक प्रचलित होने पर भी भारतीय संस्कृति के सभी आयामों को स्पर्श नहीं कर सकी और यही उसकी सीमा थी। ग्रामीण अंचलों से दूर वनवासी अंचलों तक उसकी पहुँच नहीं थी। सांस्कृतिक दृष्टि से इस अभाव की पूर्ति सन् 1935 के बाद संभव हुई जिसका कारण ऊपर बतलाया जा चुका है।
          प्रगतिवादी साहित्य सर्जना के साथ हिन्दी लेखक भारतीय ग्रामों के सुदूरवर्ती अंचलों से अन्यान्य शाब्दिक प्रयोग लेकर हिन्दी को समृद्ध करने लगे। जिसके प्रचुर उदाहरण छायावादोत्तर हिन्दी कविता, नाटक, उपन्यास, कहानी और गद्य की नवीन विधाओं में मिलते हैं। परंपरा तथा आधुनिकता के आधार पर इन सभी साहित्यिक रचनाओं को दो वर्गों में रखा जा सकता हैः
(1) नगर बोध की रचनाएँ
(2) ग्रामीण आंचलिक परिवेश की रचनाएँ
          नगर बोध की रचनाएँ मनुष्य के जिस तनाव, संत्रास, घुटन, आक्रोश, कुंठा, आत्मरति, यौन विकृति आदि को मुखरित करती हैं वे मानव संस्कृति का अंग होने पर भी व्यक्ति के अलगाव की रचनाएँ हैं। से सामाजिक मनोवेत्ता के लिए अधिक उपादेय सामग्री प्रदान करती हैं। इसके विपरीत ग्रामीण आंचलिक परिवेश की रचनाएँ हैं। वे सामाजिक मनोवेत्ता के लिए अधिक उपादेय सामग्री प्रदान करती हैं। इसके विपरीत ग्रामीण आंचलिक परिवेश की रचनाएँ समाजनिष्ठ होने के कारण किसी भाषा के सांस्कृतिक विकास को स्पष्ट करने में अधिक सहायक है। अतः यही रचनाएँ प्रस्तुत संदर्भ में विचारणीय हैं। यहाँ हिन्दी के आंचलिक उपन्यासों, यात्रा विवरणों, ललित निबंधों तथा अन्य भारतीय भाषाओं से अनूदित साहित्य के आधार पर अपनी बात स्पष्ट की जा सकती है।
          हिन्दी के आंचलिक उपन्यासकारों में नागार्जुन, फणीश्वरनाथ रेणु, उदयशंकर भट्ट, देवेंद्र सत्यार्थी, रांगेय राघव, भैरवप्रसाद गुप्त, बलभद्र ठाकुर, शिवप्रसाद सिंह, शैलेश मटियानी, राजेंद्र अवस्थी की रचनाएँ विशेष उल्लेखीय हैं जिन्होंने अल्प ज्ञात और अज्ञात क्षेत्रों की जीवन प्रणालियों से हिन्दी जगत को परिचित कराया। नागार्जुन ने बलचनमा, बाबा बटेसरनाथ, वरुण के बेटे, दुख मोचन उपन्यासों द्वारा बिहार के मिथिला दरभंगा अंचलों के रहन सहन, वेशभूता, लोक विश्वास, त्यौहार-पर्व, नृत्य-गीत रीति-रिवाज, राजनीतिक, आर्थिक चेतना आदि का सूक्ष्म निरीक्षण करते हुए स्थानीय जातियों का जीवन मूर्तिमान किया।
          रेणु ने मैला आंचल, परती परिकथा, उपन्यास लिखकर बिहार के पूर्णिया जिले को साकार कर दिया। मैला आंचल की भाषागत विशेषता यह है कि उसमें स्थानीय नृत्यों एवं गीतों को हिन्दी शब्दों द्वारा बाँधने की चेष्ट की गई है। बोलचाल के लंबे-लंबे उद्वरण आंचलिक परिवेश (लोकल कलर) को उभारने के लिए रख गए हैं। उच्चारण के अनुसाद एक ही शब्द की भिन्न भिन्न वर्तनी मिलती है जो देशगत संस्कारों को रूपायित करती है। भाषा की यही विशेषता ‘परती परिकथा- की है। उच्चारण के अनुसार एक ही शब्द की भिन्न भिन्न वर्तनी मिलती है। जो देशगत संस्कारों को रूपायित करती है। भाषा की यही विशेषता ‘परती परिकथा’ की है जिसका एक उदाहरण देखा जा सकता है।
          ‘‘दिल बहादुर अपनी सुनहली दंत पंक्तियों की आभा विखरा कर हंसा परबतिया बाला में बोला, पानी माँ म्यागुते हेरेरे काऊँ राउँ छ मीत! म त छक्क पने ... अचरज से घुड़कती हुई आँखे दिल बहादुर की ..... पानी में मेढकों को देखकर मीत उत्तेजित होकर चैन खुलवाने के लिए काऊँ काऊँ चिल्लाता है। दिल बहादुर अचरज में है! बेचारा मीत पहली बार गाँव की वर्षा देख रहा है़..... पोखरे में नहाते समय जब तैरता है, मीत, ठीक सुलहले बतक जैसा!
          भैरवप्रसाद गुप्त ने ‘सती मैया का चोरा’ और गंगा मैया लिखकर उत्तर प्रदेश के गाँव की बदलती हुई सामाजिक स्थिति का चित्रण किया। इसमें बोलचाल की भाषा अवसर के अनुकूल बदलती है जिससे तत्सम-तद्भव शब्द घुलमिल जाते हैं। गंगा मैया उस ग्राम चेतना को उभारती है जो धीरे-धीरे चारों और फैल रही वार्तालाप करते समय सहज अंग्रेजी शब्द प्रयुक्त हो जाते हैं। संस्कृति का परिवेशगत चित्रण करते हुए भी इन उपन्यासों की भाषा ‘रेणु’ के प्रयोगों की भाँति आंचलिक नहीं है। समग्र वातावरण का अंकन प्रमुख होने के कारण इनकी भाषा ग्रामीण जीवन को नागर जीवन से जोड़ती हुुई प्रतीत होती है। प्रकारांतर से यह प्रेमचंद की भाषा का विकास माना जा सकता है।
          शिवप्रसाद सिंह का उपन्यास अलग अलग वैतरिणी भोजपुरी अंचल की संस्कृति को प्रतिबिंबित करता है। हिन्दी में भोजपुरी को पुट तथा स्थानीय मुहावरों, कहावतों का अत्यधिक प्रयोग इसकी विशेषता है। उत्तर प्रदेश के पर्वतीय अंचल कुमाऊँ की पृष्ठभूमि पर शैलेश मटियानी ने चिट्ठी रसैन, हौलदार, चैथी मुट्ठी जैसे सांस्कृतिक उपन्यास लिखकर अपनी पहचान बनाई। एक उपन्यास उगते सूरज की किरन में लोक गाथा (फोक इथिक) के मूल शिल्प को कथाकृति में उतारना एक अभिनव प्रयोग है जिससे ग्रामीण अंचलों की सांस्कृतिक रुचि का ज्ञान होता है। इस भाषा शिल्प का एक उदाहरण द्रष्टव्य है।
          ‘एहो, सुजनो! सुमंगला जो धरिंणी होती है, उसके क्या लक्षण होते हैं? पूरब दिशा खुलती है कि सुमंगला है कि सुमंगला धरिणी की पलकें उघड़ती हैं, बालकों के मुँह, पितरों के पाँवों को जोड़ी को हेरती हैं कि अन्नपूर्णां बहू सी आशीष देती है, सौ आशीष लेती है। जाई चमेली की कलियाँ हाथ में लेती है। हाथ हथेलियों को संगम देती हैः परमेश्वर हो, दाहिने हो जाना, मेरी गोदी के छोनों को! इनके अदिन मेरे आंचल लगे, कि इनकी कुंडली में मेरे सुदिन जोड़ देना।
          देवेंद्र सत्यार्थी और बलभद्र ठाकुर ने उत्तर पूर्वी सीमांत को अपने चित्रण का विषय बनाया जिससे हिन्दी का साक्षात्कार हिन्दीतर प्रदेशों से हुआ। देवेन्द्र सत्यार्थी ने ब्रह्नमपुत्र में असम प्रदेश के लोकजीवन का चित्रण किया तथा वहाँ के निवासियों की धार्मिक एवं सामाजिक विषमताओं को उभारा। ‘रथ के पहिए’, ‘दूधगाछ’ उपन्यास लिखकर उन्होने लोक संस्कृति द्वारा अन्यान्य पक्षों पर बल दिया। बलभद्र ठाकुर ने ‘मुक्तावली’ उपन्यास द्वारा मणिपुर के लोक विश्वासो, त्यौहारों, वस्त्राभूषण संबंधी शब्दावली से परिचित कराया। ‘आदित्य नाथ’ में कुलूवासियों का वर्णन करते हुए तथा नेपाल की वो बेटी’ में सीमावर्ती दूसरे राज्य की समस्याओं को लेकर उनकी शब्द छटा लाने का प्रयत्न किया। इससे हिन्दी के शब्द भंडार की वृद्धि हुई। शब्द भंडार से भाषा की संग्रह शक्ति लक्षित होती है।
उदयशंकर भट्ट ने सागर लहरें और मनुष्य लिखकर बंबई के तटवर्ती मछलीमारों का सजीव वर्णन तो किया हो, वहाँ प्रचलित मराठी-गुजराती मिश्रित हिन्दी का प्रभावशाली प्रयोग भी किया। इस उपन्यास में मछुओं के वार्तालाप से ‘जास्ती’, ‘बरोबर’, ‘चांगला’ ‘नक्की’ जैसे मराठी शब्द हिन्दी में चले आए। भौगोलिक अंचलों की लीक से हट कर रांगेय राघव ने ‘कब तक पुकारूँ’ उपन्यास में नट जाति के आचार-विचारों का चित्रण किया। उन्होंने इसकी भूमिका में लिखा है।
          असली भारत गांवों में जो अब भी मध्यकालीन विश्वासों से ग्रस्त हें वे विश्वास मध्यकालीन आर्थिक व्यवस्था से नियंत्रित हैं। मैंने उनको प्रकट करने का यत्न किया है। हो सकता है कुछ विशेषताएँ राजस्थान की हों। इस से स्पष्ट है कि लेखक का उद्देश्य अन्य उपन्यासकारों की भाँति मात्र आंचलिकता को उभारना नहीं था। इस कारण सामान्य शब्दों की अपेक्षा नटों के आचार विचार संबंधी शब्दों को प्रमुखता दी गई हे।
          राजेन्द्र अवस्थी के दो उपन्यास ‘सूरज किरन की छांव’ और ‘जंगल के फूल’ वस्तर ज़िले की जनजातीय पृष्ठभूमि पर लिखे जाने के कारण उल्लेखनीय हैं। इसमें गोंड जाति के सामाजिक सांस्कृतिक जीवन को उभार कर आदि जातियों की भूमि, जंगल संबंधी नीतियों पर प्रकाश डाला गया है। गोंडों के जीवन का केंद्र घोटुला है, जिसका चित्रण जंगल के फूल की विशेषता है। भाषा पूर्णतः आंचलिक रंग में रंगी है। ऐसी भाषा हिन्दी के सांस्कृतिक परिवेश को सचमुच उजागर करती है। एक वर्णन द्रष्टव्य है जिसमें पोरंद, झोरिया, पेडगा, गीकी जैसे नए शब्द प्रयुक्त हुए हें।
          गढ़ बंगाल का धोटुला! नारायनपुर से सिर्फ तीन मील दूर दक्षिण में नाले के पार गांव से लगा, पर गांव के बाहर! दिन भर सोता रहता है। चिड़िया भी नजर नहीं आती पोरद पच्छिम की पहाड़ी से आँख मूदता है, इसके भाग जाग जाते हैं। नीद टूट जाती है। झोरिया आता है उसके साथ दो तीन साथी। सब खरहरा उठाते हैं। घोटुला का कोना कोना साफ कर जाते है। उसे जगा जाते हैं। वह आँख खोले किसी की प्रतीक्षा करता है। जब चाँद कुछ ऊपर आ जाता है, गाँव के कुत्ते रह रह कर भूँकने लगते हैं, तो गाँव की हर गैल घोटुल को जाती है। गाँव का हर पेड़गा और हर पेड़गी बगल में गीकी दबाकर घोटुक पहुंचता है।
          जब तक यात्रा विवरणों का संबंध है, ये एक ओर तो दूर देशों रीति रिवाजों से परिचित कराते हैं, दूसरे हिन्दी की भाषा शैली को निखारते हैं। इन्होंने नई नई शब्दावली दी है। राहुल सांकृत्यायन ने ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ लिखकर इस विषय का जीवन दर्शन प्रस्तुत किया था। इस प्रकार की रचनाओं में पैरा में पंख बांध बांध कर’ (रामवृक्ष बेनीपुरी) ‘ठेले पर हिमालय’ (धर्मवीर भारती), ‘अरे खायावर रहेगा याद’ (अज्ञेय), ‘हरी घाटी’ (रघुवंश), ‘आखिरी चट्टान’ (मोहन राकेश), ‘सुबह के रंग’(अमृत राय) आदि का उल्लेख किया जा सकता है। इन विवरणों के माध्यम से भिन्न भिन्न स्थापनों के रहन सहन, भूगोल, संस्कृति संबंधी शब्दावली का अनायास समाकेश होता गया।
          ललित निबंधों में भाषा की दृष्टि से पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, शांतिप्रिय द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र आदि का योगदान महत्वपूर्ण है, फिर भी हजारीप्रसाद द्विवेदी इन सब में अग्रगण्य हैं। वे साधारण विषय से लेकर गम्भीर विषय तक समान अधिकार से लिख लेते थे। विषय चाहे जैसा हो, वे उसे भारतीय संस्कृति के उदात्त पक्ष से जोड़ देते थे। भारतीय संस्कृति की देन, मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है, हम क्या करें? ‘राष्ट्रीय संकट और हमारा दायित्व शीर्षक उनके निंबध आज तक भारतीय संस्कृति के शाश्वत मूल्यों की प्रतिष्ठा करते हैं।
          जहाँ तक भाषा का प्रश्न है, द्विवेदी जी सदा सहज भाषा लिखने का समर्थन करते थे। वे मानते थे कि जब मनुष्य तपस्या, त्याग और आत्मबलिदान से सहज होता है तभी सहज भाषा का प्रयोग कर सकता है। देखा जाए तो एक प्रकार से उन्हीं की भाषा सांस्कृतिक हिन्दी का सर्वाेत्तम उदाहरण उपस्थित करती है। कुबेरनाथ राय, विवेकीराय ने उनकी परंपरा को अग्रसर किया है।
          विगत वर्षो में भारतीय साहित्य की उत्कृष्ट रचनाओं के अनुवादों से हिन्दी भाषा का सांस्कृतिक रूप और पुष्ट हुआ है। उदाहरणार्थ, गणदेवता (ताराशंकर बंदोपाश्याय), अमृत संतान (गोपानाथ महाती), मूकज्जी (शिवराम कारंत), चित्राप्रिय (अखिलन), मृत्युजय (वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य), कथा एक प्रांतर की (एस. के. पोटेक्काट) जैसे प्रसिद्ध ग्रंथ लिए जा सकते हैं जिन्होंने बंगाल, उड़ीसा, कर्नाटक, तमिलनाडु, असम और केरल के आंतरिक जन जीवन से हिन्दी भाषियों को परिचित कराया है ‘गणदेवता’ की कथावस्तु बंगाल के जिस ग्रामीण परिवेश से जुड़ी है उसकी गंध समूचे भारत की धरती तक व्याप्त है। इसे भारतीय नव जागरण का महाकाव्य ठीक ही कहा गया है। अनुवादक हंसकुमार तिवारी ने बंगला के देहाती मुहावरों को यथार्थ हिन्दी पर्याय दिए क्योंकि वे उस जीवन से संपृक्त थे।
          इसी प्रकार ‘अमृत संतान’ लोक जीवन पर आधारित उड़िया भाषा का सर्वोत्कृष्ट उपन्यास माना जाता है। ‘मृत्युंजय सन् 1942 के स्वतंत्रता संग्राम मे असम की भूमिका पर लिखित बहुचर्चित रचना है। उसके सामाजिक परिवेश से हिन्दी को कलात्मक अभिव्यक्ति मिली है। ‘कथा एक प्रांतर की’ यद्यपि केरल प्रदेश के एक छोर पर बसने वाले व्यक्तियों के समाज और जीवन की कहानी है, किंतु वह विगत 50 वर्षों से बदलते हुए परिवेश की झाँकी प्रस्तुत करती है। ऐसी कृतियों के अनुवादों से हिन्दी भाषा की समाहार शक्ति बढ़ी है।
          हिन्दी की सांस्कृतिक विशेषताओं को निखारने में हिन्दीतर लेखकों की हिन्दी रचनाओं का भी महत्वपूर्ण योगदान है जिसकी चर्चा न होने पर यह पर्यवेक्षण अधूरा रह जाएगा। मौलिक साहित्य सर्जना की दृष्टि से पंजाबी, मराठी, गुजराती, तेलुगु और तमिल भाषी साहित्यकारी हिन्दी में आगे रहे हैं। विगत दो तीन दशकों से बंगला, उड़िया, असमिया, कन्नड़, और मलयालम के कवि, नाटककार, कथाकार, निबंधकार भी इधर अग्रसर हुए हैं। मराठी के अनंत गोपाल शेवड़े उपन्यास लेखन में अग्रणी थे जिसकी ‘ज्वालामुखी’ , ‘भंग्न मंदिर’, ‘मृगजल’, ‘अमृतकुंभ’ नामक कृतियाँ कई बार पुरस्कृत हुई। प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन करने में उनका प्रमुख योगदान था।
          पंजाबी के सुदर्शन, यशपाल, देवेद्र सत्यार्थी, अश्क, भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती हिन्दी लेखक के कारण विशेष समादूत हुए हैं। तेलुगु भाषी लेखकों में आरिगपूडि तथा बालशौरि रेड्डी ने एकाधिक उपन्यास, कहानियाँ लिखी है। जी. सुंदर रेड्डी, भीमसेन निर्मल, संगमेशम् ने संदर निबंध लिखे हें। तमिल के शंकरराजू नायडू, एस. एन. गणेशन, न.वी. राजगोपालन्, सरस्वती रामनाथन ने हिन्दी मौलिक लेखक में ख्याति प्राप्त की है। ‘इधर असमिया के चित्र महंत, मलयालम के चंद्रशेखरन नायर, कन्नड़ के नागप्पा, गुजराती के नित्यानंद पटेल आदि के लेखों से हिन्दी के विकासोन्मुख स्थिति का परिचय मिलता है। इन लेखकों ने अपने अपने क्षेत्रीय परिवेश को विशेष रूप से उभारने का प्रयत्न किया है जिस कारण हिन्दी को कुछ नए मुहावरे प्राप्त हुए हैं।
अब देखना यह है कि विभिन्न सांस्कृतिक तत्वों को लेकर विकसित यह हिन्दी भाषिक संरचना की दृष्टि से कहाँ तक प्रभावित हुई है? यहाँ पर हिन्दी के अर्थात खड़ी बोली हिन्दी के मानक स्वरूप को सामने रख कर उसके साथ हिन्दी के इस सांस्कृतिक स्वरूप की तुलना करनी होगी। यह तुलना शब्द भंडार के धरातल पर, ध्वन्यात्मक धरातल पर की जा सकती है। यहाँ इसके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है।
          फिर भी इतना संकेत कर देना चाहिए कि भारतीय भाषाओं के विभिन्न सांस्कृतिक तत्वों ने हिन्दी के शब्द भंडार को जितना प्रभावित किया है उतना उसके वाक्य विन्यास को प्रभावित नहीं किया। हिन्दी ने लोक भाषाओं की विशिष्ट शब्दावली, आंचलिक, गीतकथा शिल्प, मुहावरों, कहावतों, आदि को पर्याप्त ग्रहण किया है, किंतु उनकी लयात्मक पदावली और मूल प्रयोगों को अपेक्षाकृत कम ग्रहण किया है।
          इसका तात्पर्य यह है कि हिन्दी अपने मानक रूप में विभिन्न सांस्कृतिक तत्वों को स्वीकार करते समय बोलचाल की भाषा के निकट आती जा रही है, किंतु अब वह बोली मात्र नही रह गई है। भारतेंदुकालीन हिन्दी से भिन्न एक दूसरे स्तर पर, श्रेष्ठ साहित्य के सर्जनात्मक स्तर पर, वह बोलचाल के समीप पहुँच रही है। वह अन्यान्य बोलियों के देशगत प्रयोगों के रचनात्मक तत्व लेकर समन्वित हो रही है।
          राष्ट्रीय धरातल पर हिन्दी की संग्राहिका शक्ति बढ़ाने से उसका सांस्कृतिक पक्ष अधिक परिपुष्ट होता है। उसके विकास की अभी अपार संभावनाएँ है जिसे प्रति लेखक निरंतर सचेष्ट है। सांस्कृतिक भाषा ही किसी देश की संपर्क भाषा होती है, इसमें कोई संदेह नहीं और वर्तमान संदर्भ में हिन्दी ने इसके पर्याप्त गुण अर्जित कर लिए हैं। निश्चय ही हिन्दी भाषा की यह समाहार शक्ति हमारे देश की भावात्मक एकता को सुदृढ करने में सहायक होगी।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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4. हिन्दी की सामासिक एवं सांस्कृतिक एकता डॉ. जगदीश गुप्त
5. राजभाषा: कार्याचरण और सामासिक संस्कृति डॉ. एन.एस. दक्षिणामूर्ति
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स्वैच्छिक संस्था संदर्भ
60. हिन्दी की स्वैच्छिक संस्थाएँ श्री शंकरराव लोंढे
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सम्मेलन संदर्भ
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