हिन्दी में लेखन संबंधी एकरूपता की समस्या -प. बा. जैन

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लेखक- प्रो. प. बा. जैन

          हिन्दी को कालासह बनाने के लिए बहुत ज़रूरी है कि इसकी रचना व्याकरण विरुद्ध न हो इसमें सिर्फ ऐसे शब्दों का प्रयोग हो, जो विशेष व्यापक हों अर्थात् जिन्हें अधिक प्रांतों के आदमी समझ सकें। देश भर में एक भाषा होगी या नहीं और होगी तो कब होगी, यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता। परंतु तब तक हिन्दी को अधिक व्यापक बनाने में लाभ है।[1]
          आज से लगभग आठ दशक पूर्व युग प्रवर्तक आचार्य द्विवेदी के उक्त अभिमत की उपादेयता आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। हिन्दी अपनी सीमाओं को लांघती निरंतर व्यापक होती जा रही है, इसकी इस प्रक्रिया को सहज व सुगम बनाने के सतत प्रयत्न होते रहने चाहिए। व्यापकता किसी सीमा तक विविधता को भी साथ लाती है, जिसे हिन्दी की प्रवृत्ति के अनुरूप एकरूपता साधने के प्रयास भी वांछनीय हैं। जब बोली से भाषा और भाषा से साहित्य व लेखन की भाषा बनती है तब सुबोधता एवं स्पष्टता सर्वाधिक काम्य हो जाती है। एकरूपता का अभाव इसमें बाधक सिद्ध होता है।
          आज हिन्दी का अहिन्दी भाषी क्षेत्र में व्यापक अध्ययन अध्यापन होता है। उनकी कठिनाइयों को समझा जाना चाहिए। वर्ण विन्यास की अविचारित विविधता अध्ययनकर्ता को बहुत परेशानी में डालती है। अतः भाषा में लेखन संबंधी जितनी सुविचारित एकरूपता होगी उतनी वह सीखने समझने के लिए सुगम हो सकेगी।
          भाषा को बहता नीर कहा गया है, बड़ी ही सार्थक अभिव्यक्ति है यह। प्रवाह में बहुत सारे झाड़ झंखाड़ एवं अनगड़ शिलाखंड आ मिलते हैं जो उसे रास आ जाता है, वह तो सुडौल बनकर उसका अंग बन जाता है और जो प्रवाह से एकरूप नहीं हो पाता उसे प्रवाहतरों को समर्पित कर आगे बड़ जाता है। हिन्दी के संबंध में यह बात बहुत अच्छी तरह देखी जा सकती है। भारतेंदु युग से विकसित होता इसका स्वरूप कई अवस्थाओं को पार कर परिष्कृत एवं व्यवस्थित होता रहा है और आगे भी होता रहेगा। जीवंत भाषा में परिवर्तन परिवर्धन की प्रक्रिया सतत चलती रहती है और उसकी प्राणवत्ता को प्रकट करती है, पर यह प्रक्रिया चर्चा, संवाद एवं सहमति से सुविचारित रूप में होनी चाहिए।
          आज हिन्दी में अनेक क्रियारूप, अव्यय, विशेषण आदि की वर्तनी के एक से अधिक रूप प्रचलित हैं- कहीं कहीं यह रूप तीन तीन, चार चार भी हैं। यह स्थिति सभी के लिए पर ख़ास कर अहिन्दी भाषाभाषी के लिए बड़ी उलझन भरी होती है। हिन्दी में कुछ प्रकार की क्रियाओं व अन्य पदों के लेखन में बहुरूप प्रचलित है- यथा ‘आना’ क्रिया का समान्य भविष्यकालिक रूप ‘आयेगा आएगा’-आवेगा। इसी प्रकार चाहिए-चाहिये, नयी-नई, इसलिए-इसलिये आदि शब्द हैं। इन पर चर्चा हो भाषा की प्रकृति के अनुरूप रूप विशेष स्थिर कर उसी का सर्वत्र प्रयोग होना चाहिए। एकरूपता निर्धारित करते समय इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए। एकरूपता निर्धारित करते समय इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि उसका संबंधित अन्य पक्षों स्थितियों पर भी क्या प्रभाव पड़ना संभव है। ऊपर के उदाहरण को ही लें-‘आना’ क्रिया के भूतकालिक व भविष्यकालिक कृदंत के रूप निर्धारण के समय इस बात पर भी विचार कर लेना सम्यक होगा कि उस क्रिया के विध्वर्थ (अज्ञार्थक) इच्छाबोधक स्वरूप क्या होंगे। यदि समय दृष्टि का अभाव रहा तो मानकीकरण एकरूपता के लिए सहयोगी सिद्ध न हो पाएगा।
          लेखनी संबंधी एकरूपता के आधारभूत तत्व हैं- भाषा की अपनी प्रवृत्ति, उच्चारण एवं व्यावहारिक सुविधा। उच्चारण महत्वपूर्ण तत्व है, किंतु भाषा की प्रवृत्ति के अनुरूप व्यावहारिक सुविधा के समक्ष उसका कहीं पालन न होता हो ता अनावश्यक रूप से दुराग्रही होने की स्थिति से बचना ही श्रेयस्कर होगा। इस संबंध में ‘प्रयोग और प्रयोग’ के वैयाकरण डॉ. वी. रा. जगन्नाथ का अभिमत सम्यक प्रतीत होता है:
          ‘वर्तनी के लिए उच्चारण का आधार लेना उचित है, लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि वर्तनी के मानकीकरण का आधार अकेले उच्चारण हो। वर्तनी के अपने नियम भी बन सकते हैं और वर्तनी की अपनी परंपरा भी हो सकती है। यह आवश्यक है कि वर्तनी में एकरूपता तथा सुगमता के गुण हों और उच्चारण के संबंध में यह बात सिद्ध न हो तो उच्चारण का सहारा छोड़ना भी उचित होगा।[2]
          क्रियापद भाषा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक होता हे, वस्तृतः यही भाषा की पहचान कराता है। हिन्दी में लेखन संबंधी अराजकता सबसे अधिक क्रिया को लेकर ही है। जिन क्रियाओं का सामान्य भूतकालिक कृदंत ‘यकारांत’ है - उनके काल व अर्थ संबंधी विविध रूप, उनकी संयुक्त क्रियाएं संज्ञारूप आदि के लेखन में द्विविध अथवा अधिक रूप प्रचलित हैं। उदाहरणार्थ-आकारांत धातु ‘आ’ में वर्तमानकाल का ‘त’ प्रत्यय लगा, तो पुं वर्ग प्रत्यय ‘आ’ उसमें आ लगा आ + त + = आता।
          इसी तर भूतकाल का ‘य’ प्रत्यय आने पर आय + आ = आया आदि पद चलते हैं। बिना संधि के ‘आतया है’ ‘आयआ है’ नहीं चलते। हिन्दी की बहुसंख्यक क्रियाओं के ख़ासकर यौगिक क्रियाओं के सामान्य भूतकालिक कृदंत का प्रथम एकवचन रूप ‘याकारांत’ होता है। ‘याकारांत’ के ही फिर भिन्न भिन्न दशाओं में अन्य रूप बनते हैं। यथा
(क) आया-आयी-आये। समान्य भविष्य काल में आयेगा-आयेगी-आयेंगे।
‘य’ लुप्त मानन पर भविष्यकाल में
(ख) आया-आई-आए (भूतकाल में) आएगा-आएगा-आएंगे
(ग) आयगा-अयगी-आयँगे
(घ) आवेगा-आवेगी-आवेंगे
(ग) व (घ) के रूप प्रचलन से बाहर होते जा रहे है। ‘आय’ रूप इच्छा बोधक एकवचन में चलता है यथा राम आय ? हरीश जाय ? सीता गाना गाय ? (क) के अंतर्गत क्रिया के सामान्य भूतकालिक कृदंत की प्रथम अवस्था आधार रूप में ग्रहणकर क्रमशः ‘इ’ ‘ए’ प्रत्यय जोड़कर सामान्य रूप में स्वीकृत हैं। (ख) के अंतर्गत प्रथम रूप को छोड़कर शेष में य को लोप स्वर प्रधान ‘ई’ ‘ए’ के रूप ग्रहण किए गए हैं। इसके पूर्व कि ‘य’ प्रधान रूपों के पक्ष में अपने मत का प्रतिपादन करें, स्वर प्रधान रूप के पक्षधरों जिनमें प्रमुखतम हैं आचार्य प्रवर किशोरीदास वाजपेयी का मत जान लें।
1. प्रत्यक्ष का (या प्रत्यादेश का) ‘य’, इ-ई तथा ए में मिलने पर विकल्प से लुप्त हो जाता है- सवर्ण प्रबल स्वर निर्बल व्यंजन को दबा देता है इसीलिए गए-गये, आए-आये, लाए-लाये तथा गई-गयी, आई-आयी, लाई-लायी यों द्वि विविध रूप होते हैं।[3]
2. अकारांत धातु न हो तो कभी कभी ‘इ’ का ‘य’ हो जाता है। ...........परंतु जाये सर्वथा गलत है। ‘इ’ का ‘ए’ होगा या फिर ‘य’। दोनों चीजें नहीं हो सकतीं। ‘जाय’ तथा जाए का संकर रूप है ‘जायें’ इसी प्रकार, संकर है, गलत है।[4]
3. यदि धातु दीर्ध इकारांत हो तो (धातु के) ‘ई’ का विकल्प से ‘इय’ हो जाता है और इस ‘इय’ के ‘य’ का विकल्प से लोप हो जाता है। जी ए = जिय् + ए = जिये[5] और ‘इ’ का जब ‘इ’ का जब ‘इय’ होगा ही नहीं तब ‘जीए’ इसी तरह ‘पी’ के लिये, पिए, पीए ‘सी’ के सिये, सिए, सीए[6]
4. विधि अर्थ प्रकट करने के लिए हिन्दी में ‘इ’ प्रत्यय होता है, जो संस्कृत के ‘इय’ के ‘य’ का उड़ाकर बनाया जान पड़ता है। यथा पढ़ + ई = पढ़े सो + इ = सो, गा + इ = गाए आदि[7]
5. ‘इ’, ‘ई’ और ‘ए’ के साथ मिलने पर ‘य’ की स्पष्ट श्रुति नहीं होती[8]
6. हिन्दी के जायसी, कबीर, सूर, तुलसी आदि ने ‘आई’, ‘आए’ जैसे प्रयोग ही किए है, ‘य’ का नित्य लोप करके[9]
7. आकारांत धातुओं में:‘य’ रहता ही है[10]
8. ‘आये’ ‘आयी’ और ‘आए’ - आई यों दोनों तरह की वर्तनी (प्रयोग) शुद्ध है। परंतु दोनों में से एक ही अभीष्ट अपेक्षित हो-एकरूपता चाहिए। तो फिर ‘आए’ - ‘आई’ और ‘रोए’ - ‘रोई’ जैसे प्रयोग ही रहेंगे, आये, आये आयी आदि नहीं, क्योंकि ली, दी, पी, आदि क्रियाओं में ‘य’ का लोप अनिवार्य है।[11]
आचार्य वाजपेयी के उक्त उद्धरणों से यह तो सहज ही प्रकट है कि याकारांत भूतकालिक कृदंत के क्रियारूपों में वे स्वरांत व्यवस्था रखने के पक्ष में है। आचार्य के मत में व्याकरणिक स्थिति का आग्रह आधि है, भाषा की सहज प्रवृत्त एवं व्यावहारिकता की चिंता कम।
स्वरांत के पक्ष में उनकी व्याकरणिक स्थिति भी अनिश्चितता से लदी हुई है। कभी कभी जान पड़ता है वैकल्पिक लोप का ईकारांत के क्रियारूपों में त्रिविध में रूप की स्थिति किसी भी तरह व्याकरण की स्पष्ट व्यवस्था को नहीं दर्शाती।
          ‘इ’, ‘ई’ और ‘ए’ के साथ मिलने पर ‘य’ की स्पष्ट श्रुति नहीं होती। यदि वास्तविकता यह है तो फिर हमें स्थायी को स्थाई ‘उत्तरदायी का ‘उत्तरदाई’ ‘गायें को ‘गाएं तथा ‘वाजपेयी’ को वाजपेई लिखना होगा। पर आचार्य स्वयं इस मत के हैं कि गाय का बहुवचन गायें होगा ही नहीं। विशेषण में ‘य’ का लोप और संज्ञा में उसका प्रयोग (वर्तनी पृ. 48) एक ही तरह की स्थिति में ‘विकल्प’ का कार्यशील होना जटिलता एवं अस्पष्टता को बढ़ाता है।
          हिन्दी के प्राचीन कवियों के संबंध में उनका कथन अल्पांश में ही सत्य है केवल अवधी भाषा में लिखी जायसी व तुलसी की (मानस) कृतियों के संबंध में ही सत्य है। कबीर, सूर, ही नहीं, अमीर खुसरो, गोरखनाथ एवं स्वयं तुलसी की मानसेतर रचनाओं में, ‘इकारांत’ ‘यीकारांत’ तथा एकारांत-येकारांत दोनों रूपों में प्राप्त होते हैं। अतः यह धारणा सम्यक नहीं है कि पूर्ववर्ती हिन्दी कवि एकांत रूप से ‘इकारांत’ अथवा ‘एकारांत’ क्रियाओं का ही प्रयोग करते थे। आचार्य वाजपेयी स्वयं आयी-आये, गयी-गये को शुद्ध स्वीकारते है। और विकल्प से इनके प्रयोग विरुद्ध भी नहीं हैं। परंतु एकरूपता के लिए एक ही रूप स्वीकारने में उनका रुझान स्वरांत के पक्ष में है।
          आकारांत धातुओं में ‘य’ की स्थिति वे स्वीकार करते ही हैं वहां विकल्प से लोप की भी कल्पना नहीं की जा सकती।
          आकारांत ही नहीं ‘ईकारांत’ ‘एकारांत तथा ओकारांत धातुओं में भी ‘य’ है।
यथा- पी- पया, सी-सिया, जी-जिया
दे-दिया, ले-लिया, खें-खैंया
सो-सोया, रो-रोया, बो-बोया आदि
          हिन्दी की क्रिया की प्रवृत्त एवं पद्धति पर समझतः हमारे सामने जो स्थिति आती है वह भूत कालिक कृदंत के एकवचन के प्रथम रूप को आधार बनाने के पक्ष में आती है। हिन्दी की अधिकांश क्रियाओं के कोई न कोई रूप ‘य’ का दामन थामें दिखाई देते हैं। इच्छाबोधक रूप आय, जाय, कहाय, बताय, जगाय आदि। संयुक्त क्रिया के रूप बेचा गया है। जाया करता है। बुला लाया।
चल दिया। देख नहीं पाया। मन मसोसकर रह गया आदि।
          हिन्दी में प्रथम रूप को आधार बनाकर पदों के रूप परिवर्तन की पद्धति सर्वत्र दृष्टिगोचर होती हैः
संज्ञा -लड़का -लड़की -लड़के
सर्वनाम -तुम -तुझे -तुम्हारे
-मेरा -मेरी -मेरे
विशेषण -प्यासा -प्यासी -प्यासे
-अच्छा -अच्छी -अच्छे
अव्यय -कैसा -कैसी -कैसे
क्रिया -पढ़ा -पढ़ी -पढ़े
प्रथमावस्था को आधार बनाने की यह स्थिति एकांतिक रूप से हिन्दी में ही हो ऐसी बात नहीं है, अन्य भारतीय भाषाओं में भी समान रूप से प्राप्त है।
ब्रज- सखा- सखी- सखियन
राजस्थानी- छोरा- आयो छोरी आयी छोरा आया
पंजाबी- साडा (मेरा) साडी- साडे
होया- होई- होए
गुजराती- ले ग्यो- पेली गयी ले गया
आख्या- आखी- आख्या
मराठी- तो गेला- ती गेली- ते गेले (गये)
         भारतीय भाषाओं के इन उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि व्यापकता की दृष्टि से प्रथमावस्था को ही मानकीकरण का आधार बनाना सम्यक है। हिन्दी की ‘अकारांत’, ‘इकारांत’, ‘एकारांत’ तथा ‘ओकारांत’ धातुओं का सामान्य भूतकालिक रूप याकारांत है यथा- खाया, पिया, खोया।
अतः क्रिया के अन्य रूपों के लिए यथा आवश्यक उसे ही मानक माना जाए जिसके क्रम रूप प्राप्त होंगे।
आया-आयी-आये आयेंगे आदि
आया-आई-आए-आएंगे नहीं
अधिक स्पष्टीकरण के लिए एक क्रिया पद को सारी संगत स्थितियों में प्रयुक्त कर प्रस्तुत किया जा सकता है ताकि समग्रता लक्षित हो सके।
धातु: खो, क्रिया: खाना, सामान्य वर्तमानकालिक रूप है: खाता है

सामान्य भूतकाल

एकवचन पुलिंस: राम ने आम खाया। प्रथमावस्था
एकवचन स्त्रीलिंग: सीता ने रोटी खायी।
बहुवचन पुं.: हमने फल खाये (खाए-खाए)

सामान्य भविष्यकाल

एकवचन पुंलिंग - राम आम खायेगा। (खाएगा-खायगा-खावेगा)
स्त्रीलिंग - सीता आम खायेगी। (खाएगी-खायगी-खावेगी)
बहुवचन पुलिंग-हम आम खायेंगे। (खाएंगे-खायंगे-खावेंगे)
विध्यवर्थक- वे आम खायें।
तुम आम खाओ। (खावे)
आप आम खाइये। (खाइए)
आम आप खाइयेगा (खाइएगा)
इच्छाबोधक - वह आम खाय (खाए)
(खाएं, खावें)
संयुक्त क्रिया- चलो आम खाया जाय। (खाया जाए)
                        आम खा लिया जाय (खा लिया जाए)
आम खिलाया जाय (खिलाया जाए)

भाववाचक संज्ञा- खवाई

इस स्पष्टीकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘य’ का फैलाव क्रिया रूपों में कितना अधिक है।
         आचार्य वाजपेयी ‘जाये’ ‘आये’ को संकर मानते हैं और इसलिए अस्वीकारते हैं। इसका निराकरण तो यह है कि जब प्रथम रूप को आधार बनाया जाता है तो उसके संगत रूप स्वतः क्रम प्राप्त हैं। व्याकरणिक व्युत्पत्त की दृष्टि से देखना हो तो धातु रूप में ‘य’ प्रत्यय तंग कर उसमें क्रमशः (तीनों रूपों के लिए) आ, ई, ए, जुड़कर ‘या’ ‘थी’, ‘ये' रूप बनाते हैं। वस्तुतः यह तो अधिक सुविधा की एवं वैज्ञानिक स्थिति है। इसमें ‘य’ को लुप्त करने की कवायद से छुटकारा मिल जाता है।
आ + य + आ = आया - आ + य + ए + गा = आयेगा
आ + य + ई = आयी - आ + य + ए + गी = आयेगी
आ + य + ए = आये - आ + य + ए + गे = आयेंगे
         इच्छाबोधक रूप भी आय एकवचन तथा आयें बहुवचन स्पष्ट हो जाते हैं। विध्वर्थक (आज्ञार्थक) रूप भी आ, आओ, आइये तथा आइयेगा सहज उच्चारित हो जाते हैं, जबकि स्वरांत करने से ‘आए’ तथा ‘आइएगा’ में एक साथ दो स्वर मुखसुख को कष्ट पहुंचाते हैं। मुखसुख की भाषा की प्रकृति के कारण ही तो ‘अथिये’ जैसे रूप उसने स्वीकार नहीं किए। ‘याकारांत’ को मानक बना लेेने से इस वर्ग की जिन क्रियाओं की ईकारांत भाववाचक संज्ञा बनती है, वे क्रिया से अपनी पहचान अलग बतलाने मे समर्थ हो जाती हैं और अध्ययनकर्ता भी दो पदों के एक रूप से उत्पन्न होने वाले भ्रम से बच जाता है। यथा-

क्रिया संज्ञा
पुस्तक पढ़ायी, कविता लिखायी। उसे पढ़ाई-लिखाई से क्या काम।
उसने कमीज सिलवाई। कमीज की सिलाई ठीक हुई।
कुछ अन्य सादृश्यमूलक संज्ञाएं
सीता पुस्तक लायी पूजा के लिए लाई (खील) ले आओ।
उसने रोटी खायी। खाई (खाई-खंदक) बहुत गहरी थी।
मैनें पुरुष्कार मे पुस्तक पयी। पाई-पैर, चौथा, भाग, पूर्ण विराम चिन्ह, एक सिक्का जो कभी चलन में था, इससे बने हुए अन्य शब्द जैसे चौथाई, तिपाइ, चारपाईं

 
         हिन्दी वैयाकरणों में न केवल आचार्य वाजपेयी बल्कि डॉ. जगन्नाथ[12] आदि के क्रियाओं के विध्यर्थ रूपों के संबंध में विशेष विचार है। ये आग्रह पूर्वक ‘एकारांत’ के पक्ष में यथा - बैठिये, यथा - उठिये, बैठिये, दीजिए, पीजिए, कीजिए आदि। इस संबंध में निवेदन यह है कि ‘यकारांत’ क्रियारूप खड़ी बोली को अवधी से दाय रूप में प्राप्त हुए हैं, जिन्हें हिन्दी ने अपनी प्रवृत्त के अनुरूप ‘ए’ प्रत्यय लगाकर स्वीकार कर लिया है।
1. प्रविसि नगर कीजिय सब काजा।
2. करय न ऐसो छोभ विप्रवर।
         अतः ये एकदम नए प्रयोग नहीं हैं, दीर्घ परंपरा से प्राप्त हैं। परंपरा से प्राप्त सभी कुछ स्वीकार करने की कोई बाध्यता नहीं होती किंतु जो कुछ उपादेय है, उसे छोड़ देना विवेकपूर्ण नहीं कहा जा सकता है। विध्यर्थ क्रियाओं के आदरसूचक रूप अन्य से कुछ अलग अवश्य पड़ते हैं, संभवतः इसीनिए उनके स्वतंत्र रूप की रक्षा की चिंता अधिक दीख पड़ती है। पर एकांतिक रूप से उन्हें अन्य क्रियारूपों से अलग लिखना अपवाद को लादना ही कहा जाएगा ख़ासकर जबकि ऐसी कोई प्रबल स्थिति नहीं है। ऐसी स्थिति केवल चाहिए के साथ है जिसका विवेचन आगे किया गया है। ‘येकारांत क्रियारूप सदैव प्रचलन मे रहे हैं एवं वैयाकरणों को बराबर आकर्षित करते रहे हैं। रूसी वैयाकरण डॉ. ज. म. दीमशित्स का अभिमत है -‘आज्ञार्थक प्रकार के आदरसूचक भेद के रूप क्रिया की धातु से ‘इये’, ‘इयो’ तथा ‘इयेगा’ प्रत्ययो के जुड़ने से बनते हैं। जैसे - सामान्य क्रिया धातु आना-आ-आइये, (आइयो) आइयेगा। जाना-जा-जाइये (जाइयो) जाइयेगा।
         इसी तरह वे पीजिये, दीजिये, लीजिये, कीजिये, आदि को स्वीकारते हैं।[13]
         इसी संबंध में पं. कामताप्रसाद गुरु ने अपने हिन्दी व्याकरण[14] में इसके समर्थन में भारत मित्र संपादक पं. अंबिकाप्रसाद वाजपेयी के एक लेख का निम्न अंश उद्घृत किया है।
         ‘अब चाहिये और लिये जैसे शब्दों पर विचार करना चाहिये। हिन्दी शब्दों में इकार के बाद स्वतः ‘यकार’ का उच्चारण होता है, जैसा किया, दिया आदि से स्पष्ट होता है। इसके सिवा ‘हानि’ शब्द:इकारांत है। इसका बहुवचन में ‘हानियो’ न होकर ‘हानियों’ रूप होता है। सच तो यों है कि हिन्दी की प्रवृत्त ‘इकार’ के बाद उच्चारण करने की है। इसलिए ‘चाहिये’, ‘लिये’, ‘दीजिये’, ‘कीजिये’ जैसे शब्दों के अंत मे एकार न लिखकर ‘येकार’ लिखना चाहिये।
         यह सारा विवेचन अधूरा ही रहा जायेगा यदि ‘चाहिए’ क्रिया जो अपनी स्थिति अलग रखती है के संबंध में न लिखा जाए। ‘चाहिए’ की सबसे प्रमुख विवेशषता यह है कि विविध रूप में क्रिया के काम करती है, परंतु कहीं भी अपना चोगा नही बदलती है। इसके किसी भी प्रयोग में विकार उत्पन्न नहीं होता सर्वत्र वह अक्षत-अव्यय बनी रहती है। इसलिए इसे क्रिया प्रतिरूपक अव्यय माना गया है। अपने को विकारमुक्त रखने के पारितोषिक स्वरूप इसे ‘एकारांत की स्थिति प्रदान की ही जानी चाहिए। इसकी अन्य क्रियाओ मे अलग पहचान के लिए भी यह आवश्यक है। यह ‘अव्यय’ के एकार रूप के अनुरूप भी होगा।
         होना क्रिया के हुआ-हुई-हुए रूप ही चलने चाहिए। हुयी-हुवा तथा हुये हुवे रूपों को अमान्य किया जाना चाहिए। इनके स्वरांतक रूप रखना इस प्रस्थापना के अनुरूप ही हैं कि प्रथम अवस्था को ही मानक बनाया जाए। यही तर्क क्रियओ के येकार से, आधे स्वर से लिखने की स्थिति स्वीकारना द्विविधता को जन्म देगा, जो वांछनीय नहीं है।

अव्यय एवं विभक्ति प्रत्यय

हिन्दी में कुछ अव्यय एवं विभक्ति प्रत्यय हैं और इन्हें द्विविध रूप में लिखा जाता है। इसलिए, किसलिए, जिसलिए, अव्यय तथा के लिए विभक्ति प्रत्यय ‘येकारांत’ भी लिखे जाते है। ये सब अपने उच्चारण में ‘एकारांत’ हैं एवं उसी प्रकार लिखे भी जाने चाहिए। अव्यय होने से अपरिवर्तनीय हैं। उनका अव्यय रूप स्पष्ट समझ में आना चाहिए। येकारांत लिखे जाने से अनावश्यक रूप से क्रियारूपों से टकराहट की स्थिति आ सकती है, अतः इससे बचाव ‘एकारांत’ रखने से ही हो सकता है।

विशेषण

हिन्दी में कुछ विशेषण ‘यकार’ से बने हैं। इनमें शिरमौर हैं नया। इसे द्विविध रूप में बड़े पैमाने पर लिखा जाता है यथा- नया, नयी, नये तथा नया, नई नए। ‘य’ लुप्त करके अन्हे स्वरांत बनाया जाता है और प्रथम रूप आश्रित स्वाभाविक स्थिति धारण करने से वंचित किया जाता है। प्रथम रूप को ही आधार बना नयी नये रूप चलन में रूढ़ होने चाहिए। यह स्थिति इसके भी अनुरूप होगी कि जय से जयी, विजय से विजयी तथा स्थायी, उत्तरदायी इन विशेषणों का रूप यीकारांत है।

संयुक्त वर्ण

संयुक्त वर्णों के संबंध में वास्तव में मानकीकरण होना शेष नहीं है। लगभग सभी स्थितियों का सम्यक निर्धारण हो गया है, किंतु दुःख की बात है कि उसका पालन ख़ासकर उनके द्वारा नहीं हो रहा है, जो प्रकाशन व्यवसाय से संबंधित हैं। आगरा से इसी वर्ष प्रकाशित एक पाठ्यक्रम की पुस्तक मेरे समक्ष है जिसमें संयुक्त वर्ण निम्न रूप में प्रकाशित हुए हैं - वृद्ध, बौद्ध, सिद्ध, ब्रह्म, ब्राह्मण, चिह्न, पद्माकर, गद्य, पद्य, द्वारा, शक्ति, व्यक्ति, उक्ति आदि। जब आम जनता के सामने यह लेखन रूप रहेगा तो फिर मानक वर्णमाला केंद्रीय निदेशालय में ही दुबकी पड़ी रहेगी। मानक वर्णमाला का ही प्रयोग हो इसके लिए प्रभावी प्रयत्न होने चाहिए। सन् 1981 में प्रकाशित डॉ. जगन्नाथ की ‘प्रयोग और प्रयोग’ ऐसी पुस्तक हैं जिसमें सतर्कतापूर्वक मानक वर्णमाला का सुरम्य रूप सामने आया है अपने इसी ग्रंथ में डॉ. जगन्नाथ ने अनुनासिक व्यंजन एवं अनुस्वर के संबंध में संशोधित मानक नगरलिपि के आधार पर बड़ी उपादेय जानकारी प्रस्तुत की है। आवश्यकता इस बात की है कि इस जानकारी का उपयोग बड़े पैमाने पर उन माध्यमों से होना चाहिए जो मुद्रण, प्रकाशन एवं शिक्षण के हैं। इसमें प्रकाशक एवं हिन्दी भाषा तथा साहित्य पढ़ाने वाले अध्यापक व प्राध्यापक अहम भूमिका निभा सकते हैं, उन्हें प्रवृत्त किया जाना चाहिए।

ड़ तथा ढ़ के प्रयोग

हिन्दी में जिन ध्वनियों की सर्वाधिक उपेक्षा हुई है वे हैं ‘ड़’ तथा ‘ढ़’ की। इन ध्वनियों का उच्चारण संभवतः द्रविड़ भाषाओं के प्रभाव से हिन्दी में आया है। इन ध्वनियों का उच्चारण तो अलग है, परंतु वे पराश्रित हैं। प्रथम वर्ण के रूप में उसका उच्चारण नहीं हो पाता परंतु इससे अन्य स्थितियों में उनका अपने सादृश्य वर्णों से अलग उच्चारण होता है। हिन्दी वैयाकरणों की उपेक्षा की तो सीमा ही नहीं। वर्णमाला में स्थान देना तो दूर रहा उसकी चर्चा करने में भी संकोच हुआ है। ‘ड’ तथा ‘ढ’ क्रमशः ड़ तथा ढ़ से रूप सादृश्य रखते है। इन्ही ने शायद इन्हें पर्दे के पीछे धकेल दिया। यही कारण है कि इनके संबंध में बड़े अज्ञान की स्थिति बनी हुई है ‘ड’ से ‘ड़’ की तथा ‘ढ’ से ‘ढ़’ की ध्वनि एकदम अलग है ये नीचे दिए उदाहरण स्पष्ट करते हैं।
(1) लड़का डर गया
(2) ढाई आखर प्रेम का पढ़े से पंडित होय।।
          प्रथम वाक्य में लड़का में ‘ड़’ की तथा डर में ‘ड’ की अलग अलग ध्वनि है। डेरा, डमरू, डंडा, डील-डोल, डंका, डाका, डाकू में ‘ड’ की जो ध्वनि है, वह (क) लड़ाई, भीड़, भगदड़, बड़ा, बेड़ा, घड़ी, छाड़ी के ‘ड़’ की ध्वनि से एकदम भिन्न है। दोनों को एक दूसरे से बदला नहीं जा सकता।
          द्वितीय वाक्य में ढाई के ‘ढ’ की ध्वनि पढ़े के ‘ढ़’ से अलग है। (ख) ढेर, ढैंग, ढोंग, ढक्कन, ढंाचा, ढालना आदि से ‘ढ’ की ध्वनि कढ़ाई, बढ़िया, चढ़ाई, पढ़ना, बढ़ना आदि की ‘ढ़’ ध्वनि से अलग है।
          (क) व (ख) के अन्तर्गत दिए गये शब्दों से यह बात भी स्पष्ट होती है कि ‘ड’ व ‘ढ’ की ध्वनियां आद्य वर्ण का आसन सुशोभित नहीं करती और इसी कारण ये परोपजीवी हैं। ‘ड’ व ‘ढ’ से बने शब्दों में जहां इन्हीं की ध्वनि घोष होती है इन्हे नीचे की बिंदु के साथ ही लिखना चाहिए। हमारे अपने मूड या आदत के अनुसार नहीं, ध्वनि की सत्ता के अनुसार लेखन होना चाहिए। इन ध्वनियों के प्रयोग में मनमानी बहुत की जाती है। प्रायः यह धारणा है कि मध्य और अंत में आते हैं तो यह ड ढ ही होते है। यद्यपि ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है, जो आद्य ड व ढ के नीचे भी बिंदु लगाते है। आगरा से सद्य प्रकाशित पाठ्य पुस्तक में ‘ढूंढना’ शब्द ‘ढूंढ़ना’ के रूप में मुद्रित हुआ है। यह सब अज्ञान के कारण। ड-ड़ तथा ढ-ढ़ का जब तक ध्वनिगत अंतर समझ में नहीं आएगा तब तक इस द्वोष का परिहार नहीं हो सकता, यह समझाने का प्रयत्न होना चाहिए।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी - सरस्वती 1905
  2. प्रयोग और प्रयोग डाॅ. वी. रा. जगन्नाथ पृ. 56
  3. हिन्दी शब्दानुशासन, आचार्य किशोरीदास वाजपेयी पृ. 104
  4. हिन्दी शब्दानुशासन, आचार्य किशोरीदा वाजपेयी पृ. 104
  5. हिन्दी शब्दानुशासन, आचार्य किशोरीदा वाजपेयी पृ. 104
  6. हिन्दी शब्दानुशासन, आचार्य किशोरीदा वाजपेयी पृ. 104
  7. हिन्दी शब्दानुशासन, आचार्य किशोरीदा वाजपेयी पृ. 103
  8. हिन्दी शब्दानुशासन, आचार्य किशोरीदा वाजपेयी पृ. 105
  9. हिन्दी शब्दानुशासन, आचार्य किशोरीदा वाजपेयी पृ. 105
  10. हिन्दी शब्दानुशासन, आचार्य किशोरीदा वाजपेयी पृ. 420
  11. हिन्दी की वर्तनी तथा शब्द विश्लेषण - आचार्य किशोरीदास वाजपेयी पृ. 16
  12. प्रयोग और प्रयोग पृ. 329
  13. हिन्दी व्याकरण की रूपरेखा पृ. 156
  14. हिन्दी व्याकरण की रूपरेखा पृ. 355

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तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन 1983
क्रमांक लेख का नाम लेखक
हिन्दी और सामासिक संस्कृति
1. हिन्दी साहित्य और सामासिक संस्कृति डॉ. कर्ण राजशेषगिरि राव
2. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति प्रो. केसरीकुमार
3. हिन्दी साहित्य और सामासिक संस्कृति डॉ. चंद्रकांत बांदिवडेकर
4. हिन्दी की सामासिक एवं सांस्कृतिक एकता डॉ. जगदीश गुप्त
5. राजभाषा: कार्याचरण और सामासिक संस्कृति डॉ. एन.एस. दक्षिणामूर्ति
6. हिन्दी की अखिल भारतीयता का इतिहास प्रो. दिनेश्वर प्रसाद
7. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति डॉ. मुंशीराम शर्मा
8. भारतीय व्यक्तित्व के संश्लेष की भाषा डॉ. रघुवंश
9. देश की सामासिक संस्कृति की अभिव्यक्ति में हिन्दी का योगदान डॉ. राजकिशोर पांडेय
10. सांस्कृतिक समन्वय की प्रक्रिया और हिन्दी साहित्य श्री राजेश्वर गंगवार
11. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति के तत्त्व डॉ. शिवनंदन प्रसाद
12. हिन्दी:सामासिक संस्कृति की संवाहिका श्री शिवसागर मिश्र
13. भारत की सामासिक संस्कृृति और हिन्दी का विकास डॉ. हरदेव बाहरी
हिन्दी का विकासशील स्वरूप
14. हिन्दी का विकासशील स्वरूप डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित
15. हिन्दी के विकास में भोजपुरी का योगदान डॉ. उदयनारायण तिवारी
16. हिन्दी का विकासशील स्वरूप (शब्दावली के संदर्भ में) डॉ. कैलाशचंद्र भाटिया
17. मानक भाषा की संकल्पना और हिन्दी डॉ. कृष्णकुमार गोस्वामी
18. राजभाषा के रूप में हिन्दी का विकास, महत्त्व तथा प्रकाश की दिशाएँ श्री जयनारायण तिवारी
19. सांस्कृतिक भाषा के रूप में हिन्दी का विकास डॉ. त्रिलोचन पांडेय
20. हिन्दी का सरलीकरण आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा
21. प्रशासनिक हिन्दी का विकास डॉ. नारायणदत्त पालीवाल
22. जन की विकासशील भाषा हिन्दी श्री भागवत झा आज़ाद
23. भारत की भाषिक एकता: परंपरा और हिन्दी प्रो. माणिक गोविंद चतुर्वेदी
24. हिन्दी भाषा और राष्ट्रीय एकीकरण प्रो. रविन्द्रनाथ श्रीवास्तव
25. हिन्दी की संवैधानिक स्थिति और उसका विकासशील स्वरूप प्रो. विजयेन्द्र स्नातक
देवनागरी लिपि की भूमिका
26. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में देवनागरी श्री जीवन नायक
27. देवनागरी प्रो. देवीशंकर द्विवेदी
28. हिन्दी में लेखन संबंधी एकरूपता की समस्या प्रो. प. बा. जैन
29. देवनागरी लिपि की भूमिका डॉ. बाबूराम सक्सेना
30. देवनागरी लिपि (कश्मीरी भाषा के संदर्भ में) डॉ. मोहनलाल सर
31. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में देवनागरी लिपि पं. रामेश्वरदयाल दुबे
विदेशों में हिन्दी
32. विश्व की हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ डॉ. कामता कमलेश
33. विदेशों में हिन्दी:प्रचार-प्रसार और स्थिति के कुछ पहलू प्रो. प्रेमस्वरूप गुप्त
34. हिन्दी का एक अपनाया-सा क्षेत्र: संयुक्त राज्य डॉ. आर. एस. मेग्रेगर
35. हिन्दी भाषा की भूमिका : विश्व के संदर्भ में श्री राजेन्द्र अवस्थी
36. मारिशस का हिन्दी साहित्य डॉ. लता
37. हिन्दी की भावी अंतर्राष्ट्रीय भूमिका डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा
38. अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में हिन्दी प्रो. सिद्धेश्वर प्रसाद
39. नेपाल में हिन्दी और हिन्दी साहित्य श्री सूर्यनाथ गोप
विविधा
40. तुलनात्मक भारतीय साहित्य एवं पद्धति विज्ञान का प्रश्न डॉ. इंद्रनाथ चौधुरी
41. भारत की भाषा समस्या और हिन्दी डॉ. कुमार विमल
42. भारत की राजभाषा नीति श्री कृष्णकुमार श्रीवास्तव
43. विदेश दूरसंचार सेवा श्री के.सी. कटियार
44. कश्मीर में हिन्दी : स्थिति और संभावनाएँ प्रो. चमनलाल सप्रू
45. भारत की राजभाषा नीति और उसका कार्यान्वयन श्री देवेंद्रचरण मिश्र
46. भाषायी समस्या : एक राष्ट्रीय समाधान श्री नर्मदेश्वर चतुर्वेदी
47. संस्कृत-हिन्दी काव्यशास्त्र में उपमा की सर्वालंकारबीजता का विचार डॉ. महेन्द्र मधुकर
48. द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन : निर्णय और क्रियान्वयन श्री राजमणि तिवारी
49. विश्व की प्रमुख भाषाओं में हिन्दी का स्थान डॉ. रामजीलाल जांगिड
50. भारतीय आदिवासियों की मातृभाषा तथा हिन्दी से इनका सामीप्य डॉ. लक्ष्मणप्रसाद सिन्हा
51. मैं लेखक नहीं हूँ श्री विमल मित्र
52. लोकज्ञता सर्वज्ञता (लोकवार्त्ता विज्ञान के संदर्भ में) डॉ. हरद्वारीलाल शर्मा
53. देश की एकता का मूल: हमारी राष्ट्रभाषा श्री क्षेमचंद ‘सुमन’
विदेशी संदर्भ
54. मारिशस: सागर के पार लघु भारत श्री एस. भुवनेश्वर
55. अमरीका में हिन्दी -डॉ. केरीन शोमर
56. लीपज़िंग विश्वविद्यालय में हिन्दी डॉ. (श्रीमती) मार्गेट गात्स्लाफ़
57. जर्मनी संघीय गणराज्य में हिन्दी डॉ. लोठार लुत्से
58. सूरीनाम देश और हिन्दी श्री सूर्यप्रसाद बीरे
59. हिन्दी का अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य श्री बच्चूप्रसाद सिंह
स्वैच्छिक संस्था संदर्भ
60. हिन्दी की स्वैच्छिक संस्थाएँ श्री शंकरराव लोंढे
61. राष्ट्रीय प्रचार समिति, वर्धा श्री शंकरराव लोंढे
सम्मेलन संदर्भ
62. प्रथम और द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन: उद्देश्य एवं उपलब्धियाँ श्री मधुकरराव चौधरी
स्मृति-श्रद्धांजलि
63. स्वर्गीय भारतीय साहित्यकारों को स्मृति-श्रद्धांजलि डॉ. प्रभाकर माचवे