स्वर्गीय भारतीय साहित्यकारों को स्मृति-श्रद्धांजलि -डॉ. प्रभाकर माचवे

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लेखक- डॉ. प्रभाकर माचवे

1976 में गत विश्व हिन्दी सम्मेलन के बाद आज तक, छह वर्षों में अनेक श्रेष्ठ और ज्येष्ठ, प्रवीण और नवीन भारतीय साहित्यकार, भाषावैज्ञानिक, हिन्दीप्रेमी अहिन्दी-भाषी विद्वान, कवि, उपन्यासकार, नाटककार आदि को क्रूर काल हममें से छीनकर ले गया। उन सब का स्मरण एक लेख में करना सम्भव नहीं। फिर भी विश्व हिन्दी सम्मेलन ने जिनका सम्मान प्रथम और द्वितीय सम्मेलनों में किया था और जो सक्रिय रूप से इस संस्था से संबंद्ध थे, जिनके आशीर्वादों की छत्रछाया में हिन्दी का कार्य बढ़ा, ऐसे सब सहृदय साहित्य-सेवकों को हमारी विनम्र प्रणाम-श्रद्धांजलि निवेदित है। ऐसे महत्वपूर्ण महान् साहित्यकारों को हम तीन विभागों में, स्मृति-श्रद्धा प्रसून अर्पित करने जा रहे हैं:

  • अहिन्दी-भाषी, श्रेष्ठ, हिन्दी प्रेमी, साहित्यकार
  • अहिन्दी-भाषी हिन्दी साहित्यकार
  • हिन्दी साहित्यकार
  • अहिन्दी-भाषी साहित्यकार तथा साहित्यप्रेमी

भारतीय साहित्य को जिन्होंने अपनी कृतियों से मंडित किया, ऐसे भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता चार दक्षिण भारतीय साहित्यकार अब नहीं रहे। उनका संक्षिप्त परिचय दे रहा हूँ-

दत्तात्रय रामचंद्र बंद्रे (जन्म 1896)

‘अंबिकातनयदत्त’ उपनाम से लिखने वाले बेंद्रे कन्नड़ के विख्यात कवि थे। धारवाड़ में आपने ‘गेळयर गुम्पु’ नामक ‘मित्र मंडली’ की स्थापना की। आपने ‘भावगीत’ (मुक्तक, गीति-काव्य) और लंबी कविताएँ, प्रयोगशील रचनाएँ और गहरी अध्यात्म-भावना वाली कविताएँ लिखी हैं। उनके प्रसिद्ध कविता-संग्रह हैं: ‘मुग़लि-मत्लिग’, ‘उत्तरायण’, ‘नमन’, ‘संचयन’, ‘हृदय-समुद्र’, ‘मुक्तकंठ’, ‘सखी गीत’, ‘गंगावतरण’, ‘यक्ष-यक्षी’, ‘मेघदूत’, ‘अरळ मरळ’, ‘चार तार’ आदि। आपको साहित्य अकादमी और भारतीय ज्ञानपीठ का पुरस्कार मिला। कन्नड़ साहित्य परिषद् के वे अध्यक्ष रहे। श्री अरविंद के दर्शन के आप भक्त थे। आपने कुछ नाटक और साहित्यिक निबंध भी लिखे हैं। मातृभाषा मराठी होने पर भी आपका कार्य कन्नड़ साहित्य में अधिक था। मराठी में भी आपका एक लेख-संग्रह प्रकाशित हुआ। आपको ‘पद्मश्री’ उपाधि भी दी गई। मेरी पुस्तक ‘व्यक्ति और बाड्मय’ (1952) में उन पर लेख है। उनकी मृत्यु पर मैंने ‘दिनमान’ में संस्मरण लिखा, मैंने उनका बनाया रेखा चित्र भी दिया।

जी. शंकर कुरुप (1902-1979)

कालड़ा में जन्मे मलयालम कवि रवींद्रनाथ ठाकुर से बहुत प्रभावित थे। आपने प्रकृति, प्रेम और स्वदेशभक्ति के गीत लिखे। 1920 तक प्रकाशित मरचनाओं के संग्रह ‘ओटक्कुषल’ (वंशी) पर आपको भारतीय ज्ञानपीठ का पुरस्कार दिया गया। ‘पाथेय’ और ‘एंटेवेलि’ आपकी दूसरी प्रसिद्ध काव्यकृतियाँ हैं। आपको ‘पद्म भूषण’ उपाधि दी गई। कई वर्षों तक आप भारतीय संसद के सामान्य नामित सदस्य थे। आपकी विप्लवात्मक कविताओं में ‘तुप्पुकारी’ (झाड़ू लगाने वाल) का अद्वितीय स्थान है। राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति आपको विशेष प्रेम था। उन्हें मलयालम में नवयुग का प्रतिनिधि कवि कहा जाता है। उनकी मृत्यु पर मैंने कलकत्ता के ‘रविवार’ में एक श्रद्धांजलि लेख लिखा था। ‘शब्द-रेखा’ नामक मेरी पुस्तक में मैंने उनका बनाया रेखाचित्र छापा है।

कविसम्राट विश्वनाथ सत्यनारायण (जन्म 1895)

तेलुगु के महाकवि विश्वनाथ सत्यनारायण अपने विराट उपन्यास ‘वेयिपगळु’ (‘सहसफग’, हिन्दी अनुवादक: श्री पी. वी. नरसिंहराव), महाकाव्य ‘श्री रामायण-कल्पवृक्षम’, (हिन्दी अंशानुवादिका: डॉ. सरोजिनी महिषी) जिसे भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार 1971 में मिला, तथा ‘मध्यक्करलु’ नामक कविता संग्रह (साहित्य अकादमी पुरस्कार-प्राप्त) के लिए विख्यात है। वे तेलुगु के आधुनिक युग में एक क्लासिक कवि थे। संस्कृत के पंडित तो थे ही, तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ से भी वे बहुत प्रभावित थे, यह बात उन्होंने मुझे एक इंटरव्यू में कही, जो मेरे द्वारा उनके बनाए रेखाचित्र के साथ ‘धर्मयुग’ में छपी थी, जब ज्ञानपीठ पुरस्कार उन्हें मिला। वे ‘ग्रांथिक’ शैली को मानने वाले थे, जबकि व्यावहारिक शैली के पर्वतक अन्य पत्रकार थे। दोनों विचारधाराओं में कई विवाद चले। आपकी अन्य प्रसिद्ध रचनाओं में ‘एकवीरा’ (उपन्यास), ‘किन्नरसानि पाटलु’ (गीतकाव्य) ‘ऋतुसंहारमु’, ‘काव्य-हरिश्चंद्र’ आदि प्रसिद्ध है। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे और उन्होंने कई विधाओं में सफलता से लिखा है।

प्रो. टी. पी. मीनाक्षीसुंदरम (जन्म 1900)

आप विश्वविख्यात भाषावैज्ञानिक और द्रविड़ भाषाओं के अधिकारी विद्वान थे। दो दशकों तक आपने मद्रास और अण्णामलौये में अध्यापन किया। बाद में वे मदुरै विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे। आरंभिक जीवन में वे ख्याति-प्राप्त गाँधीवादी कार्यकर्ता थे। आपने ‘तमिल अनुसंधान की अंतर्राष्ट्रीय संस्था’ की स्थापना की। अमरीका के शिकागो विश्वविद्यालय में तमिल विभाग की स्थापना आप ही के उद्योग से हुई। उन दिनों मैं भी अमरीका में था और शिकागो में हमने एक बार साथ-साथ व्याख्यान दिए थे 1960 में। आपने तमिल विश्वकोश (तमिल कलैकळञचियम) में तमिल भाषा साहित्य पर अनेक प्रविष्टियाँ लिखीं। आपका पूना में अंग्रेजी में प्रकाशित ‘तमिल भाषा का इतिहास’ एक मानक ग्रंथ है। आपकी अन्य तमिल कृतियाँ हैं: ‘वक्कुवर नाटुम मककिसम’, ‘तमिलानिनेलुप्पार’, ‘पिरनततु निनैलुप्पार’ और ‘पिरनततु एप्पटियो’। साहित्य और भाषाविज्ञान के अतिरिक्त आपके संस्कृति और इतिहास पर भी अनेक महत्वपूर्ण निबंध है।

एस. के. पोट्टेक्काट्ट (जन्म 1913)

भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता मलयालम उपन्यासकर पोट्टेक्काट्ट इंदोनेसिया बालिद्वीप तथा अफ्रीका के प्रवासवर्णन, ‘विषकन्या’ नामक कहानी संग्रह और ‘ओरु तेरर्शवंटे कथा’ (‘एक गली की कहानी’ तथा ‘एक प्रदेश की कहानी’) आदि केरल अकादमी तथा ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त रचनाओं के लिए प्रसिद्ध थे। वे 1962 में लोक सभा के सदस्य चुने गए थे। 1971 में केरल साहित्य अकादमी के वे सभापति मनोनीत किए गए थे। आपने प्रगतिवादी विचारों के कारण वे सोवियत रूस की भी यात्रा कर चुके थे। वहाँ उनकी कई रचनाओं के अनुवाद भी हुए। 1928 में ‘राजनीति’ नामक उनकी पहली कहानी छपी थी। तब से उन्होंने विपुल लेखन किया है। दक्षिण भारत से पश्चिम की ओर मुड़े तो महाराष्ट्र से (स्व.) विष्णु सखाराम खांडेकर, काका कालेलकर, कवि आत्माराम रावजी ‘अनिल’ और महामहोपाध्याय दत्तो वामन पोतदार की याद आना स्वाभाविक है। खांडेकरजी का तो प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन में सम्मान हुआ था। और सम्मेलन का उदबोधन किया था, काका कालेलकर ने। इन चार साहित्यसेवी, विद्वानों के संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है।

विष्णु सखाराम खांडेकर (जन्म 1898)

मराठी के मूर्धन्य उपन्यासकार, जिनके ‘ययाति’ उपन्यास को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया। वे ‘जीवन के लिए कला’ के सिद्धांत को मानते थे। प्रेमचंद की तरह ही उनका लेखन ‘आदर्शवादी यथार्थवादी’ से भरा है। इनकी ‘जीवन-कला’ कहानी का ‘हंस’ के लिए अनुवाद मैंने 1935 में किया। प्रेमचंद का एक पत्र मेरे नाम है, जिसमें उसका उल्लेख है। बाद में ‘हंस’ पर कई वर्षों तक खांडेकर का नाम मराठी सलाहकारों में छपता था। मैंने उनके उपन्यास ‘उल्का’ का हिन्दी अनुवाद किया। अन्य कई उपन्यासों का अनुवाद जबलपुर के (स्व.) रा. र. सरवटे जी ने किया। उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं: कांचनमृग, उल्का, दो ध्रुव, क्राँच-वध ययाति आदि। उनके कई कहानी-संग्रह हैं। आगरकर और गडकरी पर उनकी समीक्षा पुस्तकें प्रसिद्ध हैं। मैंने उनकी मृत्यु पर अंग्रेजी में एक लेख लिखा जो ‘नेशनल हेरल्ड’ में छपा और बाद में मेरी पुस्तक ‘लिटरेरी स्टडीज एंड स्केचेज’ में शामिल है। उनकी एक कहानी का अनुवाद मैंने सन् 40 में अंग्रेजी में किया। ‘उल्का’ का बंगला अनुवाद भी छपा है। मैंने प्रेमचंद शताब्दी वर्ष में ‘प्रेमचंद और खांडेकर’ एक लेख ‘उत्तर-प्रदेश’ पत्रिका में भी लिखा। 1937 से 1943 तक वे मराठी मासिक ‘ज्योत्स्ना’ के संपादक थे।

काका कालेलकर (जन्म 1885)

दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर गुजराती के महान् गांधीवादी लेखक थे। आपकी मातृभाषा मराठी थी। आपने हिन्दी, अंग्रेज़ी, कोंकणी में भी लिखा। आपने स्वामी आनंद के साथ हिमालय की यात्राएं की। आपकी ‘लोकमाता’ ‘जीवनलीला’ पुस्तकें भारत की नदियों के बारे में हैं, जो बहुत प्रसिद्ध है। 1917 में आप गांधी जी के आश्रम में गए। गुजरात विद्यापीठ से आपका संबंध रहा। ‘जोडणी-कोश’ भी संपादित किया। ‘जीवनविकास’, ‘जीवन-संस्कृति’, ‘जीवनभारती’, ‘जीवन प्रदीप’, ‘जीवन चिंतन’, आपके निबंध ‌‌‌‌‌‌‌‌‌संग्रह हैं। हिन्दुस्तानी प्रचार सभा के आप आरंभ से ही सक्रिय संस्थापक रहे। साहित्य अकादमी पुरस्कार भी आपने पाया जापान आदि अनेक देशों की यात्राएँ की।

अ. रा. देशपांडे ‘अनिल’

समाजशिक्षा, विशेषज्ञ विदर्भ के प्रसिद्ध मराठी कवि ‘अनिल’ के प्रसिद्ध कविता-संग्रह के ‘फलवात’, ‘भग्नभूर्ति’, (इसका हिन्दी अनुवाद मैंने केंद्रीय साहित्य अकादमी के लिए किया और अकादमी के आरंभिक प्रकाशनों में वह है, 1956 में प्रकाशित), ‘पेर्तेव्हा’, ‘सांगाती’, ‘दशपदी’ (इस पर साहित्य अकादमी का प्रथम कविता-संग्रह का पुरस्कार मराठी में दिया गया)। ‘अनिल’ मालवाण के मराठी साहित्य सम्मेलन के सभापति थे। उनकी कई रचनाओं और लेखों को मैंने हिन्दी अनुवाद किया। उनके गीतों के कई रिकार्ड भी बने हैं। श्रीमती कुसुमावती देशपांडे, उनकी पत्नी भी बड़ी विदुषी थीं। दोनों का पत्र-व्यवहार ‘कुसुमानिल’ नाम से छपा है।

दत्तो वामन पोतदार (जन्म 1890)

मराठी इतिहास के प्रकांड विद्वान पोतदार जी अपने आप में एक संस्था थे। महाराष्ट्र के राष्ट्रभाषा-प्रचार कार्य में उनकी बड़ी सहायता रही। वे उत्तम वक्ता और कुशल संगठनकर्ता थे। मराठी साहित्य सम्मेलन के वे सभापति रहे। उनका मुझ पर बड़ा स्नेह था। उन्हीं के आग्रह से मैंने समर्थ रामदास के ‘दासबेध’ के हिन्दी अनुवाद की भूमिका (डॉ. भगवानदास तिवारी, सोलापुर) लिखी है। वे पूना के ‘भारत इतिहास संशोधन मंडल’ के संस्थापक थे। समर्थ रामदास मृत्यु पर ‘महाराष्ट्र मानस’ में मेरा लेख छपा है। आपकी प्रसिद्ध पुस्तकें हैं: ‘मराठे आणि इंग्रेज’, ‘मराठी गद्याचा इंग्रेजी अवतार’ आदि।

लीलावती मुंशी (जन्म 1899)

(स्व.) कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी की पत्नी और गुजराती लेखिका तथा सामाजिक कार्यकर्त्री लीलावती की प्रसिद्ध पुस्तकें हैं: ‘रेखाचित्रो अने बीजा लेखो’, ‘कुमारदेवी’ (नाटक), ‘जीवनमांशी जडेली’ (कहानियाँ) आप भारतीय विद्या भवन की संस्थापिका और बहुत बड़ी राष्ट्रभाषा-प्रेमी महिला थीं। अब की बार देश में कई आध्यात्मिक चिंतकों का देहावसान हो गया। स्वामी मुक्तानंद, माता आनंदमयी, करपत्री जी आदि तो साधक, धर्मप्रचारक लोग थे। परंतु सबसे अधिक दु:ख आचार्य विनोबा भावे के निधन का है।

आचार्य विनोबा भावे (जन्म 1895)

विनायक नरहर भावे को ‘विनोबा’ नाम महात्मा गांधी ने दिया। वे ‘सर्वोदय’, ‘पदयात्रा’, और ‘भूदान’ के महान् प्रवर्तक, संस्कृत मराठी, गुजराती, हिन्दी-प्राय: सभी भारतीय भाषाओं के पंडित थे। आपको मराठी ‘गीता’ अनुवाद ‘गीताई’ की कई लाख प्रतियाँ महाराष्ट्र में प्रसारित हुईं। ‘स्थितप्रज्ञ दर्शन’ ‘उपनिषद सार’, ‘कुरआन सार’, ‘जपुजी’ आदि उनके अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं। ‘गीता प्रवचन’ के अनुवाद देश-विदेश में हुए हैं। आपका 1982 में दीपावली की ‘प्रायोपवेशन’ द्वारा स्वर्गवास हुआ। वे संत-स्वाभाव के व्यक्ति थे। उन्होंने अपना सारा जीवन गांधीजी के आदर्शों पर बलिदान कर दिया। वे अत्यतं कर्मठ, आदर्शवादी और मननशील निबंध लेखक थे। उच्च कोटि के मौलिक विचारक और दार्शनिक राष्ट्रकर्मी थे। अन्य अहिन्दीभाषी हिन्दी प्रेमियों और लेखकों में कर्नाटक के देवराज अर्स, ज्ञानी गुरुमुख सिंह ‘मुसाफिर’ (पंजाबी के लेखक और संसद सदस्य, राष्ट्रवादी), और कन्याकुमारी में विवेकानंद स्मारक के संस्थापक श्री एकनाथ रानाडे का स्मरण हो आता है। ‘मुसाफिर’ जी बड़े ही विनोदी स्वभाव के व्यक्ति थे। दिल्ली में उनसे अनेक बार मैं मिला हूँ। बंगाल के अनेक विद्वान और कवि इस बीच नहीं रहे, जैसे इतिहासविद् डॉ. नीहाररंजन राय (आपकी ‘मौर्य कला का इतिहास’ हिन्दी में छपी है) ; विष्णु दे (भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता कवि: आपकी ‘स्मृति सत्ता भविष्यत’ का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित है, अबू सईद अय्यूब (प्रसिद्ध चिंतक और समालोचक, जिनको ‘रवींद्रनाथ ओ आधुनिकता’ पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला, बॉलाईचंद मुखोपाध्याय ‘बनफूल’(इनकी एक कहानी ‘भुवन शोम’ पर फिल्म बनी, जो बहुत प्रसिद्ध हुई); और हिन्दी के किसी समय ‘समानासु हिन्दी प्रथमा’ लिखकर कट्टर समर्थक परंतु बाद में प्रखर आलोचक विश्वप्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक डॉ. सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या को हम न भूलें।

डॉ. सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या (जन्म 1890)

पदमभूषण, डॉ. चटर्जी लंदन और पेरिस यूनिवर्सिटियों से डी. लिट. कलकत्ता में वे 1922 से 1951 तक ‘प्रोफेसर ऑफ लिंग्विस्टकिस रहे’। ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के क्षेत्र में उनकी ‘बांगला भाषा की उत्पत्ति और विकास’ पर थीसिस बहुत प्रमाणिक है। आज के भारत के कई भाषावैज्ञानिक उनके विद्यार्थी थे। आप साहित्य अकादमी के अध्यक्ष रहे। आप ही ने राजस्थानी, मैथिली, डोगरी, कोंकणी, मणिपुरी, नेपाली भाषाओं को साहित्यिक मान्यता दिलवाई। वे रविंद्रनाथ ठाकुर के साथ विदेश यात्रा पर गए थे। उनके अनेक साहित्य-विषयक निबंध अक एक ग्रंथावली में छप रहे हैं।
डॉ. सुनितिकुमार चैटर्जी के निबंध ‘तानसेन’ का हिन्दी अनुवाद वीणा (इन्दौर) से मैंने स्वराज्य पूर्व ही किया था। ‘ऋतंर्भरा’ उनका संग्रह हिन्दी में भी छपा है। जयदेव पर उनकी एक अच्छी छोटी पुस्तक है। रामकृष्ण मिशन से प्रकाशित ‘कल्चरल हैरिटेज ऑफ इंडिया’ का पाँचवा खंड ‘साहित्य’ पर उन्हीं के द्वारा संपादित है। इस ग्रंथ में उन्होंने मुझ से मराठी पर निबंध लिखवाया। स्वयं उनका निबंध ‘आदिवासी भाषाओं’ पर है। अब हिन्दी के मान्य लेखक, साहित्यकार, चिंतक, प्रचारक, कवि, निबंधकार उपन्यासकार महानुभावों में से कुछ चुने हुए लोगों को श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। पहले कवि लें:

श्री सुमित्रानंदन पंत (जन्म 1900, मृत्यु 1977)

कौसानी में जन्मे पंत जी प्रकृति की क्रोड़ में बढ़े। उनकी कविता में सुकुमारता उनके काव्यसंग्रहों के नामों से व्यक्त होती है: ‘पल्लव’, ‘गुंजन’, ‘स्वर्णकिरण’, ‘स्वर्णधूलि’, ‘ज्योत्स्ना’, ‘सौवर्ग’, उनके गीति नाटक हैं। हिन्दी में ‘छायावाद’ (रोमैंटिक आंदोलन) के प्रवर्तकों में पंत प्रमुख हैं। आपने शैली, कीट्स जैसे अंग्रेजी रोमैंटिक कवि तथा रविंद्रनाथ ठाकुर जैसे बंगाल के कवि-गुरु से प्रेरणा ली। अन्य छायावादी जैसे रहस्यवाद की ओर मुड़े (प्रसाद, महादेवी, अंशत: निराला भी) वैसे ने मुड़कर पंत पहले प्रगतिवाद की ओर मुड़े। ‘ग्राम्या’ और ‘युगवाणी’ में मार्क्सवाद से प्रभावित उनकी रचनाएँ हैं। बाद में वे अरविंद दर्शन की ओर मुड़े जो ‘पूर्ण-योग’ में विश्वास करता है। भौतिकवाद और अध्यात्मवाद में वहाँ विरोध नहीं परस्पर-विकास और उर्ध्वमानता है। पंत जी ने ‘लोकायतन’ नामक महाकाव्य भी लिखा। खैयाम की रुबाइयों का अनुवाद भी किया। कुछ गद्य-लेख और आत्म-संस्मरण भी लिखे। गांधी की मृत्यु पर बच्चन के साथ एक श्रद्धांजलि काव्यसंग्रह भी रचा। पंत जी की जीवनी डॉ. शांति जोशी ने लिखी है। इन पंक्तियों के लेखक ने उन पर ‘व्यक्ति और बाड्मय’ (1952) में और बाद में इलाहाबाद की ‘अमृत पत्रिका’ में, पंत जी के 60 वर्ष पूरे होने पर ‘ग्राम्या’ में एक सानेट, तथा उनकी मृत्यु पर अंग्रेजी में एक लेख लिखा जो ‘लिट्रेरी स्टडीज एंड स्केचेज’ में प्रकाशित है। 1950 से 52 तक आपके साथ आकाशवाणी, इलाहाबाद में कार्य करने का सौभाग्य भी मुझे मिला है। पंत की ‘चिदंबरा’ (भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता कृति) का मराठी अनुवाद भी मैंने किया, जो ज्ञानपीठ से छपा है।

श्री विजयदेवनारायण साही (1924-1982)

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के प्रोफेसर साही, ‘तीसरा सप्तक’ और ‘मछलीघर’ के कवि, समाजवादी (डॉ. लोहिया के अनुयायी) कार्यकर्ता, जो स्वराज्य के बाद तीन बार जेल गए, प्रवर समीक्षक, बौद्धिक, निबंधकार, और जायसी काव्य के विशेषज्ञ विद्वान थे। उनके अकाल-निधन से हिन्दी नई कविता की बड़ी हानि हुई।

श्री ‘मलयज’

‘अपने होने का अप्रकाशित करता हुआ’ (उनका कविता संग्रह) कवि भरत श्रीवास्तव उर्फ ‘मलयज’ दिल्ली में कृषि मंत्रालय में कार्य करते थे। आपका एक कविता-संग्रह और समीक्षा-निबंधों को दो पुस्तकें प्रकाशित हैं। अपने ‘अज्ञेय’ और ‘शमशेर’ की प्रशंसा में लंबे निबंध लिखे, जो बहुत सराहे गए। उन पर ‘पूर्वग्रह’ (मध्यप्रदेश) ने मरणोपरांत विशेषांक निकाला गया है। उनका अकाल-निधन बहुत दुखद घटना है।

श्री उमाकांत मालवीय

इलाहाबाद के प्रसिद्ध गीतकार और कवि, अत्यंत सहृदय साहित्यकार की उमाकांत का अकाल-निधन हुआ। कई कवि सम्मेलनों में उनके ‘नवगीतों’ ने बड़ी धूम मचा दी थी। ‘नवगीत’ आंदोलन के वे एक प्रमुख उन्नायक थे। उन्होंने प्रयोगवाद और गीत-विद्या के समन्वय का प्रयत्न किया, जो एक ऐतिहासिक महत्व का कार्य था। उन पर एक स्मारिका भी निकाली है।

श्री अनिलकुमार

भोपाल के तरुण समाजवादी कार्यकर्ता, पत्रकार, मूलत: मराठीभाषी अनिलकुमार अड़यालकर अच्छे कवि और कलामर्मज्ञ थे। आकाशवाणी, नागपुर में अनेक वर्ष कार्य करने पर आपने मध्य प्रदेश के ‘समाजशिक्षा’ विभाग में संपादन कार्य किया। ‘कला-मंच’ विषयक पर एक बहुत अच्छी लघु-पत्रिका भी आपने प्रकाशित की। ‘गरुड मंत्र’ और ‘उत्सव’ इनके बहुत अच्छे कविता-संग्रह हैं। इनकी मृत्यु के बाद मध्यप्रदेश साहित्य परिषद ने उनपर एक आयोजन किया। मैंने उनकी ‘कला-मंच’ पत्रिका में दो लेख लिखे थे, एक लंबा लेख ‘इंप्रेशनिज्म’ पर।

उपन्यासकार

श्री भगवतीचरण वर्मा (1903-1981)

इलाहाबाद के उपन्यासकार, कवि, नाटककार, निबंधकार भगवती बाबू की ख्याति ‘चित्रलेखा’ उपन्यास से हुई। इसकी एक लाख से अधिक प्रतियाँ बिकी हैं। बाद में आपके उपन्यास ‘टेढ़े मेढ़े रास्ते’, ‘भूले-बिसरे चित्र’, (साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त) ‘सामर्थ्य और सीमा’, ‘सबहिं नचावत राम-गोसांई’, ‘राणा चूंडा’ बहुत विख्यात हैं। ‘धूप्पल’ नामक एक संस्मरण संग्रह, कई कविता संग्रह और ‘रुपया तुम्हें खा गया’ रेडियो नाटक भी प्रकाशित हैं। आकाशवाणी पर वे साहित्यिक कार्यक्रमों के सलाहकार रहे और अंतिम दिनों में कुछ वर्ष संसद में राज्यसभा सदस्य भी। उनका कहानी संग्रह ‘इन्सालमेंट’ उसकी ताजगी भरी शैली में परिहास के पुट के कारण सदा याद किया जाएगा। ‘चित्रलेखा’ पर दो बार फिल्म भी बनी। ‘शब्द रेखा’ में उनका रेखाचित्र है।

श्री यशपाल (1903-1977)

क्रांतिकारी, ‘विप्लव’ के संपादक, प्रगतिवादी कहानीकार और उपन्यासकार यशपाल 1932 में गिरफ्तार किए गए और उन्हें चौदह वर्ष की सजा हुई। 1938 में कांग्रेस सरकार बनने पर वे छोड़ दिए गए। लखनऊ में आपने अपना प्रकाशनगृह आरंभ किया। ‘ज्ञानदान’ (1943) से ‘खच्चर और आदमी’ (1965) तक इसके बारह कहानी-संग्रह प्रसिद्ध हैं। उपन्यासों में ‘दादा कामरेड’ (1941), ‘देशद्रोही’ (1943), ‘पार्टी कामरेड’ (1947), ‘मनुष्य के रूप’ (1949), ‘दिव्या’ (1954), ‘अमिता’ (1956), ‘झूठा-सच’ (दो भाग, 1960), रूसी में भी अनुवादित; ‘मेरे तेरी उसकी बात’ (साहित्य अकादमी द्वार पुरस्कृत) उपन्यास बहुत लोकप्रिय हुए। ‘गांधीवाद की शव परीक्षा’ (1942), ‘देखा सोचा समझा’ (1951) आपके निबंध-संग्रह है। ‘सिंहावलोकन’ नामक दो खंडों में आत्मकथा 1952 में प्रकाशित हुई। ‘लोहे की दीवारों के दोनों ओर’ (1953) और ‘राह बीती’ (1956) उनके यात्रा-वृतांत हैं। कमला मार्कडेय के अंग्रेजी उपन्यास का अनुवाद भी आपने किया। उनका विवाह जेल में प्रकाशवती पाल के साथ हुआ, जो स्वयं लिखिका और प्रकाशिका है। यशपाल जी की मृत्यु के बाद मैंने आकाशवाणी बंबई से एक वार्ता प्रकाशित की, ‘हिमप्रस्थ’ में एक लेख लिखा और उनके जन्मस्थान पर मृत्यु के एक वर्ष बाद जो साहित्य-समारोह हुआ उसमें शांताकुमार तथा मन्मथनाथ गुप्त के साथ मैं भी गया था। जीवित-काल में उनके ‘विप्लव’ में मैंने लिखा। उनकी कहानियों के एक संग्रह का अनुवाद अमरीका में छपा है। एक कहानी का अंग्रेजी अनुवाद मैंने ‘इंडियन लिटरेचर’ के लिए किया था। ‘शब्दरेखा’ में उनका रेखाचित्र है।

श्री राधाकृष्ण (जन्म: 1912)

रांची के ‘घोष-बोस-बैनर्जी’ नाम से लिखने वाले हास्य-व्यंगकार राधाकृष्ण की रचनाएँ हैं: ‘सजला’ (1930), ‘फुटपाथ’ (1941), ‘भारत छोड़ो’ (नाटक, 1947), ‘बोगस’ (1953), ‘सनसनाते सपने’ (1957)। वे रांची में एक समाज कल्याण विभाग की पत्रिका के संपादक थे। उनमें चुटीले व्यंग लिखने की अद्भुत शक्ति थी। वे प्रेमचंद के ‘हंस’ के समय से ही लिखते रहे। उनकी हिन्दी कहानी जगत में अपनी अलग पहचान थी।

समीक्षक, उपन्यासकार

आचार्य डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी (1907-1980)

आचार्य डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी हिन्दी के एक उच्च कोटि के विद्वान और साथ ही सृजनात्मक प्रतिभा के सहृदय उपन्यासकार थे। आपकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं: ‘अशोक के फूल’, ‘कल्पलता’, ‘कुटज’ आदि निबंध-संग्रह ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ ‘चारु चंद्रलेख’, ‘अनामदास का पोथा’ आदि उपन्यास; ‘कबीर’, ‘नाथ साहित्य’, ‘हिन्दी साहित्य का आदि-काल’, ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’, ‘कालिदास की साहित्य भावना’, ‘सूरदास’, ‘रविंद्रनाथ ठाकुर’ आदि अलोचनात्मक कृतियाँ, ‘मध्य युगीन भारत का कला विलास’ संस्कृति-इतिहासपरक पुस्तक और ‘ज्योतिष’ पर भी एक छोटी पुस्तक छपी है।
मूलत: बलिया के, वाराणसी से संस्कृत ज्योतिष-रत्न, द्विवेदी जी शांतिनिकेतन में पं. मदनमोहन मालवीय जी द्वारा रवींद्रनाथ ठाकुर के पास भेजे गए। वहाँ के विद्याशेखर भट्टाचार्य तथा क्षितिमोहन सेन के साथ शोधकार्य करते रहे। ‘विनय भवन’ के बाद ‘हिन्दी भवन’ की स्थापना होने पर हिन्दी प्राध्यापक बने। फिर वे वहाँ से वाराणसी आए हिन्दी विभागाध्यक्ष बनकर, जहाँ से वे चंडीगढ़ के पंजाब विश्वविद्यालय में हिन्दी प्रधानाचार्य रहे। रवींद्र शताब्दी वर्ष में रवींद्र-पुरस्कार पाकर वे सोवियत देश गए। साहित्य अकादमी के और अनेक पुरस्कार उन्हें मिले। अब उनकी समस्त कृतियाँ एक ग्रंथावली के रूप में उपलब्ध हैं। वे अत्यंत प्रभावशाली वक्ता, उद्भट मौलिक उपन्यासकार, साहित्य के इतिहासकार, समीक्षक, बांगला से अनुवादक (रवींद्रनाथ के ‘रक्तकरबी’ नाटक का उनका अनुवाद प्रसिद्ध है), और सहृदय, उदारमना, छात्र-प्रिय अध्यापक थे। उन पर मैंने बहुत लिखा है। उनके जीवित काल में उनके ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास’ की ‘कल्पना’ में समालोचना, ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ की ‘प्रतीक’ में समालोचना आदि।

उपन्यासकार-पत्रकार

श्री अनंतगोपाल शेवड़े (1911- 1979)

मराठी-भाषाभाषी, माखनलाल चतुर्वेदी के शिष्य, अंग्रेजी एम. ए. ‘नागपुर टाइम्स’ के संस्थापक, प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन की आत्मा शेवड़े जी अपने-आप में एक संस्था थे। उनके नेतृत्व में प्रथम और द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन भव्य गरिमा के साथ संपन्न हुए। हिन्दी और अंग्रेज़ी पर उनका समान अधिकार था। राष्ट्रसेवी और आदर्शवादी शेवड़ेजी की पत्नी यमूताई भी मराठी की प्रसिद्ध कहानी-लेखिका है। शेवड़े जी के प्रमुख उपन्यास थे: ‘ईसाई बाला’ (1932), ‘निशा गीत’ (1947), ‘मृगजल’ (1979), ‘पूर्णिमा’ (1952), ‘ज्वालामुखी’ (1956), ‘तीसरी भूख’ (निबंध, 1953) तथा अमृत कुंभ (1977) उनके ‘ज्वालामुखी’ का अनुवाद अंग्रेजी में अमरीका में छपा। अन्य भारतीय भाषाओं में उसे ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ ने अनुवादित कराया। उनकी हृदयगति रुकने से कलकत्ता में मृत्यु हुई।

समीक्षक

आचार्य परशुराम चतुर्वेदी (1894-1980)

‘उत्तरी भारत की संत-परंपरा’ (1951) अत्यंत अध्यवसायी, परिश्रमशील विद्वान शोधकर्मी समीक्षक चतुर्वेदी जी का जन्म बलिया में हुआ, शिक्षा इलाहाबाद तथा वाराणसी विश्वविद्यालय में। आपकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं: ‘नव निबंध’ (1951), ‘हिन्दी काव्यधारा में प्रेम प्रवाह’ (1952), ‘मध्यकालीन प्रेम साधना’ (1952), ‘कबीर साहित्य की परख’ (1954), ‘भारतीय साहित्य की सांस्कृतिक रेखाएँ’ (1955), ‘संत साहित्य की परख’। वे पेशे से वकील थे, किंतु आध्यात्मिक साहित्य में उनकी गहरी रुचि थी। संस्कृत तथा हिन्दी की अनेक उपभाषाओं के वे पंडित थे।

प्रो. राजनाथ पांडेय (जन्म 1910)

पिंडरा, वाराणसी में जन्मे राजनाथ जी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा पाई। वे सागर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे। आपकी पुस्तकों में ‘लंका दहन’ (नाटक) 1940, ‘वीर नाविक महाजनक’ (काव्य) 1942, ‘रत्नमंजरी’ (कहानियाँ) 1951, ‘पुरखा की शपथ’ (उपन्यास) 1957, ‘वेदका राष्ट्रगान’ (कविता) 1934, इब्सन के नाटक ‘एनिमी आफ दी पीपुल’ का अनुवाद ‘देश भर का दुश्मन’ (1952) थे। वे राहुल जी के साथ तिब्बत यात्रा में भी गए थे। अच्छे संस्कृतज्ञ थे।

डॉ. विश्वनाथप्रसाद मिश्र (1906-1982)

मध्ययुगीन साहित्य के व्याख्याता, अध्येता, समीक्षक और अनुसंधानवेत्ता आचार्य मिश्र का जन्म 1906 में हुआ। पंद्रह वर्ष की उम्र में गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर पढ़ाई छोड़ी, क्रांतिकारी आंदोलन में प्रच्छन्न रूप से सक्रिय। कंपोजीटर, प्रूफरीडर बनके जीविकोपार्जन। एम.ए. संस्कृत के बाद एम.ए. (हिन्दी) 1936 में प्रथम श्रेणी में प्रथम। मालवीय जी की प्रेरणा से डी. लि.ट्. और वहीं काशी विश्वविद्यालय में अध्यापन। काशी नागरी प्रचारिणी सभा के संपादक और साहित्यमंत्री। शताधिक ग्रंथों का कुशल सम्पादन। 1946 में का. ना. प्र. सभा के प्रधान मंत्री। 1953 में मगध विश्वविद्यालय में प्रोफेसर तथा अध्यक्ष। विक्रम विश्वविद्यालय से सम्मानार्थ डी. लिट्. दी गई।

आचार्य किशोरीदास वाजपेयी (मृत्यु 11 अगस्त, 1981)

संस्कृत और हिन्दी के उद्भट विद्वान, व्याकरण के पंडित, हिन्दी के आधुनिक पाणिनी की तरह जिन्हें डॉ. रामविलास शर्मा, राहुल सांकृत्यायन आदि मानते थे, वे स्वतंत्र वृत्ति से कनखल में अत्यन्त आर्थिक कष्ट में जीवनयापन करते रहे। कुछ समय के लिए उन्होंने शिक्षक का कार्य किया, और नागरी प्रचारिणी सभा के कोश विभाग में भी रहे। वे स्वाभिमानी और अक्खड़ स्वभाव के लिए प्रसिद्ध थे। 1978 में मोरारजी देसाई ने मंच से नीचे उतरकर उत्तर प्रदेश का सम्मान उन्हें दिया। उनके प्रसिद्ध ग्रंथ हैं: ‘ब्रजभाषा का व्याकरण’, ‘हिन्दी निरुक्त’, ‘अच्छी हिन्दी’, ‘हिन्दी शब्दानुशासन’, ‘भारतीय भाषाविज्ञान’, ‘हिन्दी वर्तनी’, ‘शब्द विश्लेषण’, आदि। उनके कार्य का महत्व इसलिए है कि भाषाविज्ञान को उन्होंने शुद्ध भारतीय दृष्टि से लिया है। अंग्रेजी की कोई भी छाप उनके लेखन पर नहीं है।

फादर कामिल बुल्के (जन्म 1-9-1909, मृत्यु 17-8-1982)

बाबा कामिल बुल्के बैल्जियम में जन्मे। पर 47 वर्ष पूर्व यहाँ भारत में मिशनरी के नाते आए तो भारत के नागरिक बन गए। हिन्दी भाषा और साहित्य के अध्ययन में उन्होंने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जब वे ‘राम कथा का विकास’ पर डी. लिट् का प्रबंध लिख रहे थे तब सन् 1950 में मेरा उनसे परिचय हुआ। उसके बाद तो उनकी कृपा मुझ पर अगाध मात्रा में रहती थी। 1982 में जब रेल मंत्रालय की हिन्दी सलाहकार समिति के सदस्य के नाते कलकत्ता पधारे थे तब हम दोनों ने एक साथ एक बड़े अधिवेशन में भाषण दिए थे। उन्होंने अपनी ‘रामकथा’ पुस्तक की संशोधित प्रति मुझे दी। उससे पहले छोटा कोश जो मिशनरियों की मदद के लिए अंग्रेजी-हिन्दी शब्दावली बनाई थी, वह भी मुझे सुझावों के लिए दिया था। बाद में बड़ा कोश बना तो उनकी बहुत इच्छा थी कि उसमें एक मराठी कालम जोड़ कर, उसे अंग्रेजी-हिन्दी-मराठी त्रिभाषी-कोश बनाया जाए। वैसे ही उन्होंने बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के लिए एकनाथ की मराठी ‘भावार्थ-रामायण’ का हिन्दी अनुवाद तैयार करने के लिए मुझे प्रेरित किया था।
वे संत-स्वभाव के व्यक्ति थे। सादा भोजन, सादा लिबास। चौबीस घंटे ज्ञान-विज्ञान की खोज में निरत। हिन्दी के प्रति उनका आग्रह नि:स्पृह और निरपेक्ष भाव से था। विश्व हिन्दी सम्मेलन, नागपुर में उन्हें सम्मानित किया गया था। अलंकरण भी भारत सरकार ने उन्हें दिया। परंतु वह सब गौण था। वे लगे थे बाइबिल के एक प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद में। जब कभी मिलते तो सदा प्रसन्न। एक कर्मयोगी की तरह, वे हिन्दी सेवा को समर्पित व्यक्ति थे। इधर कई वर्षों से सुनने में उन्हें कष्ट होता था, कान को यंत्र लगाए रहते। उस पर भी निज पर ही परिहास करते: ‘अच्छा है, बहुत सी बुरी बातें सुनने से मैं बच गया। उनके सम्मान में एक ग्रंथ रांची में बन रहा था। दो बार मैंने उसके लिए लेख लिखा अब सुनता हूँ वह स्मृति के रूप में प्रकाशित होगा। उस लेख में मैंने विस्तार से बुल्के जी के साहित्यिक और भाषा-विषयक, कोश-विषयक अवदान की चर्चा की है।

डॉ. भगवतशरण उपाध्याय (जन्म, 1910, मृत्यु 8 अगस्त, 1982)

मुझे स्मरण आता है कि सन् 46 के प्रगतिशील लेखक संघ के इलाहाबाद अधिवेशन में मैं पहली बार डॉ. भगवतशरण उपाध्याय से मिला। अंतिम बार उनसे भेंट उज्जैन में हुई थी। मैं (स्व.) श्याम परमार के प्रथम वर्ष श्राद्ध पर वहाँ गया था। तब वे विक्रम विश्वविद्यालय में प्राचीन भारत विद्या के प्रोफेसर और कालिदास अकादमी के प्रयोजना से संबद्ध थे। दोनों बार भेंट कराने में हमारे मित्र डॉ. शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ ही प्रधान कारण थे। इस बीच में जब इलाहाबाद में मैं आकाशवाणी में था, 1948 से 1952 तक, तब लखनऊ में, दिल्ली में, बंबई में अनेक सभा-सम्मेलनों में डॉ. उपाध्याय से भेंट होती रहती थी। हर समय मैंने उन्हें उत्साह से छलछलात हुआ देखा। मन से वे कभी वृद्ध नहीं हुए। उनमें एक विलक्षण वैचारिक ओज और ज्ञान-पिपासा की तेज धार थी। प्रतिपक्ष का खंडन करने में उन्हें बड़ा आनंद आता था। ‘संघर्ष’, ‘सवेरा’ और ‘गर्जन’ उनके ऐतिहासिक कथासंग्रह थे। ‘खून के छोटे इतिहास के पन्नों पर’ उनकी दूसरी अविस्मरणीय पुस्तक थी, जो इतिहास की गवेषणा को ललित निबंध की तरह प्रस्तुत करती थी। डॉ. उपाध्याय की लेखनी अबाध गति से अंग्रेजी और हिन्दी में चलती थी। ‘इंडिया इन कालिदास’ उनकी एक अत्यंत परिश्रमपूर्वक लिखी शोध पुस्तक थी। बाद में दो खंडों में उसी का हिन्दी अनुवाद उन्होंने स्वयं किया। उनके अनेक ग्रंथ विश्वसाहित्यों में भारत के इतिहास के पाठ्यक्रम में लगे। उनकी दृष्टि समाजशास्त्रीय आधार लेकर चलती थी। वे नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित हिन्दी विश्वकोश के भी संपादक रहे।
वाग्मी, उत्तम वक्ता, आदर्श शिक्षक, खंडन-मंडन में बहुत तत्पर डॉ. उपाध्याय एक स्वतंत्रचेता बौद्धिक थे जो राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम से बचपन से जुड़े हुए थे। उन्होंने अनेक देशों की यात्राएं की। चीन में जो हिन्दी साहित्यकार सन् 54 के क़रीब गए थे उनमें डॉ. उपाध्याय भी एक थे। अंतिम दिनों में वे मारिशस में भारत सरकार के उच्चायुक्त नियुक्त हुए थे। दुर्भाग्य से पोर्ट लुई में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के बाद उन पर हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं ने अनेक शोकांजलियाँ प्रकाशित की। ‘प्रतीक’ में संस्कृतियों का ‘अंतरावलंबन’ या ‘कल्पना’ में ‘उर्वशी’ पर लंबी समालोचना या ‘हंस’ में राहुल जी के ‘बोल्गा से गंगा’ की आलोचना जैसे लेख याद आ रहे हैं। डॉ. भगवतशरण उपाध्याय खूब परिश्रमपूर्वक लिखते थे। और अपने आलोचना अस्त्र को किसी भी दंभी पर चलाते हुए वे जरा भी नहीं हिचकिचाते थे। यही निर्भीकता उनकी भाषाशैली का एक अद्भुत गुण था। डॉ. भगवतशरण उपाध्याय जैसा पुरातत्वज्ञ, मौलिक इतिहास विचारक और साथ ही कारयित्री प्रतिभा की धनी विद्वान कई दशकों बाद पैदा होता है। उनके पास जानकारी खूब थी, पर उसे जनसाधारण में बाँटने की योग्यता भी बहुत अच्छी थी। संस्कृत पंडित होकर भी वे आधुनिक प्रगतिशील विचार-धारा के व्यक्ति थे।

उपन्यासकार

इलाचन्द्र जोशी (जन्म 1902, मृत्यु 1982)

अल्मोड़ा में जन्में इलाचंद्र जी संस्कृत, बांग्ला अंग्रेज़ी साहित्यों के गहरे अध्येता थे। ‘चाँद’, ‘सुधा’, ‘सम्मेलन पत्रिका’, ‘संगम’, ‘भारत’, ‘धर्मयुग’ आदि अनेक पत्रों का सम्पादन किया। आपकी प्रसिद्ध औपन्यासिक कृतियाँ थी: ‘घृणामयी’, ‘संन्यासी’, ‘पर्दे की रानी’, ‘जहाज का पंछी’, ‘ऋतुचक्र’ आदि। हिन्दी में उपन्यासों में मनोविश्लेषण की धारा जिन लेखकों ने चलाई, उनमें जैनेंद्र कुमार तथा ‘अज्ञेय’ के साथ-साथ इलाचंद्र जी का नाम भी लिखा जाता है। डॉ. हेमचंद्र जोशी (जर्मन पंडित, कोशकार, भाषावैज्ञानिक) आपके बड़े भाई थे। आपने संपादक के नाते अनेक तरुण साहित्यकारों को प्रोत्साहन दिया। इलाचंद्र जी ने कुछ कविताएँ और कहानियाँ भी लिखी थी। बांगला से अनेक अनुवाद भी किए।

श्री श्रीमन्नारायण (अग्रवाल)

15 जून, 1912 को इटावा में जन्मे श्रीमन्नारायण जी श्री जमनालाल बजाज के जमाई थे। ‘गांधीवादी आर्थिक योजना’ के कारण, वर्धा के बजाज कालेज के प्रिंसिपल श्रीमन्नारायण जी प्रसिद्ध हुए। आप जीवन के अन्तिम वर्षों में गुजरात के राज्यपाल नियुक्त हुए थे। आपके अर्थशास्त्र के क्षेत्र में हिन्दी साहित्यिकों को बड़ी देन है। राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रचार सभा, वर्धा के वे एक संस्थापक थे। कविता संग्रह: ‘मानव’, ‘अमर’, ‘रजनी से प्रभात का अंकुर’, और ‘रोटी का राग’ प्रसिद्ध है। उनकी अन्य पुस्तकें है: ‘सेगाँव का संत’, ‘इतनी परेशानी क्यों ?’ मैंने आपकी पुस्तकों की समीक्षा ‘जीवन साहित्य’ में 1940 में लिखी थी।

श्री प्रकाशवीर शास्त्री

जनसंघ की राजनीति से संबद्ध संसद सदस्य, सुवक्ता प्रकाशवीर जी आर्यसमाज के एक सक्रिय कार्यकर्ता रहे। आपने हिन्दी की प्रतिष्ठा भारतीय संसद में बढ़ाने में बड़ा योगदान दिया। हिन्दी साहित्य में आप की बड़ी रुचि थी। दुर्भाग्य से एक रेल दुर्घटना में उनकी मृत्यु हुई। उनका अनेक आर्य-समाजी शिक्षा-संस्थाओं के निर्माण और विकास में बड़ा रचनात्मक कार्य रहा है, जो संस्मरणीय रहेगा। संस्कृत शिक्षण के भी वे आग्रही थे।

श्री मौलिचंद्र शर्मा

टिहरी गढ़वाल रियासत में दीवान मौलिचंद्र जी हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद के एक पुराने, कर्मठ कार्यकर्ता, उत्तम वक्ता और हिन्दी के विषय को लेकर जुझारू वृत्ति वाले व्यक्ति थे। हिन्दुत्वनिष्ठ होने के कारण उन्हें विरोधी विचारधारा के लोगों से बहुत सी आलोचना भी सहनी पड़ी। परंतु कुशल संगठन तथा राष्ट्रीय कार्यकर्ता के नाते वे सदा याद किए जाएँगे।

आचार्य कैलाशचंद्र देव वृहस्पति

शास्त्रीय संगीत, संस्कृत, फारसी, उर्दू, ब्रजभाषा के प्रकांड-पंडित वृहस्पत्ति भी अनेक वर्षों तक आकाशवाणी के संगीत सलाहकार थे। रामपुर दरबार से गायकी का अध्ययन आरंभ करके आपने ‘संगीत रत्नाकर’ आदि ग्रंथों की सुन्दर व्याख्या हिन्दी में लिखी। अंतिम दिनों में वे ‘नाट्यशास्त्र’ पर शोध-कार्य कर रहे थे। भारतीय भाषा परिषद्, कलकत्ता में इस विषय पर उन्होंने सव्याख्या संगीतमय भाषण प्रस्तुत किया था। आपने सोवियत रूस की भी यात्रा की। सुलोचना यजुर्वेदी से आपने विवाह किया था। आप के शोधपूर्ण ग्रंथ अप्रकाशित हैं।

पं. झाबरमल्ल शर्मा

राजस्थान के वयोवृद्ध साहित्यकार, इतिहासकार पं. झाबरमल्ल ने ‘नेहरू वंशावली और राजस्थान’ पर अपनी अन्तिम पुस्तक लिखी थी। अनेक गवेष्णामूलक लेख उन्होंने राजस्थानी हस्तलिखितों पर लिखे। गत वर्ष उन्हें राष्ट्रीय सम्मान दिया गया था, पद्मभूषण उपाधि से अलंकृत किया गया था।

डॉ. शंकर शेष

अत्यन्त प्रतिभाशाली तरुण नाट्यकार, सिनेमा कथा लेखक डॉ. शंकर शेष बंबई में एक बैंक में हिन्दी आधिकारी थे। उनके ‘फन्दी’, ‘एक था द्रोणाचार्य’, ‘रक्तबीज’ आदि नाटकों से उनकी ख्याति बढ़ी। आपका शोध-प्रबंध ‘हिन्दी मराठी’ कहानीकारों के तुलनात्मक अध्ययन पर था। मुझे उनके परीक्षक होने का गौरव मिला था। वे अत्यन्त सहृदय और गुट-निरपेक्ष लेखक थे। उनके ‘घरोंदा’ कथा पर हिन्दी में एक प्रसिद्ध फिल्म भी बनी।

‘आरिगपूड़ि’ डॉ. रमेश चौधरी

1922 में जनमें ‘आरिगपूड़ि’ तेलुगुभाषी थे। हिन्दी में 37 पुस्तकें, जिनमें अनेक उपन्यास थे, लिखीं, आंध्र प्रदेश की संस्कृति पर तीन पुस्तकें लिखी। आपके दो उपन्यास रूसी में अनुवादित हुए। वे निबंध, कहानियाँ भी लिखते थे। उत्तम पत्रकार थे। मद्रास आकाशवाणी पर आप हिन्दी कार्यक्रमों के प्रमुख प्रस्तोता थे। साहित्य अकादमी के लिए अडिवि बमापिराजू के उपन्यास ‘नारायणराव’ का आपने हिन्दी में अनुवाद किया था। दक्षिण में हिन्दी प्रचार कार्य में उनका बड़ा योगदान है। 1942 में वे राष्ट्रीय और समाजवादी आंदोलनों से जुड़े थे। आंध्र प्रदेश तथा अन्य कई प्रदेशों पुरस्कार देकर आपका साहित्यिक सम्मान दिया। 1983 में आपकी मृत्यु हो गई। तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन में आप सक्रिय रूप से भाग लेने वाले थे किंतु उनकी अकाल मृत्यु ने हमें उनकी सेवाओं से वंचित कर दिया।

अंत में दो हिन्दुस्तानी समर्थक ऐसे व्यक्ति जिन्होंने हिन्दी में भी महत्वपूर्ण लेखन किया, उनके नाम देता हूँ चूँकि हम भाषावैज्ञानिक दृष्टि से हिन्दी-उर्दू की दो भाषाएँ नहीं मानते, परंतु दो लिपियों में लिखी जाने वाली एक ही भाषा मानते हैं। पं. सुन्दरलाल और श्री रघुपति सहाय ‘फिराक’ को हम कैसे भूलें? हिन्दुस्तानी के समर्थक, ‘नया हिन्द’ के संपादक, पं. सुंदरलाल ‘गीता और कुरआन’ तथा ‘भारत में अंग्रेजी राज’ के लेखक थें। दूसरी पुस्तक ब्रिटिश शासनकाल में जब्त हुई थी। श्री ‘फिराक’ की हिन्दी कविताएँ पं. विष्णुकांत शास्त्री ने उनके निधन पर कलकत्ता टेलीविजन पर दी श्रद्धांजलि में सुनाई थी। ‘फिराक’ तुलसी रामायण के बड़े प्रशंसक थे। उर्दू को उन्होंने हिन्दी रंगत और रूप के कई मुहावरे ही नहीं, बिंब भी दिए। उन्होंने उर्दू शायरी का ‘रूप’ सँवारा। भारतीय ज्ञानपीठ उन्हें मिला। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति उन्होंने अर्जित की। पाकिस्तान के ‘नकूश’ ने उन पर एक विशेषांक निकाला था मगर ‘तरुण कवियों पर बातचीत’ में उन्होंने हिन्दी को बहुत लताड़ा। डॉ. रामविलास शर्मा से उनकी इस बात पर ख़ासी बहस भी हुई। यह सब इतिहास की वस्तु है। साहित्यकारों की कमज़ोरियाँ, उनके असामाजिक कार्य, उनकी निरंकुशता, उनका क्रोध, उनके व्यक्तित्व को नुकीली और चुभने वाली बातें काल प्रवाह में भुला दी जाती है। बचा रहता है उनका अवदान, उनकी यश:काया। हम सब इन महापुरुषों, मनीषियों, सृजनशील साहित्यकारों, समीझकों के प्रति पुन: प्रणत हैं। विनम्र श्रद्धा-सुमनों से भरी अंजलि उन्हें अर्पित करते हैं। हम जो कुछ आज है, वह सब उन्हीं के कारण है, क्योंकि हम सब उन्हीं की परंपरा में है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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विदेशी संदर्भ
54. मारिशस: सागर के पार लघु भारत श्री एस. भुवनेश्वर
55. अमरीका में हिन्दी -डॉ. केरीन शोमर
56. लीपज़िंग विश्वविद्यालय में हिन्दी डॉ. (श्रीमती) मार्गेट गात्स्लाफ़
57. जर्मनी संघीय गणराज्य में हिन्दी डॉ. लोठार लुत्से
58. सूरीनाम देश और हिन्दी श्री सूर्यप्रसाद बीरे
59. हिन्दी का अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य श्री बच्चूप्रसाद सिंह
स्वैच्छिक संस्था संदर्भ
60. हिन्दी की स्वैच्छिक संस्थाएँ श्री शंकरराव लोंढे
61. राष्ट्रीय प्रचार समिति, वर्धा श्री शंकरराव लोंढे
सम्मेलन संदर्भ
62. प्रथम और द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन: उद्देश्य एवं उपलब्धियाँ श्री मधुकरराव चौधरी
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