भारत की सामासिक संस्कृृति और हिन्दी का विकास -डॉ. हरदेव बाहरी
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- लेखक- डॉ. हरदेव बाहरी
भारतीय संविधान की धारा 351 का एक आदेश है जिसका अभी तक पालन नहीं हुआ, इसलिए आवश्यक जान पड़ता है कि इसकी ओर ध्यान दिलाया जाए। आदेश यह है -
‘हिन्दी भाषा की प्रसार-वृद्धि करना, उसका विकास करना ताकि वह भारत की सामासिक संस्कृति के सब तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके, तथा उसकी मूल प्रकृति को अक्षुण्ण रखते हुए हिन्दुस्तानी और अष्टम अनुसूची में उल्लिखित अन्य भारतीय भाषाओं के रूपों, शैली और पदावली को आत्मसात करके तथा जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहां उसके शब्दभंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः इन उल्लिखित भाषाओं से शब्द ग्रहण करके उसकी समृद्धि सुनिश्चित करना संघ का कर्तव्य होगा।’
इस एक लंबे चौडे़ वाक्य में कई मुद्दे उठाये गए हैं:-
- हिन्दी का प्रचार प्रसार करना संघ का कर्तव्य होगा।
- हिन्दी का विकास करना संघ का कर्तव्य होगा। क्या हिन्दी अविकसित है?
- हिन्दी के विकास करने का विशेष संदर्भ यह है कि वह भारत की सामासिक संस्कृति के सब अंगों का वाहन हो सकेे।
- भारत की सामासिक संस्कृति उसकी नाना भाषाओं मे निहित है, जिनकी गणना संविधान की अष्टम अनुसूची में कर दी गई है, अर्थत (वर्णक्रम से) असमिया, उड़िया, उर्दू, कन्नड़, कश्मीरी, गुजराती, तमिल, तेलुगू, पंजाबी, बांग्ला, मराठी, मलयालम, संस्कृत, सिंधी और हिन्दी।
- इन भाषाओं के आवश्यक रूपों, शैली और पदावली को हिन्दी आत्मसात कर लेगी।
- संस्कृत से मुख्य रूप से और उक्त भाषाओं से गौण रूप से आवश्यक और वांछित शब्दावली लेकर हिन्दी को समृद्ध करना है।
- हिन्दी के शब्द भंडार और उसकी अभिव्यक्तियों को समृद्ध करने में इस बात का ध्यान रखना है कि उसकी मूल प्रकृति अक्षुण्ण बनी रहे।
- हिन्दुस्तानी से भी शब्द और प्रयोग ग्रहण करने हैं। यह समझना कठिन है कि ‘हिन्दुस्तानी’ का नाम क्यों लिया गया, क्योंकि उसमें हिन्दी उर्दू से भिन्न अपना कुछ है ही नहीं, तो उससे लेना क्या।
हिन्दी की मूल प्रकृति क्या हे ? किसी भाषा की मूल प्रकृति उसके किन तत्वों में निहित है ? इसका ठीक-ठीक उत्तर नहीं मिलता। क्या कोई भाषा अक्षुण्ण बनी रह सकती है ? भाषा तो स्वतः विकासशील और परिवर्तनशील होती है। वह देश काल की परिस्थियों के अनुसार ढलती रहती है। समाज और संस्कृति में जितना विकास या रद्दोबदल होता है, उतना भाषा में भी अवश्य होता है। प्रत्येक समाज पर कई दिशाओं से कई तरह के धार्मिक, राजनीतिक प्रशासनिक, आर्थिक साहित्यिक आदि प्रभाव पड़ते रहते हैं। जिनके फलस्वरूप भाषा में परिवर्तन अनिवार्यतः हो जाता है। अतः कोई भाषा अक्षुण्ण नहीं रह सकती। ग्रीक, लैटिन, संस्कृत, पालि, प्राकृत या अपभ्रंश की मूल प्रकृति को सुरक्षित नहीं किया जा सका। संस्कृत के तीन वचन, तीन लिंग, आठ विभक्ति रूप, क्रिया के आत्मनेपद, दस लकार, दस गण कहां गये ? प्राकृत में स्वरगुच्छों की जो भरमार थी, वह नहीं रही। प्राकृत ने सभी नपुंसक लिंग संज्ञापदों को पुल्लिंग मान लिया था; क्या हिन्दी में भी यह स्थिति शेष है ? संस्कृत, पालि और प्राकृत के क्रिया रूपों में लिंगभेद नहीं था, परंतु हिन्दी में कृदंतीय रूपों का बाहुल्य हो जाने से लिंग भेद आवश्क हो गया। ऐसा लगता है कि भाषा के लिए कुछ भी अपरिहार्य नहीं है, कुछ भी पुराना छोड़ा जा सकता है या छूट जाता है और कुछ भी नया ग्रहण किया जा सकता है। भारतेंदु युग की हिन्दी क्या अक्षुण्ण बनीं रही ? मुख्य बात यह है कि हिन्दी की परिभाषा देना ही कठिन हीै। एक युग में ब्रज भाषा हिन्दी थी, आज खड़ी बोली हिन्दी है और वह भी खड़ी बोली प्रदेश की बोली से भिन्न हो गई है। हमारे देखते देखते हिन्दी बदल रही है। हिन्दी की प्रकृति की तलाश उसके ध्वनि गठन या उच्चारण मे की जा सकती है या पद रचना (व्याकरण) में या वाक्यगठन में। ऋ, ष, ज्ञ, का उच्चारण बिल्कुल बदल गया है। ङ, ञ का कोई प्रयोग नहीं रह गया है। पूर्वी हिन्दी और ब्रजभाषा में ण नहीं रहा। ऐ, औ का नया उच्चारण जुड़़ गया है। श की ध्वति हिन्दी तक आते आते समाप्त हो गई थी, अब संस्कृत अरबी फारसी तथा अंग्रेजी के प्रभाव से फिर आ गयी है। यहाँ तक कि अब आस, सरन, सीख या सोग जैसे सैकड़ों शब्द मानो हिन्दी के नहीं रह गये, इनका स्थान पुनः आशा, शरण, शिक्षा और शोक ने ले लिया है। हमने क़ को क में, ग़ को ग में, ख़ को ख में तथा ज़ को ज में तथा फ़ को फ में ढाल लेने का भरसक प्रयत्न किया, लेकिन आकाशवाणी की आवाज़ों से लगता है कि सभ्य समाज में इन सब ने घर कर लिया है। वर्तनी की बात यह है कि अभी कुछ वर्ष पहले तक ‘रक्खा’, ‘लिक्खू’, ‘उस्ने’, ‘उस्को’ आदि रूप चलते रहे हैं। व्याकरण भी बहुत कुछ बदला है। पचास साल पहले तक ‘करने पै’, ‘घर की नाई’, ‘आवैंगे’ आदि प्रयोग मिलते थे। आज ‘मेरे को’, ‘मेरे से’, ‘तेरे में’, मैनें जाना है को हिन्दी की प्रकृति के विरुद्ध माना जाता है, लेकिन ये रूप छा रहे हैं, और वह दिन दूर नहीं जब यही शुद्ध प्रयोग माने जाएंगे। पहले सुंदर पुरुष का स्त्रीलिंग ‘सुंदरी स्त्री’ और पतित पुरुष का पतिता नारी सही हिन्दी माना जाता था, अब सुन्दर स्त्री और पतित नारी सुष्ठु प्रयोग है। श्रीमती इन्दिरा गांधी प्रधानमंत्री हैं, श्रीमती मंजुला विश्वविद्यालय की कुलपति हैं, श्रीमती सरोज हिन्दी अधिकारी हैं, कु. सरला व्याख्याता हैं, कु. कांता पुलिस अधीक्षक नियुक्त हुईं है, महादेवी वर्मा कवि हैं, मालती देवी विभागाध्यक्ष हैं, कमला अधिवक्ता हैं आदि प्रयोग कुछ लोगों को खटकते होेंगे, परंतु अब यही हिन्दी है। कल अध्यापिका, आचार्या, लेखिका, वासिनी आदि रूप नहीं रह पाएंगे। जैसे जैसे हिन्दी प्रसूत होगी, इसकी प्रवृत्ति में विविधिता आएगी और कई प्रादेशिक विशेषताएं समाविष्ट होंगी।
भाषा वैज्ञानिकों का कहना है कि कोई भी भाषा अविकसित नहीं होती। प्रत्येक भाषा अपने परिवेश, अपने समाज की संस्कृति और उस समाज के लोगों के भावों और विचारों को अभिव्यक्त करने में पूर्णतयः समर्थ होती है। किसी टापू जंगल या पहाड़ पर बसने वाले लागों की भाषा भी, भले ही हमें पिछड़ी हुई लगती हो, उन लोगों के व्यवहार के लिए पर्याप्त होती है। जब वहां लोग अन्य संस्कृतियों के सम्पर्क में आते हैं, तब उनकी भाषा में नए तत्व आने लगते हैं। जीवित भाषा किसी भी जीव की तरह निरंतर विकसित होती रहती है, उसका शब्द भंडार, रूप विधान और अभिव्यक्ति का प्रकार आगे बढ़ता रहता है वह अनावश्यक तत्वों को छोड़ती जाती है और आवश्यक या वांछनीय तत्व ग्रहण करती जाती है। परंतु यह बहुत कुछ निर्भर करता है उसकी सांस्कृतिक प्रगति पर, उसकी भौतिक और आध्यत्मिक आवश्यकताओं पर। हिन्दी की स्थिति यह रही है कि पचास-साठ वर्ष पूर्व तक इसमें धार्मिक और ललित साहित्य तो लिखा जाता रहा, परंतु उपयोगी और ज्ञान विज्ञान संबंधी साहित्य का अभाव सा था। हिन्दी को माध्यम के रूप में कहीं किसी विश्वविद्यालय में मान्यता प्राप्त नहीं थी। प्रशासन में इसका कोई विशेष स्थान नहीं था। नवजागरण के साथ और देश के स्वतंत्र हो जाने पर हिन्दी का उत्तरदायित्व बढ़ा और नये नये विषयों पर साहित्य लिखने की आवश्यकता महसूस हुई। यह उत्तरदायित्व आ पड़ने पर और आवश्कता की पूर्ति के लिए हिन्दी का शब्दभंडार समृद्ध होने लगा और अब होता चला जा रहा है। हिन्दी राजभाषा बनी। संघ और राज्यों के प्रशासन के लिए सैंकड़ों हजारों शब्द और प्रयोग आ गये। हिन्दी प्रदेश के विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में मानविकी, विज्ञान, विधि, वाणिज्य के विषयों की शिक्षा के लिए पारिभाषिक शब्दावली का विकास हुआ। पिछले 30 वर्षों में हिन्दी ने अनुमानतः डेढ़ लाख शब्द अपने भंडार में भरे हैं। संसार की किसी भी भाषा के इतिहास में इतने थोड़े समय में इतना भारी और बहुमुखी विकास नहीं हुआ। भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने, विधायी आयोग और आकाशवाणी ने बडे़ बड़े शब्द संग्रह प्रकाशित किये, जिनके आधार पर सैंकड़ों ग्रंथ लिखे गए हैं। हिन्दी प्रदेश की सरकारों ने अपने अपने स्तर पर अत्यंत श्रम किया है। नागरी प्रचारिणी सभा, राष्ट्रभाषा प्रचार सभा, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, केंद्रीय सचिवालय हिन्दी परिषद, कतिपय विश्वविद्यालयों और संस्थानों और कुछ ने (इन पंक्तियों के लेखक समेत) अपना अपना अंशदान दिया है। रेडियो और समाचार पत्रों ने इस शब्दावली के बहुत बड़े अंश को जनसाधारण तक पहुंचाने में बहुत योगदान दिया है।
यह नई शब्दावली प्रायः संस्कृत और अंग्रेज़ी से आयी है। संस्कृत में उपसर्ग और प्रत्यय की इतनी प्रचुरता और अर्थवत्ता है कि एक धातु से पचासों शब्द बनाये जा सकते हैं। हिन्दी ने संस्कृत की इस सामर्थ्य का लाभ उठाया है। दूसरे स्थान पर अंग्रेजी के शब्द हैं, विशेषतः विज्ञान के क्षेत्र में, जिनका व्यवहार अन्तार्राष्ट्रीय स्तर पर होता है। आधुनिक विज्ञान का विकास पश्चिम में हुआ है, इसलिए लैटिन, ग्रीक और जर्मन के आधार बनी शब्दावली का व्यापक हो जाना स्वाभाविक है। इसे अपनाने में कोई हानि नहीं है। भारत के लिए अंग्रेजी ऐतिहासिक मजबूूरी भी है पश्चिम की भाषाओं में हमने इसी को जाना है और पश्चिम का ज्ञान हमें इसी के माध्यम से प्राप्त हुआ है। कुछ लोगों का कहना है कि हम संस्कृत और अंग्रेजी पर आवश्यकता से अधिक आश्रित रहे हैं। उर्दू के सैंकड़ों शब्द जो अरबी, फारसी स्रोत के हैं, पहले से ही पर्याप्त हैं और हिन्दी में पूरी तरह रस बस गये हैं। संस्कृत के बढ़ते प्रभाव के कारण उनका अनुपात कम हो गया है। भारत की अन्य भाषाओं से बहुत थोड़े शब्द अपनाए गये हैं, इतने थोडे़ कि उन्हेें उंगलियों पर गिना जा सकता है।
भारत अनेक संस्कृतियों का संगम है। यहां के आदिवासी कोल, संथाल, निषाद आदि थे। आर्य आए, यूनानी, ईरानी कुशान, यूची, जाट, अरब, तुर्क, यूरोपीय आदि आए और अपनी अपनी संस्कृति लाए। ये सब संस्कृतियां घुल मिलकर एक मिश्रित या सामासिक संस्कृति बन गई हैं, जिसका नाम भारतीय संस्कृति है। भारतीय संस्कृति एक है, जिसके अनेक अंग या तत्व हैं। इसके विकास में हिन्दू मुस्लिम और ईसाई का ही नहीं, युग-युग में उठने वाले संप्रदायों, विशेषतः बौद्ध, जैन और सिख, शैव और वैष्णव संप्रदायों ने और शहरी, ग्रामीण व्यापारी, वकील डाॅक्टर, शिक्षक किसान, मज़दूर शिल्पी और अन्य वर्गों ने भी अपना अपना अंशदान दिया है। भारतीय संस्कृति के इतने सारे अंग इधर उधर बिखरे पड़े हैं। प्रत्येक भाषा और बोली में अपने क्षेत्र की संस्कृति या कुछ एक वर्गों की संस्कृति प्रतिबिंबित है, परंतु कोई एक भाषा नहीं है, जिसने सभी अंगों या तत्वों को एक जगह संजो रखा हो, यह कार्य हिन्दी को करना है, संविधान ने यह उत्तरदायित्व हिंदी को सौंपा है, जिसे सच्चे अर्थों में राष्ट्रभाषा बनाना है और संविधान ने संघीय सरकार का यह कर्तव्य ठहराया है कि वह उन सांस्कृतिक तत्वों की खोज करके हिन्दी के भंडार को भरे। 33 वर्ष हो गये इस ओर ध्यान नहीं दिया गया। यहां कुछ संकेत, थोड़े से उदाहरण देकर प्रस्तुत करने का अभिप्राय यह है कि भारत की वर्तमान भाषाओं में जो शब्द संपत्ति पड़ी है उसका सर्वेक्षण हो जाना चाहिए। भारत की शब्द सम्पत्ति करोड़ों तक है। उसमें हिन्दी वह वब कुछ ग्रहण करे, जो उसके लिए आवश्यक और वांछनीय है।
हमने मुस्लिम संस्कृति से संबंधित सैंकड़ों शब्द अपने कोशों में भर रखे हैं। हमारी अदालती शब्दावली अब भी उर्दू प्रधान है। ‘हिन्दी शब्दसागर’ (11 भाग) हिन्दी का सबसे बड़ा कोश माना जाता है, लेकिन मुझे उसमें ‘अम्मी’ (माँ), बाजी (बहन), तलावत (क़ुरआन का पाठ), वलीमा (भोज) आदि बीसों शब्द नहीं मिलते। उर्दू में एक सचित्र पारिभाषिक कोश है ‘इस्तलाहत-ए-पेशावरा’। इसमें उद्योग धंधों से संबंधित लगभग दस हजार शब्द हैं, जिन्हें हिन्दी प्रदेश से संकलित किया गया। इनमें पचास प्रतिशत शब्द हमारे ‘सागर’ में नहीं है। उर्दू का बहुत सारा साहित्य देवनागरी लिपि में प्रकाशित है। हम लोग मुशायरों में बड़ा आनंद लेते हैं। परंतु अभी तक उर्दू की सी औपचारिकता, संक्षिप्तता, सूक्ष्म अभिव्यंजना या चासनी हिन्दी में नहीं आ पायी।
इस निबंध के लेखक ने भोजपुरी, अवधी और छत्तीसगढ़ी की ग्रामीण शब्दावली का संग्रह किया है। हरियाणवी, ब्रजभाषा और कौरवी के पारिभाषिक शब्द ही अन्वेषणकर्ताओं ने संग्रहीत कर लिए है। राजस्थानी का कोश प्रकाशित है। इन संग्रहों में सैकड़ों हजारों शब्द हिन्दी के अभाव की पूर्ति कर सकते हैं, लेकिन हम हैं कि कृषि जैसे विषयों की शब्दावली का अनुवाद अंग्रेजी से कर रहे हैं जबकि हमारा देश कृषि प्रधान है। हिन्दी को सम्पन्न करने के लिए पहले तो अपनी उपभाषाओं और बोलियों की शब्द संपदा का लेखा जोखा तैयार करना होगा।
हिन्दी प्रदेश के बाहर प्रत्येक प्रदेश से बहुमूल्य सामग्री प्राप्त हो सकती है। पंजाब के इन गीतों के नाम तक हिन्दी शब्दकोशों में प्राप्त नहीं होते: गिद्द, टप्पे, डोहे, माहिया, ढोला, बधावे, घोड़ियां, सुहाग, कामन, छंद, छल्ला, सिठणियां, वैण, सीहरफी। ढाढ, रबाब, सारंगी, और अलगोजा़ पंजाब के विशिष्ट वाद्ययंत्र हैं। लुड्डी, सुम्मी, बल्लो, डंडकड़े और भांगड़ा वहां के प्रसिद्ध नृत्यभेद हैं। भांगड़ा हिन्दी प्रदेश में अब जाना जाता है। पंजाब के कुछ गहनों के नाम सुनिए-बाली, चैंक, बंद, गजरा, बालदेवता, हसली छल्ला, फुल्ल मोरनी, दावणी, नौली। पंजाब में नहरी बस्तियों हैं जिनकी पारिभाषिक शब्दावली संग्रहणी है। पंजाबी साहित्य में वीर रस और श्रृंगार रस की जिस ढंग से हुई है, वह भी अन्वेषण और संग्रहण का विषय है। उड़ीसा में जो खाने प्रचलित हैं- पखाल, महुर, वेसर, पिठा, भाजा, मांडुआ, जिरडा, ये क्या हैं ? हम वहां के हिराकाठि, कुसुमझरा, झलका, बाडलि, ताजि, कांइचव, पाहुड, चाणसारि आदि गहनों के नामों से परिचित नहीं हैं। वहां के बंटु, गोटिपुआ, पल्लवी, तारिउम आदि नृत्य हैं। इन नृत्यों से संबंधित उठि, बइठि, ठिया, चालि, बुड़ा भसां, भडरी, पालि, चउक, चिरा कोठि, चउरस आदि पारिभाषिक शब्द हैं। उड़ीसा में प्राप्त मूर्तियों से संबंधित बीसों शब्द हैं हम नहीं जानते कि पंचमातृका और सप्तमातृका कौन-कौन हैं। हमें मंदिरों के स्थापत्य में रेखादेउल और पीढरेउल का परिचय नहीं है। क्या आप ने उड़ीसा के इन देवी देवताओं के नाम सुने हैं ? - छायादेवी, भूदेवी, स्वर्णजालेहवर, पातालेहवर। क्या आप जगमोहन मंदिरों की शैली को समझते हैं ?
गुजराती से हमे जैन (श्रमण) संस्कृति और समुद्री जीवन तथा कपड़ा उद्योग से संबद्ध भरपूर शब्द और प्रयोग मिल सकते हैं। समुद्री जीवन से संबद्ध शब्दावली बंगाल, तमिलनाडु और केरल से भी प्राप्त हो सकती है। तमिलनाडु और केरल का नारियल उद्योग प्रसिद्ध है। मलयालम बहुत मधुर भाषा है। उसका माधुर्य संजोने की अपेक्षा है। कन्नड़ में मुहावरों और लोकोक्तियों के बड़े बड़े संग्रह प्राप्त हैं। दक्षिण के मंदिरों और तीर्थ स्थानों से धार्मिक कथाओं और पूजा विधियों का अध्ययन करने की आवश्यकता है। कश्मीरी और उत्तरी पहाड़ी प्रदेशों में बहुत पुराने अर्थात् वैदिक शब्द सुरक्षित हैं। शैव, नाथ और बौद्ध संप्रदायों की विशिष्ट शब्दावली को वहां से एकत्र कर लेना चाहिए। बर्फ, फल-फूल, वनस्पति आदि से संबंधित शब्दावली का संग्रह किया जा सकता है। बंगला से हिन्दी ने बहुत कुछ ग्रहण किया है। हिन्दी का आधुनिक गद्य और पद्य साहित्य विशेषतः बंगला से प्रभावित रहा है। हमने बांग्ला के बीसों ग्रंथ अनूदित कर डाले हैं। उनमें उस भाषा के विशिष्ट शब्द और प्रयोग उद्धृत हैं। परंतु हम अभी तक उन्हे आत्मसात नहीं कर सके। बंगला में ललित कलाओं के विषय में भाषागत शैलियां संग्रहणीय हैं।
हिन्दी के सर्वग्राही विकास के लिए भारत भर की विशिष्ट भाषा सामग्री का संकलन करना संघ का कर्तव्य है। विशिष्ट का अर्थ है ऐसी सांस्कृतिक और व्यावहारिक सामग्री, जिसका अभाव है और जो इसमें खप सके। केंद्रीय और प्रादेशिक मंत्रालय अभी तक अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद करते रहे हैं और संस्कृत की उर्वरा शक्ति के बल पर शब्द गढ़ते जोड़ते रहे हैं। आवश्यकता है अपने देश की निजी संपत्ति से लाभ उठाने की। संगोष्ठियों और कार्यशालाओं में नियम तय करके कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित किया जाए। भारत सरकार का हिन्दी निदेशालय दो पंचवर्षीय योजनाओं में कार्यक्रम निश्चित करके इस अभियान को सम्पन्न करे। इसके लिए राज्य सरकारों का सहयोग अपेक्षित होगा। क्षेत्रीय पद्धति में प्रशिक्षित हिन्दी और सतत् प्रदेश की बोली/भाषा के द्विभाषी कार्यकर्ता इसमे इसमें बहुत सहायक हो सकेंगे। बाद में ये शब्दावलियां एक कोश के रूप में और विषयवार अलग अलग शब्दसंग्रहों के रूप में प्रकाशित कराई जाएं। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि शब्दोें के साथ प्रयोगों, शैलियों और अभिव्यक्तियों , मुहावरों और कहावतों का संग्रह कर लेना होगा
अब इस सामग्री को हिन्दी में पचाने की, आत्मसात करने की स्थिति आएगी। अंधाधुंध ग्रहण करने या केवल कोश में शब्दादि भर लेने से क्या लाभ ? हिन्दी में प्रत्येक प्रदेश, प्रत्येक सांस्कृतिक विषय के बारे में ग्रंथ लिखने लिखवाने होंगे। अंग्रेज़ी का उदाहरण हमारे सामने है। मुझे भारतीय सिक्के इकट्ठा करने का शौक है, अंग्रेजी में सचित्र पुस्तकें मिलेंगी जिनमें युग युग के सिक्कों की जानकारी प्राप्त होगी। आपको भारत के मंदिरों की जानकारी चाहिए, अंग्रेजी में भरपूर साहित्य मिलेगा। किसी को भारत के मेलों त्योहारों या लोक रीतियों के बारे में पुस्तक चाहिए, एक नहीं अनेक मिल जाएंगी। भारत ही क्यों सभी देशों की संस्कृति, लोकाचार, साहित्य, धर्म, शिक्षा, व्यापार आदि से संबंद्ध साहित्य अंग्रेजी में उपलब्ध हैं। तभी तो वह विश्व यहा अन्तर्राष्ट्रीय भाषा कहलाती है। हिन्दी को कम से कम समूचे देश की भाषा बनना है, तो उसमे देश का ज्ञान विज्ञान भर लेना होगा, उसे सारे देश की बातें कहनी होंगी, केवल हिन्दी प्रदेश की नहीं। यह भी याद रहे कि केवल काव्य, उपन्यास, कहानी, नाटक आदि से कोई भाषा अपने प्रदेश के बाहर आदर नहीं पा सकती। स्कूल और काॅलेजों की पाठ्यपुस्तकों के ढेर लग जाने से भी कोई भाषा अपने क्षेत्र के बाहर समादूत नहीं हो सकती। सार्वदेशिक भाषा बनने के लिए हिन्दी में अखिल भारत मुखरित होना चाहिए और विश्व भाषा बनने के लिए उसमें सारा विश्व प्रतिबिंबित होना चाहिए।
ऊपर कहा गया है कि जब हिन्दी पर विश्वविद्यालयों में शिक्षा का माध्यम होने का दायित्व आया, तो प्रत्येक विषय पर हमने शब्दावली का विकास किया और पाठ्यपुस्कें लिखीं। अब यह इस अखिल भारतीय उत्तरदायित्व का अनुभव करेगी, तो निश्चय ही इसमें यह सामर्थ्य आएगी। हिन्दी में भरपूर सहिष्णुता, उदारता ग्रहणशीता और पाचनशक्ति है। इन्हीं गुणों से यह अपने क्षेत्र से बाहर दूर दूर तक फैलती रही है । हिन्दी का क्षितिज बड़ा है, इसीलिए उसकी दृष्टि भी विशाल है और इसी लिए जो आवश्यक और वांछनीय है, उसे आत्मसात करने की इसमे अद्भुत आंतरिक शक्ति है। है तो यह खड़ी बोली प्रदेश की बोली, परंतु इसके विकास में सभी बोलियों, सभी भारतीय भाषाओं का आवश्यकता अनुसार योगदान रहा है। अब यह मात्र खड़ी बोली क्षेत्र की भाषा नहीं रह गई है।
शिक्षा, साहित्य, प्रशासन और ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र मे हिन्दी ने पिछले तीस वर्षाें में संतोषजनक प्रगति की है। अब सांस्कृतिक धरातल पर उठकर और सार्वदेशिक रूप में उसे अपना विकास करना है इससे हिन्दी का ही नहीं, सारे देश का हित होगा। भाषा के विकास को जो राजरीति के आधार पर सोचा समझा जाता रहा है उससे देश में विघटनकारी प्रवृत्तियाँ पनपीं हैं। राजनीति तोड़ती है, तो संस्कृति जोड़ती है। संस्कृति हमें एक दूसरे के निकट लाती है राजनीति पृथक् करती है। हिन्दी का सार्वदेशिक रूप होने पर और उसमें भारतीय संस्कृति के सभी अंगों का समावेश हो जाने पर और उसमें भारतीय संस्कृति के सभी अंगों का समावेश हो जाने पर उसके शब्द लालित्य और अर्थर्साष्ठव में वृद्धि होगी, उसे नए नए अलंकार मिलेंगे, जिनसे विभूषित होकर वह अधिक सुंदर होगी। परंतु सबसे बड़ी बात यह होगी कि भाषाओं के बीच खाई पट जाएगी। वह सारे देश का प्रतिनिधित्व करेगी और उसके प्रति बंधुुत्व की भावना जागृत होगी क्योंकि तब सभी प्रदेशों के लोगों को वह अपनी प्रतीत होगी। जब देश के विभिन्न भागों के भाषाभाषी उसमें अपनी भाषा के अंश पाएंगे तब उनमें हिन्दी के प्रति आत्मीयता बढे़गी।
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