सिक्ख धर्म
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विवरण | भारतीय धर्मों में सिक्ख धर्म का अपना एक पवित्र एवं अनुपम स्थान है। सिक्खों के प्रथम गुरु, गुरु नानक देव सिक्ख धर्म के प्रवर्तक हैं। |
स्थापना | 5वीं शताब्दी |
संस्थापक | गुरु नानक |
प्रतीक चिह्न | सिक्ख पंथ के प्रतीक चिह्न में दो ओर वक्राकार तलवारों के बीच एक वृत्त तथा वृत्त के बीच एक सीधा खांडा होता है। तलवारें धर्मरक्षा के लिए समर्पण का, वृत्ता 'एक ओंकार' का तथा खांडा पवित्रता का प्रतीक है। |
पवित्र ग्रंथ | गुरु ग्रंथ साहिब |
सिक्खों के दस गुरु | गुरु नानकदेव, गुरु अंगद, गुरु अमरदास, गुरु रामदास, गुरु अर्जन देव, गुरु हरगोविंद सिंह, गुरु हरराय, गुरु हर किशन सिंह, गुरु तेगबहादुर सिंह, गुरु गोविन्द सिंह |
संबंधित लेख | अकाल तख्त, हरमंदिर साहब, आनन्दपुर साहिब |
अन्य जानकारी | 'सिक्ख' शब्द 'शिष्य' से उत्पन्न हुआ है, जिसका तात्पर्य है- "गुरु नानक के शिष्य", अर्थात् उनकी शिक्षाओं का अनुसरण करने वाले। सिक्ख धर्म में बहु-देवतावाद की मान्यता नहीं है। यह धर्म केवल एक 'अकाल पुरुष' को मानता है और उसमें विश्वास करता है। |
सिक्ख धर्म का भारतीय धर्मों में अपना एक पवित्र एवं अनुपम स्थान है। सिक्खों के प्रथम गुरु, गुरु नानक देव सिक्ख धर्म के प्रवर्तक हैं। 'सिक्ख धर्म' की स्थापना 15वीं शताब्दी में भारत के उत्तर-पश्चिमी भाग के पंजाब में गुरु नानक देव द्वारा की गई थी। 'सिक्ख' शब्द 'शिष्य' से उत्पन्न हुआ है, जिसका तात्पर्य है- "गुरु नानक के शिष्य", अर्थात् उनकी शिक्षाओं का अनुसरण करने वाले। सिक्ख धर्म में बहु-देवतावाद की मान्यता नहीं है। यह धर्म केवल एक 'अकाल पुरुष' को मानता है और उसमें विश्वास करता है। यह एक ईश्वर तथा गुरुद्वारों पर आधारित धर्म है। सिक्ख धर्म में गुरु की महिमा मुख्य रूप से पूज्यनीय व दर्शनीय मानी गई है। इसके अनुसार गुरु के माध्यम से ही 'अकाल पुरुष' तक पहुँचा जा सकता है।
गुरु नानक देव
नानक देव का जन्म 1469 ई. में लाहौर (वर्तमान पाकिस्तान) के समीप 'तलवण्डी' नामक स्थान में हुआ था। इनके पिता का नाम कालूचंद और माता का तृप्ता था। बचपन से ही प्रतिभा के धनी नानक को एकांतवास, चिन्तन एवं सत्संग में विशेष रुचि थी। सुलक्खिनी देवी से विवाह के पश्चात् श्रीचंद और लखमीचंद नामक इनके दो पुत्र हुए। परन्तु सांसारिक गतिविधियों में विशेष रुचि न उत्पन्न होने पर वे अपने परिवार को ससुराल में छोड़कर स्वयं भ्रमण, सत्संग और उपदेश आदि में लग गये। इस दौरान वे पंजाब, मक्का, मदीना, काबुल, सिंहल, कामरूप, पुरी, दिल्ली, कश्मीर, काशी, हरिद्वार आदि की यात्रा पर गये। इन यात्राओं में उनके दो शिष्य सदैव उनके साथ रहे- एक था- 'मर्दाना', जो भजन गाते समय रबाब बजाता था और दूसरा 'बालाबंधुं'।
अन्य महान् संतों के समान ही गुरु नानक के साथ भी अनेक चमत्कारिक एवं दिव्य घटनाएं जुड़ी हुई हैं। वास्तव में ये घटनाएँ नानक के रूढ़ियों व अंधविश्वासों के प्रति विरोधी दृष्टिकोण को दर्शाती हैं। नानक अपनी यात्राओं के दौरान दीन-दुखियों की पीड़ाओं एवं समस्याओं को दूर करने का प्रयास करते थे। वे सभी धर्मों तथा जातियों के लोगों के साथ समान रूप से प्रेम, नम्रता और सद्भाव का व्यवहार करते थे। हिन्दू-मुसलमान एकता के वे पक्के समर्थक थे। अपने प्रिय शिष्य लहणा की क्षमताओं को पहचान कर उन्होंने उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया और उसे 'अंगद' नाम दिया। गुरु अंगद ने नानक देव की वाणियों को संग्रहीत करके गुरुमुखी लिपि में बद्ध कराया। इसी के पश्चात् 1539 में गुरु नानक देव की मृत्यु हो गई।
अकाल पुरुष
गुरु नानक देव ने 'अकाल पुरुष' का जैसा स्वरूप प्रस्तुत किया है, उसके अनुसार अकाल पुरुष एक है। उस जैसा कोई नहीं है। वह सबमें एक समान रूप से बसा हुआ है। उस अकाल पुरुष का नाम अटल है। सृष्टि निर्माता वह अकाल पुरुष ही संसार की हर छोटी-बड़ी वस्तु को बनाने वाला है। वह अकाल पुरुष ही सब कुछ बनाता है तथा बनाई हुई हर एक चीज़ में उसका वास भी रहता है। अर्थात् वह कण-कण में अदृश्य रूप से निवास करता है। वह सर्वशक्तिमान है तथा उसे किसी का डर नहीं है। उसका किसी के साथ विरोध, मनमुटाव एवं शत्रुता नहीं है। अकाल पुरुष का अस्तित्व समय के बंधन से मुक्त है। भूतकाल, वर्तमान काल एवं भविष्य काल जैसा काल विभाजन उसके लिए कोई मायने नहीं रखता। बचपन, यौवन, बुढ़ापा और मृत्यु का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। उस अकाल पुरुष को विभिन्न योनियों में भटकने की आवश्यकता नहीं है, अर्थात् वह अजन्मा है। उसे किसी ने नहीं बनाया और न ही उसे किसी ने जन्म दिया है। वह स्वयं प्रकाशित है।[1]
उपदेश
गुरु नानकदेव ने आम बोल-चाल की भाषा में रचे पदों तथा भजनों के माध्यम से अपने उपदेश दिये। उन्होंने कहा कि सबका निर्माता, कर्ता, पालनहारा 'एक ओंकार' एक ईश्वर है, जो 'सतनाम' (उसी का नाम सत्य है), 'करता पुरुख' (रचयिता), 'अकामूरत' (अक्षय और निराकार), 'निर्भउ' (निर्भय), 'निरवैर' (द्वेष रहित) और 'आजुनी सभंग' (जन्म-मरण से मुक्त सर्वज्ञाता) है। उसे सिर्फ़ 'गुरु प्रसाद' अर्थात् गुरु की कृपा से ही जाना जा सकता है। उसके सामने सभी बराबर हैं, अत: छूआछूत, रूढ़िवादिता, ऊँच-नीच सब झूठ और आडंबर हैं। जन्म-मरण विहीन एक ईश्वर में आस्था, छुआछूत रहित समतामूलक समाज की स्थापना और मानव मात्र के कल्याण की कामना सिक्ख धर्म के प्रमुख सिद्धान्त हैं। कर्म करना, बांट कर खाना और प्रभु का नाम जाप करना इसके आधार हैं। इन्हीं मंतव्यों की प्राप्ति के लिए गुरु नानक देव ने इस धर्म की स्थापना की थी।
सिक्खों के दस गुरु
सिक्ख धर्म में गुरु परम्परा का विशेष महत्त्व रहा है। इसमें दस गुरु माने गये हैं, जिनके नाम, जन्म व गुरु बनने की तिथि तथा निर्वाण प्राप्ति की तिथि इस प्रकार है-
क्र.सं | नाम | जन्म तिथि | गुरु बनने की तिथि | निर्वाण तिथि |
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1. | गुरु नानकदेव | 15 अप्रैल, 1469 | 20 अगस्त, 1507 | 22 सितम्बर, 1539 |
2. | गुरु अंगद | 31 मार्च, 1504 | 7 सितम्बर, 1539 | 28 मार्च, 1552 |
3. | गुरु अमरदास | 5 अप्रॅल, 1479 | 26 मार्च, 1552 | 1 सितम्बर, 1574 |
4. | गुरु रामदास | 24 सितम्बर, 1534 | 1 सितम्बर, 1574 | 1 सितम्बर, 1581 |
5. | गुरु अर्जुन देव | 15 अप्रैल, 1563 | 1 सितम्बर, 1581 | 30 मई, 1606 |
6. | गुरु हरगोविंद सिंह | 14 जून, 1595 | 25 मई, 1606 | 3 मार्च, 1644 |
7. | गुरु हरराय | 16 जनवरी, 1630 | 3 मार्च, 1644 | 6 अक्टूबर, 1661 |
8. | गुरु हर किशन सिंह | 7 जुलाई, 1656 | 6 अक्टूबर, 1661 | 30 मार्च, 1664 |
9. | गुरु तेगबहादुर सिंह | 18 अप्रैल, 1621 | 20 मार्च, 1664 | 24 नवंबर, 1675[2] |
10. | गुरु गोविन्द सिंह | 22 दिसम्बर, 1666 | 11 नवंबर, 1675 | 7 अक्टूबर, 1708 |
तीसरे गुरु अमरदास ने जाति प्रथा एवं छूआछूत को समाप्त करने के उद्देश्य से 'लंगर' परम्परा की नींव डाली। चौथे गुरु रामदास ने 'अमृत सरोवर' (अब अमृतसर) नामक एक नये नगर की नींव रखी। अमृतसर में ही पाँचवें गुरु अर्जुन देव ने 'हरमंदिर साहब' (स्वर्ण मंदिर) की स्थापना की। उन्होंने ही अपने पिछले गुरुओं तथा उनके समकालीन हिन्दू, मुस्लिम संतों के पदों एवं भजनों का संग्रह कर 'आदिग्रंथ' बनाया।
पाँच कक्के
गुरु अर्जुन देव की मुस्लिम शासकों ने नदी में डुबोकर हत्या करवा दी थी। छठे गुरु हरगोविंद के काल में मुग़ल बादशाहों के गैर मुसलमानों पर अत्याचार बढ़ते जा रहे थे, जिसका उन्होंने बहादुरी से मुक़ाबला किया। उन्होंने अपने अनुयायियों को हिन्तुत्व की रक्षा हेतु सिपाहियों की तरह लैस रहने और अच्छे घुड़सवार बनने का उपदेश दिया। गुरु तेगबहादुर द्वारा भी इस्लाम धर्म स्वीकार न करने से इन्कार कर देने पर औरंगज़ेब ने उनके दोनों बेटों को दीवार में चिनवा दिया। दसवें गुरु गोविंद सिंह ने सिक्ख पंथ को नया स्वरूप, नयी शक्ति और नयी ओजस्विता प्रदान की। उन्होंने 'खालसा' (शुद्ध) परंपरा की स्थापना की। खालसाओं के पांच अनिवार्य लक्षण निर्धारित किये गये, जिन्हें 'पाँच कक्के' या 'पाँच ककार' कहते हैं, क्योंकि ये पाँचों लक्षण 'क' से शुरू होते हैं, जैसे- केश, कंधा, कड़ा, कच्छा और कृपाण। ये पाँचों लक्षण एक सिक्ख को विशिष्ट पहचान प्रदान करते हैं।
गुरु गोविन्द सिंह की इच्छा
सिक्ख धर्म में कृपाण धारण करने का आदेश आत्मरक्षा के लिए है। गुरु गोविन्द सिंह चाहते थे कि सिक्खों में संतों वाले गुण भी हों और सिपाहियों वाली भावना भी। इस कारण कृपाण सिक्खों का एक धार्मिक चिह्न बन गया है। गुरु गोविंद ने पुरुष खालसाओं को 'सिंह' की तथा महिलाओं को 'कौर' की उपाधि दी।
अपने शिष्यों में धर्मरक्षा हेतु सदैव मर मिटने को तैयार रहने वाले पाँच शिष्यों को चुनकर उन्हें 'पांच प्यारे' की संज्ञा दी और उन्हें अमृत छका कर धर्म रक्षकों के रूप में विशिष्टता प्रदान की और नेतृत्व में खालसाओं ने मुस्लिम शासकों का बहादुरी पूर्वक सामना किया। गुरु गोविंद सिंह ने कहा कि उनके बाद कोई अन्य गुरु नहीं होगा, बल्कि 'आदिग्रंथ' को ही गुरु माना जाये। तब से आदिग्रंथ को 'गुरु ग्रंथ साहब' कहा जाने लगा। अत: सिक्ख इस पवित्र ग्रंथ को सजीव गुरु के समान ही सम्मान देते हैं। उसे सदैव 'रुमाला' में लपेटकर रखते हैं और मखमली चाँदनी के नीचे रखते हैं। एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने हेतु इस ग्रंथ को हमेशा सिर पर रखकर ले जाते हैं। इस पर हमेशा चंवर डुलाया जाता है। गुरुद्वारे में इसका पाठ करने वाले विशेष व्यक्ति को 'ग्रंथी' और विशिष्ट रूप से गायन में प्रवीण व्यक्ति को 'रागी' कहते हैं।
भाई मरदाना
संपूर्ण सिक्ख परंपरा में भाई मरदाना का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। वे जाति से मिरासी मुसलमान थे और गुरु नानक देव के बचपन के मित्र थे। भाई मरदाना बहुत कुशल रबाब वादक थे। वे सारा जीवन गुरु नानक देव के साथ रहे। गुरु नानक देव की 20 वर्ष की देश-विदेश की यात्रा में भाई मरदाना उनके साथ रहे। गुरु नानक देव जो भी वाणी रचते थे, भाई मरदाना उनके साथ रहे। गुरु नानक देव जो भी वाणी रचते थे, भाई मरदाना उसे संगीतबद्ध करते थे। अंतिम समय में भी वे गुरु नानक देव के साथ रहें गुरुग्रंथ साहब में भाई मरदाना रचित तीन श्लोक संग्रहीत हैं।
पवित्र निशान
यह सिक्ख पंथ का पवित्र निशान है, जिसमें दो ओर वक्राकार तलवारों के बीच एक वृत्त तथा वृत्त के बीच एक सीधा खांडा होता है। तलवारें धर्मरक्षा के लिए समर्पण का, वृत्ता 'एक ओंकार' का तथा खांडा पवित्रता का प्रतीक है।
लंगर
गुरुद्वारों में प्रतिदिन, विशेष अवसरों पर भक्तजनों के लिए भोज की व्यवस्था होती है, जिसमें हलवा, छोले तथा पानी, चीनी, पिंजरी, मक्खन से बना तथा कृपाण से हिलाया हुआ कड़ा प्रसाद दिया जाता है। तीसरे गुरु अमरदास ने सिक्खों तथा अन्य धर्मावलम्बियों में समानता व एकता स्थापित करने के उद्देश्य से लंगर की शुरुआत की थी।
- वाहे गुरु- यह ईश्वर का प्रशंसात्मक नाम है।
- सत श्री अकाल, बोले सो निहाल- ईश्वर सत्य, कल्याणकारी और कालातीत है, जिसके नाम के स्मरण से मुक्ति मिलती है।
- वाहे गुरु द खालसा, वाहे गुरु दी फ़तह- खालसा पंथ वाहे गुरु (ईश्वर) का पंथ और और अंतत: उसी की विजय होती है।
पाँच तख़्त
सिक्ख धर्म के पाँच प्रमुख धर्मकेन्द्र (तख़्त) हैं-
- अकाल तख्त
- हरमंदिर साहब
- पटना साहब
- आनन्दपुर साहिब
- हुज़ूर साहब।
धर्म सम्बन्धी किसी भी विवाद पर इन तख्तों के पीठासीन अधिकारियों का निर्णय अंतिम माना जाता है।
पाँच ककार
सिक्खों के 10वें और अंतिम गुरु गोविन्द सिंह ने पांच ककार- केश, कंघा, कड़ा, कच्छा और कृपाण को अनिवार्य बना दिया। गुरुद्वारे में प्रतिदिन या विशेष अवसरोंं पर स्वेच्छा से किया गया श्रम, जैसे- गुरुद्वारे की सीढ़ियों की सफाई, कड़ा प्रसाद बनाना, भक्तजनों के जूते संभालना व साफ़ करना आदि। कभी-कभी धर्म विरोधी कार्य करने पर सज़ा के रूप में व्यक्ति को ये कार्य करने का आदेश दिया जाता है।
सिक्ख धर्म में दीवाली
सिक्खों के छठे गुरु हरगोबिंद सिंह जी को दीवाली वाले दिन मुग़ल बादशाह जहाँगीर की क़ैद से मुक्ति मिली थी। गुरु हरगोबिंद सिंह जी की बढ़ती शक्ति से घबरा कर मुग़ल बादशाह जहाँगीर ने उन्हें और उनके 52 साथियों को ग्वालियर के क़िले में बंदी बनाया हुआ था। जहाँगीर ने सन् 1619 ई. में देश भर के लोगों द्वारा हरगोविंद सिंह जी को छोड़ने की अपील पर गुरु को दीवाली वाले दिन मुक्त किया। हरगोविंद सिंह जी कैद से मुक्त होते ही अमृतसर पहुँचे और वहाँ विशेष प्रार्थना का आयोजन किया गया। हरगोविंद सिंह जी के रिहा होने की खुशी में गुरु की माता ने सभी लोगों में मिठाई बाँटी और चारों ओर दीप जलाए गए। इसी वज़ह से सिक्ख धर्म में दीवाली को 'बंदी छोड़ दिवस' के रूप में मनाया जाता है। सन् 1577 ई. में दीवाली के दिन ही अमृतसर के प्रसिद्ध स्वर्ण मंदिर की नींव रखी गई थी। सिक्ख धर्म में दीवाली के त्योहार को तीन दिन तक आनंद के साथ मनाया जाता है। अमृतसर में दीवाली के दिन विशेष समारोह का आयोजन किया जाता है, जिसमें दूर-दूर से लोग आते हैं। पवित्र सरोवर में इस दिन लोग सुबह-सुबह डुबकी लगाते हैं और स्वर्ण मंदिर के दर्शन करते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सिक्ख धर्म (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल.)। । अभिगमन तिथि: 25 मई, 2012।
- ↑ Guru Tegh Bahadur
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