हिन्दी भाषा की भूमिका : विश्व के संदर्भ में -राजेन्द्र अवस्थी

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लेखक- राजेन्द्र अवस्थी

आज का तिब्बत हज़ारों साल पहले का सुमेरु पर्वत है। कहा जाता है कि प्राचीन सभ्यता सुमेरु पर्वत के नीचे ही जन्मी, पनपी और फैलती गई। उसका विस्तार ग्रीक, रोम, मेसोपोटामिया से लेकर सिंधु घाटी तक था। समूचे विश्व की प्राचीनतम सभ्यता के क्षेत्र यही स्थल रहे हैं। वैसे भी सुमेरु का अर्थ होता है मेरुदंड, यानी आधार शिला। हमारे शरीर का मेरुदंड हमारी रीढ़ की हड्डी है। उसी के सहारे पूरा शरीर टिका हुआ है। सुमेरु पर्वत के नीचे धीरे-धीरे जिस सभ्यता ने जन्म लिया था, वह विश्व बंधुत्व का केंद्र थी। रोम और मेसोपोटामिया में यदि सिंह और सूर्य चक्र के अवशेष मिले हैं तो वही सिंधु घाटी में भी हैं। यहाँ के निवासियों का रहन-सहन और धर्म लगभग समान था।
वर्षों शायद एक तारतम्य था, जो सुमेरु सभ्यता को बांधे था और समूची मनुष्य जाति को जिसने एक ही तरह से रहना, खाना-पीना और विकास के तौर-तरीके समझाए थे। तब इनकी भाषा भी शायद बहुत मिलती-जुलती रही है। शिलालेख इसके प्रमाण हैं। भाषा और बोली के बारे में अक्सर कहा जाता है कि हर दो कोस यानी चार मील में बोली बदल जाती है और पांच कोस यानी दस मील में भाषा में अंतर आ जाता है। जो अवशेष मिले हैं, उनसे स्पष्ट है कि बोली और भाषा जो भी रही हो, आज की देवनागरी का वह प्रारम्भिक स्वरूप है।
इस प्रसंग का उल्लेख इसलिए यहाँ आवश्यक है क्योंकि राजनीति और भूगोल की सीमाएं कालान्तर में इतिहास पर पलीता लगाती चलती हैं और अपनी सुविधा के अनुसार हम नए इतिहास का निर्माण करते चलते हैं।
सुमेरु सभ्यता का समूचा क्षेत्र देवनागरी लिपि का विस्तार था और उसी देवनागरी से क्रमश: हिन्दी भी विकसित हुई। इसलिए मैं काफ़ी वज़न देकर यह कह सकता हूँ कि हिन्दी भाषा की भूमिका इसी क्षेत्र में लिखी गई थी। बाद में वह सिमटती गई और हमलावरों तथा लुटेरों का कोपभाजन बनकर कई भाषाओं में वह बंट गई। उसी के साथ देश और मनुष्य भी बदलता गया और सभ्यता की रीढ़ को हम क्रमश: भूलते गए।
बात यहीं समाप्त नहीं होती। मुझे लगभग समूची दुनिया देखने का मौका मिला है। आज की दुनिया हज़ारों सालों की दुनिया से बहुत अलग है। कई हिस्से महासागर के गर्त में चले गए और कई भूभाग महासागर से उभर कर बाहर आए। अमरीका जैसे महान् और विकसित देश का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। आदमी जितना नया है, उतना संघर्ष उसका कम है। पुराने आदमी ने कहीं बहुत ज़्यादा संघर्ष किया था। बदलते हुए मौसमों का उसे सामना करना पड़ा था और उसमें उसने अपनी ही सभ्यता को डूबते और तैरते देखा था। इस संघर्ष में भूमिका रहती है। अभिव्यक्ति की। इसी अभिव्यक्ति के माध्यम की हमें तलाश है।
सुमेरु क्षेत्र के बाहर भी जाकर देखें तो दृष्टि कुछ और ही होगी। घने हरे वनों के बीच उभरे हुए नए-नए शहर। उन शहरों की चकाचौंध। झिलमिलाती हुई दुकानें। एक दुकान में हम घुस गए। कपड़े से लेकर कई आधुनिक कही जाने वाली चीज़ें उसी एक स्टोर में थीं। हम ठहरे पर्यटक, हमने एक-एक चीज़ देखना शुरू किया। थोड़ी देर बाद ही एक सज्जन ने हमसे कहा, 'आपको कुछ पसन्द आया?'
चौंकना हमारे लिए असाधारण था। हमने उसकी ओर देखा, उसके तीर-चार साथियों को देखा, फिर हम पूरी दुकान देख गए।
-'आप भारत से आए हैं, ऐसा लगता है।'
-'जी हाँ, राजकोट में हमारा घर था।'
-'था, अब नहीं है?'
-'पता नहीं, हमारे बाप-दादे आए थे, हमें जाने का मौका ही नहीं मिला। हमें लगा, हमारे देश का एक टुकड़ा यहाँ टूटकर आ गया है।'
-'आप इतनी अच्छी हिन्दी बोल लेते हैं।'
 
निहायत भारतीय ढंग से उसने हाथ जोड़े, 'जी हाँ, पिताजी से और माताजी से सुनते रहे हैं हम, वही सीखा है।'
यह प्रसंग था कीन्या का, अफ्रीका का एक स्वतंत्र गणराज्य। शहर था मोमबासा। यह केवल मोमबासा में नहीं था, अफ्रीका के समूचे पूर्वी तट, मध्य अफ्रीका जिसे अब काइरे कहते हैं और पश्चिमी तट, जहाँ नाइजीरिया आदि देश हैं- सभी जगह अचानक हमारा सामना भाषा के साथ हुआ है। न जाने कितने समय पहले इनके पूर्वज यहाँ आए थे। अपनी मेहनत से उन्होंने संघर्ष किया और यहाँ जम गए।
मारिशस भारत और अफ्रीका के बीच एक छोटा सा द्वीप है। यहाँ पहले अफ्रीकी दास लाए गए थे और कोड़े मार-मार कर उनसे पत्थर उठवाए गए। पुर्तग़ाली और फ़्रांसीसी शासक कोड़े के बल पर भी यह काम नहीं करा सके। तब आए बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग। उन्होंने कोड़े भी खाए, लेकिन eमेहनत भी की और धीरे-धीरे समूचे द्वीप को उपजाऊ मिट्टी में बदल दिया। खेतों के बीच में छुटपुट पड़े पत्थर इस बात के गवाह हैं कि उन भारतीयों ने इतने भारी पत्थर पूरी जमीन से उठाए थे। भारत अब भी उनकी महतारी भूमि है और क्रियोल के सिवाय जिस भाषा में उन्हें बोलने में आनंद मिलता है, वह भोजपुरी या पूरबी अवधी मिली हुई हिन्दी है। भारत के प्रति उनके लगाव को देखकर लगता है, असल में जैसे भारत उनकी ही भूमि है। दूसरे विश्व हिन्दी सम्मेलन में मारिशस के तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री शिवसागर रामगुलाल ने तो घोषणा की थी कि भारत के बाहर यदि कोई हिन्दी भाषी प्रधान मंत्री है, तो वह मैं हूँ। हमारी तालियों ने ही उनका स्वागत नहीं किया था, हिन्दी भाषा के जयघोष में हमने अपनी आवाज़ मिलाई थी।
अफ्रीकी तटों के सारे द्वीपों में लगभग यही स्थिति है। यहाँ पहुँचकर बिल्कुल नहीं लगता कि हम अजनबी हैं। इस हिस्से को छोड़कर आगे चलें तो इंग्लैंड पहुँचकर तो एक अजीब सा आभास होगा। लंदन शहर लगता है बंबई का टुकड़ा है, या यूं कहें कि बंबई लंदन का टुकड़ा है। साउथ हाल पूरी तरह हिन्दी की ध्वनि से गुंजित होता है। स्काटलैंड के एक विद्वान से बात हुई तो उन्होंने बताया कि उनकी भाषा का अंग्रेज़ी से दूर का भी संबंध नहीं है। वह संस्कृत, जर्मन और पालि का अपभ्रंश रूप है।
यूरोप की यात्रा करते हुए प्राय: लोगों को भय होता है कि वे क्या करेंगे। भय छोड़कर जर्मन शब्द 'बुंदिशवान' में जाइए। घबराइए नहीं, यह रेलवे स्टेशन का पर्यायवाची है। हमारे यहाँ जब बग्घियाँ चलती थीं, तब उनके लिए क्या लगभग यही प्रतिध्वनि नहीं थी। फ़्रांस में जाकर मन घबराता है, परंतु हिन्दी भाषी फ़्रांस के हर शहर में हैं। स्पेन तो हमारा घर है। यूरोप में यात्रा करते हुए उत्तर भारतीयों को प्राय: स्पेन का निवासी समझा जाता है। फिर स्पेन के समुद्री तटों पर जाइए, आवाज़ों के शोरगुल में हमारी भाषा की ध्वनियाँ ज़रूर सुनने को मिल जायेंगी।
रोम में हमारे कई मित्र रहते हैं। उनका कहना है कि इटली के बहुत से लोगों ने उनसे हिन्दी सीखी है। वहाँ के विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जाती है। उनकी शिकायत यही है कि भारत में अंग्रेज़ी का प्रभुत्व इतना अधिक है कि वहाँ पहुँचकर बिना हिन्दी बोले हमारा काम चल जाता है। यह सुनकर हमें लज्जित होना पड़ता है।
हालैंड में बहुत बड़ी संस्था सूरिनाम के निवासियों की है। सूरिनाम दक्षिण अमरीका के उत्तरी भाग में है और पूरे देश में हिन्दी भाषा का प्रचलन है। सूरिनाम के लोगों का रहन-सहन, खान-पान सभी कुछ भारतीय है। मारिशस की तरह से भी गंगा के दर्शनों के इच्छुक हैं। इन दिनों तो सत्ता भी उन्हीं के हाथ है। सूरिनाम में पहले डच शासन था। डच यानी हालैंड। यही डच जर्मनी तक फैले थे, इसलिए जर्मनी को डचैज लैंड भी कहा जाता है। हालैंड में एक लाख से भी अधिक हिन्दी भाषी हैं। बड़े-बड़े शहरों में उनके अपने भवन हैं, जिन्हें 'एकता भवन' कहते हैं। इन्हीं एकता भवनों में वे यज्ञ, हवन और मंत्रों का उच्चारण करते हैं। हालैंड पहुँचकर अपने को अजनबी समझना सबसे बड़ी भूल होगी।
आगे निकल चलें तो हम डैनमार्क, ओसलो और स्वीडन तक, या उसके आगे ग्रीनलैंड और फ़िनलैंड भी, हिन्दी भाषा के उच्चारण को सुनने के लिए हमें तरसना नहीं पडेगा। हर सड़क और हर मोड़ पर कोई भारतीय मिल जायेगा और मजे में आप उससे 'नमस्ते' या 'नमस्कार' कर सकते हैं। इन क्षेत्रों में कुछ विदेशियों को शुद्ध संस्कृत बोलते हुए सुनना सचमुच बहुत अच्छा लगता है। जैसे लायडन विश्वविद्यालय में डॉक्टर हेस्तरमान से शुद्ध संस्कृत में संभाषण किया जा सकता है।
यूरोप से लगे हुए क्षेत्रों में यूगोस्लाविया, चेकोस्लोवाकिया, हंगरी, बुलगेरिया, पोलैंड और रूस भी हैं। डॉक्टर स्मेकल से लेकर डॉक्टर चेलिशेव तक निहायत भारतीय हैं। वहाँ बहुत से परिवार हैं और हमसे अधिक शुद्ध हिन्दी बोलते हैं। इन देशों में कई बार अंग्रेज़ी के कारण कठिनाई हो सकती है, हिन्दी भाषी कोई न कोई, कहीं न कहीं अवश्य मिल जायेगा। फिर कई शब्द भी ऐसे हैं, जिनका उच्चारण और अर्थ देवनागरी हिन्दी से मिलते-जुलते हैं, थोड़ा दिमाग लगाने की ज़रूरत है, अजनबी नहीं कहा जा सकता।
दक्षिण अमरीका में सूरिनाम के साथ गुयाना, फ़ीजी और फिर महान् सांस्कृतिक देश मेक्सिको तक हिन्दू देवी-देवताओं और हिन्दी भाषा तथा देवनागरी लिपि का विस्तार मिलेगा। जहाँ-जहाँ प्राचीनता होगी, हिन्दी का प्रभाव अवश्य होगा। मेक्सिको में सारे हिन्दू देवी-देवताओं को लोकर लगता है, कभी भारतीय सभ्यता का विकास यहाँ तक अवश्य रहा होगा। यही स्थिति दक्षिण-पूर्वी देशों की है। वही देवी और देवता वहाँ पर भी है। सूर्य एक महान् शक्ति के रूप में संभवत: समस्त विश्व में व्याप्त है। जापान को तो 'सूर्योदय' का देश ही कहा जाता है। मेरा अपना अनुभव बहुत बृहत् है। चीन हो या जापान, रूस हो या कोरिया, अमरीका हो या कैनेडा, कहीं कोई शहर मुझे नहीं मिला, जहाँ भारतीय न हों। इससे स्पष्ट है कि भारतवंशी मूल रूप से बहुत दु:साहसी रहे हैं। वे अपनी भाषा और सभ्यता को साथ ले गए हैं। इतना ही क्या काफ़ी नहीं है कि भारी भीड़ में एक अकेला मिल जाए जो आपकी आवाज़ को सुन और समझ सके। दोस्ती के लिए भीड़ की नहीं, एक आदमी की ज़रूरत होती है। हिन्दी भाषा चाहे जिस रूप में जहाँ गई हो, उसने अपने सहज संबंधों की तलाश की है और एक विश्व बंधुत्व को जन्म दिया है। भेद जहाँ भी उभरे हैं, उनके कारण राजनीति में मिलते हैं। राजनीति शक्ति पर आधारित है और भाषा का संबंध मनुष्य के भीतरी तत्त्वों से है, उन तत्त्वों से जिनमें न सड़ाँध है और न कभी कीड़े पड़ सकते हैं। वे पावन गंगा की तरह भारत की उस महान् भूमि पर खड़े हैं जो वर्षों की यातनाओं को बोलते हुए आज भी एक अकेली धरती समूची दुनिया का मानचित्र प्रस्तुत करती है। ऐसी धरती से उभरी हुई हिन्दी भारत में भले ही विवाद का माध्यम बने, यहाँ से बाहर जाकर वह विश्व बंधुत्व का माध्यम बनती है, इसका अनुभव कोई सैलानी ही कर सकता है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन 1983
क्रमांक लेख का नाम लेखक
हिन्दी और सामासिक संस्कृति
1. हिन्दी साहित्य और सामासिक संस्कृति डॉ. कर्ण राजशेषगिरि राव
2. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति प्रो. केसरीकुमार
3. हिन्दी साहित्य और सामासिक संस्कृति डॉ. चंद्रकांत बांदिवडेकर
4. हिन्दी की सामासिक एवं सांस्कृतिक एकता डॉ. जगदीश गुप्त
5. राजभाषा: कार्याचरण और सामासिक संस्कृति डॉ. एन.एस. दक्षिणामूर्ति
6. हिन्दी की अखिल भारतीयता का इतिहास प्रो. दिनेश्वर प्रसाद
7. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति डॉ. मुंशीराम शर्मा
8. भारतीय व्यक्तित्व के संश्लेष की भाषा डॉ. रघुवंश
9. देश की सामासिक संस्कृति की अभिव्यक्ति में हिन्दी का योगदान डॉ. राजकिशोर पांडेय
10. सांस्कृतिक समन्वय की प्रक्रिया और हिन्दी साहित्य श्री राजेश्वर गंगवार
11. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति के तत्त्व डॉ. शिवनंदन प्रसाद
12. हिन्दी:सामासिक संस्कृति की संवाहिका श्री शिवसागर मिश्र
13. भारत की सामासिक संस्कृृति और हिन्दी का विकास डॉ. हरदेव बाहरी
हिन्दी का विकासशील स्वरूप
14. हिन्दी का विकासशील स्वरूप डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित
15. हिन्दी के विकास में भोजपुरी का योगदान डॉ. उदयनारायण तिवारी
16. हिन्दी का विकासशील स्वरूप (शब्दावली के संदर्भ में) डॉ. कैलाशचंद्र भाटिया
17. मानक भाषा की संकल्पना और हिन्दी डॉ. कृष्णकुमार गोस्वामी
18. राजभाषा के रूप में हिन्दी का विकास, महत्त्व तथा प्रकाश की दिशाएँ श्री जयनारायण तिवारी
19. सांस्कृतिक भाषा के रूप में हिन्दी का विकास डॉ. त्रिलोचन पांडेय
20. हिन्दी का सरलीकरण आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा
21. प्रशासनिक हिन्दी का विकास डॉ. नारायणदत्त पालीवाल
22. जन की विकासशील भाषा हिन्दी श्री भागवत झा आज़ाद
23. भारत की भाषिक एकता: परंपरा और हिन्दी प्रो. माणिक गोविंद चतुर्वेदी
24. हिन्दी भाषा और राष्ट्रीय एकीकरण प्रो. रविन्द्रनाथ श्रीवास्तव
25. हिन्दी की संवैधानिक स्थिति और उसका विकासशील स्वरूप प्रो. विजयेन्द्र स्नातक
देवनागरी लिपि की भूमिका
26. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में देवनागरी श्री जीवन नायक
27. देवनागरी प्रो. देवीशंकर द्विवेदी
28. हिन्दी में लेखन संबंधी एकरूपता की समस्या प्रो. प. बा. जैन
29. देवनागरी लिपि की भूमिका डॉ. बाबूराम सक्सेना
30. देवनागरी लिपि (कश्मीरी भाषा के संदर्भ में) डॉ. मोहनलाल सर
31. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में देवनागरी लिपि पं. रामेश्वरदयाल दुबे
विदेशों में हिन्दी
32. विश्व की हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ डॉ. कामता कमलेश
33. विदेशों में हिन्दी:प्रचार-प्रसार और स्थिति के कुछ पहलू प्रो. प्रेमस्वरूप गुप्त
34. हिन्दी का एक अपनाया-सा क्षेत्र: संयुक्त राज्य डॉ. आर. एस. मेग्रेगर
35. हिन्दी भाषा की भूमिका : विश्व के संदर्भ में श्री राजेन्द्र अवस्थी
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