भारत की भाषा समस्या और हिन्दी -डॉ. कुमार विमल

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लेखक- डॉ. कुमार विमल

हिन्दुस्तान एक ऐसा बहुभाषा-भाषी देश है, जिसकी भाषा समस्या काफ़ी उलझ गई है। चूंकि भाषा का संबंध कई प्रकार की भावुकता, जानपादिक मोह और पूर्वाग्रहों से जुड़ा हुआ है, इसलिए बहुभाषाभाषी देशों में भाषा की समस्या प्राय: संकुल और उलझी रहती है। किन्तु मनुष्य समस्याओं का समाधान करना वाला प्राणी (Problem-solving animal) होने के कारण भाषा समस्या का भी कोई न कोई समाधान अपने देश और समाज के लिए कर ही लेता है। रूस, स्विट्जरलैंड आदि अनेक देशों ने अपनी उलझी हुई भाषा समस्या का समाधान बहुत ही खूबी के साथ कर लिया है।
हमारी संविधान स्वीकृत आधुनिक भारतीय भाषाओं में सिंधी, बंगला, पंजाबी और उर्दू चार ऐसी भाषाएँ हैं, जो पाकिस्तान के भाषा-परिकर में आती हैं। यानी ये उक्त चार भाषाएँ केवल हिन्दुस्तान में ही नहीं, पाकिस्तान में भी बोली जाती हैं। इतना ही नहीं, ये चार भाषाएँ अपने ढंग की समर्थ भाषाएँ मानी जा सकती हैं। बंगला में रवींद्रनाथ ठाकुर जैसे विश्वविख्यात और नोबेल पुरस्कार विजेता कवि हो चुके हैं। उर्दू की शीरीनी, फ़साहत और बलाग़त का दुनिया भर में रुतबा है। पंजाबी का भी रचनात्मक साहित्य समृद्ध है। संविधान स्वीकृत भाषाओं में सबसे नई यानी 15वीं भाषा सिंधी भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। इसमें शाह अब्दुल करीम जैसे समर्थ और तेजस्वी कवि हो चुके हैं। हमारी जो अन्य संविधान स्वीकृत भाषाएँ हैं, उनकी भी सांस्कृतिक महिमा अपरंपार है।
किन्तु एक राष्ट्र को सही संज्ञा प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि भारत की इन संविधान स्वीकृत भाषाओं में कोई एक भाषा ऐसी हो, जिससे संपर्क भाषा और राष्ट्रभाषा का काम लिया जा सके। इसी दृष्टि से संविधान स्वीकृत भाषाओं के बीच हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात आती है। सच पूछा जाए तो हिन्दी भाषा की सामर्थ्य और हिन्दी भाषियों की संख्या दोनों ही हिन्दी को केवल भारत की संपर्क भाषा या राष्ट्रभाषा नहीं, बल्कि राष्ट्रसंघ की भाषा बनाने के योग्य है। किन्तु बात उलझ जाती है, इसीलिए कि राष्ट्रभाषा या संपर्क भाषा के रूप में हिन्दी को अपनाने के प्रश्न पर हिन्दीतर भाषाभाषी भारतीय कुछ दूसरी ही दृष्टि से सोचने लग जाते हैं। उन्हें इसमें अपनी भाषा और संविधान स्वीकृत हिन्दीतर अन्य भाषाओं के महत्त्व का न्यूनीकरण या अपहरण दीख पड़ता है। भाषा संबंधी दृष्टिकोण में स्पष्टता और सुलझाव नहीं रहने के कारण भावुकता से भरी ऐसी आपत्तियों का उठना स्वाभाविक है। वे यह भूल जाते हैं कि भाषा के तीन मुख्य स्वरूप हैं- प्रयोजनपरक, सांस्कृतिक और ज्ञानात्मक। संपर्क भाषा या राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को स्वीकार करने का आशय अंग्रेज़ी का विरोध नहीं है। अंग्रेज़ी ज्ञान की भाषा के रूप में हमारे देश में चल सकती है और ज्ञान की भाषा के रूप में अंग्रेज़ी को स्वीकार कर हम अपने देश की मनीषा को वैश्व मनीषा के अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सुगमतापूर्वक अद्यतन बनाए रख सकते हैं। दूसरी ओर संस्कृति की भाषा के रूप में हमारे संविधान में स्वीकृत सभी भारतीय भाषाएँ समान महत्त्व रखती हैं। सांस्कृतिक संवहन, सृजनात्मक अभिव्यक्ति और रिक्थक्रम से आ रहे पारंपरिक प्रदेयों के परिरक्षण की दृष्टि से संविधान स्वीकृत सभी भारतीय भाषाएँ महत्त्वपूर्ण हैं और उन्हें निरंतर विकसित करते रहने की नितांत आवश्यकता है, ताकि वे हमारी संस्कृति की समर्थ सार्थवाह बनी रह सकें। प्रश्न है केवल प्रयोजनमूलकता का और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारतीयता की पहचान के लिए अपनी एक समर्थ भाषा के माध्यम से भारत के प्रतिनिधित्व का। जैसा कहा जा चुका है, सांस्कृतिक महिमा और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की दृष्टि से हमारी सभी भाषाएँ समान हैं। किन्तु राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय और राजकीय प्रयोजन के लिए हमें इन भाषाओं के बीच अनेक विदित कारणों से हिन्दी को अपने देश की प्रयोजनमूलक भाषा के रूप में स्वीकार करना है। प्रयोजनमूलक भाषा के रूप में हिन्दी की स्वीकृति को अन्य भारतीय भाषाओं के सांस्कृतिक महत्त्व के न्यूनीकरण के अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिए। संविधान स्वीकृत सभी भाषाएँ हमारे लिए संस्कृति की भाषाएँ हैं और हिन्दी भाषा संस्कृति की भाषा होने के साथ ही हमारे लिए प्रयोजन की भाषा भी है।
अब यदि स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्षों के बाद भी हम अंग्रेज़ी को ढोने के व्यामोह में पड़े रहेंगे तो यह अंग्रेज़ों के भाषायी उपनिवेशवाद को स्वीकार करने जैसा होगा। अभी विश्व में अनेक ऐसे देश हैं, जिन्होंने राजनीतिक स्वतंत्रता तो प्राप्त कर ली है, किंतु उनकी भाषिक परतंत्रता अद्यपर्यंत बनी हुई है और वे मुख्यत: अंग्रेज़ों के भाषायी उपनिवेशवाद की बेड़ियों से मुक्त नहीं हो सके हैं। उदाहरणार्थ, इन दिनों हम जिसे 'तीसरी दुनिया' कहते हैं, उसके अनेक देश अपनी प्रतीयमान राजनीतिक स्वतंत्रता के बावजूद राष्ट्रभाषा के संदर्भ में भाषायी परतंत्रता या अंग्रेज़ी भाषा के साम्राज्यवाद या कह लीजिए, बौद्धिक उपनिवेशवाद के शिकार आज तक बने हुए हैं। अफ्रीकी देशों में घाना, नाइजेरिया, केनिया, युगांडा, तंजानिया और जाम्बिया इसके उदाहरण माने जा सकते हैं। इन देशों में जहाँ अनेक प्रकार की भाषाएँ और बोलियाँ प्रचलित हैं, अंग्रेज़ी को प्रशासन तथा उच्च शिक्षा के माध्यम एवं संपर्क भाषा के रूप में स्वीकार किया गया है। इसी तरह की बात कुछ दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में भी हुई है, जिनमें बर्मा, इंडोनेशिया, थाइलैंड और साउथ वियतनाम के नाम लिये जा सकते हैं। इन देशों में छात्रों को विश्वविद्यालय में प्रवेश के पूर्व कई वर्षों तक अंग्रेज़ी की शिक्षा दी जाती है। जैसे, विश्वविद्यालय में प्रवेश के पूर्व बर्मा में पाँच वर्षों तक, इंडोनेशिया में छह वर्षों तक, थाइलैंड में आठ वर्षों तक और दक्षिण वियतनाम में सात वर्षों तक अंग्रेज़ी की शिक्षा दी जाती है। किन्तु पूर्वोक्त अफ्रीकी देशों की तुलना में इन दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की यह विशेषता है कि अंग्रेज़ी को प्रमुखता देने के बाद भी इन देशों ने अपनी प्रमुख भाषा को ही राष्ट्रभाषा या राजकाज की भाषा के रूप में स्वीकार किया है। जैसे बर्मा ने 'बर्मीज' को, इंडोनेशिया ने 'भासा-इंडोनेशिया' को, लाओस ने 'लाओ' को, मलेशिया ने 'मलेय' को, फ़िलीपाइंस ने 'तगालोग' को, वियतनाम ने 'वियतानामोज' को और थाइलैंड ने 'थाई' को अपनी राष्ट्रभाषा या राजकाज की प्रयोजनमूलक भाषा के रूप में स्वीकार किया है।
इसमें कोई दो मत नहीं कि हिन्दी भारतवर्ष के सर्वाधिक विस्तृत क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा है। देश के संपूर्ण क्षेत्रफल के साठ प्रतिशत भू-भाग में हिन्दी बोली जाती है और इस देश की कुल आबादी के 40 प्रतिशत देशवासी हिन्दी बोलते हैं। इन आंकड़ों से इस देश की भाषाओं के बीच हिन्दी की प्रमुखता स्वत: स्पष्ट है। किंतु इस सामर्थ्य के बावजूद स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने दशकों के बाद भी हिन्दी देश में अथवा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना स्थान नहीं प्राप्त कर सकी है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तो हिन्दी दिनानुदिन पीछे ही पड़ती जा रही है। पहले राष्ट्रसंघ में पांच भाषाएँ स्वीकृत थीं- अंग्रेज़ी, फ़्रेंच, स्पेनिश, रूसी और चीनी। इधर अरबी को भी राष्ट्रसंघ के कार्यकलाप की भाषा के रूप में स्वीकार कर लिया गया है और अब राष्ट्रसंघ की सातवीं भाषा के रूप में स्वीकृति पाने के लिए जर्मन की बारी आ चुकी है। इसके लिए बॉन, वियेना और पूर्वी बर्लिन की सरकारें प्रभावपूर्ण ढंग से सम्मिलित प्रयास कर रही हैं। किन्तु अब तक राष्ट्रसंघ की आठवीं कार्यालयी भाषा के रूप में या राष्ट्रसंघ के कार्यकलाप की भाषा के रूप में हिन्दी के स्वीकृत होने की कोई संभावना नहीं दीख रही है। जबकि भाषा-भाषियों की संख्या की दृष्टि से विश्व की भाषाओं के बीच हिन्दी का तीसरा स्थान है और राष्ट्रसंघ के देशों (कामन वेल्थ कंट्रीज) की भाषाओं के बीच हिन्दी का पहला स्थान है। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार चीनी भाषियों की संख्या आठ सौ दस लक्ष, अंग्रेज़ी भाषियों की संख्या तीन सौ तीस दस लक्ष, हिन्दी भाषियों की संख्या दो सौ पचास दस लक्ष, रूसी भाषियों की संख्या दो सौ चालीस दस लक्ष, स्पेनी भाषियों की संख्या दो सौ बीस दस लक्ष, इंडोनिशियन भाषियों की संख्या एक सौ तीस दस लक्ष तथा जर्मन, अरबी और पुर्तग़ाली बोलने वालों की संख्या एक-एक सौ दस लक्ष है। इस आंकड़े से स्पष्ट है कि बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से विश्व की भाषाओं के बीच हिन्दी भाषा का तीसरा स्थान है और राष्ट्रसंघ के देशों की भाषाओं के बीच इसका पहला स्थान है। किंतु राष्ट्रसंघ की भाषाओं में अब तक इसके आठवें स्थान की भी कोई संभावना नहीं बनी है। अत: यह एक चिंता का विषय है कि प्रभूत संख्या बल रहने के बावजूद हिन्दी भाषा को अपने देश में और विश्व मंच पर अब तक उचित स्थान नहीं मिल सका है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, क्षेत्रफल या भौगोलिक प्रसार की दृष्टि में भी हिन्दी भाषा कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। मारिशस, त्रिनिदाद, सूरीनाम, फ़िजी, थाईलैंड, बर्मा, स्याम, इंडोनेशिया, नेपाल, दक्षिण अफ्रीका आदि में हिन्दी बोली और समझी जाती है। अभी दुनिया के लगभग 38 देशों में हिन्दी की अच्छी पहुँच है और विदेश के लगभग 94 विश्वविद्यालयों में हिन्दी की पढ़ाई होती है। यहाँ यह कहना आवश्यक प्रतीत होता है कि अब भाषा की प्रतिष्ठा केवल उसके रचनात्मक साहित्य और उसके सांस्कृतिक महत्त्व पर निर्भर नहीं करती। अब वह भाषा अधिक आगे बढ़ सकती है, जिसके पीछे अत्याधुनिक तकनीकी उपकरणों का बल हो और जिसकी पहुँच वर्तमान सभ्यता के विभिन्न साहित्येतर क्षेत्रों में भी हो। राष्ट्रसंघ की भाषा बनने के लिए भी हिन्दी को आधुनिक तकनीकी उपकरणों की आवश्यकता होगी। दूसरी बात यह है कि अपने देश पूरे भारत की भाषा बनने के लिए एक प्रयोजनमूलक भाषा के रूप में हिन्दी को समग्र भारतवर्ष के अर्थतंत्र, वाणिज्य, व्यवसाय, मौद्रिक प्रचलन, लेन-देन, अधिकोषण आदि के विभिन्न प्रभागों के दैनंदिन कार्यों, लेखा संधारणों एवं अन्य अनेक प्रयोजनों से घनिष्ठ रूप में जुड़ना होगा। किसी भाषा का सांस्कृतिक या ज्ञानात्मक रूप, जिसके द्वारा वह अपने देश को संस्कृति का अग्रचारी नेतृत्व करता है। यह विश्व के पैमाने पर समान संस्कृति परंपराओं के परिरक्षण-संवर्धन में समभागी बनता है, भले ही पुस्तकालयों, संग्रहालयों, मठों, मंदिरों, खान-काहों, मातृका सदनों या स्कूल-कॉलिजों के पाठ्यक्रमों तक सीमित रह कर भी अपना विकास कर सकता हो, किंतु किसी भाषा का व्यावहारिक प्रयोजनमूलक रूप, जिसकी एक विशिष्ट परिणति राजकाज की भाषा या राष्ट्रभाषा के रूप में होती है, अपने देश के अर्थतंत्र तथा वाणिज्य व्यापार के संस्थानों में अंत: प्रवेश पाए बिना विकसित और बलिष्ठ नहीं हो सकता। अत: भारत के वर्तमान भाषा संदर्भ को दृष्टिगत रखते हुए भारतीयों बैंकों में हिन्दी के माध्यम से कार्य करने की विधि को अपनाना आवश्यक है। इसके लिए बैंकों के कार्य क्षेत्र को दृष्टिगत रखते हुए हमें हिन्दी भाषा का प्रयोग और विकास एक विशेष 'रजिस्टर' या प्रयुक्ति के रूप में करना होगा। आज के प्रगतिशील युग के अनुसार भारतीय संविधान के आधारभूत आमुख के अनुसार और हमारे लोकतांत्रिक दृष्टिकोण के अनुरूप अब बैंकों के कार्य क्षेत्र, कार्य की प्रकृति और उद्देश्य में भी बदलाव आया है। अब बैंक केवल संचित राशि जमा करने, ऋण देने और लाभांश कमाने वाली संस्था भर नहीं है, बल्कि वह हमारे देश की सामाजिक तथा आर्थिक विकास योजनाओं को कार्यान्वित करने का तथा आम जनता को आर्थिक न्याय पाने के योग्य बनाने का एक सशक्त माध्यम भी बन गया है। अपनी इस नई भूमिको पूरी सामर्थ्य के साथ अदा करने के लिए बैंकों को देश की आम जनता के साथ जुड़ना होगा और समाज के कमज़ोर या पिछड़े हुए नागरिकों तक भी पूरी तत्परता के साथ जाना होगा। यह एक सर्ववादिसम्मत मान्यता है कि जनता तक पहुँचने के लिए जनता की भाषा ही सर्वोत्तम माध्यम सिद्ध हुआ करती है। चूंकि अनेक सीमाओं और बहसतलब मुद्दों के बावजूद हिन्दी ही घुमा-फिरा कर इस देश की जनता की भाषा है या मानी जा सकती है, इसलिए हिन्दी में बैंकों का काराबार होना और बैंक के अधिकारियों ँर कर्मचारियों का हिन्दी में यानी जनता की भाषा में प्रशिक्षित होना नितांत आवश्यक है। यह प्रसन्नता की बात है कि हमारे देश के कई प्रमुख बैंकों ने यूनाइटेड कमर्शियल बैंक, इंडियन ओवरसीज बैंक, बैंक आफ़ बड़ौदा, स्टेट बैंक आफ़ हैदराबाद इत्यादि उल्लेखनीय हैं, अपने अधिकारियों और कर्मचारियों को हिन्दी में प्रशिक्षित करने की दिशा में विशेष प्रयत्न प्रारंभ किए हैं। प्राप्त सूचनानुसार रिजर्व बैंक और नेशनल इंस्टीट्यूट आफ़ बैंक मैनेजमेंट ने भी इस दिशा में कुछ अंग्रेसर कार्य करने का निश्चय किया है।
उपरिनिवेदित किंचित विषयांतर के द्वारा मैंने यह रेखाकिंत करना चाहा है कि यदि हिन्दी को इस देश की राष्ट्रभाषा, संपर्क भाषा या प्रयोजनमूलक भाषा के रूप में स्थापित होना है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रसंघ की भाषा के रूप में स्वीकृत होना है तो इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु केवल सांस्कृतिक अभिव्यक्ति से संपन्न रचनात्मक साहित्य का होना हिन्दी के लिए पर्याप्त नहीं होगा। तुलसी, सूर और कबीर हिन्दी की रचनात्मक, साहित्यिक और सांस्कृतिक समृद्धि के कालजयी प्रतीक है। किंतु समकालीन नए भाषा संदर्भ में केवल उन्हीं गौरव शिखरों से हिन्दी भाषा का काम नहीं चल सकता। अब किसी भाषा को एक समर्थ भाषा बनने के लिए उसे यातायात, राजनय, सैनिक शिविर और लश्कर, प्रायोगिक प्रौद्योगिकी, औद्योगिकी आदि के क्षेत्रों में प्रवेश पाना होगा। अभी-अभी अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अंग्रेज़ी के महत्त्व और अंग्रेज़ी के विश्वव्यापी प्रसार से आतंकित तथा पराभूत होकर फ़्रेंच भाषा ने अपने को पिछले कई दशकों से उपेक्षित सा महसूस किया, जिसके फलस्वरूप फ़्रेंच भाषा के महत्त्व के घटने और अंग्रेज़ी भाषा के महत्त्व के बढ़ने के कारणों का आकलन तथा विश्लेषण करने के लिए फ़्रेंच सरकार ने 'फ़्रेंच लेंग्वेज हाई कमेटी' के नाम से एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया था। उस उच्च स्तरीय समिति के प्रतिवेदन से यह स्पष्ट पता चलता है कि 1914 ई. तक यूरोपीय भाषाओं के बीच फ़्रेंच भाषा का निर्विवाद सर्वोत्तम स्थान रहा। किंतु, उसके बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेज़ी भाषा फ़्रेंच भाषा को निरंतर पीछे छोड़ती गई। अंग्रेज़ी भाषा की इस निरंतर प्रगति और अक्त महत्त्व का प्रमुख कारण यह हुआ कि 19वीं शताब्दी के प्रारंभ से ही अंग्रेज़ी भाषा विश्व में अंग्रेज़ी की औद्योगिक, व्यापारिक एवं सामूहिक सर्वोपरिता का सहारा लेकर निरंतर प्रमुखता और प्रसार पाती गयी तथा ब्रिटिश साम्राज्य के देशांतर विस्तार की वजह से अपने प्रचार प्रसार के लिए भी सह-विस्तार पाती गयी। इसका फल यह हुआ कि अंग्रेज़ी भाषा इन औद्योगिक, सामुद्रिक और राजकीय सुविधाओं को पाकर लगभग संपूर्ण विश्व के व्यापार और सामुद्रिक यातायात की भाषा बन गई। इसके बाद जब संयुक्त राज्य अमेरिका का अभ्युदय एक शक्तिशाली देश के रूप में हुआ, तब उसने लगभग सन 1945 के बाद अंग्रेज़ी को राजनयिक संबंधों, उच्चतर प्रौद्यागिकी के क्षेत्रों और जन सम्प्रेषण के प्राविधिक माध्यमों की विशिष्ट भाषा के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। कहने का आशय यह कि अंग्रेज़ी की वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा केवल शेक्सपीयर, मिल्टन, बर्नार्ड शॉ, टी. एस. इलियट आदि सर्जनात्मक लेखकों के कारण ही नहीं है, बल्कि उसके अन्य अनेक कारण भी हैं, जिनका संक्षिप्त निर्देश ऊपर की पंक्तियों में किया जा चुका है। अत: स्पष्ट है कि वर्तमान भाषा-संदर्भ मे हिन्दी को भी उच्चतर प्रौद्योगिकी राजनयिक संबंध, वाणिज्य-व्यापार, सामुद्रिक यातायात एवं आधुनिक मानव-जीवन के अन्य अनेक प्रभागों में एक प्रयोजकपरक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की कितनी आवश्यकता है।
प्रत्येक राष्ट्र को अपनी पहचान के लिए और अंतर्राष्ट्रीय मंडली में अपने स्वतंत्र भाषिक अभिज्ञान के लिए तथा एक मौलिक राष्ट्र के रूप में अपनी अस्मिता को अभिव्यक्ति के लिए एक राष्ट्रभाषा की आवश्कता पड़ती ही है। इसी दृष्टि से हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाने और हिन्दी के माध्यमसे अंतर्राष्ट्रीय मंडली में भारत को अपनी पहचान बनाने के लिए यह आवश्यक है कि हम हिन्दी को उसके संपूर्ण प्रदेश के साथ स्वीकार करें और उसकी संभावनाओं का निरंतर विकास करें। अनिवार्य रूप में कई भाषाओं को सीखने के लिए राष्ट्र के नागरिकों की शक्ति का अपव्यय करना उचित नहीं मालूम पड़ता है। भाषा के प्रसंग में व्यक्ति की शक्ति का अपव्यय करना उचित नहीं मालूम पड़ता है। भाषा के प्रसंग में व्यक्ति की शक्ति या ऊर्जा की मितव्ययिता पर स्रष्टा ने भी ध्यान रखा है। 'फायलो जेनेटिक्स' के अनुसार भाषा के लिए- बोलने के लिए स्रष्टा ने मनुष्य को अलग से कोई विशिष्ट इंद्रिय नहीं दी है। 'फायलो जेनेटिक्स' का कहना है कि मनुष्य की पंचेद्रियों के बीच श्रवणेंद्रिय सबसे बाद में जुड़ी इंद्रिय है। इसी श्रवणेंद्रिय से भाषा या बोली को सुनने का काम लिया जाता है और भोजन करने तथा श्वास लेने के लिए जो पूर्व निर्मित अवयव रहे हैं, उन्हीं के वर्त्स (ट्रेक्ट) से भाषा या बोली का काम लिया जाता है। जब स्रष्टा ने, वकील 'फायलो जेनेटिक्स', भाषा क संदर्भ में इंद्रिय-संरचना की दृष्टि से इतनी मितव्ययिता के साथ काम लिया है, तब हमें भी अपनी भाषा समस्या के समाधान के क्रम में देश के नागरिकों की शक्ति की मितव्ययिता पर अपेक्षित ध्यान रखना चाहिए। भारत की संविधान स्वीकृत भाषाओं के परिकर में हिन्दी की प्रस्थिति को अस्पष्ट रखते हुए कई भाषाओं से काम लेने के फ़ार्मूले को स्वीकार करने पर इस देश के नागरिकों की शक्ति का शायद अपव्यय ही होगा।
जिस देश में 367 मातृ भाषाएँ हैं और जिस देश में लगभग 58 भाषाएँ विद्यालय स्तर पर शिक्षा के माध्यम की भाषा के रूप में स्वीकृत हैं, उस देश को एक बलबली राष्ट्रभाषा की प्राप्ति के लिए तथा उस राष्ट्रभाषा के माध्यम से विश्व की मंडली में अपनी अलग पहचान बनाने के लिए कई प्रकार की संकीर्णताओं, आंचलिक पूर्वाग्रहों तथा भावुकता के उदेकों से ऊपर उठना होगा। इतना ही नहीं, उस देश के लिए यह भी आवश्यक है कि वह राष्ट्र की एकता को सर्वोपरि महत्त्व देते हुए अपनी भाषा समस्या के समाधान हेतु अपने राष्ट्रीय विवेक को सदैव जाग्रत रखे, राष्ट्रभाषा के चयन संदर्भ में किसी प्रकार के तदर्थ चिंतन को या तदर्थ व्यवस्था को अधिक दिनों तक नहीं ढोये तथा एक राष्ट्र के रूप में अपने संवैधानिक संकल्प और कर्म की एकरूपता के द्वारा अनेक विकल्पों वाली अनिश्चितता या दिशाहीनता अथवा सांस्कृतिक अनिर्णय वाली दशा को शीघ्र समाप्त करें।

 



टीका टिप्पणी और संदर्भ

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