गर्म हवा के झोंके उदंडता पर उतारू होकर खिड़की किवाड़ पीट रहे थे ! पिघलती धूप में प्यासे कौवे की काँव-काँव में घिघिआहट भरा विलाप शामिल था। मैं घर के काम-धाम से निबटकर हवा की झाँय-झाँय, सांय- सांय को अन्दर तक महसूसती अपने कमरे में लेटने की सोच ही रही थी कि गेट खुलने की आवाज़ आई।
उफ़ ! कौन होगा अभी ... सोच ही रही थी कि एक परिचित हांक कानों में आई- मूढ़ी है। आवाज़ ऐसी जैसे कह रही हो - आपको इंतज़ार था, लीजिये हम आ गए।
कुफ्त होकर मैं स्वयं में बड़बड़ाई - यह मूढीवाला भी... समय-असमय कुछ नहीं देखता! साधिकार ऊँची आवाज़ में हांक लगा रहा है- मैं जगी हूँ या सोयी, इससे बेखबर !.....
उसे विश्वास है, मैं मूढ़ी लेने निकलूंगी। बडबडाते हुए स्टोर रूम से मूढ़ी का डब्बा निकालकर मैंने बाहर का दरवाज़ा खोला ! दरवाज़ा खुलते ही लू के ज़ोरदार थपेड़े झुलसा गए।
पर मूढ़ीवाला वातावरण से बेखबर बरामदे में मूढ़ी वाली पोटली और छिटपुट समान रखकर इत्मीनान से बैठ चुका था ! पोटली खोलने के क्रम में उत्साहित होकर बोला -' बहुत कुरकुरी मूढ़ी लाया हूँ और आपकी मनपसंद चीज इमली भी है'।
मैंने सामने की ओर दृष्टि उठाई, कोलतार की सड़क जेठ की भरी दुपहरी में लावे की तरह पिघल रही थी! पसीने से लथपथ मैंने मूढीवाले को देखा और पूछ बैठी 'जूते हैं ना ? '
मूढ़ीवाला सहज भाव से बोला 'जूते पहने हुए ही आया हूँ मालकिन, अभी बरामदे में आते समय नीचे निकल कर रख दिया है'। मेरा ध्यान जूतों की ओर गया - रबर के काले जूते धूप में तपकर जलते होंगे ... ! इस सोच को झटककर मैंने मूढ़ीवाले से पूछा - ' मूढ़ी घर में बनाते हो या ख़रीद कर लाते हो ?'
'मूढ़ी मेरे घर में मेरी माँ बनाती है मालकिन। मेहनत-मजूरी में जो धान मिलते हैं, उसी से बनाती है ! काफ़ी मेहनत का काम है मूढ़ी बनाना, पर परिवार को चलाने के लिए देह तो चलाना ही पड़ता है !'
'तुम्हारी पत्नी क्यूँ नहीं बनाती ?'
'कभी वही बनाती थी- थी बड़ी फुर्तीली, पर बीमार क्या पड़ी अच्छी होने का नाम ही नहीं लिया ! मेरे पास जो थोड़ा बहुत खेत बधार था उसे बंधक रखकर रांची के बड़े अस्पताल में ले गया ! सोचा था बच जाएगी तो दिन लौट आयेंगे, पर मेरी सारी दौड़-धूप पर पानी फिर गया। वह दगा देकर चली गई ! अब घर में मैं, बूढ़ी माँ और तीन बच्चे हैं, बड़ा वाला 8-9 का होगा। घरेलू कामधाम में दादी की मदद करता है। '
मेरा मन कैसा तो होने लगा, यूँ ही बोल उठी - 'बच्चों को पढ़ाना मूढीवाले - बड़े वाले को स्कूल भेजो, गाँव में स्कूल तो होगा ही।
'स्कूल तो है , पर कॉपी किताब पेंसिल...! पहनने को साफ़ सुथरे कपड़े .. पार नहीं लगता'
मैंने सूखे गले से सहानुभूति दिखाई, जो बेकार थी। कहना चाहा- 'किताबें कापियां और ...' भीतर का मन बोला- हुंह कब तक !
मूढ़ीवाले ने अपना समान उठाया - 'अब चलता हूँ, देर हो रही है' और सर पर मूढ़ी की बोरी रखे आगे बढ़ गया।
मैं उसे जाते देखती रही। गेट बन्द करके आगे बढ़ते ही उसने पूर्ववत सहजता से हांक लगे- 'मूढ़ी है' और तेज तेज क़दमों से चलते हुए आँखों से ओझल हो गया।
दो रुपये की मूढ़ी और दो रुपये की इमली के साथ मूढ़ीवाले की कहानी लिए मैं अन्दर आ गई और देर तक सोचती रही .... कितने दृश्य बने, मिटे, धुंधलाये और अंत में मुझे बच्चन जी की ये
पंक्तियाँ याद आईं-
"दिन जल्दी-जल्दी ढलता है
बच्चे प्रत्याशा में होंगे
नीड़ों से झांक रहे होंगे
ये ध्यान परों में चिड़ियों के
भरता कितनी विह्वलता है..."
बरसों बीत गए, आज तक मूढ़ीवाला मेरी यादों में है।