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कमरे की लॉरी -अनूप सेठी
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कवि
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अनूप सेठी
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मूल शीर्षक
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जगत में मेला
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प्रकाशक
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आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, एस. सी. एफ. 267, सेक्टर 16, पंचकूला - 134113 (हरियाणा)
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प्रकाशन तिथि
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2002
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देश
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भारत
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पृष्ठ:
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131
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भाषा
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हिन्दी
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विषय
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कविता
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प्रकार
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काव्य संग्रह
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खोल किबाड़ चौड़ चपाट
चिढ़ाएगा कमरा
आओ बरखुरदार कौन सी फ़तह करके आ रहे हो
मार लिए क्या तीर दो चार
जो बदहाली का आलम ले लौटे हो
यार जलाओ बत्ती मजनू
खोलो खिड़की रोशनदान
माना खप के आए हो
मैं भी दिन भर घुटा घुटा सा
पिचा हुआ
अंबर का टुकड़ा ढूँढ रहा हूँ
तुम ऐसे तीसे की उमरों में
पस्त हुए सोफे पर ढह जाओगे
मेरी दीवारों को शैल्फों को
बस सूना ही सूना रखोगे
साल में एक कैलेंडर से क्या होता है
जब पँहुचोगे साठे में तो
क्या होगा पास तुम्हारे
बीसे की तीसे की है कोई गाँठ बटोरी
आँच से बलगम की साँस चलाकर
तीरों के तुक्कों के क्या गूदड़ खोलोगे
मेरी भी दीवारों के बूरे में रँग ढिसल रहे हैं
तब मेरे अकड़ रहे कब्जों में
घिसी हुई सी ठुमरी बोलेगी
भग आए थे पिता तुम्हारे
गोरी फ़ौजों को छोड़
एक ढलान में घेरा पानी
ओडी में भरते नित दाना
मेरे रोम रोम में
मक्की की गेंहूँ की गँध बसी है
तेल की घानी में चिकनाई है कब्जे की ठुमरी
सोफे पर ढहे हुए मेरे वीर सूरमा
कहां गया वो सँकल्प तुम्हारा
आटे की पर्तों को झाड़ोगे
इतिहास रचोगे नया सयाना
दीवारों पर टाँगोगे नई रवायत
उठो उठो मेरे थके सिपाही
ख़ाली दीवारें सूनी आँखें तकती हैं
यह मत मानो
कभी नूतनता की फ़ौजे थकती हैं
चौड़ चपाट है खुला कपाट।
(1986)
1. घराट में लगी अनाज डालने की टोकरी
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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