महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 52 श्लोक 42-52

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द्विपञ्चाशत्तम (52) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: द्विपञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 42-52 का हिन्दी अनुवाद

राजन्! परम प्रतापी वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण को यहाँ रहते बहुत दिन हो गया। अब से आपकी आज्ञा लेकर अपने पिताजी का दर्शन करना चाहते हैं। यिद आप स्वीकार करें और हर्षपूर्वक आज्ञा दे दें तभी ये वीरवर श्रीकृष्ण आनर्तनगरी द्वारका को जाएँगे। अत: आप इन्हें जाने की आज्ञा दे दें। युधिष्ठर ने कहा- कमलनयन मधुसूदन! आपका कल्याण हो। प्रभो! आप शूरनन्दन वसुदेवजी का दर्शन करने के लिये आज ही द्वारका को प्रस्थान कीजिये। महाबाहु केशव! मुझे आपका जाना इसलिए ठीक लगता है कि आपने मेरे मामाजी और मामी देवकी देवी को बहुत दिनों से नहीं देखा है। मानद! महाप्राज्ञ! आप मामाजी तथा भैया बलदेवजी के पास जाकर उनसे मिलिये और मेरी ओर से उनका यथायोग्य सत्कार कीजिये। भक्तों को मान देने वाले श्रीकृष्ण! द्वारका में पहुँचकर आप मुझको, बलवानों में श्रेष्ठ भीमसेन को, अर्जुन, सहदेव और नकुल को भी सदा याद रखियेगा। महाबाहु निष्पाप श्रीकृष्ण! आनर्त देश की प्रजा, अपने माता-पिता तथा वृष्णिवंशी बन्धु-बान्धवों से मिलकर पुन: मेरे अश्वमेध यज्ञ में पधारियेगा। यदुनन्दन केशव ! ये तरह-तरह के रत्न और धन प्रस्तुत हैं। इन्हें तथा दूसरी-दूसरी वस्तुएँ जो आपको पसंद हों लेकर यात्रा कीजिये। वीरवर! आपके प्रसाद से ही सम्पूर्ण भूमण्डल का राज्य हमारे हाथ में आया है और हमारे शत्रु भी मारे गये। कुरुनन्दन धर्मराज युधिष्ठर जब इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय पुरुषोत्तम वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे यह बात कही- ‘महाबाहो! ये रत्न, धन और समूची पृथ्वी अब केवल आपकी ही है। इतना ही नहीं, मेरे घर में भी जो कुछ धन-वैभव है, उसको भी आप अपना ही समझिये। नरेश्वर! आप ही सदा उसके स्वामी हैं। उनके ऐसा कहने पर धर्मपुत्र युधिष्ठर ने जो आज्ञा कहकर उनके वचनों का आदर किया। उनसे सम्मानित हो पराक्रमी श्रीकृष्ण ने अपनी बुआ कुन्ती के पास जाकर बातचीत की और उनसे यथोचित सत्कार पाकर उनकी प्रदक्षिणा की। कुन्ती से भलीभाँति अभिनन्दित हो विदुर आदि सब लोगों से सत्कारपूर्वक विदा ले चार भुजाधारी भगवान श्रीकृष्ण अपने दिव्य रथ द्वारा हस्तिनापुर से बाहर निकले। बुआ कुन्ती तथा राजा युधिष्ठर की आज्ञा से भाविनी सुभद्रा को भी रथ पर बिठाकर महाबाहु जनार्दन पुरवासियों से घिरे हुए नगर से बाहर निकले। उस समय उन माधव के पीदे कपिध्वज अर्जुन, सात्यकि, नकुल-सहदेव, अगाधबुद्धि विदुर और गजराज के समान पराक्रमी स्वयं भीमसेन भी कुछ दूर तक पहुँचाने के लिये गये। तदन्तर पराक्रमी श्रीकृष्ण ने कौरवराज्य की वृद्धि करने वाले उन समस्त पाण्डवों तथा विदुरजी को लौटाकर दारुक तथा सात्यकि से कहा- ‘अब घोड़ों को जोर से हाँको’। तत्पश्चात् शिनिवीर सात्यकि को साथ लिये शत्रुदलमर्दन प्रतापी श्रीकृष्ण आनर्तपुरी द्वारका की ओर उसी प्रकार चल दिये, जैसे प्रतापी इन्द्र अपने शत्रुसमुदाय का संहार करके स्वर्ग में जा रहे हों।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में श्रीकृष्ण का द्वारका को प्रस्थान विषयक बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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