एक्स्प्रेशन त्रुटि: अनपेक्षित उद्गार चिन्ह "२"।

महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 24 श्लोक 1-17

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें

चतुर्विंश (24) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: चतुर्विंश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय ! श्रीकृष्ण द्वैपायन महर्षि व्यास जी ने अजात शत्रु कुन्ती कुमार युधिष्ठिर से पुनः इस प्रकार कहा -। ’तात! महाराज युधिष्ठिर ! वन में रहते समय तुम्हारे मनस्वी भाइयों के मन में जो-जो मनोरथ उत्पन्न हुए थे, भरत श्रेष्ठ ! उन्हें ये महारथी वीर प्राप्त करें। ’कुन्ती नन्दन ! तुम नहुष पुत्र ययाति के समान इस पृथ्वी का पालन करो। तुम्हारे इन तपस्वी भाइयों ने बनवास के समय बड़े दुःख उठाये हैं। नरव्याघ्र! अब ये उस दुःख के बाद सुख का अनुभव करें। ’भरत नन्दन! प्रजानाथ ! इस समय भाइयों के साथ तुम धर्म, अर्थ और काम का उपभोग करो। पीछे बन में चले जाना। ’भरत नन्दन ! कुन्ती कुमार ! पहले याचकां, पितरों और देवताओं के ऋण से उऋण हो लो, फिर वह सब करना। ’कुरुनन्दन! महाराज! पहले सर्वमेघ और अश्वमेघ यज्ञों का अनुष्ठान करो। उससे परम गति को प्राप्त करोगे। पाण्डु पुत्र ! अपने समस्त भाइयों को बहुत- सी दक्षिणा वाले यज्ञों मे लगाकर तुम अनुपम कीर्ति प्राप्त कर लोगे। ’कुरुश्रेष्ठ ! पुरुष सिंह नरेश्वर ! मैं तो तुम्हारी बात समझता हूँ। अब तुम मेरा यह वचन सुनो, जिसके अनुसार कार्य करने पर धर्म से च्युत नहीं हो ओगे। ’राजा युधिष्ठिर! विषम भाव से रहित धर्म में कुशल पुरुष विजय पाने की इच्छा वाले राजा के लिये संग्राम की स्थापना करते हैं।’भरत नन्दन ! प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति ऐतिह्य, संशय, निर्णय, आकृति, संकेत,गति, चेष्टा, प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन- इन सबका प्रयोजन है प्रमेय की सिद्धि। बहुत से वर्गों की प्रसिद्धि के लिये इन सबको साधन बताया गया है। इनमें से प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो सभी के लिये निर्णय के आधार माने गये हैं। प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों को जानने वाला पुरुष दण्डनीति में कुशल हो सकता है। जो प्रमाण शून्य हैं, उनके द्वारा प्रयोग में लाया हुआ दण्ड राजा का विनाश कर सकता है। ’देश और काल की प्रतीक्षा करने वाला जो राजा शास्त्रीय बुद्धि का आश्रय ले लुटेरों के अपराध को धैर्यपूर्वक सहन करता है अर्थात् उनको दण्ड देने में जल्दी नहीं करता, समय की प्रतीक्षा करता है, वह पाप से लिप्त नहीं होता। ’ जो प्रजा की आय का छठा भाग करके रूप में लेकर भी राष्ट्र की रक्षा नहीं करता है, वह राजा उसके चौथाई पाप को मानो ग्रहण कर लेता है। ’मेरी वह बात सुनो, जिसके अुनसार चलने वाला राजा धर्म से नीचे नहीं गिरता। धर्म शास्त्रों की आज्ञा का अल्लंघन करने से राजा का पतन हो जाता है और यदि धर्मशास्त्र का अनुसरण करता है तो वह निर्भय होता है। ’जो काम और क्रोध की अवहेलना करके शास्त्रीय विधि का आश्रय ले सर्वत्र पिता के समान समदृष्टि रखता है, वह कभी पाप से लिप्त नहीं होता। ’महा तेजस्वी युधिष्ठिर! दैव का मारा हुआ राजा कार्य करने के समय जिस कार्य को नहीं सिद्ध कर पाता, उसमें उसका कोई दोष या अपराध नहीं बताया जाता है। ’शत्रुओं को अपने बल और बुद्धि से काबू में कर ही लेना चाहिये। पापियों के साथ कभी मेल नहीं करना चाहिये। ’युधिष्ठिर ! शूरवीरों, श्रेष्ठ पुरुषों तथा विद्वानों का सत्कार करना बहुत आवश्यक है। अधिक से अधिक गौएँ रखने वाले धनी वैश्यों की विशेष रूप से रक्षा करनी चाहिये।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख