महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 89 श्लोक 1-17

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एकोननवतितम (89) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व:एकोननवतितम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


अर्जुन के द्वारा दुर्मर्शण की गजसेना का संहार और समस्त सैनिकों का पलायन अर्जुन बोले- ह्शीकेष। जहां दुर्मश्रण खड़ा है, उसी ओर घोड़ों को बढ़ाइयें मैं उसकी इस गजसेना का भेदन करके शत्रुओं की विशाल वाहिनी में प्रवेश करूंगा। संजय कहते है-राजन्। सव्यसाची अर्जुन के ऐसा कहने पर महाबाहु श्रीकृष्ण ने , जहां दुर्भर्षण खड़ा था, उसी ओर घोडों को हांका। उस समय एक वीर का बहुत-से योद्धाओं के साथ बड़ा भयंकर घमासान युद्ध छिड़ गया, जो रथों, हाथियों और मनुश्यों का संहार करने वाले था। तदनन्तर अर्जुन बाणों की वर्षा करते हुए जल बरसाने-वाले मेघ के समान प्रतीत होने लगे। जैसे मेघ पानी की वर्षा करके पर्वतों को आच्छादित कर देता है, उसी प्रकार अर्जुन ने अपनी बाणवर्षा से शत्रुओं को ढक दिया।उधर उन समस्त कौरव रथियों ने भी सिद्धहस्त पुरुष की भांति शीघ्रतापूर्वक अपने बाणसमूहों द्वारा वहां श्रीकृष्ण और अर्जुन को आच्छादित कर दिया ।उस समय युद्धस्थ में शत्रुओं के द्वारा रोके जाने पर महाबाहु अर्जुन कुपित हो उठे और अपने बाणों द्वारा रथियों -के मस्तकों उनके शरीरों से गिराने लगे। कुण्डल और टोपों सहित उन रथियों के घूमते हूए नेत्रों तथा दांतों द्वारा चबाये जाते हुए होठों वाले सुन्दर मुखों से सारी रणभूमि पट गयी। सग ओर बिखरे हुए योद्धाओं के मुख कटकर गिरे हुए कमल-समूहों के समान सुशोभित होने लगे। सुवर्णमय कवच धारण किये और खून से लथपथ हो एक दूसरे सटे हुए हताहत योद्धाओ के शरीर विद्युत्सहित मेघसमूहों के समान दिखायी देते थे।कोई-कोई कबन्ध बिना सिर का धड़ लेकर खड़ा था और कोई तलवार खींचकर उसे हाथ में उठाये खड़ा हुआ था। संग्राम में विजय की अभिलाषा रखने वाले कितने ही श्रेष्‍ठ पुरुष कुन्तीपुत्र अर्जुन के प्रति अमर्षशील होकर यह भी न जान पाये कि उनके मस्तक कब कटकर गिर गये।घोडों के मस्तकों, हाथियों की सूडोंऔर वीरों की भुजाओं तथा सिरों से सारी रणभूमि आच्छादित हो गयी थी। प्रभो। आपकी सेनाओं के समस्त योद्धओं की द्यश्टि में सब ओर अर्जुनमय-सा हो रहा था। वे बार-बार यह अर्जुन है, कहां अर्जुन है?यह अर्जुन है, इस प्रकार चिल्ला उठते थे। बहुत -से दूसरे सैनिक आपस में ही एक दूसरे पर तथा अपने उपर भी प्रहार कर बैठते थे। वे काल से मोहित होकर सारे संसार को अर्जुनमय ही मानने लगे।बहुत-से वीर रक्त से भीगे शरीर से धराशायी होकर गहरी वेदना के कारण कराहते हुए अपनी चेतना खो बैठते थे और कितने ही योद्धा धरती पर पडे़-पडे़ अपने बन्धु-बान्धवों को पुकार रहे थे।अर्जुन श्रेष्‍ठ बाणों से कटी हुई वीरों की परिघ के समान मोटी और महान् सर्प के समान दिखायी देने वाली मिन्दिपाल,प्रास,शक्ति,ऋष्टि,फरसे,निव्र्यूह, खंड, धनुष तोमर, बाण कवच, आभूषण, गदा और भुजवद आदि से युक्त भुजाएं आवेश में भरकर अपना महान् वेग प्रकट करती, उपर को उछलती , छटपटाती और सब प्रकार की चेष्‍टाएं करती थी।जो जो मनुष्‍य उस समराग्डंण में अर्जुन का सामना करने के लिये चलता था, उस-उस के शरीर पर प्राणान्तकारी बाण आ गिरता था।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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