महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 16 श्लोक 1-19

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें

षोडश (16) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: षोडश अध्याय: श्लोक 23-44 का हिन्दी अनुवाद

अर्जुन का संशप्तकों तथा अश्वत्थामा के साथ अद्भुत युद्ध

धृतराष्ट्र ने कहा-संजय ! संशप्तकों के साथ अर्जुन का जथा अन्य पाण्डवों के साथ दूसरे-दूसरे राजाओं का किस प्रकार युद्ध हुआ,वह मुझे बताओ। सूत ! अश्वत्थामा और अर्जुन का जो युद्ध हुआ था तथा अन्य पाण्डवों के साथ अन्यान्य नरेशों का जैसा संग्राम हुआ था,उसका मुझसे वर्णन करो।

संजय ने कहा-राजन् ! कौरव-वीरों का शत्रुओं के साथ देह,पाप और प्राणों का नाश करने वाला संग्राम हुआ था,यह बता रहा हूँ। आप मुझसे सारी बातें सुनिये। शत्रुनाशक अर्जुन ने समुद्र के समान अपार संशप्तक-सेना में प्रवेश करके उसे उसी प्रकार शुब्ध कर डाला, जैसे प्रचण्ड वायु सागर में ज्वार उठा देती है। धनंजय ने अपने तीखे भल्लों से वीरों के सुन्दर नेत्र,भौंह,और दाँतों से सुशोभित,पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मुखवाले मसतकों को काट-काअ कर तुरंत ही वहाँ की धरती को पाट दिया,मानों वहाँ बिना नाल के कमल बिछा दिये हों। अर्जुन ने समरभूमि में अपने क्षुरों द्वारा शत्रुओं की उन भुजाओं को भी काअ डाला,जो पाँच मुख वाले सर्पों के समान दिखाई देती थी,जो गोल,लंबी,पुष्ट तथा अगुरू एवं चन्दन से चर्चित थीं और जिनमें आयुध एवं दस्ताने भी मौजूद थे। पाण्डुपुत्र धनंजय ने शत्रुओं के रथों में जुते हुए भारवाही घोड़ों,सारथियों,ध्वजों,बाणों और रत्नभूषण भूषित हाथों को बार-बार काट डाला। राजन् ! अर्जुन ने युद्धस्थल में कई हजार बाण मारकर रथों,हाथियों,घोड़ों और उन सबके सवारों को भी यमलोक पहुँचा दिया। उस समय संशप्तक वीर अत्यन्त रोष में भरकर मैथुन की इच्छा वाली गाय के लिए लड़ने वाले मदमत्त साँड़ों के समान गर्जन एवं हुंकार करते हुए कुपित अर्जुन की ओर टूट पड़े और जैसे साँड़ एक दूसरे को सींगों से मारते हैं,उसी प्रकार वे अपने ऊपर प्रहार करते हुए अर्जुन को बाणों द्वारा चोट पहुँचाने लगे। अर्जुन और संशप्तकों का वह घोर युद्ध त्रैलोक्य-विजय के लिए वज्रधारी इन्द्र के साथ घटित हुए दैत्यों के संग्राम के समान रोंगटे खड़े कर देने वाला था। अर्जुन ने सब ओर से शत्रुओं के अस्त्रों का अपने अस्त्रों द्वारा निवारण कर उन्हें तुरंत ही अनेक बाणों से घायल करके उन सबके प्राण हर लिये। अर्जुन ने संशप्तकों के रथ के त्रिवेणु,चक और धुरों को छिन्न-भिन्न कर दिया । योद्धाओं,अश्वों तथा सारथियों का मार डाला । आयुधें और तरकसों का विध्वंस कर डाला । ध्वजाओं के टुकड़े-टुकड़े कर दिये । जोत और लगाम काट डाले । रक्षा के लिए लगाये गये चर्ममय आवरण और कूबर नष्ट कर दिये । रथतल्प और जूए तोडत्र दिये तथा रथ की बैइक और धुरों को जोड़ने वाले काष्इ के टुकड़े-टुकड़े कर डाले । जैसे हा महान् मेघों को छिन्न-भिन्न कर देती है,उसी प्रकार विजयशील अर्जुन ने रथों के खण्ड-खण्ड करके सबको आश्चर्य में डालते हुए अकेले ही सहस्त्रों महारथियों समान दर्शनीय पराक्रम किया,जो शत्रुओं का भय बढ़ाने वाला था। सिद्धों तथा देवर्षियों के समुदायों एवं चारणों ने भी अर्जुन की भूरि-भूरि प्रशंसा की । देवताओं की दुन्दुभियाँ बज उठीं,आकाश से श्रीकृष्ण और अर्जुन के मसतक पर फूलों की वर्षा होने लगी तथा इस प्रकार आकाशवाणी हुई-। जो सदा चन्द्रमा की कान्ति,अग्नि की दीप्ति,वायु का बल और सूर्य का तेज धारण करते हैं,वे ही ये दोनों वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं । एक ही रथ पर बैठे हुए ये दोनों वीर ब्रह्मा तथा भगवान शंकर के समान सर्वथा अजेय हैं । ये ही सम्पूर्ण भूतों में सर्वश्रेष्ठ वीर नर और नारायण हैं।‘


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख