महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 42 श्लोक 1-22
द्विचत्वारिंश (42) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)
अभिमन्यु के पीछेजानेवाले पाण्डवों को जयद्रथ का वर के प्रभाव से रोक देना
धृतराष्ट्र बोले – संजय ! अत्यन्त सुख में पला हुआ वीर बालक अभिमन्यु युद्ध में कुशल था । उसे अपने बाहुबल पर गर्व था । वह उत्तम कुल में उत्पन्न होने के कारण अपने शरीर को निछावर करके युद्ध कर रहा था । जिस समय वह तीन साल की अवस्थावाले उत्तम घोड़ों के द्वारा मेरी सेनाओं में प्रवेश कर रहा था, उस समय युधिष्ठिर की सेना से क्या कोई बलवान् वीर उसके पीछे-पीछे व्यूह के भीतर आ सका था ?
संजय ने कहा – राजन् ! युधिष्ठिर, भीमसेन, शिखण्डी, सात्यकि, नकुल-सहदेव, धृष्टधुम्न, विराट, द्रुपद, केकयराजकुमार, रोष में भरा हुआ धृष्टकेतु तथा मत्स्यदेशीय योद्धा – ये सब के सब युद्धस्थल में आगे बढ़े । अभिमन्यु के ताऊ, चाचा तथा मामागण अपनी सेना को व्यूह द्वारा संगठित करके प्रहार करने के लिये उघत हो अभिमन्यु की रक्षा के लिये उसी के बनाये हुए मार्ग से व्यूह में जाने के उदेश्य से एक साथ दौड़ पड़े । उन शूरवीरों को आक्रमण करते देख आपके सैनिक भाग खड़े हुए । आपके पुत्र की विशाल सेना को रण से विमुख हुई देख उसे स्थिरतापूर्वक स्थापित करने की इच्छा से आपका तेजस्वी जामाता जयद्रथ वहां दौड़ा हुआ आया । महाराज ! सिंधुनरेश के पुत्र राजा जयद्रथ ने अपने पुत्र को बचाने की इच्छा रखनेवाले कुन्तीकुमारों को सेना सहित आगे बढ़ने से रोक दिया । जैसे हाथी नीची भूमि में आकर वहीं से शत्रु का निवारण करता है, उसी प्रकार भयंकर एवं महान् धनुष धारण करने वाले वृद्धक्षत्रकुमार जयद्रथ ने दिव्यास्त्रों का प्रयोग करके शत्रुओं की प्रगति रोक दी ।
धृतराष्ट्र ने कहा– संजय ! मै तो समझता हूं, सिंधुराज जयद्रथ पर यह बहुत बड़ा भार आ पड़ा था, जो अकेले होने पर भी उसने पुत्र की रक्षा के लिये उत्सुक एवं क्रोध मे भरे हुए पाण्डवों को रोका । सिंधुराज मे ऐसे बल और शौर्य का होना मैं अत्यन्त आश्चर्य की बात मानता हूं । महामना जयद्रथ के बल और श्रेष्ठ पराक्रम का मुझसे विस्तारपूर्वक वर्णन करो । सिंधुराज कौन सा ऐसा दान, होम, यज्ञ अथवा उत्तम तप किया था, जिससे वह अकेला ही समस्त पाण्डवों को रोकने में समर्थ हो सका । साधु शिरोमणे सूत ! जयद्रथ में जो इन्द्रिय संयम अथवा ब्रह्मचर्य हो, वह बताओ । विष्णु, शिव अथवा ब्रह्मा किस देवता की आराधना करके सिन्धुराज ने अपने पुत्र की रक्षा में तत्पर हुए पाण्डवों को क्रोधपूर्वक रोक दिया ? भीष्म ने भी ऐसा महान् पराक्रम किया हो, उसका पता मुझे नही है ।
संजय ने कहा– महाराज ! द्रौपदीहरण के प्रसंग में जो जयद्रथ को भीमसेन से पराजित होना पड़ा था, उसी से अभिमानवश अपमान का अनुभव करके राजा ने वर प्राप्त करने की इच्छा रखकर बड़ी भारी तपस्या की । प्रिय लगने वाले विषयों की ओर से सम्पूर्ण इन्द्रियों को हटाकर भूख-प्यास और धूप का कष्ट सहन करता हुआ जयद्रथ अत्यन्त दुर्बल हो गया । उसके शरीक की नस-नाडियॉ दिखायी देने लगीं ।वह सनातन ब्रह्मास्वरूप भगवान शंकर की स्तुति करता हुआ उनकी आराधना करने लगा । तब भक्तों पर दया करने वाले भगवान ने उस पर कृपा की और स्वप्न में जयद्रथ को दर्शन देकर उससे कहा– जयद्रथ ! तुम क्या चाहते हो ? वर माँगों । मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूं । भगवान शंकर के ऐसा कहने पर सिंधुराज जयद्रथ ने अपने मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर उन रूद्रदेव को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहा । प्रभो ! मैं युद्ध में भयंकर बल पराक्रम से सम्पन्न समस्त पाण्डवों को अकेला ही रथ के द्वारा परास्त करे आगे बढ़ने से रोक दूँ । भारत ! उसके ऐसा कहने पर देवेश्वर भगवान शिव ने जयद्रथ से कहा- सौम्य ! मैं तुम्हें वर देता हूं । तुम कुन्तीपुत्र अर्जुन को छोड़कर शेष चार पाण्डवों को (एक दिन) युद्ध में आगे बढ़ने से रोक दोगे । तब देवेश्वर महादेव से एवमस्तु कहकर राजा जयद्रथ जाग उठा । उसी वरदान से अपने दिव्य अस्त्र बल के द्वारा जयद्रथ ने अकेले ही पाण्डवों की सेना को रोक दिया । उसके धनुष की टंकार सुनकर शत्रुपक्ष के क्षत्रियों के मन में भय समा गया; परंतु आपके सैनिकों को बड़ा हर्ष हुआ । राजन् ! उस समय सारा भार जयद्रथ के ही ऊपर पड़ा देख आपके क्षत्रियवीर कोलाहल करते हुए जिस ओर युधिष्ठिर की सेना थी, उसी ओर टूट पड़े ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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