महाभारत आदि पर्व अध्याय 37 श्लोक 1-18

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सप्तत्रिंश (37) अध्‍याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: सप्तत्रिंश अध्‍याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनक ! माता कद्रू से नागों के लिये वह शाप प्राप्त हुआ सुनकर नागराज वासुकि को बड़ी चिन्ता हुई। वे सोचने लगे, ‘किस प्रकार यह शाप हो सकता है’। तदनन्तर उन्होंने ऐरावत आदि सर्व धर्म परायण बन्धुओं के साथ उस शाप के विषय में विचार किया। वासुकि बोले—निष्पाप नागगण ! माता ने हमें जिस प्रकार यह शाप दिया है, वह सब आप लोगों को विदित ही है। उस शाप से छूटने के लिये क्या उपाय हो सकता है? इसके विषय में सलाह करके हम सब लोगों को उसके लिये प्रयत्न करना चाहिये। सब शापों का प्रतीकार सम्भव है, परंतु जो माता के शाप से ग्रस्त हैं, उनके छूटने का कोई उपाय नहीं है। अविनाशी, अप्रमेय तथा सत्यस्वरूप ब्रह्माजी के आगे माता ने हमें शाप दिया है—यह सुनकर ही हमारे हृदय में कम्प छा जाता है। निश्चय ही यह हमारे सर्वनाश का समय आ गया है, क्योंकि अविनाशी देव भगवान ब्रह्मा ने भी शाप देते समय माता को मना नहीं किया। इसलिये आज हमें अच्छी तरह विचार कर लेना चाहिये कि किस उपाय ने हम सभी नाग कुशल्पूर्वक रह सकते हैं। अब हमें व्यर्थ समय नहीं गँवाना चाहिये। हम लोगों में प्रायः सब नाग बुद्धिमान और चतुर हैं। यदि हम मिल-जुलकर सलाह करें तो इस संकट से छूटने का कोई उपाय ढूँढ़ निकालेंगे; जैसे पूर्वकाल में देवताओं ने गुफा में छिपे हुए अग्नि को खोज निकाला था। सर्पों विनाश के लिये आरम्भ होने वाला जनमेजय का यज्ञ जिस प्रकार टल जाय अथवा जिस तरह उसमें विघ्न पड़ जाय, वह उपाय हमें सोचना चाहिये। उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनक ! वहाँ एकत्र हुए सभी कद्रू पुत्र ‘बहुत अच्छा’ कहकर एक निश्चय पर पँहुच गये, क्योंकि वे नीति का निश्चय करने में निपुण थे। उस समय वहाँ कुछ नागों ने कहा—‘हम लोग श्रेष्ठ ब्राह्मण बनकर जनमेजय से यह भिक्षा माँगें कि तुम्हारा यज्ञ न हो’। अपने को बड़ा भारी पण्डित मानने वाले दूसरे नागों ने कहा—‘हस सब लोग जनमेजय के विश्वास पात्र मन्त्री बन जायँगे। ‘फिर वे सभी कार्यो में अभीष्ट प्रयोजन का निश्चय करने के लिये हमसे सलाह पूछेंगे। उस समय हम उन्हें ऐसी बुद्धि देंगे, जिससे यज्ञ होगा ही नहीं। ‘हम वहाँ बहुत विश्वस्त एवं सम्मानित होकर रहेंगे। अतः बुद्धिमानों मे श्रेष्ठ राजा जनमेजय यज्ञ के विषय में हमारी सम्मति जानने के लिये अवश्य पूछेंगे। उस समय हम स्पष्ट कह देंगे—‘यज्ञ न करो। ‘हम युक्तियों और कारणों द्वारा यह दिखायेंगे कि उस यज्ञ से इहलोक और परलोक में अनेक भयंकर दोष प्राप्त होंगे; इससे वह यज्ञ होगा ही नहीं। ‘अथवा जो उंस यज्ञ के आचार्य होंगे, जिन्हें सर्प यज्ञ की विधि का ज्ञान हो और जो राजा के कार्य एवं हित में लगे रहते हों उन्हें कोई सर्प जाकर डँस ले। फिर वे मर जायेंगे। यज्ञ कराने वाले आचार्य के मर जाने पर वह यज्ञ अपने आप बंद हो जायगा। ‘आचार्य के सिवा दूसरे जो-जो ब्राह्मण सर्प यज्ञ की विधि को जानते होंगे और जनमेजय के यज्ञ में ऋत्विज बनने वाले होंगे, उन सबाको हम डँस लेंगे। इस प्रकार सारा काम वन जायगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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