महाभारत शल्य पर्व अध्याय 17 श्लोक 1-18

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सप्तदश (17) अध्याय: शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: सप्तदश अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

भीमसेन द्वारा शल्य के घोड़े और सारथि का तथा युधिष्ठिर द्वारा राजा शल्य और उनके भाई का वध एवं कृतवर्मा की पराजय

संजय कहते हैं- राजन ! तदनन्तर बलवान मद्रराज शल्य दूसरा अत्यन्त वेगशाली धनुष हाथ में लेकर युधिष्ठिर को घायल करके सिंह की तरह गर्जने लगे । तत्पश्चात् अमेय आत्मबल से सम्पन्न क्षत्रिय शिरोमणि शल्य वर्षा करने वाले मेघ के समान क्षत्रियवीरों पर बाणों की वृष्टि करने लगे । उन्होंने सात्यकि को दस, भीमसेन को तीन तथा सहदेव को भी तीन बाणों से घायल करके युधिष्ठिर को भी पीड़ित कर दिया।। जैसे शिकारी जलते हुए काष्ठों से हाथियों को पीड़ा देते हैं, उसी प्रकार वे दूसरे-दूसरे महाधनुर्धर वीरों को भी घोड़े, रथ और कूबरों सहित अपने बाणों द्वारा पीड़ित करने लगे । उन्होंने वायुधों सहित भुजाओं और ध्वजों को वेगपूर्वक काट डाला और पृथ्वी पर उसी प्रकार योद्धाओं की लाशें बिछा दीं, जैसे वेदी पर कुश बिछाये जाते हैं । इस प्रकार मृत्यु और यमराज के समान शत्रुसेना का संहार करनेवाले राजा शल्य को अत्यन्त क्रोध में भरे हुए पाण्डव, पांचाल तथा सोमक-योद्धाओं ने चारों ओर से घेर लिया । भीमसेन, शिनिपौत्र सात्यकि और माद्री के पुत्र नरश्रेष्ठ नकुल-सहदेव-ये भयंकर बलशाली राजा युधिष्ठिर के साथ भिडे़ हुए सामर्थ्‍यशाली वीर शल्य को परस्पर युद्ध के लिये ललकारने लगे । नरेन्द्र ! तत्पश्चात् वे शौर्यशाली नरवीर योद्धाओं में श्रेष्ठ नरेश्वर शल्य को रोककर समरभूमि में भयंकर वेगशाली बाणों द्वारा घायल करने लगे । धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर ने भीमसेन, नकुल-सहदेव तथा सात्यकि से सुरक्षित हो मद्रराज शल्य की छाती में उग्रवेगशाली बाणों द्वारा प्रहार किया । तब रणभूमि में मद्रराज को बाणों से पीड़ित देख आपके श्रेष्ठ रथी योद्धा दुर्योधन की आज्ञा से सुसज्जित हो उन्हें घेरकर युधिष्ठिर के आगे खडे़ हो गये । इनके बाद मद्रराज ने संग्राम में तुरन्त ही सात बाणों से युधिष्ठिर को बींध डाला। राजन् ! उस तुमुल युद्ध में महात्मा युधिष्ठिर ने भी नौ बाणों से शल्य को घायल कर दिया । मद्रराज शल्य और युधिष्ठिर दोनों महारथी कानतक खींचकर छोड़े गये और तेल में धोये हुए बाणों द्वारा उस समय युद्ध में एक-दुसरे को आच्छादित करने लगे । वे दोनों महारथी समरभूमि में एक दूसरे पर प्रहार करने का अवसर देख रहे थे। दोनों ही शत्रुओं के लिये अजेय, महाबलवान् तथा राजाओं में श्रेष्ठ थे। अतः बड़ी उतावली के साथ बाणों द्वारा एक-दूसरे को गहरी चोट पहुँचाने लगे । परस्पर बाणों की वर्षा करते हुए महामना मद्रराज तथा पाण्डववीर युधिष्ठिर के धनुष की प्रत्यंचा का महान् शब्द इन्द्र के वज्र की गड़गड़ाहट के समान जान पड़ता था । उन दोनों का घमण्ड बड़ा हुआ था। वे दोनों मांस के लोभ के महान् वन में जूझते हुए व्याघ्र के दो बच्चों के समान तथा दाँतों वाले दो बडे़-बडे़ गजराजों की भाँति युद्धस्थल में परस्पर आघात करने लगे । तत्पश्चात् महामना मद्रराज शल्य ने सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी बाण के अत्यन्त वेगवान् भयंकर बलशाली वीर युधिष्ठिर की छाती में चोट पहुँचायी । राजन् ! उससे अत्यन्त घायल होने पर भी कुरूकुल शिरोमणि महात्मा युधिष्ठिर ने अच्छी तरह चलाये हुए बाण के द्वारा मद्रराज शल्य को आहत (एवं मूच्र्छित) कर दिया। इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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