महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 29 श्लोक 1-20

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें

एकोनत्रिंश (29) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (पुत्रदर्शन पर्व)

महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

धृतराष्ट्र का मृत बान्धवों के शोक से दुखी होना तथा गान्धारी और कुन्ती का व्यासजी से अपने मरे हुए पुत्रों के दर्शन करने का अनुरोध

जनमेजय ने पूछा - ब्राह्मण ! जब अपनी धर्मपत्नी गान्धारी और बहू कुन्ती के साथ नृपश्रेष्ठ पृथ्वीपति धृतराष्ट्र वनवास के लिये चले गये, विदुर जी सिद्धि को प्राप्त होकर धर्मराज युधिष्ठिर के शरीर में प्रविष्ट हो गये और समस्त पाण्डव आश्रम मण्डल में निवास करने लगे, उस समय परम तेजस्वी व्यास जी ने जो यह कहा था कि ‘मैं आश्चर्यजनक घटना प्रकट करूँगा’ वह किस प्रकार हुई ? यह मुझे बतायें। अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले कुरूवंशी राजा युधिष्ठिर कितने दिनों तक सब लोगों के साथ वन में रहे थे ? प्रभो ! निष्पाप मुने ! सैनिकों और अन्तःपुर की स्त्रियों के साथ वे महात्मा पाण्डव क्या आहार करके वहाँ निवास करते थे ? वैशम्पायन जी ने कहा - राजन् ! कुरूराज धर्तराष्ट्र पाण्डवों को नाना प्रकार के अन्न-पान ग्रहण करने की आज्ञा दे दी थी; अतः वे वहाँ विश्राम पाकर सभी तरह के उत्तम भोजन करते थे। वे सेनाओं तथा अन्तःपुर की स्त्रियों के साथ वहाँ एक मास तक वन में विहार करते रहे । अनघ ! इसी बीच में जैसाकि मैनें तुम्हें बताया है, वहाँ व्यास जी का आगमन हुआ। राजन् ! राजा धृतराष्ट्रके समीप व्यास जी के पीछे उन सब लोगों में जब उपयुक्त बातें होती रहीं, उसी समय वहाँ दूसरे-दूसरे मुनि भी आये। भारत ! उन में नारद, पर्वत, महातपस्वी देवल, विश्वावसु, तुम्बरू तथा चित्रसेन भी थे। धृतराष्ट्र की आज्ञा से महातपस्वी कुरूराज युधिष्ठिर ने उन सब की भी यथोचित पूजा की। युधिष्ठिर से पूजा ग्रहण करके वे सब के सब मोरपंख के बने हुए पवित्र एवं श्रेष्ठ आसनों पर विराजमान हुए। कुरूश्रेष्ठ ! उन सब के बैठ जाने पर पाण्डवों से घिरे हुए परम बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र बैठे। गान्धारी, कुन्ती, द्रौपदी, सुभद्रा तथा दूसरी स्त्रियाँ अन्य स्त्रियों के साथ आस -पास ही एक साथ बैठ गयीं। नरेश्वर ! उस समय उन लोगों में धर्म से सम्बन्ध रखने वाली दिव्य कथाएँ होने लगीं । प्राचीन ऋषियों तथा देवताओं और असुरों से सम्बन्ध रखने वाली चर्चाएँ छिड़ गयीं । बातचीत के अन्त में सम्पूर्ण वेदवेत्ताओं और वक्ताओं में श्रेष्ठ महातेजस्वी महर्षि व्यास जी ने प्रसन्न होकर प्रज्ञाचक्षु राजा धृतराष्ट्र से पुन: वही बात कही। ‘राजेन्द्र ! तुम्हारे हृदय में जो कहने की इच्छा हो रही है, उसे मैं जानता हूँ । तुम निरन्तर अपने मरे हुए पुत्रों के शोक से जलते रहते हो। ‘महाराजा ! गान्धारी, कुन्ती और द्रौपदी के हृदय में भी जो दुःख सदा बना रहता है, वह भी मुझे ज्ञात है। ‘श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा अपने पुत्र अभिमन्यु के मारे जाने का जो दुःसह दुःख हृदय में धारण करती है, वह भी मुझे अज्ञात नहीं है। ‘कौरवनन्दन ! नरेश्वर ! वास्तव में तुम सब लोगों का यह समागम सुनकर तुम्हारे मानसिक संदेहों का निवारण करने के लिये मैं यहाँ आया हूँ। ‘ये देवता, गन्धर्व और महर्षि सब लोग आज मेरी चिरसंचित तपस्या का प्रभाव देखें।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख