महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 94 श्लोक 1-17
चतुर्नवतितम (94) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
दुर्योधन का उपालम्भ सुनकर द्रोणाचार्य का उसके शरीर में दिव्य कवच बांधकर उसी को अर्जुन के साथ युद्ध के लिये भेजना
संजय कहते हैं- राजन्। तदनन्तर जब कुन्ती-कुमार अर्जुन सिन्धुराज जयद्रथ का वध करने की इच्छा से द्रोणाचार्य और कृत वर्मा दुस्तर सेना-व्यूह भेदन करके आपकी सेना में प्रविष्ट हो गये और सव्यसाची अर्जुन के हाथ से जब काम्बोज राजकुमार सुदक्षिण तथा पराक्रमी श्रुतायुध मार दिये गये तथा जब सारी सेनाएं नष्ट भ्रष्ट होकर चारों ओर भाग खड़ी हुई, उस समय सम्पूर्ण सेना में भगदड़ मची देख आपका पु्त्र दुर्योधन बड़ी उतावली के साथ एकमात्र रथ के द्वारा द्रोणाचार्य के पास गया और उनसे मिलकर इस प्रकार बोला-। ‘गुरुदेव। पुरुषसिंह अर्जुन हमारी इस विशाल सेना को मथकर व्यूह के भीतर चला गया। अब आप अपनी बुद्धि से यह विचार कीजिये कि इसके बाद अर्जुन के विनाश के लिये क्या करना चाहिये इस भंयकर नरसंहार में जिस प्रकार भी पुरुषसिंह जयद्रथ न मारे जायं; वैसा उपाय कीजिये। आपका कल्याण हो । हमारा सबसे बड़ा सहारा आप ही हैं। ‘जैसे सहसा उठा हुआ दावानल सूखे घास-फूंस अथवा जंगल को जलाकर भस्म कर देता है, उसी प्रकार यह धनंजय-रूपी अग्रि कोपरूपी प्रचण्ड वायु से प्रेरित हो मेरे सैन्य रूपी सूखे वन को दग्ध किये देती है। ‘शत्रुओं को संताप देने वाले आचार्य। जब से कुन्तीकुमार अर्जुन आप की सेना का व्युह भेदकर आपको भी लांघकर आगे चले गये हैं, तब से जयद्रथ की रक्षा करने वाले योद्धा महान् संशय में पड़ गये हैं। ‘ब्रहावेत्ताओं में श्रेष्ठ गुरुदेव। हमारे पक्ष के नरेशों को यह दृढ़ विश्वास था कि अर्जुन द्रोणाचार्य के जीते-जी उन्हें लांघ कर सेना के भीतर नहीं घुस सकेगा। ‘पंरतु महातेजसवी वीर । आपके देखते-देखते वह कुन्ती कुमार अर्जुन आपको लांघकर जो व्यूह में घुस गया है, इससे मैं अपनी इस सारी सेना को व्याकुल और विन्ष्ट हुई सी मानता हूं। अब मेरी इस सेना का अस्तित्व नहीं रहेगा। ‘ब्रहान्। महाभाग। मैं यह जानता हूं कि आप पाण्डवों के हित में तत्पर रहने वाले हैं; इसीलिये अपने कार्य की गुरुताका विचार करके मोहित हो रहा हूं। ‘विप्रवर। मैं यथाशक्ति आपके लिये उत्तम जीविका वृति की व्यवस्था करता रहता हूं और अपनी शत्ति भर आपको प्रसन्न रखने की चेष्टा करता रहता हूं; परंतु इन सब बातों को आप याद नहीं रखते हैं। ‘अमितपराक्रमी आचार्य । हम आप के चरणों के सदा भक्ति रखते हैं तो भी आप हमें नही चाहते हैं और जो सदा हम लोगों का अप्रिय करने में तत्पर रहते हैं, उन पाण्डवों को आप निरन्तर प्रसन्न रखते हैं। ‘हम से आप की जीविका चलती है तो भी आप हमारा ही अप्रिय करने में संलग्र रहते हैं। मैं नहीं जानता था कि आप शहद में डुबोये हुए छुरे के समान हैं। ‘यदि आप मुझे अर्जुन को रोके रखने का वर न देते तो मैं अपने घर को जाते हुए सिन्धुराज जयद्रथ को कभी मना नहीं करता। ‘मुझ मूर्ख ने आप से संरक्षण पाने का भरोसा कर के सिन्धुराज जयद्रथ को समझा-बुझाकर यहीं रोक लिया और इस प्रकार मोहवश मैंने मौत के हाथ में सौंप दिया। ‘मनुष्य यमराज की दाढ़ो में पड़कर भले ही बच जाय, परंतु रणभूमि में अर्जुन के वश में पड़े हुए जयद्रश के प्राण नहीं बच सकते।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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