महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 9 श्लोक 1-16

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नवम (9) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: नवम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

धृतराष्ट्र का संजय से विलाप करते हुए कर्ण वघ विस्तार पूर्वक वृत्तान्त पूछना

संजय ने कहा - महाराज ! साधु पुरुष इस समय आपको धन - सम्पत्ति, कुल - मर्यादा, सुयश, तपस्या और शास्त्रज्ञान में नहुष नन्दन ययाति के समान मानते हैं। राजन् ! वेद शास्त्रों के ज्ञान में आप महर्षियों के तुल्य हैं। आपने अपने जीवन के सम्पूर्ण कर्तव्यों का पालन कर लिया है; अतः अपने मन को स्थिर कीजिये, उसे विषाद में न डुबाइये। धृतराष्ट्र ने कहा - मैं तो दैव को ही प्रधान मानता हूँ। पुरुषार्थ व्यर्थ है, उसे धिक्कार हे, जिसका आरय लेकर शाल वृक्ष के समान ऊँचे शरीर वाला कर्ण भी युद्ध में मारा गया। युधिष्ठिर की सेना तथा पान्चाल रथियों की सेना के समुदाय का संहार करके जिस महारथी वीर ने अपने बाणों की वर्षा से सम्पूर्ण दिशाओं को संतप्त कर दिया और वज्रधारी इन्द्र जैसे असुरों को अचेत कर देते हैं, उसी प्रकार जिसने रण भूमि में कुन्ती कुमारों को मोह में डाल दिया था, वही किस तरह मारा जाकर आँधी के उखाडत्रे हुए वृक्ष के समान धरती पर पडत्रा है ?
जैसे समुद का पार नहीं दिखायी देता, उसी प्रकार मैं इस शोक का अन्त नहीं देख पाता हूँ। मेरी चिन्ता अधिकाणिक बढ़ती जाती है और मरने की इच्छा प्रबल हो उठी है ।। संजय ! मैं कर्ण की मृत्यु और अर्जुन की विजय का समाचार सुनकर भी कर्ण के वध को विश्वास के योग्य नहीं मानता। निश्चय ही मेरा हृदय वज्र के सारतत्त्व का बना हुआ हैख् अतः दुर्भेद्य है; तभी तो पुरुषसिंह कर्ण को मारा गया सुनकर भी यह कवदीर्ण नहीं हो रहा है। अवश्य ही पूर्व काल में देवताओं ने मेरी आयु बहुत बड़ी बना दी थी, जिसके अधीन होने के कारण मैं कर्ण वध का समाचार सुनकर अत्यन्त दुःखी होने पर भी यहाँ जी रहा हूँ। संजय ! मेरे इस जीवन को धिक्कार है। आज मैं सुहृदों से हीन होकर इस घृणित दशा को पहुँच गया हूँ । अब मैं मन्द बुद्धि मानव सबके लिये शोचनीय होकर दीन दुखी मनुष्यों के समान जीवन बिताऊँगा।
सूत ! मैं ही पहले सब लोगों के सम्मान का पात्र था; किंतु अब शत्रुओं से अपमानित होकर कैसे जीवित रह सकूँगा ? संजय ! भीष्म, द्रोण और महामना कर्ण के वध से मुझ पर लगातार एक से एक बढ़कर अत्यनत दुःख तथा संकट आता गया है। युद्ध में सूत पुत्र कर्ण के मारे जाने पर मैं अपने पक्ष के किसी भी वीर को ऐसा नहीं देखता, जो जीवित रह सके। संजय ! कर्ण ही मेरे पुत्रों को पार उतारने वाला महान् अवलम्बन था। शत्रुओं पर असंख्य बाणों की वर्षा करने वाला वह शूरवीर युद्ध में मार डाला गया। उस पुरुष शिरोमणि के बिना मेरे इस जीवन से क्या प्रयोजन है ? जैसं वज्र के आघात से विदीर्ण किया हुआ पर्वत शिखर धराशायी हो जाता है, उसी प्रकार बाणों से पीडि़त हुआ अणिरथ पुत्र कर्ण निश्चय ही रथ से नीचे गिर पड़ा होगा। जैसे मतवाले गजराज ,ारा गिराया हुआ हाथी पडत्राउ हो, उसी प्रकार कर्ण खून से लथपथ होकर अवश्य इस पृथ्वी की शोभा बढ़ाता हुआ सो रहा है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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