महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 52 श्लोक 1-21

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द्विपञ्चाशत्तम (52) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: द्विपञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद

दोनों सेनाओं का घोर युद्ध और कौरवसेना का व्य‍थित होना

संजय कहते है- माहाराज। एक दूसरे के वध की इच्छा वाले वे क्षत्रिय परस्पीर वैरभाव रखकर समरागड़ण में एक दूसरे मारने लगे। राजेन्द्र रथसमूह, अश्वरसमूह, हाथियों के झुंड और पैदल मनुष्यों के समुदाय सब ओर एक दूसरे उलझे हुए थे। उस अत्य्न्त‍ दारुण संग्राम में हमलोग निरन्तंर चलाये जाने वाले परिघों, गदाओं, कणर्पों, प्रासों, भिन्दिपालों और भुशुण्डियों की धारा सी गिरती देख रहे थे। सब ओर टिड्डी दलों के समान बाणों की वर्षा हो रही थी। हाथी हाथियों से भिड़कर एक दूसरे को संताप देने लगे। उस समरागड़ण में घोड़ों, रथी रथियों एवं पैदल पैदल-समूहों, अश्व समुदायों तथा रथों और हाथियों का भी मर्दन कर रहे थे। नरेश्वर। इस प्रकार रथी हाथी और घोड़ों का तथा शीघ्रगामी हाथी उस युद्धस्थोल में हाथी सेना के अन्यए तीन अंगों को रौंदने लगे। वहां मारे जाते और एक दूसरे को कोसते हुए शूरवीरों के आर्तनाद से वह युद्धस्थोल वैसा ही भयंकर जान पड़ता था, मानो वहां पशुओं का वध किया जा रहा हो। भारत। खून से ढकी हुई यह पृथ्वीा वर्षाकाल में वीरबहूटी नामक लाल रंग के कीड़ों से व्यावप्तर हुई भूमि के समान शोभा पाती थी। अथवा जैसे कोई श्यामवर्णा युवती श्वेत रंग के वस्त्रों को हल्दी के गाढ़े रंग में रंगकर पहल ले, वैसी ही वह रणभूमि प्रतीत होती थी। मांस और रक्त से चित्रित सी जान पड़ने वाली वह भूमि सुवर्णमयी सी प्रतीत होती थी। भारत। वहां भूतल पर कटे हुए मस्ताकों, भुजाओं, जांघों, बड़े-बड़े कुण्डपलों, अन्या न्यो आभूषणों, निष्कोंप धनुर्धर शूरवीरों के शरीरों के, ढालों और पताकाओं के ढेर के ढेर पड़े थे। नरेश्वर। हाथी हाथियों से भिड़कर अपने दांतों से परस्परर पीड़ा दे रहे थे। दांतों की चोट से घायल हा खून से भीगे शरीरवाले हाथी गेरु के रंग से मिले हुए जल का स्त्रोतत बहाने वाले झरनों से युक्त धातुमण्डित पर्वतों के समान शोभा पाते थे।
कितने ही हाथी घुड़सवारों के छोड़े हुए तोमरों तथा अनेक विपक्षियों को भी सूंड़ों से पकड़कर रणभूमि में विचरते थे तथा दूसरे उनको टुकड़े-टुकड़े कर डालते थे। राजन्। नाराचों से कवच छिन्न-भिन्न होने के कारण गजराजों की वैसी ही शोभा हो रही थी, जैसे हेमन्तच ऋतु में बिना बादलों के पर्वत शोभित होते हैं । भरतनन्दन। विचित्र प्रकार से सजे हुए उत्तम हाथी सुवर्णमय पंखवाले बाणों के लगने से उल्काओं द्वारा उद्वीप्तर शिखरों वाले पर्वतों के समान शोभा पा रहे थे । उस संग्राम में पर्वतों के समान प्रतीत होने वाले कितने ही हाथी हाथियों से घायल हो पंखधारी शैलसमूहों के समान नष्ट। हो गये। दूसरे बहुत से हाथी बाणों से व्येथित और घावों से पीडित हो भाग चले और कितने ही उस महासमर में दोनों दांतों और कुम्भ स्थलों को धरती पर टेककर धराशायी हो गये। राजन् दूसरे अनेक गजराज भयंकर गर्जना करते हुए सिंह के समान दहाड़ रहे थे और दूसरे बहुतेरे हाथी इधर उधर चक्कचर काटते और चीखते-चिल्लाते थे। सोने के आभुषणों से विभूषित बहुसंख्य क घोड़े बाणों द्वारा घायल होकर बैठ जाते, मलिन हो जाते और दसों दिशाओं में भागने लगते थे ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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