महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 51 श्लोक 37-52

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एकपञ्चाशत्तम (51) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: एकपञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 37-52 का हिन्दी अनुवाद


ज्ञाननिष्ठ जीवनमुक्त महात्माओं की यही परम गति है, क्योंकि वे उन समस्त प्रवृत्तियों को शुभाशुभ फल देने वाला समझते हैं। यही विरक्त पुरुषों की गति है, यही सनातन धर्म है, यही ज्ञानियों का प्राप्तव्य स्थान है और यही अनिन्दित सदाचार है। जो सम्पूर्ण भूतों में समान भाव रखता है, लोभ और कामना से रहित है तथा जिसकी सर्वत्र समान दृष्टि रहती है, वह ज्ञानी पुरुष ही इस परम गति को प्राप्त कर सकता है। ब्रह्मर्षियों! यह सब विषय मैंने विस्तार के साथ तुम लोगों को बता दिया। इसी के अनुसार आचरण करो, इससे तुम्हें शीघ्र ही परम सिद्धि प्रापत होगी। गुरु ने कहा- बेटा! ब्रह्माजी के इस प्रकार उपदेश देने पर उन महात्मा मुनियों ने इसी के अनुसार आचरण किया। इससे उन्हें उत्तम लोक की प्राप्ति हुई। महाभाग! तुम्हारा चित्त शुद्ध है, इसीलिये तुम भी मेरे बताए हुए ब्रह्माजी के उत्तम उपदेश का भलीभाँति पालन करो। इससे तुम्हें भी सिद्धि प्राप्त होगी। श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन! गुरुदेव के ऐसा कहने पर उस शिष्य ने समस्त उत्तम धर्मों का पालन किया। इससे वह संसार-बन्धन से मुक्त हो गया। कुरुकुलनन्दन! उस समय कृतार्थ होकर उस शिष्य ने वह ब्रह्मपद प्राप्त किया, जहाँ जाकर शोक नहीं करना पड़ता। अर्जुन ने पूछा- जनार्दन श्रीकृष्ण! वे ब्रह्मनिष्ठ गुरु कौन थे और शिष्य कौन थे? प्रभो! यदि मेरे सुनने योग्य हो तो ठीक-ठाक बताने की कृपा कीजिये। श्रीकृष्ण ने कहा- महाबाहो! मैं ही गुरु हूँ और मेरे मन को ही शिष्य समझे। धनंजय! तुम्हारे स्नेहवश मैंने इस गोपनीय रहस्य का वर्णन किया है। उत्तम व्रत का पालन करने वाले कुरुकुलनन्दन यदि मुझ पर तुम्हारा प्रेम हो तो इस अध्यात्मज्ञान को सुनकर तुम नित्य इसका यथावत् पालन करो। शत्रुसूदन! इस धर्म का पालन पूर्णतया आचरण करने पर तुम समस्त पापों से छुटकर विशुद्ध मोक्ष को प्राप्त कर लोगे। महाबाहो! पहले भी मैंने युद्धकाल उपस्थित होने पर यही उपदेश तुमको सुनाया था। इसलिये तुम इसमें मन लगाओ। भरतश्रेष्ठ! अर्जुन! अब मैं पिताजी का दर्शन करना चाहता हूँ। उन्हें देख बहुत दिन हो गये। यदि तुम्हारी राय हो तो मैं उनके दर्शन के लिये द्वारका जाऊँ। वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन्! भगवान श्रीकृष्ण की बात सुनकर अर्जुन से कहा- ‘श्रीकृष्ण! अब हम लोग यहाँ से हस्तिनापुर को चलें। वहाँ धर्मात्मा राजा युधिष्ठर से मिलकर उनकी आज्ञा लेकर आप अपनी पुरी को पधारे’।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में गुरुशिष्यसंवाद विषयक इक्यानवाँ अध्याय पूरा हुआ।







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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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