महाभारत आदि पर्व अध्याय 3 श्लोक 48-58

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तृतीय (3) अध्‍याय: आदि पर्व (पौष्य पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 48-58 का हिन्दी अनुवाद

इस प्रकार पूछने पर उसने उपाध्याय को उत्तर दिया- ‘भगवन ! ये बछड़े अपनी माताओं के स्तनों का दूध पीते समय जो फेन उगल देते हैं, उसी को पी लेता हूँ। यह सुनकर उपाध्याय ने कहा-‘ये बछड़े उत्तम गुणों से युक्त हैं, अतः तुम पर दया करके बहुत- सा फेन उगल देते होंगे। इसलिये तुम फेन पीकर तो इन सभी बछड़ों की जीविका में बाधा उपस्थित करते हो, अतः आज से फेन भी न पिया करो।’ उपमन्यु ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसे न पीने की प्रतिज्ञा कर ली और पूर्ववत गौओं की रक्षा करने लगा। इस प्रकार मना करने पर उपमन्यु न तो भिन्न अन्न खाता, न दुबारा भिक्षा लाता, न गौओं का दूध पीता और न बछड़ों के फेन को ही उपयोग में लाता था (अब वह भूखा रहने लगा) । एक दिन वन में भूख से पीडि़त होकर उसने आक के पत्ते चबा लिये। आक के पत्त खारे, तीखे, कड़वे और रूखे होते हैं। उनका परिणाम तीक्ष्ण होता है (पाचनकाल में वे पेट के अन्दर आग की ज्वाला सी उठा देते हैं )। अतः उनको खाने से उपमन्यु की आँखो की ज्योति नष्ट हो गयी। वह अन्धा हो गय। अन्धा होने पर भी वह इधर‌- उधर घूमता रहा; अतः कुएँ में गिर पड़ा। तदनन्तर जब सूर्यदेव अस्ताचल की चोटी पर पहुँच गये, तब भी उपमन्यु गुरू के घर पर नहीं आया, तो उपाध्याय ने शिष्यों से पूछा-‘उपमन्यु क्यों नहीं आया ?’ वे बोले वह तो गाय चराने के लिये वन में गया था।

तब उपाध्याय ने कहा-‘मैने उपमन्यु की जीविका के सभी मार्ग बन्द कर दिये हैं, अतः निश्चय ही वह रूठ गया है; इसीलिये इतनी देर हो जाने पर भी वह नहीं आया, अतः हमें चलकर उसे खोजना चाहिये।’ ऐसा कहकर शिष्यों के साथ वन में जाकर उपाध्याय ने उसे बुलाने के लिये आवाज दी-‘ओ उपमन्यु! कहाँ हो बेटा ! चले आओ।' उसने उपाध्याय की बात सुनकर उच्च स्वरं में उत्तर दिया- ‘गुरूजी ! मैं कुएँ में गिर पड़ा हूँ।’ तब उपाध्याय ने उससे पूछा-‘वत्स ! तुम कुएँ मे कैसे गिर गये ?’ उसने उपाध्याय को उत्तर दिया-‘भगवन ! मैं आक के पत्ते खाकर अन्धा हो गया हूँ; इसीलिये कुएँ में गिर गया।' तब उपाध्याय ने कहा-‘वत्स ! दोनों अश्विनी कुमार देवताओं के वैद्य हैं।' तुम उन्हीं की स्तुति करो। 'वे तुम्हारी आँखे ठीक कर देंगे।’ उपाध्याय के ऐसा कहने पर उपमन्यु ने अश्विनी कुमार नामक दोनों देवताओं की ऋग्वेद के मन्त्रों द्वारा स्तुति प्रारम्भ की। हे अश्विनी कुमारों ! आप दोनों सृष्टि से पहले विद्यमान थे। आप ही पूर्वज हैं। आप ही चित्रभानु हैं। मैं वाणी और तप के द्वारा आपकी स्तुति करता हूँ; क्योंकि आप अनन्त हैं। दिव्य स्वरूप हैं। सुन्दर पंख वाले दो पक्षियों की भाँति सदा साथ रहने वाले हैं। रजोगुण शून्य तथा अभिमान से रहित हैं। सम्पूर्ण विश्व में आरोग्य का विस्तार करते हैं। सुनहरे पंख वाले दो सुन्दर विहंगमों की भाँति आप दोनों बन्धु बड़े सुन्दर हैं। पारलौकिक उन्नति के साधनों से सम्पन्न हैं। नासत्य तथा दस्त्र-ये दोनों आपके नाम हैं। आपकी नासिका बड़ी सुन्दर है। आप दोनों निश्चित रूप से विजय प्राप्त करने वाले हैं। आप ही विवस्वान (सूर्यदेव) के सुपुत्र हैं; अतः स्वयं ही सूर्यरूप में स्थित हो, दिन तथा रात्रिरूप काले तन्तुओं से संवत्सर रूप वस्त्र बुनते रहते हैं और उस वस्त्र द्वारा वेगपूर्वक देवयान और पितृयान नामक सुन्दर मार्गो को प्राप्त करते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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