महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 1 श्लोक 18-29

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें

प्रथम (1) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 18-29 का हिन्दी अनुवाद

इतने ही में अर्जुनक नामवाले एक व्‍याधने उस साँपको ताँतके फाँसमें बाँध लिया और अमर्षवश वह उसे गौतमीके पास ले आया लाकर उसने कहा— ‘महाभागे ! यही वह नीच सर्प है, जिसने तुम्‍हारे पुत्रको मार डाला है । जल्‍दी बताओ, मैं किस तरह इसका वध करूँ ? ‘मैं इसे आगमें झोंक दूँ या इसके टूकडे़-टूकड़े कर डालूँ ? बालककी हत्‍या करने वाला यह पापी सर्प अब अधिक समय तक जीवित रहने योग्‍य नहीं है’ गौतमी बोली—अर्जुनक ! छोड़ दे इस सर्पको । तू अभी नादान है । तुझे इस सर्पको नहीं मारना चाहिये । होनहार को कोई टाल नहीं सकता—इस बालको जानते हुए भी इसकी उपेक्षा करके कौन अपने ऊपर पापका भारी बोझ लादेगा ? संसार में धर्माचरण करके जो अपनेको हलके रखते हैं (अपने ऊपर पापका भारी बोझ नहीं लादते हैं), वे पानीके ऊपर चलनेवाली नौकाके समान भवसागर से पार हो जाते हैं; परंतु जो पापके बोझसे अपनेको बोझिल बना लेते हैं, वे जल में फेंके हुए हथियारकी भाँति नरक-समुद्र में डूब जाते है। इसको मार डालनेसे मेरा यह पुत्र जीवित नहीं हो सकता और इस सर्पके जीवित रहनेपर भी तुम्‍हारी क्‍या हानि हो सकती है ? ऐसी देशामें इस जीवित प्राणी के प्राणों का नाश करके कौन यमराज के अनन्‍त लोक में जाय ? व्‍याधने कहा—गुण और अवगुणको जानने वाली देवि ! मैं जानता हूँ कि बडे़-बढे़ लोग किसी भी प्राणी को कष्‍ट में पड़ा देख इसी तरह दु:खी हो जाते हैं । परंतु ये उपदेश तो स्‍वस्‍थ पुरुष के लिये हैं (दु:खी मनुष्‍य के मनपर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता) । अत: मैं इस नीच सर्पको अवश्‍य मार डालूँगा। शान्ति चाहने वाले पुरुष कालकी गति बताते हैं (अर्थात् कालने ही इसका नाश कर दिया है, ऐसा कहते हुए शोकका त्‍याग करके संतोष धारण करते हैं) परंतु जो अर्थवेत्‍ता हैं—बदला लेना जानते हैं, वे शत्रुका नाश करके तुरंत ही शोक छोड़ देते हैं । दूसरे लोग श्रेयका नाश होने पर मोहवश सदा उसके लिये शोक करते रहते हैं ; अत: इस शत्रुभूत सर्पके मारे जाने पर तुम भी तत्‍काल ही अपने पुत्र- शोकको त्‍याग देना। गौतमी बोली—अर्जुनक ! हम-जैसे लोगोंको कभी किसी तरह की हानि से भी पीड़ा नहीं होती । धर्मात्‍मा सज्‍जन पुरुष सदा धर्ममें ही लगे रहते हैं । मेरा यह बालक सर्वथा मरनेहीवाला था ; इसलिये मैं इस सर्पको मारने में असमर्थ हूँ। ब्राह्माणों को क्रोध नहीं होता; फिर वे क्रोधवश दूसरोंको पीड़ा कैसे दे सकते हैं; अत: साधो! तू भी कोमलताका आश्रय लेकर इस सर्पको अपराधको क्षमा कर और इसे छोड़ दे। व्‍याधने कहा—देवि ! इस सर्पको मार डालनेसे जो बहुतोंका भला होगा, यही अक्षय लाभ है । बलवानों से बलपूर्वक लाभ उठाना ही उत्‍तम लाभ है । कालसे जो लाभ होता है वही सच्‍चा लाभ है । इस नीच सर्पके जीवित रहनेसे तुम्‍हें कोई श्रेय नहीं मिल सकता। गौतमी बोली—अर्जुनक ! शत्रुको कैद करके उसे मार डालनेसे क्‍या लाभ होता है; तथा शत्रुको अपने हाथमें पाकर उसे न छोड़नेसे किस अभीष्‍ट मनोरथकी प्राप्ति हो जाती है ? सौम्‍य ! कया कारण है कि मैं इस सर्पके अपराधको क्षमा न करूँ ? तथा किसलिये इसको छुटकारा दिलानेका प्रयत्‍न न करूँ ?


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख