फ़ारुख़ शेख़

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फ़ारुख़ शेख़ (अंग्रेज़ी: Farooq Sheikh, जन्म: 25 मार्च, 1948 - मृत्यु: 27 दिसम्बर, 2013) एक भारतीय अभिनेता, समाज-सेवी और एक टेलीविजन प्रस्तोता थे। उन्हें 70 और 80 के दशक की फ़िल्मों में अभिनय के कारण प्रसिद्धि मिली। वो सामान्यतः एक कला सिनेमा में अपने कार्य के लिए प्रसिद्ध थे जिसे समानांतर सिनेमा भी कहा जाता है। उन्होंने सत्यजित राय और ऋषिकेश मुखर्जी जैसे भारतीय सिनेमा के महान फ़िल्म निर्देशकों के निर्देशन में भी काम किया।

जीवन परिचय

फिल्मों के माध्यम से अपनी छवि को आमजन से जोड़ने वाले फ़ारुख़ शेख़ का जन्म 25 मार्च, 1948 को गुजरात के अमरोली में मुस्तफ़ा और फ़रीदा शेख़ के परिवार में हुआ। उनका नाता एक जमींदार परिवार से था। फ़ारुख़ शेख़ अपने पांच भाइयों में सबसे बड़े थे। मुंबई के सेंट मैरी स्कूल में शुरुआती शिक्षा ग्रहण करने के साथ ही उन्होंने यहां के सेंट जेवियर्स कॉलेज में आगे की पढ़ाई की। बाद में उन्होंने सिद्धार्थ कॉलेज ऑफ लॉ से कानून की पढ़ाई की।[1]

क्रिकेट प्रेमी

फारुख स्कूली दिनों से न केवल क्रिकेट के दीवाने थे, बल्कि अच्छे क्रिकेटर भी थे। उन दिनों भारत के विख्यात टेस्ट क्रिकेटर वीनू मांकड़ सेंट मैरी स्कूल के दो सर्वश्रेष्ठ क्रिकटरों को हर साल कोचिंग देते थे और हर बार उनमें से एक फारुख हुआ करते थे। जब वह सेंट जेवियर कॉलेज में पढ़ने गए तो उनका खेल और निखरा। सुनील गावस्कर का शुमार फारुख के अच्छे दोस्तों मे होता है।[2]

विवाह

फारुख शेख अपने कॉलेज के दिनों को हमेशा शिद्दत से याद करते थे। वहां उनके दोस्तों का बड़ा समूह था। यहीं उनकी मुलाकात रूपा जैन से हुई, जो आगे चल कर उनकी जीवन संगिनी बनीं। फारुख और रूपा ने नौ साल तक एक-दूसरे से मेल-मुलाकातों के बाद शादी का फैसला लिया था। दोनों ही परिवार उनकी दोस्ती से वाकिफ थे और किसी ने विरोध नहीं किया। हालांकि रूपा के परिजन इस बात से जरूर थोड़ा चिंतित थे कि फारुख, जो उन दिनों एक उभरते ऐक्टर थे और ज्यादातर रंगमंच पर काम करते थे, उनकी बेटी का खयाल कैसे रख पाएंगे। लेकिन फारुख को जल्द ही मिली कामयाबी के बाद वे निश्चिंत हो गए।[2]

कॅरियर

फारुख के जीवन पर पिता का गहरा प्रभाव था और यही कारण था कि उन्होंने वकालत की पढ़ाई की। उनका इरादा पिता की विरासत को आगे ले जाने का था। मुंबई के सिद्धार्थ कॉलेज ऑफ लॉ से उन्होंने कानून की पढ़ाई की। लेकिन वकील बनने के बाद जल्द ही उन्हें महसूस हुआ कि यह पेशा उनके जैसे इंसान के लिए ठीक नहीं है। उनका कहना था कि ज्यादातर मामलों के फैसले अदालत में नहीं बल्कि पुलिस थानों में तय होते हैं। इसके बाद ही उन्होंने ऐक्टिंग को तवज्जो देनी शुरू की। फारुख कॉलेज के दिनों में नाटकों में काम किया करते थे और यहां शबाना आजमी उनकी अच्छी दोस्त थीं। दोनों ने कई नाटक साथ किए थे। कॉलेज के बाद शबाना जब फिल्म इंस्टीट्यूट में पढ़ाई के लिए पूना जाने लगीं तो उन्होंने फारुख से भी चलने को कहा। परंतु उन्हें वकालत की पढ़ाई करनी थी।[2]

पहली फ़िल्म

वकालत से मोहभंग के बाद वे ऐक्टिंग कॅरियर पर ध्यान देने लगे। उन्होंने अपनी पहली फिल्म ‘गरम हवा’ में मुफ्त में काम करने को हामी भरी थी। रमेश सथ्यू यह फिल्म बना रहे थे और उन्हें ऐसे कलाकार चाहिए थे, जो बिना फीस लिए तारीखें दे दें। खैर, इस फिल्म के लिए फारुख शेख को 750 रुपये मिले, वह भी पांच साल में। फारुख शेख के वकालत छोड़ कर फिल्मों में काम करने से उनके माता-पिता को आश्चर्य तो हुआ लेकिन उन्होंने बेटे के फैसला का विरोध नहीं किया। वे उनके साथ खड़े रहे। फारुख के अनुसार उन दिनों तक यह बात ख़त्म चुकी थी कि फिल्मों में काम करना बुरा है। ‘गरम हवा’ की रिलीज के बाद फारुख के पास दूसरी फिल्मों के ऑफर आने लगे। विख्यात निर्देशक सत्यजित रे को उनका काम इतना पसंद आया कि अपनी फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में उन्हें एक रोल ऑफर कर दिया। जब सत्यजित रे ने फोन किया तो फारुख कनाडा में थे। उन्होंने कहा कि मुझे लौटने में एक महीने का वक्त लगेगा। सत्यजित रे ने कहा कि वे इंतजार करेंगे।[2]

दीप्ति नवल के साथ जोड़ी

भारतीय अभिनेता, समाजसेवी और टेलीविजन प्रस्तोता रहे फ़ारुख़ शेख़ ने अपने कॅरियर की शुरुआत थियेटर से की थी। उन्होंने सागर सरहदी के साथ मिलकर कई नाटक भी किए हैं। बॉलीवुड में उनकी पहली बड़ी फिल्म 'गरम हवा' थी जो 1973 में आई थी। फिर उसके बाद महान फिल्मकार सत्यजित रे के साथ 'शतरंज के खिलाड़ी' की। शुरुआती सफलता मिलने के बाद फ़ारुख़ शेख़ को आगे भी फिल्में मिलने लगीं जिसमें 1979 में आई 'नूरी', 1981 की चश्मे बद्दूर जैसी फिल्में शामिल हैं। दीप्ति नवल और फ़ारुख़ शेख़ की जोड़ी सत्तर के दशक की सबसे हिट जोड़ी रही। दर्शक इन्हें फिल्मों में एक साथ देखना चाहते थे। इन दोनों ने एक साथ मिलकर कई फिल्में की इसमें चश्मे बद्दूर, साथ-साथ, कथा, रंग-बिरंगी आदि प्रमुख हैं।[1]

किरदारों को जीने वाले अभिनेता

फारुख शेख अपने किरदारों में जुझारू, मध्यमवर्गीय और मूल्यजीवी इन्सान के साथ-साथ मनुष्य की फितरत को भी अभिव्यक्त करने के लिए जाने जाते हैं। उनकी अंतिम कुछ फिल्मों में सास बहू और सेंसेक्स, एक्सीडेंट ऑन हिल रोड और लाहौर जैसी फिल्में रहीं। इन फिल्मों में भी एक बार फिर उनकी परिपक्व छवि दिखी। अभिनेता फारुख शेख ऐसे कलाकारों में शुमार हैं जो बड़े और असाधारण श्रेणी के फिल्मकारों की फिल्मों में एक खास किरदार के लिए पहचाने जाते हैं या फिर उसी खास किरदार के लिए बने हैं। ऐसे अभिनेता पर्दे पर केवल अभिनय नहीं करते बल्कि उस अभिनय को जीते हैं। ऐसे किरदार ही आपके जहन में इतना प्रभाव छोड़ जाते हैं कि आप उन्हें लम्बे समय तक याद रखते हैं। सहज और विनम्र से दिखाई देने वाले फारुख शेख ने अपने समय के चोटी के निर्देशकों के साथ काम किया है। उन्होंने सत्यजित रे, मुजफ्फर अली, ऋषिकेश मुखर्जी, केतन मेहता, सई परांजपे, सागर सरहदी जैसे फिल्मकारों का अपने अभिनय की वजह से दिल जीत लिया।[1]

व्यक्तित्व

फारुख एक बेहतरीन कलाकार तो थे ही लेकिन उससे कहीं आगे वह एक बेहतरीन इंसान थे। फारुख शेख संपन्न परिवार से जरूर थे मगर पिता के निधन के बाद उन्होंने छोटे भाई-बहनों की जिम्मेदारी को अपने कंधों पर उठाया। उन्होंने रेडियो और टीवी पर कार्यक्रम किए, लेकिन सिर्फ पैसों की खातिर फिल्मों में काम करना उन्हें मंजूर न था। इसीलिए जिस जमाने में अभिनेता एक साथ दर्जनों फिल्में साइन करते थे, फारुख शेख एक बार में दो से ज्यादा फिल्मों में काम नहीं करते थे। 1978 में ‘नूरी’ की कामयाबी के बाद कुछ ही महीनों में उनके पास करीब 40 फिल्मों के प्रस्ताव आए। लेकिन उन्होंने सारे के सारे ठुकरा दिए क्योंकि वे सब ‘नूरी’ की ही तरह थे। फारुख शेख का नाम कभी किसी विवाद में नहीं आया। न ही किसी सह-अभिनेत्री या हीरोइन से उनका नाम जुड़ा। वे पूरी तरह से पारिवारिक इंसान थे। उनकी दो बेटियां हैं। उन्होंने ईश्वर में सदा विश्वास किया। वे कहते थे कि एक शक्ति है जो ऊपर से हमें संचालित कर रही है। धर्म और जाति के नाम पर बंटवारे या भेदभाव उन्हें कभी गवारा न थे। उन्होंने सदा कहा कि गुजर जाने के बाद दुनिया में याद किए जाने की ख्वाहिश उनमें नहीं है। वह कहते थे कि यह जिंदगी एक उत्सव है और अपने रियलिटी शो ‘जीना इसी का नाम है’ में मैं जिंदगी का ही जश्न मना रहा हूं।[2]

निधन

बॉलीवुड के प्रसिद्ध अभिनेता फारुख शेख का शुक्रवार 27 दिसम्बर, 2013 की रात दुबई में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। मीडिया को यह जानकारी उनकी मित्र एवं अभिनेत्री दीप्ति नवल ने दी। दुबई में जरूरी औपचारिकता पूरी करने के बाद उनका शव अंतिम संस्कार के लिए मुंबई लाया गया। मुंबई में ही उनका अंतिम संस्कार किया गया। फारुख शेख 65 वर्ष के थे और उनकी तबीयत इससे पहले अच्छी थी और उन्होंने दो महीने पहले शारजाह पुस्तक मेले में शिरकत की थी। फिल्म 'गरम हवा' से कॅरियर की शुरुआत की थी और उसके बाद कला और मुख्यधारा की फिल्म में अपनी पहचान बनाई थी। उन्होंने चश्मेबद्दूर, उमराव जान, नूरी, किसी ने कहा, साथ-साथ, ये जवानी है दीवानी, आदि समेत तमाम फिल्में कीं। शेख ने सत्यजीत रे के साथ भी लंबे समय तक काम किया। उनकी आखिरी फिल्म 'क्लब 60' थी। शेख को कला फिल्मों, रंगमंच और टेलीविजन में उनके योगदान के लिए जाना जाता है। उन्होंने टेलीविजन पर प्रसिद्ध शो 'जीना इसी का नाम है' की मेजबानी भी की थी।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 फारुख शेख : स्टेज से सिल्वर स्क्रीन तक का सफर (हिंदी) जागरण डॉट कॉम। अभिगमन तिथि: 29 नवंबर, 2013। सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; "जागरण" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है
  2. 2.0 2.1 2.2 2.3 2.4 पढ़िए फारुख शेख से जुड़े अनकहे किस्से (हिंदी) अमर उजाला। अभिगमन तिथि: 29 नवंबर, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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