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* एक समय [[बुन्देलखंड]] के चन्देरी मुकाम से एक अच्छा ‘धोती-जोड़ा’ आया था, जो उस समय बहुत प्रसिद्ध हुआ करता था। अहिल्या बाई ने उसे स्वीकार किया। उस समय एक सेविका जो वहां मौजूद थी वह धोती-जोड़े को बड़ी ललचाई नजरों से देख रही थी। अहिल्याबाई ने जब यह देखा तो उस कीमती जोड़े को उस सेविका को दे दिया।  
 
* एक समय [[बुन्देलखंड]] के चन्देरी मुकाम से एक अच्छा ‘धोती-जोड़ा’ आया था, जो उस समय बहुत प्रसिद्ध हुआ करता था। अहिल्या बाई ने उसे स्वीकार किया। उस समय एक सेविका जो वहां मौजूद थी वह धोती-जोड़े को बड़ी ललचाई नजरों से देख रही थी। अहिल्याबाई ने जब यह देखा तो उस कीमती जोड़े को उस सेविका को दे दिया।  
* इसी प्रकार एक बार उनके दामाद ने पूजा-अर्चना के लिए कुछ बहुमूल्य सामग्री भेजी थी। उस सामान को एक कमजोर भिखारिन जिसका नाम था सिन्दूरी, उसे दे दिया। किसी सेविका ने याद दिलाया कि इस सामान की जरूरत आपको भी है परन्तु उन्होंने यह कहकर सेविका की बात को नकार दिया कि उनके पास और हैं।  
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* इसी प्रकार एक बार उनके दामाद ने पूजा-अर्चना के लिए कुछ बहुमूल्य सामग्री भेजी थी। उस सामान को एक कमज़ोर भिखारिन जिसका नाम था सिन्दूरी, उसे दे दिया। किसी सेविका ने याद दिलाया कि इस सामान की जरूरत आपको भी है परन्तु उन्होंने यह कहकर सेविका की बात को नकार दिया कि उनके पास और हैं।  
 
किसी महिला का पैरों पर गिर पड़ना अहिल्या बाई को पसन्द नहीं था। वे तुरंत अपने दोनों हाथों का सहारा देकर उसे उठा लिया करती थीं। उनके सिर पर हाथ फेरतीं और ढाढस बंधाती। रोने वाली स्त्रियों को वे उनके आंसुओं को रोकने के लिए कहतीं, आंसुओं को संभालकर रखने का उपदेश देतीं और उचित समय पर उनके उपयोग की बात कहतीं। उस समय किसी पुरुष की मौजूदगी को वे अच्छा नहीं समझती थीं। यदि कोई पुरुष किसी कारण मौजूद भी होता तो वे उसे किसी बहाने वहां से हट जाने को कह देतीं। इस प्रकार एक महिला की व्यथा, उसकी भावना को एकांत में सुनतीं, समझतीं थीं। यदि कोई कठिनाई या कोई समस्या होती तो उसे हल कर देतीं अथवा उसकी व्यवस्था करवातीं। महिलाओं को एकांत में अपनी बात खुलकर कहने का अधिकार था। राज्य के दूरदराज के क्षेत्रों का दौरा करना, वहां प्रजा की बातें, उनकी समस्याएं सुनना, उनका हल तलाश करना उन्हें बहुत भाता था। अहिल्याबाई, जो अपने लिए पसन्द करती थीं, वही दूसरों के लिए पसंद करती थीं। इसलिए विशेषतौर पर महिलाओं को त्यागमय उपदेश भी दिया करती थीं।  
 
किसी महिला का पैरों पर गिर पड़ना अहिल्या बाई को पसन्द नहीं था। वे तुरंत अपने दोनों हाथों का सहारा देकर उसे उठा लिया करती थीं। उनके सिर पर हाथ फेरतीं और ढाढस बंधाती। रोने वाली स्त्रियों को वे उनके आंसुओं को रोकने के लिए कहतीं, आंसुओं को संभालकर रखने का उपदेश देतीं और उचित समय पर उनके उपयोग की बात कहतीं। उस समय किसी पुरुष की मौजूदगी को वे अच्छा नहीं समझती थीं। यदि कोई पुरुष किसी कारण मौजूद भी होता तो वे उसे किसी बहाने वहां से हट जाने को कह देतीं। इस प्रकार एक महिला की व्यथा, उसकी भावना को एकांत में सुनतीं, समझतीं थीं। यदि कोई कठिनाई या कोई समस्या होती तो उसे हल कर देतीं अथवा उसकी व्यवस्था करवातीं। महिलाओं को एकांत में अपनी बात खुलकर कहने का अधिकार था। राज्य के दूरदराज के क्षेत्रों का दौरा करना, वहां प्रजा की बातें, उनकी समस्याएं सुनना, उनका हल तलाश करना उन्हें बहुत भाता था। अहिल्याबाई, जो अपने लिए पसन्द करती थीं, वही दूसरों के लिए पसंद करती थीं। इसलिए विशेषतौर पर महिलाओं को त्यागमय उपदेश भी दिया करती थीं।  
 
* एक बार होल्कर राज्य की दो विधवाएं अहिल्याबाई के पास आईं, दोनों बड़ी धनवान थीं परन्तु दोनों के पास कोई सन्तान नहीं थी। वे अहिल्याबाई से प्रभावित थीं। अपनी अपार संपत्ति अहिल्या बाई के चरणों में अर्पित करना चाहती थीं। संपत्ति न्योछावर करने की आज्ञा मांगी, परन्तु उन्होंने उन दोनों को यह कहकर मना कर दिया कि जैसे मैंने अपनी संपत्ति जनकल्याण में लगाई है उसी प्रकार तुम भी अपनी संपत्ति को जनहित में लगाओ। उन विधवाओं ने ऐसा ही किया और वे धन्य हो गईं।<ref>{{cite web |url=http://www.dakshinbharat.com/2011/09/08/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A4%BE-%E0%A4%B8%E0%A4%B6%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%A3-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%AA%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%A7-1577/ |title=महिला सशक्तीकरण की पक्षधर थीं अहिल्याबाई |accessmonthday= 16 अप्रॅल|accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=दक्षिण भारत राष्टृमत |language= हिंदी}}</ref>
 
* एक बार होल्कर राज्य की दो विधवाएं अहिल्याबाई के पास आईं, दोनों बड़ी धनवान थीं परन्तु दोनों के पास कोई सन्तान नहीं थी। वे अहिल्याबाई से प्रभावित थीं। अपनी अपार संपत्ति अहिल्या बाई के चरणों में अर्पित करना चाहती थीं। संपत्ति न्योछावर करने की आज्ञा मांगी, परन्तु उन्होंने उन दोनों को यह कहकर मना कर दिया कि जैसे मैंने अपनी संपत्ति जनकल्याण में लगाई है उसी प्रकार तुम भी अपनी संपत्ति को जनहित में लगाओ। उन विधवाओं ने ऐसा ही किया और वे धन्य हो गईं।<ref>{{cite web |url=http://www.dakshinbharat.com/2011/09/08/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A4%BE-%E0%A4%B8%E0%A4%B6%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%A3-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%AA%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%A7-1577/ |title=महिला सशक्तीकरण की पक्षधर थीं अहिल्याबाई |accessmonthday= 16 अप्रॅल|accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=दक्षिण भारत राष्टृमत |language= हिंदी}}</ref>

12:59, 14 मई 2013 का अवतरण

अहिल्याबाई होल्कर
अहिल्याबाई होल्कर प्रतिमा, मथुरा
पूरा नाम रानी अहिल्याबाई होल्कर
जन्म 31 मई सन् 1725
जन्म भूमि चांऊडी गांव, अहमदनगर, महाराष्ट्र
मृत्यु 13 अगस्त सन् 1795
पति/पत्नी खंडेराव
संतान मालेराव (पुत्र) और मुक्ताबाई (पुत्री)
विशेष योगदान रानी अहिल्याबाई ने कलकत्ता से बनारस तक की सड़क, बनारस में अन्नपूर्णा का मन्दिर, गया में विष्णु मन्दिर बनवाये। इसके अतिरिक्त इन्होंने घाट बँधवाए, कुओं और बावड़ियों का निर्माण करवाया, मार्ग बनवाए, भूखों के लिए सदाब्रत (अन्नक्षेत्र ) खोले, प्यासों के लिए प्याऊ बिठलाईं, मंदिरों में विद्वानों की नियुक्ति शास्त्रों के मनन-चिंतन और प्रवचन हेतु की।
नागरिकता भारतीय
विशेष इस महान शासिका के लिए एक श्रद्धांजलि के रूप में इंदौर घरेलू हवाई अडडे् का नाम देवी अहिल्याबाई होल्कर हवाई अड्डा रखा गया। इसी तरह इंदौर विश्वविद्यालय को देवी अहिल्या विश्वविद्यालय नाम दिया गया है।
अन्य जानकारी अहिल्याबाई को एक दार्शनिक रानी के रूप में भी जाना जाता है। अहिल्याबाई एक महान और धर्मपारायण स्त्री थी। वह हिंदू धर्म को मानने वाली थी और भगवान शिव की बड़ी भक्त थी।

रानी अहिल्याबाई मल्हारराव होल्कर के पुत्र खंडेराव की पत्नी थी। अहिल्याबाई किसी बड़े राज्य की रानी नहीं थीं लेकिन अपने राज्य काल में उन्होंने जो कुछ किया वह आश्चर्य चकित करने वाला है। वह एक बहादुर योद्धा और कुशल तीरंदाज थीं। उन्होंने कई युद्धों में अपनी सेना का नेतृत्व किया और हाथी पर सवार होकर वीरता के साथ लड़ी।

जीवन परिचय

अहिल्याबाई का जन्म 31 मई सन् 1725 में हुआ था। अहिल्याबाई के पिता मानकोजी शिंदे एक मामूली किंतु संस्कार वाले आदमी थे। इनका विवाह इन्दौर राज्य के संस्थापक महाराज मल्हार राव होल्कर के पुत्र खंडेराव से हुआ था। सन् 1745 में अहिल्याबाई के पुत्र हुआ और तीन वर्ष बाद एक कन्या। पुत्र का नाम मालेराव और कन्या का नाम मुक्ताबाई रखा। उन्होंने बड़ी कुशलता से अपने पति के गौरव को जगाया। कुछ ही दिनों में अपने महान पिता के मार्गदर्शन में खण्डेराव एक अच्छे सिपाही बन गये। मल्हारराव को भी देखकर संतोष होने लगा। पुत्र-वधू अहिल्याबाई को भी वह राजकाज की शिक्षा देते रहते थे। उनकी बुद्धि और चतुराई से वह बहुत प्रसन्न होते थे। मल्हारराव के जीवन काल में ही उनके पुत्र खंडेराव का निधन 1754 ई. में हो गया था। अतः मल्हार राव के निधन के बाद रानी अहिल्याबाई ने राज्य का शासन-भार सम्भाला था। रानी अहिल्याबाई ने 1795 ई. में अपनी मृत्यु पर्यन्त बड़ी कुशलता से राज्य का शासन चलाया। उनकी गणना आदर्श शासकों में की जाती है। वे अपनी उदारता और प्रजावत्सलता के लिए प्रसिद्ध हैं। उनके एक ही पुत्र था मालेराव जो 1766 ई. में दिवंगत हो गया। 1767 ई. में अहिल्याबाई ने तुकोजी होल्कर को सेनापति नियुक्त किया।

अहिल्याबाई होल्कर के सम्मान में जारी भारतीय डाक टिकट

निर्माण कार्य

रानी अहिल्याबाई ने भारत के भिन्न-भिन्न भागों में अनेक मन्दिरों, धर्मशालाओं और अन्नसत्रों का निर्माण कराया था। कलकत्ता से बनारस तक की सड़क, बनारस में अन्नपूर्णा का मन्दिर , गया में विष्णु मन्दिर उनके बनवाये हुए हैं। इन्होंने घाट बँधवाए, कुओं और बावड़ियों का निर्माण करवाया, मार्ग बनवाए, भूखों के लिए सदाब्रत (अन्नक्षेत्र ) खोले, प्यासों के लिए प्याऊ बिठलाईं, मंदिरों में विद्वानों की नियुक्ति शास्त्रों के मनन-चिंतन और प्रवचन हेतु की। उन्होंने अपने समय की हलचल में प्रमुख भाग लिया। रानी अहिल्याबाई ने इसके अलावा काशी, गया, सोमनाथ, अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, द्वारिका, बद्रीनारायण, रामेश्वर, जगन्नाथ पुरी इत्यादि प्रसिद्ध तीर्थस्थानों पर मंदिर बनवाए और धर्म शालाएं खुलवायीं। कहा जाता है कि रानी अहिल्‍याबाई के स्‍वप्‍न में एक बार भगवान शिव आए। वे भगवान शिव की भक्‍त थीं और इसलिए उन्‍होंने 1777 में विश्व प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण कराया।

शिव जी की भक्त

उनका सारा जीवन वैराग्य, कर्त्तव्य-पालन और परमार्थ की साधना का बन गया। भगवान शिव की वह बड़ी भक्त थी। बिना उनके पूजन के मुँह में पानी की बूंद नहीं जाने देती थी। सारा राज्य उन्होंने शंकर को अर्पित कर रखा था और आप उनकी सेविका बनकर शासन चलाती थी। 'संपति सब रघुपति के आहि'—सारी संपत्ति भगवान की है, इसका भरत के बाद प्रत्यक्ष और एकमात्र उदाहरण शायद वही थीं। राजाज्ञाओं पर हस्ताक्षर करते समय अपना नाम नहीं लिखती थी। नीचे केवल श्री शंकर लिख देती थी। उनके रुपयों पर शंकर का लिंग और बिल्व पत्र का चित्र अंकित है ओर पैसों पर नंदी का। तब से लेकर भारतीय स्वराज्य की प्राप्ति तक इंदौर के सिंहासन पर जितने नरेश उनके बाद में आये सबकी राजाज्ञाऐं जब तक की श्रीशंकर आज्ञा जारी नहीं होती, तब तक वह राजाज्ञा नहीं मानी जाती थी और उस पर अमल भी नहीं होता था। अहिल्याबाई का रहन-सहन बिल्कुल सादा था। शुद्ध सफ़ेद वस्त्र धारण करती थीं। जेवर आदि कुछ नहीं पहनती थी। भगवान की पूजा, अच्छे ग्रंथों को सुनना ओर राजकाज आदि में नियमित रहती थी।

शांति और सुरक्षा की स्थापना

Blockquote-open.gif मल्हारराव होल्कर के जीवन काल में ही उनके पुत्र खंडेराव का निधन 1754 ई. में हो गया था। अतः मल्हार राव के निधन के बाद रानी अहिल्याबाई ने राज्य का शासन-भार सम्भाला था। रानी अहिल्याबाई ने 1795 ई. में अपनी मृत्यु पर्यन्त बड़ी कुशलता से राज्य का शासन चलाया। उनकी गणना आदर्श शासकों में की जाती है। Blockquote-close.gif

शासन की बागडोर जब अहिल्याबाई ने अपने हाथ में ली, राज्य में बड़ी अशांति थी। चोर, डाकू आदि के उपद्रवों से लोग बहुत तंग थे। ऐसी हालत में उन्होंने देखा कि राजा का सबसे पहला कर्त्तव्य उपद्रव करने वालों को काबू में लाकर प्रजा को निर्भयता और शांति प्रदान करना है। उपद्रवों में भीलों का ख़ास हाथ था। उन्होंने दरबार किया और अपने सारे सरदारों और प्रजा का ध्यान इस ओर दिलाते हुए घोषणा की—'जो वीर पुरुष इन उपद्रवी लोगों को काबू में ले आवेगा, उसके साथ मैं अपनी लड़की मुक्ताबाई की शादी कर दूँगी।' इस घोषणा को सुनकर यशवंतराव फणसे नामक एक युवक उठा और उसने बड़ी नम्रता से अहिल्याबाई से कहा कि वह यह काम कर सकता है। महारानी बहुत प्रसन्न हुई। यशवंतराव अपने काम में लग गये और बहुत थोड़े समय में उन्होंने सारे राज्य में शांति की स्थापना कर दी। महारानी ने बड़ी प्रसन्नता और बड़े समारोह के साथ मुक्ताबाई का विवाह यशवंतराव फणसे से कर दिया। इसके बाद अहिल्याबाई का ध्यान शासन के भीतरी सुधारों की तरफ गया। राज्य में शांति और सुरक्षा की स्थापना होते ही व्यापार-व्यवसाय और कला-कौशल की बढ़ोत्तरी होने लगी और लोगों को ज्ञान की उपासना का अवसर भी मिलने लगा। नर्मदा के तीर पर महेश्वरी उनकी राजधानी थी। वहाँ तरह-तरह के कारीगर आने लगे ओर शीघ्र ही वस्त्र-निर्माण का वह एक सुंदर केंद्र बन गया।

अहिल्याबाई होल्कर प्रतिमा, मथुरा

राज्य के विस्तार को व्यवस्थित करके उसे तहसीलों और ज़िलों में बाँट दिया गया ओर प्रजा की तथा शासन की सुविधा को ध्यान में रखते हुए तहसीलों और ज़िलों के केद्र क़ायम करके जहाँ-जहाँ आवश्यकता प्रतीत हुई, न्यायालयों की स्थापना भी कर दी गई। राज्य की सारी पंचायतों के काम को व्यवस्थित किया और न्याय पाने की सीढियाँ बना दी गईं। आख़िरी अपील मंत्री सुनते थे। परंतु यदि उनके फैसले से किसी को संतोष न होता तो महारानी खुद भी अपील सुनती थी।

सेनापति के रूप में

मल्हारराव के भाई-बंदों में तुकोजीराव होल्कर एक विश्वासपात्र युवक थे। मल्हारराव ने उन्हें भी सदा अपने साथ में रखा था और राजकाज के लिए तैयार कर लिया था। अहिल्याबाई ने इन्हें अपना सेनापति बनाया और चौथ वसूल करने का काम उन्हें सौंप दिया। वैसे तो उम्र में तुकोजीराव होल्कर अहिल्याबाई से बड़े थे, परंतु तुकोजी उन्हें अपनी माता के समान ही मानते थे और राज्य का काम पूरी लगन ओर सच्चाई के साथ करते थे। अहिल्याबाई का उन पर इतना प्रेम और विश्वास था कि वह भी उन्हें पुत्र जैसा मानती थीं। राज्य के काग़ज़ों में जहाँ कहीं उनका उल्लेख आता है वहाँ तथा मुहरों में भी 'खंडोजी सुत तुकोजी होल्कर' इस प्रकार कहा गया है।

महिला सशक्तीकरण की पक्षधर

भारतीय संस्कृति में महिलाओं को दुर्गा और चण्डी के रूप में दर्शाया गया है। ठीक इसी तरह अहिल्याबाई ने स्त्रियों को उनका उचित स्थान दिया। नारीशक्ति का भरपूर उपयोग किया। उन्होंने यह बता दिया कि स्त्री किसी भी स्थिति में पुरुष से कम नहीं है। वे स्वयं भी पति के साथ रणक्षेत्र में जाया करती थीं। पति के देहान्त के बाद भी वे युध्द क्षेत्र में उतरती थीं और सेनाओं का नेतृत्व करती थीं। अहिल्याबाई के गद्दी पर बैठने के पहले शासन का ऐसा नियम था कि यदि किसी महिला का पति मर जाए और उसका पुत्र न हो तो उसकी संपूर्ण संपत्ति राजकोष में जमा कर दी जाती थी, परंतु अहिल्या बाई ने इस कानून को बदल दिया और मृतक की विधवा को यह अधिकार दिया कि वह पति द्वारा छोड़ी हुई संपत्ति की वारिस रहेगी और अपनी इच्छानुसार अपने उपयोग में लाए और चाहे तो उसका सुख भोगे या अपनी संपत्ति से जनकल्याण के काम करे। अहिल्या बाई की ख़ास विशेष सेवक एक महिला ही थी। अपने शासनकाल में उन्होंने नदियों पर जो घाट स्नान आदि के लिए बनवाए थे, उनमें महिलाओं के लिए अलग व्यवस्था भी हुआ करती थी। स्त्रियों के मान-सम्मान का बड़ा ध्यान रखा जाता था। लड़कियों को पढ़ाने-लिखाने का जो घरों में थोड़ा-सा चलन था, उसे विस्तार दिया गया। दान-दक्षिणा देने में महिलाओं का वे विशेष ध्यान रखती थीं।

कुछ उदाहरण
  • एक समय बुन्देलखंड के चन्देरी मुकाम से एक अच्छा ‘धोती-जोड़ा’ आया था, जो उस समय बहुत प्रसिद्ध हुआ करता था। अहिल्या बाई ने उसे स्वीकार किया। उस समय एक सेविका जो वहां मौजूद थी वह धोती-जोड़े को बड़ी ललचाई नजरों से देख रही थी। अहिल्याबाई ने जब यह देखा तो उस कीमती जोड़े को उस सेविका को दे दिया।
  • इसी प्रकार एक बार उनके दामाद ने पूजा-अर्चना के लिए कुछ बहुमूल्य सामग्री भेजी थी। उस सामान को एक कमज़ोर भिखारिन जिसका नाम था सिन्दूरी, उसे दे दिया। किसी सेविका ने याद दिलाया कि इस सामान की जरूरत आपको भी है परन्तु उन्होंने यह कहकर सेविका की बात को नकार दिया कि उनके पास और हैं।

किसी महिला का पैरों पर गिर पड़ना अहिल्या बाई को पसन्द नहीं था। वे तुरंत अपने दोनों हाथों का सहारा देकर उसे उठा लिया करती थीं। उनके सिर पर हाथ फेरतीं और ढाढस बंधाती। रोने वाली स्त्रियों को वे उनके आंसुओं को रोकने के लिए कहतीं, आंसुओं को संभालकर रखने का उपदेश देतीं और उचित समय पर उनके उपयोग की बात कहतीं। उस समय किसी पुरुष की मौजूदगी को वे अच्छा नहीं समझती थीं। यदि कोई पुरुष किसी कारण मौजूद भी होता तो वे उसे किसी बहाने वहां से हट जाने को कह देतीं। इस प्रकार एक महिला की व्यथा, उसकी भावना को एकांत में सुनतीं, समझतीं थीं। यदि कोई कठिनाई या कोई समस्या होती तो उसे हल कर देतीं अथवा उसकी व्यवस्था करवातीं। महिलाओं को एकांत में अपनी बात खुलकर कहने का अधिकार था। राज्य के दूरदराज के क्षेत्रों का दौरा करना, वहां प्रजा की बातें, उनकी समस्याएं सुनना, उनका हल तलाश करना उन्हें बहुत भाता था। अहिल्याबाई, जो अपने लिए पसन्द करती थीं, वही दूसरों के लिए पसंद करती थीं। इसलिए विशेषतौर पर महिलाओं को त्यागमय उपदेश भी दिया करती थीं।

  • एक बार होल्कर राज्य की दो विधवाएं अहिल्याबाई के पास आईं, दोनों बड़ी धनवान थीं परन्तु दोनों के पास कोई सन्तान नहीं थी। वे अहिल्याबाई से प्रभावित थीं। अपनी अपार संपत्ति अहिल्या बाई के चरणों में अर्पित करना चाहती थीं। संपत्ति न्योछावर करने की आज्ञा मांगी, परन्तु उन्होंने उन दोनों को यह कहकर मना कर दिया कि जैसे मैंने अपनी संपत्ति जनकल्याण में लगाई है उसी प्रकार तुम भी अपनी संपत्ति को जनहित में लगाओ। उन विधवाओं ने ऐसा ही किया और वे धन्य हो गईं।[1]

मृत्यु

राज्य की चिंता का भार और उस पर प्राणों से भी प्यारे लोगों का वियोग। इस सारे शोक-भार को अहिल्याबाई का शरीर अधिक नहीं संभाल सका। और 13 अगस्त सन् 1795 को उनकी जीवन-लीला समाप्त हो गई। अहिल्याबाई के निधन के बाद तुकोजी इन्दौर की गद्दी पर बैठा।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. महिला सशक्तीकरण की पक्षधर थीं अहिल्याबाई (हिंदी) दक्षिण भारत राष्टृमत। अभिगमन तिथि: 16 अप्रॅल, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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