प्रयोग:माधवी
माधवी
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पूरा नाम | गीता फोगाट |
जन्म | 15 दिसंबर, 1988 |
जन्म भूमि | भिवानी ज़िला, हरियाणा |
अभिभावक | पिता- महावीर सिंह फोगाट, माता- दया कौर |
पति/पत्नी | पवन कुमार |
कर्म भूमि | हरियाणा |
खेल-क्षेत्र | कुश्ती |
प्रसिद्धि | भारतीय महिला पहलवान |
नागरिकता | भारतीय |
संबंधित लेख | महावीर सिंह फोगाट, बबीता फोगाट, कुश्ती, कुश्ती का इतिहास, कुश्ती की पद्धतियाँ |
बहन | बबीता, रितु, संगीता |
भाई | दुष्यंत फोगाट |
अन्य जानकारी | गीता फोगाट को अंतर्राष्ट्रीय खेलों के योगदान के बदले हरियाणा पुलिस का डिप्टी सुपरिनटेंडेंट बनाया गया। |
अद्यतन | 16:46, 27 जनवरी 2017 (IST) |
गीता फोगाट (अंग्रेज़ी: Geeta Phogat, जन्म- 15 दिसंबर, 1988, भिवानी ज़िला, हरियाणा) एक भारतीय महिला फ्रीस्टाइल पहलवान हैं जिन्होंने पहली बार भारत के लिए राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक जीता है। गीता ने 55 किलो वजन के अंतर्गत 2010 राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक जीतकर देश का नाम रोशन किया। साथ ही गीता पहली भारतीय महिला पहलवान हैं जिन्होंने ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व किया था।[1]
जन्म एवं परिचय
गीता फोगाट का जन्म 15 दिसंबर, 1988 को हरियाणा में भिवानी ज़िले के छोटे से गाँव बलाली के हिन्दू-जाट परिवार में हुआ था, जो अपने पिता से विरासत में मिली पहलवानी को आगे बढ़ा रही हैं। गीता फोगाट की माँ दया कौर एक गृहणी हैं। परिवार में गीता की तीन बहनें बबीता, रितु, संगीता और एक भाई दुष्यंत हैं। गीता और बबीता पहले ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर की महिला पहलवान हैं और रितु अभी अपने पिता से पहलवानी का प्रशिक्षण ले रही हैं। साथ ही गीता की सबसे छोटी बहन संगीता और भाई दुष्यंत भी पहलवानी के रास्ते पर हैं। गीता के पिता पेशे से एक ग्रीक-रोमन स्टाइल के पहलवान हैं, जो कभी मेट पर तो कभी मिट्टी में ही पहलवानी कर लिया करते हैं। वे एक द्रोणाचार्य पुरस्कार प्राप्तकर्ता हैं और गीता फोगाट के कोच भी हैं। अपनी पहलवानी से अच्छे-अच्छे पहलवानों के छक्के छुड़ाने वाले महावीर सिंह फोगाट धन से गरीब थे, पर लड़कियों के प्रति विचारों को लेकर धनी हैं।
जब महावीर फोगाट की पहली संतान बेटी रत्न गीता फोगाट के रूप में हुई और एक वर्ष एक महीने के बाद दूसरी बेटी रत्न बबीता फोगाट का जन्म हुआ तो महावीर सिंह फोगाट ने लड़कों-लड़कियों में भेदभाव ना करते हुए निश्चय किया कि वे उन्हें लड़कों की तरह पहलवान बनाएँगे। गीता फोगाट की बहन बबीता कुमारी और उसके चचेरे भाई विनेश फोगाट भी राष्ट्रमंडल खेलों की स्वर्ण पदक विजेता हैं। गीता फोगाट की एक और छोटी बहन रितु फोगाट भी एक अंतरराष्ट्रीय स्तर पहलवान हैं और 2016 राष्ट्रमंडल कुश्ती चैम्पियनशिप में स्वर्ण पदक जीत चुकी हैं।
पहलवानी का सफ़र
पाँच वर्ष के होते ही गीता फोगाट के पिता ने गीता फोगाट और बबीता फोगाट को पहलवानी का प्रशिक्षण देने लगे। शुरुआत में गीता फोगाट के पिता उन्हें दौड़ लगवाने के लिए खेतों में ले जाते थे। धीरे-धीरे समय निकलता गया तो अभ्यास कठिन होता चला गया। महावीर फोगाट लड़कों के साथ ही अपनी बेटियों को दौड़ करवाते और दांव-पैच सिखाते थे। अगर वे लड़कों से दौड़ करते समय कमजोर पड़ जातीं तो महावीर सिंह फोगाट गुस्सा भी काफ़ी करते थे। इतनी कठिन अभ्यास के कारण गीता हार भी मान जातीं थी।

जैसे-जैसे गीता और बबीता फोगाट बड़ी होने लगीं तो जमाना उनका सहयोग करने के बजाय अजीब-अजीब मुंह बनाने लगा। कई बार वे ऐसे सोचते थे भी कि "अगर हम किसी दूसरे अखाड़े या और स्टेडियम में होते तो पापा जैसा कोच मिल जाता तो हम कभी भी वापस वहाँ नहीं जाते घर ही आ जाते। कई बार तो हम को लोगों से विरोध और धमकियाँ भी मिलती थीं।"
पर हम सभी अपने पथ पर पूर्ण विश्वास के साथ डटे रहे। उन्हीं दिनों 2000 के सिडनी ऑलंपिक्स में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए कर्णम मल्लेश्वरी ने वेट लिफ्टिंग में भारत के लिये कास्य पदक जीतीं, जो ऑलंपिक्स में किसी भी भारतीय महिला खिलाड़ी का पहला पदक था। गीता फोगाट के पिता एक जुनूनी कोच थे, जिससे वो अपने पिता से काफी परेशान हो जाती थीं। इतनी कड़े अभ्यास के बाद महावीर सिंह फोगाट, गीता और बबीता को बड़े-बड़े अखाड़े में कुश्ती के मुक़ाबले के लिए ले जाने लगे। पर पुरुषवादी खेल के लोगों ने उनका साथ नहीं दिया और उन्हें बेटियों को ना खिलाने की हिदायत भी दे डाली। पर महावीर सिंह फोगाट रुके नहीं। बल्कि उन्होंने अपनी बेटियों को आगे के अभ्यास के लिए स्पोर्ट्स ऑथोरीटी ऑफ इंडिया में दाखिला दिला दिया। बचपन में मिट्टी में खूब पसीना बहाने वाली गीता और बबीता में वहाँ के कोचों को जल्द ही टैलेंट दिखा और वे उन्हें आधुनिक ट्रेनिंग देने लगे।
जीत का सफर
मेहनत का सुनहरा परिणाम 2009 में आया, जब गीता ने इतिहास रचते हुए जलंधर कॉमनवेल्थ गेम्स में स्वर्ण पदक जीतीं, जो ऐसा करने वाली पहली भारतीय महिला पहलवान थीं। इसी तरह 2010 के न्यू दिल्ली कॉमनवेल्थ गेम्स में लगातार सोने का तमगा जीतकर गीता फोगाट ने यह साबित कर दिया कि यदि किसी लक्ष्य के लिए जी-तोड़ मेहनत की जाए तो जमाना भी आपके आड़े नहीं आ सकता। अब गीता के जीत का यह आलम था कि वो 2012 के वर्ल्ड रेस्टलिंग चैंपियशिप में ताँबे का तमगा, 2013 के कॉमनवेल्थ गेम्स में रजक पदक और 2015 के एशियन चैंपियनशिप में कास्य पदक जीतीं। 18 अक्तूबर 2016, मंगलवार को हरियाणा कैबिनेट की मंजूरी पर गीता फोगाट के अंतर्राष्ट्रीय खेलों योगदान के बदले हरियाणा पुलिस का डिप्टी सुपरिनटेंडेंट बनाया गया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता फोगाट (हिंदी) biography.com। अभिगमन तिथि: 28 जनवरी, 2017।
माधवी
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पूरा नाम | महावीर सिंह फोगाट |
अन्य नाम | महावीर फोगाट |
जन्म भूमि | भिवानी ज़िला, हरियाणा |
पति/पत्नी | दया कौर |
संतान | गीता, बबीता, रितु, संगीता और दुष्यंत |
कर्म भूमि | हरियाणा |
खेल-क्षेत्र | कुश्ती |
पुरस्कार-उपाधि | द्रोणाचार्य पुरस्कार |
नागरिकता | भारतीय |
संबंधित लेख | गीता फोगाट, बबीता फोगाट, , कुश्ती, कुश्ती का इतिहास, कुश्ती की पद्धतियाँ |
अन्य जानकारी | महावीर सिंह फोगाट की पुत्री गीता फोगाट एक भारतीय महिला फ्रीस्टाइल पहलवान हैं जिन्होंने पहली बार भारत के लिए राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक जीता था। |
अद्यतन | 16:46, 27 जनवरी 2017 (IST) |
महावीर सिंह फोगाट (अंग्रेज़ी: Mahavir Singh Phogat, जन्म- भिवानी ज़िला, हरियाणा) प्रसिद्ध रेसलर व ओलंपिक में कोच के साथ द्रोणाचार्य पुरस्कार प्राप्तकर्ता भी हैं। आमिर ख़ान की फ़िल्म 'दंगल' की कहानी हरियाणा के पहलवान महावीर सिंह फोगाट की जिंदगी पर आधारित है। ये प्रसिद्ध रेसलिंग कोच गीता फोगाट के पिता हैं।[1]
जन्म एवं परिचय
महावीर सिंह फोगाट का जन्म हरियाणा में भिवानी ज़िले के छोटे से गाँव बलाली के हिन्दू-जाट परिवार में हुआ था। उन्होंने बचपन से बहुत सी रूढ़िवादी व दकियानूसी बातों को अपने आसपास देखा था, उस समय वहां के लोग घर में बेटी होने पर उन्हें तुरंत मार देते थे। लेकिन वे खुद खुले विचारों वाले इन्सान थे। महावीर जी की विवाह दया कौर से हुआ था जिनसे उन्हें 2 बेटी- गीता फोगाट व बबिता फोगाट हैं। महावीर जी ने कम उम्र से ही रेसलिंग की शुरुआत कर दी थी, ये प्रसिद्ध रेसलिंग कोच गीता फोगाट के पिता हैं। इन्होंने 2010 में हुए कॉमनवेल्थ खेल में महिला केटेगरी में भारत को पहली बार स्वर्ण पदक दिलाया था। गीता पहली महिला रेसलर हैं, जो ओलंपिक के लिए चुनीं गई। महावीर सिंह फोगाट की दूसरी बेटी बबिता कुमारी भी 2014 के कॉमनवेल्थ खेल में स्वर्ण पदक जीत चुकी हैं।
संघर्ष पूर्ण जीवन
महावीर सिंह का जीवन बहुत संघर्ष से भरा हुआ रहा, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी। यही वजह है कि उनके जीवन से बहुत लोग प्रेरणा लेते हैं। महावीर सिंह के जीवन पर आधारित आमिर खान ने फ़िल्म भी बनाई है। महावीर सिंह रेसलर तो थे, लेकिन उनको उस हिसाब से लोकप्रियता नहीं मिली। उन्होंने अपने इस अधूरे सपने को अपनी बेटियों के द्वारा पूरा करना चाहा। साल 2000 में कर्णम मल्लेश्वरी के ओलंपिक में पदक जीतने के बाद महावीर ने अपनी बेटियों को रेसलर बनाने की ठानी। घर वाले बेटियों को कुश्ती सिखाने के खिलाफ थे। महावीर जी ने अपनी बेटियों को रेसलिंग का प्रशिक्षण देना शुरू किया, वे चाहते थे उनकी बेटियां सफल रेसलर बनें और उनका व देश का नाम रोशन करें। इस निर्णय की वजह से महावीर जी को पूरे गाँव के गुस्से का शिकार होना पड़ा। यहाँ तक कि उनके गाँव वालों ने उन्हें वहां से बाहर निकाल दिया। 'दंगल' फ़िल्म में पहलवान महावीर सिंह फोगाट की सच्ची और प्रेरणादायी कहानी बताई गई है कि वे कैसे समाज की परवाह किये बिना अपनी बेटियों को भारत के लिए स्वर्ण पदक जीतने के लिए कुश्ती में प्रशिक्षण देते हैं।
गाँव वालों का कहना था कि महावीर एक अच्छे पिता नहीं है, जिस उम्र में उन्हें अपनी लड़कियों की शादी करनी चाहिए, उस उम्र में ये उन्हें रेसलर बना रहे हैं, लड़कियों को हमेशा पर्दे में रहना चाहिए व घर संभालना चाहिए। इन सब बातों के परे महावीर ये सोचते थे कि अगर भारत देश की प्रधानमंत्री एक महिला हो सकती है, तो एक महिला एक रेसलर भी बन सकती है। महावीर जी ने 3 लोगों को ऐसा प्रशिक्षण दिया, जिसके बाद वे लोग स्वर्ण पदक के विजेता बने। आज महावीर सिंह फोगाट का नाम भले ही दुनिया के हर कोने में गूंज रहा हो पर उनके के लिए यह सब आसान नहीं था। महावीर सिंह फोगाट के लिए सब कुछ जैसे पहली बार था।
सम्मान
महावीर सिंह फोगाट भारतीय कुश्ती संगठन द्वारा द्रोणाचार्य पुरस्कार के लिए नामित किए गए थे। वे प्रसिद्ध रेसलर व ओलंपिक में कोच के साथ द्रोणाचार्य पुरस्कार प्राप्तकर्ता भी हैं। महावीर सिंह फोगाट अपने राज्य के कुश्ती चैंपियन के अलावा वे भारतीय कुश्ती टीम का हिस्सा भी रह चुके हैं। महावीर फोगाट दिल्ली के मशहूर चांदगी राम अखाड़ा की शान रह चुके हैं।
सफलता
महावीर जी की बेटी गीता फोगाट (55 किलो वर्ग) में भारत की ओर से स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली महिला पहलवान हैं। उन्होंने यह कारनामा कॉमनवेल्थ गेम्स 2010 में किया। उसके बाद साल 2014 के कॉमनवेल्थ गेम्स में बबीता फोगाट ने स्वर्ण पदक जीता। इसके अलावा गीता भारत की ओर से ओलंपिक में क्वालिफाई करने वाली पहली महिला पहलवान भी रह चुकी हैं। आज की तारीख में फोगाट बहने किंवदंती बन चुकी हैं और इसका श्रेय महावीर फोगाट की निष्ठा और दूरदृष्टि को भी जाता है।
फ़िल्म 'दंगल'
दंगल फ़िल्म पहलवान महावीर सिंह फोगाट की जिंदगी पर आधारित है और आमिर खान ने महावीर सिंह की भूमिका दंगल फ़िल्म में निभाई है। इस फ़िल्म में दिखाया गया है कि किस तरह महावीर सिंह अपनी बेटियों गीता और बबीता को कुश्ती के दांव-पेंच सिखाकर उन्हें रेसलिंग का चैंपियन बनाते हैं।
लेखन कार्य
आमिर ने फोगाट फैमिली के लिए मुंबई में स्पेशल स्क्रीनिंग रखी थी। दोनों बहनें पिता के साथ यहां आई। द्रोणाचार्य अवॉर्डी महावीर यहां 'दंगल' से पहले अपनी किताब 'अखाड़ा' को रिलीज करने पहुंचे थे।
अन्य जानकारी
महावीर जी ने अपनी बेटियों के अलावा भाई की बेटियों को भी प्रशिक्षण दिया। ऐसा नहीं है कि महावीर फोगाट सिर्फ अपनी बेटियों को ही दंगल में उतारते रहे। गीता फोगाट और बबीता फोगाट की चचेरी बहन विनेश फोगाट भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर की पहलवान हैं। महावीर जी की बेटियाँ कहती हैं कि "फ़िल्म का ये गाना तो सच है, लेकिन हम जो भी हैं इसी हानिकारक बापू की ही बदौलत है। जो भी बने हैं इन्हीं के दम पर बने हैं।" महावीर फोगाट आज किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं, उन्होंने अपनी खुद की चार बेटियों के साथ परिवार की पांच लड़कियों को इंटरनेशनल रेसलर बनाया है। इसमें से तीन तो ओलंपियन है। गीता, बबीता और विनेश फोगाट जिन दावों के दम पर दुनिया को हिला रही हैं वो महावीर फोगाट की ही देन हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महावीर सिंह फोगाट (हिंदी) bharatdiscovery.org। अभिगमन तिथि: 28 जनवरी, 2017।
माधवी
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पूरा नाम | बबिता फोगाट |
जन्म | 20 नवम्बर, 1989 |
जन्म भूमि | भिवानी ज़िला, हरियाणा |
अभिभावक | पिता- महावीर सिंह फोगाट, माता- दया कौर |
कर्म भूमि | हरियाणा |
खेल-क्षेत्र | कुश्ती |
प्रसिद्धि | राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक, कॉमनवेल्थ गेम्स में स्वर्ण पदक विजेता। |
नागरिकता | भारतीय |
संबंधित लेख | महावीर सिंह फोगाट, गीता फोगाट, कुश्ती, कुश्ती का इतिहास, कुश्ती की पद्धतियाँ |
बहन | गीता, रितु, संगीता |
भाई | दुष्यंत फोगाट |
अन्य जानकारी | 2009 से 2015 तक बबिता ने सभी कॉमनवेल्थ, एशियन गेम्स में हिस्सा लिया है, जहाँ उन्होंने बहुत से पदक अपने नाम किये। |
अद्यतन | 16:46, 27 जनवरी 2017 (IST) |
बबिता फोगाट (अंग्रेज़ी: Babita Phogat, जन्म- 20 नवम्बर, 1989, भिवानी ज़िला, हरियाणा) एक भारतीय महिला फ्रीस्टाइल पहलवान हैं जिन्होंने 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों में रजत पदक जीता है। जहाँ उन्होंने 2012 विश्व कुश्ती चैंपियनशिप में कांस्य पदक जीता, और 2014 राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक जीतें। बबिता फोगाट राष्ट्रमंडल खेलों की विजेता गीता फोगाट की बहन हैं।
जन्म एवं परिचय
बबिता फोगाट का जन्म 15 दिसंबर, 1988 को हरियाणा में भिवानी ज़िले के छोटे से गाँव बलाली के हिन्दू-जाट परिवार में हुआ था। ये गीता फोगाट की बहन हैं। बबिता फोगाट पहलवान और द्रोणाचार्य पुरस्कार प्राप्तकर्ता महावीर सिंह फोगाट की बेटी हैं। उसकी सबसे छोटी बहन रितु फोगाट, वह एक अंतरराष्ट्रीय स्तर पहलवान है और 2016 राष्ट्रमंडल कुश्ती चैम्पियनशिप में स्वर्ण पदक जीत चुकी हैं। उसकी छोटी बहन, संगीता फोगाट भी एक पहलवान है।
सफलता
2009 से 2015 तक बबिता ने सभी कॉमनवेल्थ, एशियन गेम्स में हिस्सा लिया है, जहाँ उन्होंने बहुत से पदक व प्राइज अपने नाम किये।
समाजसेवा कार्य
बबिता फोगाट, उसकी बहन और चचेरे भाई के साथ-साथ, मानसिकता और हरियाणा में अपने गाँव में महिलाओं और लड़कियों के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव के लिए योगदान दिया है। वे चाहती है कि उनके गाँव वालों की सोच बदले और वे लोग भी अपनी बेटियों को पढ़ा लिखा कर आगे बढ़ाये।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
(भूले बिसरे क्रांतिकारी,प्रं.सं112
योगेशचंद्र चटर्जी
1919 से पहले स्वतंत्रता संग्राम के नाम पर केवल एक ही क्रांतिकारी आंदोलन था। बाकी जो कुछ था, चाहे उसे और कुछ भी कहा जाए, पर उसे संग्राम का नाम नहीं दिया जा सकता। इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने पथम मयायुद्ध में किये गये अहसानों के बदले किस प्रकार रौटल कमेटी की स्थापना की और उसके फलस्वरूप किस प्रकार रौलट बिल पास हुआ और किस प्रकार उसके प्रतिबाद से होनेवाली एक सभा में अमृतसर में गोलियां चलाई गयीं और लगभग एक हजार आदमी मारे गये, किस प्रकार इसी जलियांवाला बाग के हवनकुण्ड से असहयोग आंदोलन निकला, यहा सभी जानते हैं। जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन चलाया, उस समय क्रांतिकारी ने अपना आंदोलन बंद कर दिया था। वे सभी इन प्रयोग से बहुत प्रभावित थे।
पर जब गांधीजी ने 1922 के प्रारंभ में चौरीचौरा में होनेवाली एक घटना के कारण असहयोग आंदोलन एकाएक बंद कर दिया, तो क्रांतिकारी आंदोलन फिर से चल निकला, क्योंकि कई क्रांतिकारियों का गांधी जी पर से विश्वास उठ गया था। उत्तर भारत में क्रांतिकारी फिर से संग्ठित होने लगे। इनके नेता थे सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी शचींद्रनाथ सान्याल, जो काशी और इलाहाबाद में रहते थे। दूसरे नेता थे शाहजहांपुर के रामप्रसाद 'बिस्मिल'। बंगाल के सुप्रसिद्ध 'अनुशीलता' दल ने क्रांतिकारी दल को फिर से संगठित करने के लिए के लिए काशी में दो युवकों को भेजा। बे साधु बनकर और उन्होंने 'कल्याण आश्रम' नाम के एक आश्रम खोला और वहां के युवकों से संपर्क स्थापित करने लगे। अपना कार्य संपन्न हो जाने पर वे बंगाल लौट गए और उनकी जगह योगेशचन्द्र चटर्ची आए। यह 1923 के शुरू की बात है। तब पहली बाद मुझे उनसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनका रोम रोम षड्यंत्रकारी लगता था। यह जिस काम का बीड़ा उठा कर आर थे, उससे पूरी तरह परिचित थे।
एक कठिनाई यह थी वह कि वह हिंदी नहीं जानते थे। पर जल्दी ही जन्होंने हिंदी का काम चलाऊ ज्ञान प्राप्त कर लिया। फिर हम लोग उसके सद्दायक तो थे ही। युवकों ने अनायास ही उनको अपना बड़ा मान लिया। उनकी आंखों में कोई ऐसी बात थी जिससे विश्वास उत्पन्न होता था, पहले था। पहले तो हमारी भेंट गंगा किनारे किसी मिर्जन घाट पर होती थी और संध्या के बाद बातचीत होती थी; पर बाद में एकाध उनके निवास पर जाने का मौका भी मिला। मुझे आज भी वह दृश्य नहीं भूलता। अलम्यूनियम के दो-तीन बर्तन, एक मामूली-सा बस्तर, एक जोड़ी चप्पल- बस, यही उनक सारा सामान था। खर्च से बचने के लिए यह स्वयं खाना पकाते थे और लगभग पाँच रुपए महीने में गुजर करते थे। क्रांतिकारी, योगेशचन्द्र को 'योगेश दा' कहते थे और इसी नाते वह दल परिचित थे।
कुछ दिनों तक अनुशीलन दल का काम अलग चलता रहा। पर जल्दी ही अनुभव हुआ कि जब शचींद्रनाथ और योगेशचन्द्र एक ही काम कर रहे है, तक कोई कारण नहीं कि दो दल काम करें। इस लिए यह प्रयत्न होने लगा कि दोनों दल एक हो जाएं। योगेश चटर्जी को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी। वह तो काम करना चाहते थे।
शचींद्रनाथ सान्याल ने योगेश चटर्जी से बातचीत की, पर योगेश स्वयं कुछ नहीं कर सकते थे, क्योंकि वह अनुशीलता दल की तरफ से आये हुए थे और यह दल बहुत ही अनुशासित दल था। इसलिए उन्होंने बंगाल में अन्य नेताओं से बातचीत की और थोड़े दिनों में दोनों दल एक हो गये। शचींद्र नाथ सान्याल विवाहित थे और उनको बहुत-से काम रहते थे। इसलिए दल की तरफ से दौरा करने का काम मुख्यत: योगेश दा पर पड़ा और उन्होंने इस काम में बहुत चतुराई दिखायी। वह कानपुर गये और वहां पुराने क्रांतिकारी सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य से मिले। वहाँ का काम उन्हीं के नेतृत्व में चल रहा था। वहाँ उनकी भेंट डॉ. रामदुलारे त्रिवेदी से भी हुई और रामदुलारे को लेकर वह शाहजहांपुर गये, जहां वह पं. रामप्रसाद 'बिस्मिल' से मिले। रामप्रसाद 'बिस्मिल' मैनपुरी षड्यंत्र के फरार थे। पुलिस उन्हें कभी गिरफ्तार न कर सकी। वह लई साल फरार रहे और अंत में जब युद्ध के बाद माफी के अंतर्गत उन्हें भी माफी मिल गयी, तब वह बाहर आये। योगेश दा उनसे मिले। जिसके फलस्वरूप यह दल बहुत बड़ा दल हो गया तथा इसका स्वरूप और दृढ़ हो गया।
योगेशचन्द्र चटर्जी कुमिल्ला के रहने वाले थे। वहीं वह क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल हुए थे। उन्होंने कभी बताया तो नहीं, पर ऐसा अनुमान किया जाता है कि युद्ध काल में कलकत्ता में बसंत चटर्जी की जो रोमांचकारी हत्या हुई थी, उसमें उन्होंने भाग लिया था। पुलिस उन्हें मौके पर गिरफ्तार नहीं कर सकी, पर बाद में उन्हें गिरफ्तार कर, कई तरह की यातनाएं दी गयीं। उनको मारा-पीटा गया, बर्फ की सिल्लियों पर लिटाया गया, और इस पर भी जब वह न माने, तो उन्हें अधम-से-अधम ढंग से प्रताड़ित किया गया। इस तरह कहा जा सकता है कि योगेशचन्द्र उन तमाम यातनाओं और विषत्तियों में से गुजरे, जो उन दिनों क्रांतिकारियों के हिस्सा पड़ती थीं। पिलिस को जब उनके विरुद्ध कोई प्रमाण नहीं मिला, तो उन्हें नजरबंद कर दिया गया।
युद्ध खत्म होने पर वह आम माफी में नजरबंदी से छूटे। इसी के बाद असहयोग आंदोलन चला और उस दौरान उन्होंने चुप्पी रखी। मगर ज्यों ही असहयोग आंदोलन समाप्त हुआ, वह फिर कार्य क्षेत्र में कूद पड़े।
यद्यपि दल के सब से बड़े नेता शचींद्रनाथ सान्याल थे, पर नौजवान योगेश दा को ज्यादा पसंद करते थे, क्योंकि उनके व्यक्तित्व का प्रभाव लोगों पर कुछ और ही पड़ा था। उनको देखकर लगता था जैसे वह विपत्ति सहने और उस पर विजय पाने के लिए ही पैदा हुए हैं। यही धारणा शचींद्र्नाथ सामान्य के संबंध में भी बनती थी। पर शचींद्र सान्याल हर प्रश्न को बौद्धिक दृष्टि से देखते थे, जब कि योगेश चटर्जी भावुक दृष्टि से देखते थे। सुरेश चट्टाचार्य की प्रकृति भी शचींद्र सान्याल की तरह थी, पर रामप्रसाद 'बिस्मिल' योगेश चटर्ची के ज्यादा निकट थे। इसलिए वह नौजवानों में अधिक प्रिय थे।
जब दल एक हो गया तो उसका नाम 'हिंदुस्तानी रिपब्लिकन एसोसिएशन' रखा गया और शचींद्र साम्याल ने उसका एक संविधान भी तैयार किया। यह संविधान पहले, पीले कागज पर छपा था। इसलिए संविधान को 'पीला कागज' भी कहा जाता था। इस संविधान में यह कहा गया था कि इसका अंतिम ध्येय संसार की स्वतंत्र जातियों के संघ का निर्माण करना है। किंतु इसका तात्कालिक उद्देश्य सणस्त्र और सुसंगठित क्रांति द्वारा भारतीय स्वतंत्रता के प्राप्ति था। यह क्रांति; क्रांतिकारियों द्वारा चलाई जाने वाली थी। संविधान में कहा गया कि जनता में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से, यहां तक कि कथा वांच कर भी, क्रांतिकारी विचारधारा का प्रचार किया जाए। धन तथा शस्त्र 'चन्दे से और जबरन चंदे से' भी एकत्र किया जाने वाला था। किसी को सदस्य रभी बनाया जा सकता था जब उसके पहले जीवन की अच्छी तरह छानबीन कर ली जाए, जिससे कोई अवांछनीय व्यक्ति दल में न घुस पाये। सदस्यों को हिदायत थी कि वे अपनी सदस्यता की बात पुलिस और जनता, दोनों से, छिपायें। किसानों और मजदूरों का संगठन का संगठन किया जानेवाला था और प्रत्येक सदस्य को हथियार से लैस करने की योजना थी। किंतु इन हथियारों का उपयोग पार्टी के हुक्म से ही हो सकता था।
1924 तक योगेश चटर्जी की दौड़-धूप तथा अन्य क्रांतिकारियों के प्रयत्नों के कारण दल उत्तर प्रदेश के 23 जिलों में संघठित हो चुका था। योगेश चटर्जी इन्हीं की रिपोर्ट ले कर कलकत्ता जा रहे थे कि हावड़ा स्टेशन पर गिरफ्तार कर लिये गये। उनके पास गुप्त लिपि में लिखी रिपोर्ट प्राप्त हुई। पर उनके विरुद्ध और कोई प्रमाण नहीं था। ठीक उसी समय बंगाल में क्रांतिकारी दल की स्थिति ऐसी हो गयी जिससे कि सरकार ने एक अध्यादेश जारी किया और उसी के अंतर्गत योगेश चटर्जी नजरबंद कर लिये गये।
योगेश दा की गिरफ्तारी के बाद भी उत्तर प्रदेश में क्रांतिकारी कार्य चलता रहा। दल की तरफ से समय-समय पर साहित्य का प्रशासन भी होता था। दल की ही तरफ से रंगून से ले कर पेशाबर तक 'रेवूल्यूनरी' नामक एक पर्चा बाँटा गया, जिसमें दल के उद्देश्य स्पष्ट किये गये थे। पहले संविधान में यह कहा गया था कि दल ऐसी समाज-व्यवस्था चाहता है जिसमें मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण असंभव हो। अब उस की दूसरे रूप में व्याख्या की गई और कहा गया कि प्राचीन ऋषियों ने जिस प्रकार आदर्श समाज की कल्पना की थी, उसी प्रकार के समाज को स्थापित करना हमारा लक्ष्य है। इस संदर्भ में रूस का नाम भी लिया गया। कहना न होगा कि इसमें असंगति थी, क्योंकि रूसी और प्राचीन व्यवस्था एक साथ नहीं चल सकती थीं। जो भी हो, क्रांतिकारी दल दिन-दूनी, रात-चौगुनी करता रहा और धन इकट्ठा करने के लिए दल की तरफ से डकैतियां भी डाली गयीं, जिनमें दल को विशेष धन की प्राप्ति नहीं हुई। तब दल ने सरकारी खजाना लूटने का निश्चय किया। तदनुसार 9 अगस्त 1925 को लखनऊ के पास काकोरी स्टेशन के निकट 8 डाउन गाड़ी रोककर खजाना लूट लिया गया। सरकार अब क्रांतिकारी आंदोलन को अधिक पनपने देना नहीं चाहती थी। नतीजा यह हुआ कि लखनऊ में एक षड्यंत्र केस चला जिसमें अधिक-से-अधिक क्रांतिकारी गिरफ्तार किये गये। अंत में चार क्रांतिकारियों को फांसी की सजा हुई जिनके नाम थे। रामप्रसाद 'बिस्मिल', रोशनसिंन, अशफाक उल्ला और राजेन्द्र लाहिड़ी। इनमें से तीन शाहजहांपुर के रहने वाले थे और एक काशी का।
मर्जे की बात यह है कि 9 अगस्त 1925 को जब काकोरी के पास रेल-गाड़ी रोक कर उसका खजाना लूट गया तब योगेश चटर्जी जेल में थे पर, वह भी नजरबंदी से लखनऊ बुलाये गये और उन पर मुकदमा चला। क्योंकि उन पर रेल का खजाना लूटने का मुकदमा नहीं बनता था, इसलिए उन पर दफा 121 ए के अधीन यानी राज्य का तख्ता पलटने का मुकदमा चला। हवालात में उन्हें लखनऊ जिला जेल में रखा गया। जब कभी काकोरी के हवालातियों को अदालत ले जाया जाता, उनके पैरों में बेड़ियां डाल दी जातीं और जेल पहुंचते ही उनकी बेड़िया खोल दी जातीं।
हवालात का जीवन विलकुल कालेज के बोडिंग जीवन की तरह था। उसी प्रकार से कैदियों ने एक मैस बना रखा था जिसमें सब के लिए खाना पकता था। पहले कैदियों को केवल अपने घर से मंगा कर खाने की व्यवस्था थी या मामूली हवालातियों कासा व्यवहार ही मिलता था, पर बाद में जब काकोरी षड्यंत्र के हवालातियों ने सोलह दिन का अनशन किया, तो उन्हें गीरे कैदियों का-सा बरताव दिया गया जो तब तक जारी रहा जब तक कैदी हवालात में रहे। योगेश चटर्जी को इस षड्यंत्र में पहले सैशन से 10 साल की सजा हुई थी, पर पुलिस वालों ने छह दंडितों के विरुद्ध अपील की और उनमें से पांच की सजाएं बढ़ा दी गयी। योगेश चटर्जी की सजा बढ़ाकर आजन्म कालेपानी की सजा हो गयीं।
योगेश चटर्जी भी अन्य क्रांतिकारी कैदियों की तरह बराबर जेल के अंदर लड़ते रहे, क्योंकि क्रांतिकारी यह समझते रहे कि जेल में पहुंच जाने का मतलब लड़ाई का खत्म हो जाना नहीं होता, बल्कि जेल के अंदर साम्राज्यबाद के विरुद्ध अपनी लड़ाई को दूसरे ढंग से जारी रखा जा सकता है। इसीलिये सजा मिलते ही, सब कैदियों ने (सिवाय फांसी पाने वाले कैदियों के, जिनको इस अनशन से बरी कर दिया गया था) बहुत लंबा अनशन किता जिस गणेशशंकर विद्यार्थी ने तुड़वाया। योगेश चटर्जी ने भी 43 दिन का अनशन किया जिससे वह बहुत कमजोर हो गये।
यद्यपि सरकार ने गणेशशंकर विद्यार्थी से वायदा किया था कि काकोरी केस के कैदियों के साथ विशेष व्यवहार किया जाएगा, हवालात के बाद उन्हें कोई विरोध न दी गयी।
कई वर्ष बाद लाहौर के यतींद्रनाथ दास ने अनशन किया और उनके साथ काकोरी वालों ने भी अनशन किया। यतींद्रनाथ तो 62 दिन अनशन कर के शहीद हो गये, पर काकोरी के तीन क्रांतिकारी ने अनशन जारी रखा और उन्हें व्यवहार प्राप्त हुआ। उसके बाद योगेश चटर्जी ने जेल के अंदर एक दूसरा आंदोलन चला दिया कि राजनैतिक कैदियों को एक-साथ रखा जाए। जेल के अंदर वर्षों तक काल कोठरी में बंद रहने से कैदियों के दिमागों पर असर पड़ता था, इसलिए उन्होंने यह बीड़ा उठाया था। इस संबंध में उन्होंने कई अनशन किये, जिनका बहुत प्रचार हुआ। उनका सब से बड़ा अनशन 142 दिन का रहा। इन अनशानों के दौरान उन्हें नाक से जबरन दूध पिलाया जाता था।
1937 में 12 साल जेल में रहने के बाद सब काकोरी कैदियों की तरह योगेश चटर्जी को भी छोड़ दिया गया। पर वह चुपचाप नहीं बैठे रहे। उन्होंने फिर क्रांतिकारी कार्य शुरू कर दिया। उसी साल उन्हें दिल्ली में राजनीतिक कैदियों के सम्मेलन की अध्यक्षता करने के लिए निमंत्रित किया गया, पर दिल्ली पहुचते ही उन्हें यह हुक्म मिला कि छह छंटे के अंदर दिल्ली से निकल जाओं। वह इस हुकम को मानने के लिए तैयार न थे। नतीजा यह हुआ कि रामदुलारे त्रिवेदी, रामकृष्ण खत्री, शचींद्रनाथ वस्त्री, योगेश चटर्जी और इन पंक्तियों के लेखक को चार महीने की सजा हुई।
इसके बाद जब दूसरी लड़ाई छिड़ी, तो क्रांतिकारी गिरफ्तार होने लगे और योगेश चटर्जी फरार हो गये। अंत में वह क्रांतिकारी षड्यंत्र के नेता के रूप में फिर जेल पहुचे और इस बार फिर उन्हें लंबी सजा हुई। वह स्वराज के ऐन पहले अंतिम कैदियों के साथ छूटे। स्वराज्य के बाद वह कांग्रेस में काम करते रहे और संसद सदस्य भी बनाये गये। किंतु मृत्यु से दो साल पहले उनका दिमाग ठीक काम नहीं कर रहा था। यह संभवतया इसलिए हुआ कि उनको जीवन में शुरू से ही बहुत कष्ट उठाने पड़े थे। उन्होंने इस बीच विवाह भी किया जो असफल रहा। इसके बावजूद वह अंत तक बराबर किसी-न-किसी प्रकार की लड़ाई में लगे रहे। 1958 में उन्होंने दिल्ली में क्रांतिकारियों का एक बहुत बड़ा सम्मेलन बुलाया जिसमें वह अरविंद घोष के छोटे भाई वारींद्रकुमार घोष इत्यादि को भी प्रस्तुत करना चाहते थे। उनको इस बात से सख्त शिकायत थी कि क्रांतिकारीयों का पूरा इतिहास नहीं लिखा गया। इसी के संबंध में वह समय-समय पर आंदोलन करते रहे, यहां तक कि मृत्यु से पहले 23 मार्च को जब भगतसिंह दिवस मनाया गया, तो उस उपलक्ष्य में बुलाई गई एक सभा में उन्होंने एक भाषण भी किया और टाइम्स ऑफ इंडिया में भगतसिंह पर एक लेख भी लिखा।
संसद का यह है कि किसी संसद सदस्य का मस्तिष्क विकृत हो जाने पर वह संसद का सदस्य नहीं रह सकता। शुरू में तो उनकी मस्तिष्क-विकृति की जानकारी अंतरंग मित्रों तक ही सीमित रही बाद में जब लोग इस बात को जान गये, तब भी वे चुप रहे।
इसमें कोई संदेह नहीं कि योगेश चटर्जी एक बहुत बड़े योद्धा थे। उन्होंने हिंन्दी अच्छी तरह से सीख ली थी और वह हिंदी तथा अंग्रेजी में भाषण देते हुए और लेख करते थे। अपनी आत्मकथा अंग्रेजी में लिखी है जो प्रकाशित हो चुकी है।
शचीन्द्रनाथ सान्याल के बाद योगेश चटर्जी ही उत्तर भारत के उस युग की यादगार थे।