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रसखान का श्रृंगार रस

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हिन्दी साहित्य में कृष्ण भक्त तथा रीतिकालीन कवियों में रसखान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 'रसखान' को रस की ख़ान कहा जाता है। इनके काव्य में भक्ति, श्रृगांर रस दोनों प्रधानता से मिलते हैं।

श्रृंगार रस के दो भेद हैं-

  1. संयोग श्रृंगार
  2. विप्रलंभ श्रृंगार।

संयोग श्रृंगार
प्रिय और प्रेमी का मिलन दो प्रकार का हो सकता है- संभोग सहित और संभोग रहित। पहले का नाम संभोग श्रृंगार और दूसरे का नाम संयोग श्रृंगार है।

संभोग श्रृंगार
जहाँ नायक-नायिका की संयोगावस्था में जो पारस्परिक रति रहती है वहाँ संभोग श्रृंगार होता है। 'संभोग' का अर्थ संभोग सुख की प्राप्ति है। रसखान के काव्य में संभोग श्रृंगार के अनेक उदाहरण मिलते हैं। राधा-कृष्ण मिलन और गोपी-कृष्ण मिलन में कहीं-कहीं संभोग श्रृंगार का पूर्ण परिपाक हुआ है। उदाहरण के लिए—
अँखियाँ अँखियाँ सो सकाइ मिलाइ हिलाइ रिझाइ हियो हरिबो।
बतियाँ चित्त चोरन चेटक सी रस चारु चरित्रन ऊचरिबो।
रसखानि के प्रान सुधा भरिबो अधरान पे त्यों अधरा धरिबो।
इतने सब मैन के मोहिनी जंत्र पे मन्त्र बसीकर सी करिबो॥[1] इस पद्य में रसखान ने संभोग श्रृंगार की अभिव्यक्ति नायक और नायिका की श्रृंगारी चेष्टाओं द्वारा करायी है। यद्यपि उन्होंने नायक तथा नायिका या कृष्ण-गोपी शब्द का प्रयोग नहीं किया, तथापि यह पूर्णतया ध्वनित हो रहा है कि यहाँ गोपी-कृष्ण आलंबन हैं। चित्त चोरन चेटक सी बतियां उद्दीपन विभाव हैं। अंखियां मिलाना, हिलाना, रिझाना आदि अनुभाव हैं। हर्ष संचारी भाव है। संभोग श्रृंगार की पूर्ण अभिव्यक्ति हो रही है। संभोग श्रृंगार के आनंद-सागर में अठखेलियां करते हुए नायक-नायिका का रमणीय स्वरूप इस प्रकार वर्णित है—
सोई हुती पिय की छतियाँ लगि बाल प्रवीन महा मुद मानै।
केस खुले छहरैं बहरें फहरैं, छबि देखत मन अमाने।
वा रस में रसखान पगी रति रैन जगी अखियाँ अनुमानै।
चंद पै बिंब औ बिंब पै कैरव कैरव पै मुकतान प्रमानै॥[2]


अधर लगाइ रस प्याइ बाँसुरी बजाइ,
मेरो नाम गाइ हाइ जादू कियौ मन मैं।
नटखट नवल सुघर नंदनंदन ने,
करिकै अचेत चेत हरि के जतन मैं।
झटपट उलट पुलट पट परिधान,
जान लगीं लालन पै सबै बाम बन मैं।
रस रास सरस रंगीलो रसखानि आनि,
जानि ज़ोर जुगुति बिलास कियौ जन मैं॥[3] यहाँ कृष्ण और गोपियों के संभोग श्रृंगार का चित्रण है। यह चित्र अनुभावों एवं संचारी भावों द्वारा बहुत ही रमणीय बन पड़ा है। संभोग श्रृंगार निरूपण मर्यादावादी भक्त कवियों की मर्यादा के अनुकूल नहीं है। किन्तु साथ ही हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि रसखान किसी परम्परा में बंध कर नहीं चले। पंडित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के अनुसार- 'ये स्वच्छन्द धारा के रीति मुक्त कवि हैं। सूफ़ी संतों और फ़ारसी-साहित्य की प्रवृत्ति से प्रभावित हुए हैं यह असंदिग्ध है।[4] रसखान का यह श्रृंगार निरूपण उनके सूफी काव्य से प्रभावित होने की ओर संकेत करता है।
संयोग श्रृंगार
जहाँ नायक-नायिका की संयोगावस्था में पारस्परिक रति होती है, पर संभोग सुख प्राप्त नहीं होता, वहां संयोग-श्रृंगार होता है।[5] जो विशद आत्मानुभूति रूप में है उसका पर्यवसान भी प्रेम ही होता है। ऐसा प्रेम किसी वस्तु का, जैसे भोगादि साधन नहीं बनता। इस साध्य-भूत प्रेम का मिलन 'संयोग' कहा जाना चाहिए किन्तु वास्तविकता यह है कि प्रेमी प्रेमिका के प्रेम में मिलन में सान्निध्य की कामना अवश्य होती है। हर प्रेमी अपनी प्रिया से शरीर-सम्बन्ध की इच्छा करता है। इसलिए लौकिक प्रेम के संयोग पक्ष में विशद आत्मानुभूति की कल्पना केवल आदर्श ही प्रतीत होती है। संयोग विशद आत्मानुभूति या अनुभूत्यात्मक प्रेम के अभाव में भी संभव है। संक्षेप में जहाँ संभोग न होते हुए भी मिलन सुखानुभूति की व्यंजना हो वहां संयोग श्रृंगार मानना चाहिए। रसखान ने गोपी-कृष्ण (राधा-कृष्ण) के मिलन-प्रसंगों में संयोग श्रृंगार की झांकियां प्रस्तुत की हैं। उदाहरणार्थ—
खंजन मील सरोजन को मृग को मद गंजन दीरघ नैना।
कुंजन तें निकस्यौ मुसकात सु पान भरयौ मुख अमृत बैना।
जाई रहै मन प्रान बिलोचन कानन मैं रुचि मानत चैना।
रसखानि करयौ घर मो हिय मैं निसिबासर एक पलौ निकसै ना॥[6] यहाँ गोपी-कृष्ण आलंबन विभाव हैं। कृष्ण का स्वरूप कुंजन, कुंजन से मुस्काते, पान खाते निकलना उद्दीपन विभाव हैं संचारी भाव एवं अनुभावों के अभाव में भी दर्शन लाभ द्वारा संयोग-श्रृंगार ध्वनित हो रहा है। इस प्रकार के अनेक उदाहरण रसखान के काव्य में उपलब्ध हैं। कृष्ण के स्वरूप-दर्शन मात्र से ही गोपियों की आँखें प्रेम कनौंडी हो गईं। अंग्रेज़ी साहित्य के 'प्रथम दर्शन' में प्रेम (लव ऐट फर्स्ट साइट) के दर्शन भी रसखान के श्रृंगार निरूपण में होते हैं—
वार हीं गोरस बेंचि री आजु तूँ माइ के मूड़ चढ़ै कत मौंडी।
आवत जात हीं होइगी साँझ भटू जमुना भतरौंड लो औंडी।
पार गएँ रसखानि कहै अँखियाँ कहूँ होहिगी प्रेम कनौंडी।
राधे बलाई लयौ जाइगी बाज अबै ब्रजराज-सनेह की डौंडी॥[7] कृष्ण के दर्शन मात्र से गोपी उनके प्रेमाधीन हो गईं। संयोग में हर्ष, उल्लास आदि वर्णन की परम्परा रही है। रसखान ने भी यहाँ उसके दर्शन कराये हैं। कृष्ण के दर्शन कर गोपियां प्रफुल्लित हो रही हें। कभी कृष्ण हंसकर गा रहे हैं कभी गोपियां प्रेममयी हो रही हैं। लज्जायुक्त गोपी घूंघट में से कृष्ण को निहार रही हैं। यहाँ गोपी-कृष्ण आलंबन हैं। बन, बाग, तड़ाग, कंजगली उद्दीपन हैं। विलोकना एवं हंसना अनुभाव हैं। लज्जा संचारी भाव है, स्थायी भाव रति है, श्रृंगार रस का पूर्ण परिपाक हो रहा है। रसखान ने दोहे जैसे छोटे छंद में भी हर्ष और उल्लास द्वारा संयोग श्रृंगार की हृदयस्पर्शी व्यंजना की है। उदाहरणार्थ—
बंक बिलोकनि हँसनि मुरि मधुर बैन रसखानि।
मिले रसिक रसराज दोउ हरखि हिये रसखानि।[8] उन्होंने निम्नांकित पद में सुंदर रूपक द्वारा संयोग श्रृंगार के समस्त उपकरणों को जुटा दिया है। नायिका नायक से कहती है-
बागन काहे को जाओ पिया घर बैठे ही बाग़ लगाय दिखाऊँ।
एड़ी अनार सी मोरि रही, बहियाँ दोउ चम्पे की डार नवाऊँ।
छातिन मैं रस के निबुवा अरु घूँघट खोलि कै दाख चखाऊँ।
ढाँगन के रस के चसके रति फूलनि की रसखानि लुटाऊँ॥[9] यहाँ श्रृंगार अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया है। जिस प्रकार प्रिय के रूप को देखकर घनानन्द की नायिका के हृदय में हर्ष की उमंगें, सागर की तरंगें राग की ध्वनि की भांति उठती हैं। नेत्र रूप राशि का अनुभव करते हैं फिर भी तृषित ही बने रहते हैं; उसी प्रकार कृष्ण के दर्शन से रसखान की गोपियों का मन भी उनके लावण्य-सागर में डूब जाता है। वे रूपसागर में किलोलें करने लगती हैं। कृष्ण-कटाक्ष से उनकी लज्जा का हरण हो जाता है। उदाहरणार्थ—
सजनी पुर-बीथिन मैं पिय-गोहन लागी फिरैं जित ही तित धाई।
बाँसुरी टेरि सुनाइ अली अपनाइ लई ब्रजराज कन्हाई॥[10] रसखान के चित्र इतने सुंदर हैं कि बाद के कवि उनसे प्रभावित हुए बिना न रह सके। रीतिकालीन प्रसिद्ध कवि मतिराम[11] के सवैयों पर रसखान के संयोग-वर्णन की गहरी छाप है, किंतु वे रसखान के समान माधुर्य[12] के अंतस्तल में प्रवेश न कर सके।
विप्रलंभ श्रृंगार
श्रृंगार रस के दो भेद पहले ही बता दिये हैं। जहाँ अनुराग तो अति उत्कट हो, परंतु प्रिय समागम न हो उसे विप्रलंभ (वियोग) कहते हैं। विप्रलंभ पूर्वराग, मान, प्रवास और करुण इन भेदों से चार प्रकार का होता है। रसखान ने करुण विप्रलंभ का निरूपण अपने काव्य में नहीं किया। रसखान का मन निप्रलंभ श्रृंगार-निरूपण में अधिक नहीं रमा। उसका कारण यह हो सकता है कि वे अपनी अन्तर्दृष्टि के कारण कृष्ण को सदैव अपने पास अनुभव करते थे और इस प्रकार की संयोगावस्था में भी वियोग का चित्रण कठिन होता है। रसखान के लौकिक जीवन में हमें घनानन्द की भांति किसी विछोह के दर्शन नहीं होते। इसीलिए उनसे घनानन्द की भांति जीते जागते और हृदयस्पर्शी विरहनिवेदन की आशा करना व्यर्थ ही होगा। रसखान ने वियोग के अनेक चित्र उपस्थित नहीं किये किन्तु जो लिखा है वह मर्मस्पर्शी है जिस पर संक्षेप में विचार किया जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सुजान रसखान, 120
  2. सुजान रसखान, 119
  3. सुजान रसखान, 32
  4. रसखानि (ग्रंथावली), भूमिका, पृ0 14
  5. काव्यदर्पण, पृ0 173
  6. सुजान रसखान, 31
  7. सुजान रसखान, 41
  8. सुजान रसखान, 109
  9. सुजान रसखान, 122
  10. सुजान रसखान, 68
  11. आनन चंद निहारि-निहारि नहीं तनु औधन जीवन वारैं।
    चारु चिनौनी चुभी मतिराम हिय मति को गहि ताहि निकारैं।
    क्यों करि धौं मुरली मनि कुण्डल मोर पखा बनमाल बिसारै।
    ते घनि जे ब्रज राज लखैं, गृह काज करैं अरु लाज समारै। --मतिराम ग्रंथावली
  12. सुजान रसखान, 69

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