व्याप्ति की दुरवबोधता -चार्वाक

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  • जो लोग अनुमान को पृथक् प्रमाण मानते हैं, उनसे चार्वाक जानना चाहता है कि आप अनुमान का स्वरूप क्या मानते हैं? व्याप्ति एवं पक्षधर्मता से युक्त ज्ञान ही तो अनुमान होगा। यह ज्ञान तब तक सम्भव नहीं है जब तक इस विशिष्ट ज्ञान में विशेषण के रूप में स्वीकृत व्याप्ति को न जान लिया जाय। अनुमान को प्रमाण मानने वालों के मत में उभय विध उपाधि से विधुर सम्बन्ध ही व्याप्ति है। इस व्याप्ति का ज्ञान होने पर ही अनुमिति होती है। प्रत्यक्ष की तरह चक्षु का स्वरूपत: जैसे प्रत्यक्ष प्रमा में उपयोग होता है उस प्रकार व्याप्ति की स्वरूपत: अनुमिति में कोई भूमिका सम्भव नहीं है। ऐसी स्थिति में यहाँ यह प्रश्न होता है कि व्याप्ति का ज्ञान किस उपाय से सम्भव है?
  • क्या व्याप्ति का ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण से सम्भव है? यदि हाँ तो क्या यह व्याप्ति का बाह्य प्रत्यक्ष है या आन्तर प्रत्यक्ष? व्याप्ति का बाह्य प्रत्यक्ष है यह नहीं माना जा सकता है क्योंकि वर्तमान काल में विद्यमान वस्तु में व्याप्ति का बाह्य इन्द्रियों से प्रत्यक्ष भले हो जाये परन्तु भूत एवं भविष्य काल में विद्यमान वस्तुओं में इस व्याप्ति का ज्ञान बाह्य इन्द्रियों से कथमपि सम्भव नहीं है। वस्तु में विद्यमान धर्म धूतत्त्व आदि के माध्यम से सभी धूम में चाहे वह भूत में हो या भविष्य में, व्याप्ति का ज्ञान हो जाता है यह नहीं माना जा सकता। क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर व्यक्ति में व्याप्ति के अभाव की आपत्ति दुष्परिहर हो जायेगी।
  • व्याप्ति का अन्तर अर्थात मन से प्रत्यक्ष होता है, यह भी नहीं मान्य हो सकता क्योंकि अन्त:करण या मन बर्हीन्द्रियों के सर्वथा अधीन होता है[1] इसीलिए कभी भी मन स्वतन्त्र रूप से बाह्य विषयों को ग्रहण करने के लिए उद्यत नहीं देखा जाता है। फलत: व्याप्ति का बाह्य एवं अन्तर प्रत्यक्ष कथमपि नहीं हो सकता, यह सुनिश्चित हो जाता है।
  • व्याप्ति का अनुमान प्रमाण से भी साक्षात्कार सम्भव नहीं है। यदि व्याप्ति का ज्ञज्ञन् अनुमान से माना जाएगा तो इसका तात्पर्य यह होगा कि व्याप्ति के इस अनुमान में व्याप्ति साध्य है। व्याप्ति रूप साध्य को सिद्ध करने के लिए कोई हेतु भी होगा ही। इस हेतु में भी व्याप्ति स्वरूप साध्य की व्याप्ति स्वीकार करनी होगी। और इस प्रकार इस हेतु में रहने वाली व्याप्ति की व्याप्ति के ज्ञान के लिए भी पुन: अनुमान का अनुसरण करना पड़ेगा। इस तरह जब कहीं अप्रामाणिक रूप में अनन्त पदार्थ की कल्पना करनी पड़ती है तो इसे अनवस्था दोष कहते हैं। परिणाम में यह निष्कर्ष निकलता है कि व्याप्ति का ज्ञान अनुमान से अनवस्था दोष के कारण असम्भव है।
  • व्याप्ति को शब्द प्रमाण से भी नहीं जाना जा सकता। जब शब्द से किसी अर्थ के बोध के लिए जन सामान्य प्रवृत्त होता है तब कुछ प्रसिद्ध हेतुओं या लिंगों के द्वारा उसे अर्थ विशेष में शब्द विशेष की शक्ति का बोध होता है। वे हेतु- व्याकरण, उपमान, कोष, आप्तवाक्य, व्यवहार, वाक्य शेष, विवृति एवं सिद्ध पद की सन्निधि के रूप में विख्यात है।[2] इन हेतुओं में व्यवहार को अर्थ में शब्द की शक्ति का ज्ञान कराने में सर्वोपरि माना गया है। यदि शक्ति का बोध कराने के लिए वृद्धों के व्यवहार को हेतु के रूप में प्रस्तुत करेंगे तो शक्ति रूप साध्य का अनुमान करने के लिए वृद्धव्यवहार हेतु होगा, तथा इस हेतु में व्याप्ति होगी। इस व्याप्ति का ज्ञान करने के लिए पुन: शब्द प्रमाण का सहयोग लेना पड़ेगा फलत: पुन: पूर्वदर्शित पद्धति से अनवस्था दोष की प्रसक्ति अपरिहार्य हो जाएगी। ऐसी स्थिति में शब्द भी व्याप्ति के ज्ञान कराने में समर्थ नहीं है यह सिद्ध हो जाता है।
  • महर्षि मनु एवं याज्ञवल्क्य आदि के वचनों में जैसे जन सामान्य में अगाध श्रद्धा दृष्टि गोचर होती है वैसी श्रद्धा या विश्वास धूएँ में आग की व्याप्ति या अविनाभाव है इस वचन में नहीं देखी जाती है। अत: व्याप्ति को सिद्ध करने के लिए आप्त वाक्य रूप शब्द को प्रमाण के रूप में नहीं स्वीकार किया जा सकता।[3]
  • इतने उपयों का सहारा ले कर भी यदि व्याप्ति का बोध सम्भव नहीं होता है तो अविनाभाव या व्याप्ति के ज्ञान के बिना धूम आदि को देख कर वह्नि आदि का स्वार्थानुमान भी नहीं हो सकता। स्वर्थानुमान की असम्भावना की स्थिति में परार्थानुमान की कल्पना तो स्वत: निरस्त हो जाती है।
  • अनुमान को प्रमाण मानने वालों की यह मान्यता है कि दूसरे प्रमाण से अर्थात प्रत्यक्ष से हेतु में व्याप्ति का ज्ञान करने के अनन्तर धूम को पर्वत पर देखने के बाद व्याप्ति का स्मरण होता है तथा व्याप्ति से विशिष्ट धूम के पर्वत में रहने का ज्ञान या पक्षधर्मता ज्ञान होने के अनन्तर पर्वत में आग है यह अनुमिति होती है। यदि शब्द से ही, व्याप्ति से विशिष्ट धूम है यह व्याप्ति-ज्ञान माना जाएगा तो जिस व्यक्ति को शब्द के माध्यम से व्याप्ति का ज्ञान नहीं होता है उसे धूम आदि हेतु से व्याप्ति का ज्ञान नहीं होने के कारण आग आदि का अनुमान नहीं होना चाहिए। जब कि अनुभव यही है कि शब्द से व्याप्ति के ज्ञान के बिना भी प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से व्याप्ति का ज्ञान होने पर भी अनुमान होता ही है। फलत: शब्द से ही व्याप्ति का ज्ञान होगा यह सिद्धान्त भी स्थिर नहीं हो पाता है।
  • उपमान आदि प्रमाणों से भी हेतु में रहने वाली व्याप्ति का ज्ञान नहीं हो सकता है। उपमान प्रमाण से संज्ञा एवं संज्ञि अर्थात नाम एवं नामी के बीच विद्यमान सम्बन्ध का ही बोध माना जाता है। यह सम्बन्ध वाच्यत्व, वाचकत्व, वाच्यवाचकभाव, अथवा शक्ति एवं लक्षणा स्वरूप, शब्द के सम्बन्ध के रूप में विभिन्न सम्प्रदायों में प्रसिद्ध हैं। ये सम्बन्ध तो व्याप्ति के रूप में स्वीकृत नहीं हो सकते। इस तरह उपमान आदि प्रमाणों की भूमिका भी व्याप्ति के अवबोध में सहज रूप में निरस्त हो जाती है।
  • उपाधि से विधुर सम्बन्ध रूप व्याप्ति का भी ग्रह असम्भव दोनों प्रकार की उपाधि से विधुर या रहित सम्बन्ध को व्याप्ति कहा गया है। यह सम्बन्ध-स्वरूप व्याप्ति कभी भी दोनों प्रकार के उपाधियों से विरहित नहीं हो सकती है। संसार में जितनी उपाधियाँ हैं, सब दो प्रकार की ही सम्भव हैं या तो उपाधि प्रत्यक्ष होगी या वह अप्रत्यक्ष होगी। प्रत्यक्ष उपाधियों का विरह योग्यानुपलब्धि से हेतु में सुसिद्ध होने पर भी अप्रत्यक्ष उपाधियों का प्रत्यक्ष तो सम्बन्ध में सम्भव ही नहीं है। यदि कहें कि अप्रत्यक्ष उपाधियों का अनुमान प्रमाण से हेतु में अभाव सिद्ध किया जा सकता है तो पुन: इस अप्रत्यक्ष उपाधि के अनुमान में भी जो हेतु होगा उसमें उभयविध-उपाधि-विधुर सम्बन्ध की अपेक्षा होगी तथा यहाँ भी अप्रत्यक्ष उपाधि को सिद्ध करने के लिए पुन: अनुमान का आश्रय लेना अपरिहार्य हो जाएगा। फलत: अनवस्था दोष वज्रलेप हो जाता है। इस तरह दोनों प्रकार की उपाधियों से विधुर सम्बन्ध रूप व्याप्ति की कल्पना भी अनुचित सिद्ध होती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. चक्षुराद्युक्तविषयं परतन्त्रं बहिर्मन:। तत्त्वविवेक- 20
  2. शक्तिग्रह व्याकरणोपमानकोषाप्तवाक्याद्वयवहारतश्च। वाक्यस्य शेषाद्विवृतेर्वदन्ति सान्निध्यत: सिद्धपदस्य वृद्धा:॥ - शब्दशक्तिप्रकाशिका
  3. 'धूमधूमघ्वजयोरविनाभावोऽस्तीति वचनमात्रे मन्वादिवद्विश्वासाभावाच्च।' मध्वाचार्य द्वारा लिखित सर्वदर्शन की इस पंक्ति की हिन्दी व्याख्या करते हुए उमाशंकर शर्मा 'ऋषि' लिखते हैं-'यदि कहें कि धूम और अग्नि (धूमघ्वज) में अविनाभाव सम्बन्ध पहले से ही है तो इस बात पर वैसे ही विश्वास नहीं होगा जैसे मनु आदि ऋषियों की बातों पर विश्वास नहीं होता है।' मेरी दृष्टि में मूल सर्वदर्शन संग्रह का यह हिन्दी भाष्य ठीक नहीं है। -सर्वदर्शन संग्रह, पृ0 13

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