लोकनृत्य

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भारतीय लोकनृत्यों के अंतर्गत अनंत प्रकार के स्वरूप और ताल हैं। इनमें धर्म, व्यवसाय और जाति के आधार पर अन्तर पाया जाता है। मध्य और पूर्वी भारत की जनजातियाँ (मुरिया, भील, गोंड़, जुआंग और संथाल) सभी अवसरों पर नृत्य करती हैं। जीवन चक्र और ऋतुओं के वार्षिक चक्र के लिए अलग-अलग नृत्य हैं। नृत्य, दैनिक जीवन और धार्मिक अनुष्ठानों का अंग है। बदलती जीवन शैलियों के कारण नृत्यों की प्रासंगिकता विशिष्ट अवसरों से भी आगे पहुँच गई है। नृत्यों ने कलात्मक-नृत्य का दर्जा प्राप्त कर लिया है। प्रत्येक उत्सव या सार्वजनिक आयोजन में इन नृत्यों का दिखाई देना सामान्य बात है। प्रतिवर्ष 26 जनवरी, भारतीय गणतंत्र दिवस एक ऐसा महत्त्वपूर्ण अवसर है, जब नेशनल स्टेडियम के विशाल क्षेत्र और परेड के 8 किलोमीटर लम्बे मार्ग पर नृत्य करने के लिए देश के सभी भागों से नर्तक दिल्ली आते हैं।

भारतीय लोकनृत्यों का वर्गीकरण करना कठिन है, लेकिन सामान्य तौर पर इन्हें चार वर्गों में रखा जा सकता है।

  • वृत्तिमूलक (जैसे जुताई, बुआई, मछली पकड़ना और शिकार),
  • धार्मिक,
  • आनुष्ठानिक (तांत्रिक अनुष्ठान द्वारा प्रसन्न कर देवी या दानव-प्रेतात्मा के कोप से मुक्ति के लिए) और
  • सामाजिक (ऐसा प्रकार जो उपरोक्त सभी वर्गों में शामिल है)।

प्रसिद्ध सामाजिक लोकनृत्यों में कोलयाचा (कोलियों का नृत्य) शामिल है। पश्चिमी भारत के कोंकण तट के मछुआरों के मूल नृत्य कोलयाचा में नौकायन की भावभंगिमा दिखाई जाती है। महिलाएँ अपने पुरुष साथियों की ओर रुमाल लहराती हैं और पुरुष थिरकती चाल के साथ आगे बढ़ते हैं। विवाह के अवसर पर युवा कोली (मछुआरे) नवदंम्पति के स्वागम में घरेलू बर्तन हाथ में पकड़कर गलियों में नृत्य करते हैं और नृत्य के चरम पर पहुँचते ही नवदंम्पति भी नाचने लगते हैं।

लोक नृत्य की तकनीक और इसके प्रकार

घूमर राजस्थान का सामाजिक लोकनृत्य है। महिलाएँ लम्बे घाघरे और रंगीन चुनरी पहनकर नृत्य करती हैं। इस क्षेत्र के कच्ची घोड़ी नर्तक विशेष तौर पर दर्शनीय है। ढाल और लम्बी तलवारों से लैस नर्तकों का ऊपरी भाग दूल्हे की पारम्परिक वेशभूषा में रहता है और निचले भाग को बाँस के ढाँचे पर काग़ज़ की लुगदी से बने घोड़े से ढका जाता है। नर्तक, शादियों और उत्सवों पर बरेछेबाज़ी का मुक़ाबला करते हैं। बावरी लोग लोकनृत्य की इस शैली के कुशल कलाकार हैं। पंजाब क्षेत्र में सबसे अधिक जोशीला लोकनृत्य फ़सल कटाई के अवसर पर भांगड़ा है, जो भारत-पाकिस्तान सीमा के दोनों ओर किया जाता है और लोकप्रिय भी है। इस नृत्य के साथ-साथ गीत गाया जाता है। प्रत्येक पंक्ति की समाप्ति पर ढोल गूँजता है और अन्तिम पंक्ति सभी नर्तक मिलकर गाते हैं। भांगड़ा के हर्षोन्माद का नृत्य है, जिसमें हर आयु के पुरुष नाचते हैं। वे मस्ती में चिल्लाते और गोलाई में घूमते हुए नृत्य करते हैं और उनके कंधे और कूल्हे ढोल की लय पर थिरकते हैं।

आंध्र प्रदेश का नृत्य

आंध्र प्रदेश की लंबाड़ी जनाजाति की ख़ानाबदोश महिलाएँ शीशों से जड़े शिरोवस्त्र और घाघरे पहनती हैं और अपनी बाजू चौड़े सफ़ेद हड्डियों के बने कंगनों से ढकती हैं। वे धीरे-धीरे झूमते हुए नृत्य करती हैं। जबकि पुरुष ढोल बजाने और गाने का काम करते हैं। उनका सामाजिकेनृत्य आवेगपूर्ण शोभा और गीतिमयता से ओतप्रोत होता है और यह विश्व के अन्य भागों के बंजारों के नृत्य से अपेक्षाकृत कम प्रचंड होता है।

मध्य प्रदेश का नृत्य

मध्य प्रदेश में मुरिया जनजाति का गवल-सींग (पहाड़ी भैंसा) नृत्य पुरुषों और महिलाओं, दोनों के द्वारा किया जाता है। जो पारम्परिक तौर पर बराबरी का जीवन व्यतीत करते हैं। पुरुष सींग से जड़े शिरोवस्त्र गुच्छेदार पंख के साथ पहनते हैं और उनके चेहरों पर कौड़ी की झालर लटकती है। उनके गले में लकड़ी के लट्ठ जैसा ढोल लटकता है। महिलाओं के सिर चौड़ी ठोस पीतल की माला से और सीना भारी धातु के गहनों से ढके होते हैं और उनके हाथों में ढोल जैसे मंजीरे होते हैं। 50 से 100 की संख्या में स्त्री व पुरुष मिलकर नृत्य करते हैं। गवल (बाइसन) के वेश में पुरुष एक-दूसरे पर हमला करते व लड़ते हैं और सींगों से पत्तों को उड़ाते हुए वे प्रकृति के मिलन के मौसम की गतिशील अभिव्यक्ति करते हुए नृत्यांगनाओं का पीछा करते हैं। उड़ीसा में जुआंग जनजाति सशक्त पौरुषपूर्ण फुर्ती के साथ पक्षियों और पशुओं का नृत्य बड़े सजीव अभिनय के साथ करती हैं, धार्मिक लोकनृत्यों के कुछ प्रमुख उदाहरण हैः महाराष्ट्र के डिंडी और काला नृत्य, जो धार्मिक उल्लास की अभिव्यक्ति है। नर्तक गोल चक्कर में घूमते हैं और छोटी लाठियाँ (डिंडी) ज़मीन पर मारते हुए समूहगान के मुख्य गायक बीचों बीच खड़े ढोल वादक का साथ देते हैं। लय में तेज़ी आते ही नर्तक दो पक्तियाँ बना लेते हैं और दांय पाँव को झुकाकर बांए पाँव के साथ आगे बढ़ते हैं और इस प्रकार ज्यामिति के आकार बनाते हैं। काला नृत्य में एक बर्तन में दही होना ज़रूरी है, जो उर्वरता का प्रतीक है। नर्तकों का समूह दो वृत्त बनाता है। जिसमें एक नर्तक के ऊपर दूसरा नर्तक होता है। एक पुरुष इन दोनों वृत्तों के ऊपर चढ़कर ऊपर लटकी दही की मटकी फोड़ता है। जिसमें दही नर्तकों के शरीर पर फैल जाता है। इस आनुष्ठानिक शुरुआत के बाद नर्तक जबरदस्त रण नृत्य की मुद्रा में अपनी लाठियाँ और तलवारें घुमाते हैं।

गुजरात का नृत्य

गरबा, जो वास्तव में एक धार्मिक हंडिया को कहते हैं, गुजरात का सुप्रसिद्ध धार्मिक नृत्य है। यह नवरात्रि के नौ दिन के वार्षिक उत्सव के दौरान 50 से 100 महिलाओं के समूह द्वारा देवी अंबा के सम्मान में किया जाता है। जिन्हें भारत के अन्य भागों में दुर्गा या काली के नाम से जाना जाता है। महिलाएँ गोल चक्कर में घूमते हुए झुकती, मुड़ती, हाथों से तालियाँ और कभी-कभी अंगुलियों से चुटकी बजाती हैं। इस नृत्य के साथ देवी की स्तुति में गीत भी गाए जाते हैं।

तमिलनाडु राज्य का नृत्य

धार्मिक अनुष्ठान से जुड़े लोकनृत्यों की अनंत शैलियों में कई का चमत्कारिक महत्त्व है और ये पुरातन उपासना से जुड़ी हैं। तमिलनाडु राज्य का काराकम नृत्य मुख्यतः मरियम्मई (महामारी की देवी) की प्रतिमा के समक्ष वार्षिक उत्सव पर देवी से महामारी का प्रकोप न फैलाने की प्रार्थना के साथ किया जाता है। नर्तक के सिर पर लम्बे बाँस के ढांचे से ढके कच्चे चावल का बर्तन रखा जाता है। जिसे नर्तक को नृत्य की उछल-कूद के दौरान बिना छुए सम्भाले रखना होता है। लोग इसे देवी की कृपा मानते हैं और कहते हैं कि नर्तक के शरीर में देवी प्रवेश करती है। जिसके कारण यह चमत्कार होता है। केरल में हिन्दुओं के पूज्य देवों तथा दानवों को प्रसन्न करने के लिए थेरयाट्टम उत्सव आयोजित किया जाता है। विस्मयकारी वेशभूषा और मुखौटों से लैस नर्तक गाँव के पूजा स्थल के सामने अनोखा अनुष्ठान करते हैं। एक श्रृद्धालु मुर्गे की भेंट चढ़ाता है। जिसे नर्तक झपट लेता है और एक ही झटके में उसका सिर अलग कर देता है व आशीर्वाद देते हुए उसे श्रृद्धालु का लौटा देता है। इस समारोह के साथ लम्बा और मंथर नृत्य चलता रहता है।

अरुणाचल प्रदेश का नृत्य

अरुणाचल प्रदेश (भूतपूर्व पूर्वोत्तर फ्रंटियर एजेंसी 'नेफा') में सबसे ज़्यादा मुखौटा नृत्य किए जाते हैं। यहाँ तिब्बत की नृत्य शैलियों का प्रभाव दिखाई देता है। याक नृत्य कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र और असम के निकट हिमालय के दक्षिणी सीमावर्ती क्षेत्रों में किया जाता है। याक का रूप धारण किए नर्तक अपनी पीठ पर चढ़े आदमी को साथ लिए नृत्य करता है। मुखौटों के साथ किए जाने वाले लोकनृत्य सादा टोपोत्सेन में पुरुष नर्तक भड़कीले ज़रीदार रेशम के लम्बे कुरते पहनते हैं। जिनकी चौड़ी झूलती बाहें होती हैं। वे अजीबो ग़रीब मुस्कान वाले लकड़ी के मुखौटे पहनते हैं। जिन पर खोपड़ियों का मुकुट होता है। जो परलोक की आत्माओं का प्रतिनिधित्व करती है। नर्तक बीच-बीच में कूदते हुए ताकतवर लेकिन धीमी चक्करदार मुद्राएँ बनाते हैं। मुखौटा नृत्य की एक अनूठी शैली छऊ को झारखंड (भूतपूर्व बिहार) के पूर्व—सरायकेला रियासत के एक शाही परिवार ने संरक्षित रखा है। नर्तक भगवान, पशु, पक्षी, शिकारी, इन्द्रधनुष, रात या फूल का रूप धारण करता है। वह एक छोटे प्रसंग का अभिनय करता है और अप्रैल में वार्षिक चैत्र उत्सव में कई भावचित्रों की एक लड़ी प्रस्तुत करता है। छऊ मुखौटे अधिकांशतः मानवीय लक्षणों से युक्त होते हैं। जिन्हें विविध भाव दिखाने के लिए थोड़ा-बहुत परावर्तित किया जाता है। साधारण सपाट रंगों में चित्रित मुखौटों की शान्त अभिव्यक्ति कथकली के व्यापक रूप श्रृंगार या कांडयान मुखौटों की ज़रूरत से ज़्यादा पिशाचीय आकृति और जापान के 'नो ड्रामा' से बहुत अलग दिखती है। चूंकि छऊ नर्तक का चेहरा भावहीन होता है, इसलिए उसका शरीर ही पात्र के सम्पूर्ण भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक तनावों को व्यक्त करता है। उसके पाँव भंगिमा-भाषा का प्रयोग करते हैं। उसके पंजे पशु के पंजों की तरह फुर्तीले, सक्रिय और भावाबोधक होते हैं। नृत्य के दौरान गायन नहीं होता, सिर्फ़ वाद्य संगीत होता है। उड़ीसा के मयूरभंज ज़िले में किए जाने वाले छऊ नृत्य की एक अन्य शैली में नर्तक मुखौटे नहीं पहनते, परन्तु जान-बूझकर सख़्त और अचल चेहरे बनाकर मुखौटे का भ्रम देते हैं। उनका नृत्य श्रम और करतब से भरा होता है।

लोक नृत्य की शैलियाँ

भारत की प्राचीन संस्कृति ने, लोक नृत्यों के विभिन्न स्वरूपों को जन्म दिया है। संस्कृति व परंपराओं की विविधता लोक नृत्यों में साफ़ झलकती है। विभिन्न राज्यों के इन नृत्यों में जीवन का प्रतिबिंब है और नृत्यं की लगभग हर मुद्रा का विशिष्ट अर्थ होता है।

रासलीला, लोकनृत्य की प्रमुख विधा के अलावा चैत्र तथा अश्विनी मास की नवरात्रियों में महिलाओं के लांगुरिया नृत्य होते हैं । इसके दौरान महिलायें लांगुरिया गाती हैं और मध्य में एक महिला द्वारा अनेक मुद्राजन नृत्य का प्रदर्शन होता है । ग्रामीण अंचल में होली के दूसरे दिन से बासोड़ा या संवत्सर प्रतिपदा तक हुरंगा नृत्य चलता है । इसमें ग्राम के थोकों के अनुसार स्त्री–पुरुष सायंकाल एकत्रित होकर होली गाते हुए नृत्य करते हैं । नृत्य में युवा स्त्री–पुरुष ही नाचते हैं । शेष सभी आयु के स्त्री-पुरुष गायन वादन करते हैं । वादन में नगाड़े, ढप, ढोल, खंजरी' बांसुरी, अलगोजा, बम, चंग, उपंग मोचंग, ढपली आदि वाद्यों का प्रयोग होता है । हुरंगा नृत्य में दाऊजी का हुरंगा प्रसिद्ध है । वल्लभ सम्प्रदाय के मंदिरों में बसंत पंचमी से चैत्र कृष्ण द्वितीया तक ढ़ाढा–ढाढ़ी नृत्य का आयोजन होता है । यह नृत्य सायंकाल के समय श्री ठाकुरजी के सामने शयन के दर्शनों में होता है । कलाविद् स्त्री–पुरुष वेष में रसिया और धमार पद गायन के साथ अलग-अलग अपना नृत्य प्रदर्शित कर दर्शकों को भावविभोर कर देते हैं । इस नृत्य की परम्परा में मथुरा का श्री द्वारिकाधीश मंदिर अग्रणी है ।


नृसिंह नृत्य वैशाख शुक्ला चतुर्दशी को सूर्यास्त या पूर्णिमा की प्रात: बेला में होता है । नृसिंह बनने वाले कलाकार को उस दिन व्रत रखना पड़ता है और नर्तक नृसिंह वेश तथा चेहरे को पहनता है । अन्य सभी तबला घण्टा, घड़ियाल, झांझ आदि बाजे एक विशिष्ट स्वर ताल में बजाते हैं , जिनके बोल 'जै नृसिंह, जै नृसिंह जै, जै, जै, जै, जै नृसिंह जै जै जै भई जै जै जै, हिरनाकुस मार्यो तुही तुही-नर्सिहा नरचै थेई थेई' है ।

इसे नृसिंह नृत्य न कहकर नृसिंह लीला भी कहा जाता है , जिसका सम्बन्ध हिरण्यकश्यप द्वारा प्रहलाद जी को सताये जाने से लेकर हिरण्यकश्यप की पुरानी कथा से है । यह नृत्य विशेष कर मथुरा नगर के द्वारकाधीश मंदिर, नृसिंह बगीची भूतेश्वर, गोलपाड़ा, मानिक चौक, स्वामी घाट, कुआं गली, सतघड़ा में होता है । इनके अतिरिक्त विवाहों के दौरान विभिन्न जातियों के नृत्यों का भी जनपद में चलन है । इनमें 'माँढयौ जगानौ', 'ललमनिया भैरो' नृत्य सहित कुछ अन्य नृत्य भी शामिल हैं।


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