कथक नृत्य

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कथक (अंग्रेज़ी: Kathak) भारतीय शास्त्रीय नृत्यों की प्रसिद्ध शैलियों में से एक है। शास्त्रीय नृत्य में कथक का नृत्‍य रूप 100 से अधिक घुंघरु‍ओं को पैरों में बांध कर तालबद्ध पदचाप, विहंगम चक्‍कर द्वारा पहचाना जाता है और हिन्दू धार्मिक कथाओं के अलावा पर्शियन और उर्दू कविता से ली गई विषय वस्‍तुओं का नाटकीय प्रस्‍तुतीकरण किया जाता है। कथक का जन्‍म उत्तर में हुआ, किन्‍तु पर्शियन और मुस्लिम प्रभाव से यह मंदिर की रीति से दरबारी मनोरंजन तक पहुंच गया।

प्रादुर्भाव

कथक का प्रादुर्भाव कब और कहाँ हुआ? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका ठीक-ठीक उत्तर न तो आज के कथक कलाकारों के पास है न ही कथक गुरुओं के पास। प्राचीन ग्रंथों में नृत्य को ईश्वर प्रदत्त प्रक्रिया माना गया है। देवताओं को मनोरंजन प्रदान करने के साथ-साथ सामान्य मनुष्य को वेदों का ज्ञान देने के उद्देश्य से भगवान ब्रह्मा ने नाट्यकला की रचना की, जिसे पांचवा वेद कहा गया। इस नाट्यशास्त्र में ऋग्वेद से काव्य, यजुर्वेद से भाव भंगिमाओं, सामवेद से संगीत और अथर्ववेद से सौन्दर्य तत्वों का समावेश किया गया। इस नाट्यशास्त्र के प्रथम अध्याय में ही नृत्यकला का वर्णन है। कथक के बारे में भरतमुनि द्वारा रचित नाट्यशास्त्र के अलावा प्रमाण नहीं मिलने की स्थिति में कथक कलाकारों व गुरुजनों का मानना है कि कथक नृत्य में प्रथम स्थान राधा-कृष्ण पर आधारित रचनाओं का होता है, इसलिए संभवत: नृत्यशैली का प्रादुर्भाव राधा-कृष्ण के युग में हुआ होगा। इस सम्बन्ध में उनकी दलील यह है कि जिस समय कृष्ण ब्रज छोड़कर द्वारका गए तो ब्रज के निवासियों ने राधा-कृष्ण पर रचनाएँ रचीं, उन्हें कथा का रूप दे प्रचलित किया गया।[1]

प्राचीन समय में चारण और भाट धार्मिक प्रसंगों को संगीत और नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत करते थे, आगे चलकर इसी संगीत नृत्य ने कथक नृत्य की परम्परा प्रारंभ की। प्रारंभ में कथक में तकनीकी और शास्त्रीय पक्ष का अभाव था लेकिन वैष्णव अध्यात्म से पुनर्जागरण के पश्चात् कथक को नाट्यशास्त्र पर आधारित क्रमबद्ध स्वरूप प्रदान किया गया। प्रारंभ में कथा सिर्फ पढ़कर सुनाई जाती थी, कालान्तर में इसे प्रभावी बनाने के लिए इसमें गायन शैली का समावेश किया गया और फिर इसे परिष्कृत करते हुए इसमें अंग संचालन की अभिव्यक्ति को महत्व दिया जाने लगा।

इतिहास

कथक नृत्य

कथक की शैली का जन्‍म ब्राह्मण पुजारियों द्वारा हिन्‍दुओं की पारम्‍परिक पुन: गणना में निहित है, जिन्‍हें क‍थिक कहते थे, जो नाटकीय अंदाज़में हाव भावों का उपयोग करते थे। क्रमश: इसमें कथा कहने की शैली और अधिक विकसित हुई तथा एक नृत्‍य रूप बन गया। इस नृत्य को 'नटवरी नृत्य' के नाम से भी जाना जाता है। उत्तर भारत में मुग़लों के आने पर इस नृत्‍य को शाही दरबार में ले जाया गया और इसका विकास एक परिष्कृत कलारूप में हुआ, जिसे मुग़ल शासकों का संरक्षण प्राप्‍त था और कथक ने वर्तमान स्‍वरूप लिया। इस नृत्‍य में अब धर्म की अपेक्षा सौंदर्य बोध पर अधिक बल दिया गया।

'कथक' शब्‍द का उद्भव 'कथा' से हुआ है, जिसका शाब्दिक अर्थ है- 'कहानी कहना'। पुराने समय में कथा वाचक गानों के रूप में इसे बोलते और अपनी कथा को एक नया रूप देने के लिए नृत्‍य करते। इससे कथा कलाक्षेपम और दक्षिण भारत में हरी कथा का रूप बना और यही उत्तर भारत में कथक के रूप में जाना जाता है। लगभग 15वीं शताब्दी में इस नृत्‍य परम्‍परा में मुग़ल नृत्‍य और संगीत के कारण बड़ा परिवर्तन आया। 16वीं शताब्‍दी के अंत तक कसे हुए चूड़ीदार पायजामे को कथक नृत्‍य की वेशभूषा मान लिया गया।

घराने

इस नृत्‍य परम्‍परा के दो प्रमुख घराने हैं, इन दोनों को उत्तर भारत के शहरों के नाम पर नाम दिया गया है और इनमें से दोनों ही क्षेत्रीय राजाओं के संरक्षण में विस्‍तारित हुआ-

  1. लखनऊ घराना
  2. जयपुर घराना

वर्तमान समय का कथक सीधे पैरों से किया जाता है और पैरों में पहने हुए घुंघरुओं को नियंत्रित किया जाता है। कथक में एक उत्तेजना और मनोरंजन की विशेषता है जो इसमें शामिल पद ताल और तेज़ीसे चक्‍कर लेने की प्रथा के कारण है, जो इसमें प्रभावी स्‍थान रखती है तथा इस शैली की सबसे अधिक महत्‍वपूर्ण विशेषता है। इन नृत्‍यों की वेशभूषा और विषयवस्‍तु मुग़ल लघु तस्‍वीरों के समान है। जबकि यह नाट्यशास्‍त्र के समान नहीं है। फिर भी कथक के सिद्धांत अनिवार्यत: इसके समान ही हैं। यहाँ हस्‍त मुद्राओं के भरतनाट्यम में दिए जाने वाले बल की तुलना में पद ताल पर अधिक ज़ोर दिया जाता है।

पृष्ठभूमि और विकास

कथक नृत्यांगनाएँ
कथक करती कलाकार

कथक के प्रसार के बारे में अधिकतर कथक विद्वानों का कहना है कि जब द्वारका की समाप्ति हुई तो वहां के लोगों ने जीवनयापन के लिए वहां से पलायन किया तथा भौगोलिक दृष्टि से राजस्थान के नजदीक होने के कारण उन्होंने यहाँ के जोधपुर और बीकानेर क्षेत्र को अपनी कर्मभूमि बनाया। मूल स्वरूप का प्रादुर्भाव जैतारण, बींदासर में हुआ, ऐसा भी कई कथक विद्वान् मानते हैं। इन विद्वानों की मान्यता है कि कथक का निकास वास्तव में जैतारण और बींदासर से ही है, जहाँ आज भी अनेक कथक परिवार हैं। इस क्षेत्र के भात, जो कि बहियाँ रखते हैं उनके पास इन कथक परिवारों के पूर्वजों का विवरण आज भी मौजूद है। कथक वंशावलियों के अनुसार प्रारंभ में कथक करने वालों के नाम 'अडूजे-खडूजे' हुआ करते थे, जिनका विवरण भाटों की बहियों में मौजूद है; लेकिन बनारस घराने के कलाकार कथक का उद्‌भव स्थल काशी-बनारस को मानते हैं। उनका कहना है कि बनारस में मौजूद असंख्य मंदिरों के प्रांगण से कथक का प्रादुर्भाव हुआ। राजस्थान में तो तब प्रचलित हुआ, जब बनारस के राजा ने कुछ कलाकारों को जयपुर दरबार में कथक के विकास हेतु भेजा।[1]

संरक्षण

राजस्थान में कथक को सर्वाधिक आश्रय मिला। जयपुर राजघराना कथक को आश्रय देने में सबसे अग्रणी था। यहाँ के गुणी-जनखाने में कथक नर्तकों और गुरुजनों को काफ़ी सुविधाएँ और सम्मान मिला। इसीलिए आज भी जयपुर घराना अन्य कथक घरानों में अग्रणी और प्राचीन है। अगर यह कहा जाए कि जयपुर घराने से ही अन्य घरानों का प्रादुर्भाव हुआ है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। कथक की पारम्परिक शुरुआत का श्रेय जयपुर घराने के पंडित बिन्दादीन महाराज को जाता है, उनके समकालीन पंडित हरिप्रसाद और पंडित हनुमान प्रसाद उस समय जयपुर दरबार के गुणी-जनखाने में विशेष स्थान रखते थे। कहा जाता है कि देव-परी के जोड़े के रूप में प्रसिद्द इन दोनों भाइयों का कथक नृत्य उस समय का श्रेष्ठतम कथक था।

पंडित हरिप्रसाद के बारे में प्रचलित था कि जब वह गोविंददेव जी के मंदिर में अपने नृत्य की प्रस्तुति करते थे तो उनके पैर ज़मीन को नहीं छूते थे, जिसके कारण उन्हें देव रूप माना जाने लगा, दूसरी ओर पंडित हनुमान प्रसाद को श्रृंगार पदों पर नृत्य करने के कारण परी का नाम दिया गया। कथक में श्रृंगारिकता का समावेश इसी काल में हुआ। खासतौर से लखनऊ घराने की कथक शैली पर मुग़ल सभ्यता का असर पड़ा, जिससे उसमें श्रृंगारिकता का प्रभाव बढ़ गया जो आज भी लखनऊ घराने के कथक नृत्य में देखने को मिलता है। पंडित बिन्दादीन महाराज के बाद कथक के विकास की बागडोर पंडित जयलाल, पंडित नारायण प्रसाद, पंडित सुन्दर प्रसाद, शंकरलाल, पंडित लच्छू महाराज, मोहनलाल, पंडित महादेव, पंडित शम्भू महाराज और पंडित अच्छन महाराज ने संभाली। इस पीढ़ी ने कथक का काफ़ी विकास किया। पंडित जयलाल की पुत्री जयकंवर ने विरासत में मिली इस नृत्यकला को इतनी बारीकी से ग्रहण किया कि जब वह नृत्य करती थीं तो उनकी नृत्य गति इतनी तीव्र हुआ करती थी कि देखने वालों को उनकी सूरत भी नज़र नहीं आती थी। जयकंवर कथक नृत्यांगना के रूप में पहली महिला थीं, जिन्होंने कथक में ख्याति अर्जित करने के साथ-साथ अन्य महिलाओं को भी इस विधा से जुड़ने के लिए प्रेरित किया, लेकिन चूरू के बींदावाटी क्षेत्र में रह रहे कथक परिवारों के विचार इससे अलग हैं।[1]

उनका कहना है कि बिन्दादीन महाराज से पहले यहाँ की प्रथम कथक नृत्यांगना हरद्वारा बाई इंदौर के दरबार में गुलाल पर गणेश ताल में गणेश परण के साथ पांवों की थिरकन से भगवान गणपति का चित्र अंकित कर देती थीं, जिनके चर्चे आज भी इन परिवारों में हैं। दूसरी पीढ़ी के रूप में सुन्दरलाल, पंडित गौरीशंकर, पंडित कुंदनलाल गंगानी, रोशन कुमारी, पंडित बिरजू महाराज, कृष्ण कुमार महाराज, पंडित राममोहन महाराज आदि ने कथक के प्रचार-प्रसार को अपने नृत्य द्वारा जारी रखा। इन सबका योगदान अविस्मरणीय है, इन्होंने देश-विदेश में कथक को काफ़ी लोकप्रिय बनाया।

कलाकारों की श्रेष्ठता का अहम् तथा नुकसान

कथक की पृष्ठभूमि और विकास के बाद वर्तमान कथक घरानों और उनके कलाकारों पर ध्यान दें तो पता चलेगा कि घरानेबाज़ी और कलाकारों में श्रेष्ठता के अहं ने कथक के मूल स्वरूप को कितना नुकसान पहुँचाया है। इन घरानों का उदय भी कलाकारों की ही देन है। कुछ ख्यातिनाम कलाकारों ने कथक के मूल स्वरूप में अपनी सुविधानुसार थोड़ा-थोड़ा परिवर्तन करके विभिन्न घरानों की स्थापना की और फिर उनका नृत्य उनके घरानों का प्रतीक बनकर प्रचलित होता चला गया, जिसे आज के कलाकारों ने आत्मसात करके और दृढ़ता प्रदान की है तथा लोकप्रिय बनाने में अपना योगदान दिया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 कथक के मूल स्वरूप में परिवर्तन तथा घरानों की देन (हिंदी) journalistnishant.blogspot.in। अभिगमन तिथि: 17 दिसम्बर, 2016।

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