सिन्धु लिपि

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Disamb2.jpg सिन्धु एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- सिन्धु (बहुविकल्पी)
सिंधु सभ्यता की उत्कीर्ण मुद्रा

सिन्धु घाटी की सभ्यता से संबंधित छोटे-छोटे संकेतों के समूह को सिन्धु लिपि कहते हैं। इसे सिन्धु-सरस्वती लिपि और हड़प्पा लिपि भी कहते हैं। सिन्धु सभ्यता का उदघाटन 1920 ई. के बाद हुआ। यदि हमारे पुरातत्त्ववेत्ता अधिक सचेत होते तो इस सभ्यता की खोज उन्नीसवीं शताब्दी में ही हो गई होती। मेसोने ने 1820 में पहली बार हड़प्पा के टीलों को पहचाना था। 1865 में ब्रिटेन-बंधुओं-जॉन और विलियम को लाहौर से कराची तक की रेल लाइन बनाने का ठेका मिला। विलियम ने मुल्तान-लाहौर लाइन का निर्माण किया और इस लाइन की गिट्टी के लिए हड़प्पा की ईटों का अंधाधुंध इस्तेमाल किया। 'आज रेलगाड़ियाँ सौ मील तक ऐसी पटरियों पर से गुज़रती हैं, जो ई. पू. तीसरी सहशताब्दी की बनी हुई ईटों पर मज़बूती से टिकी हुई हैं। ईटों की इस लूट के दौरान कई प्रकार के पुरावशेष प्राप्त हुए। इनमें से अधिक आकर्षक पुरावशेषों को मज़दूरों और इंजीनियरों ने रख लिया'।[1]

इतिहास

हड़प्पा लिपि (सिन्धु लिपि) का सर्वाधिक पुराना नमूना 1853 ई. में मिला था पर स्पष्टतः यह लिपि 1923 तक प्रकाश में आई। सिंधु लिपि में लगभग 64 मूल चिह्न एवं 205 से 400 तक अक्षर हैं जो सेलखड़ी की आयताकार मुहरों, तांबे की गुटिकाओं आदि पर मिलते हैं। यह लिपि चित्रात्मक थी। यह लिपि अभी तक गढ़ी नहीं जा सकी है। इस लिपि में प्राप्त सबसे बड़े लेख में क़रीब 17 चिह्न हैं। कालीबंगा के उत्खनन से प्राप्त मिट्टी के ठीकरों पर उत्कीर्ण चिह्न अपने पार्श्ववर्ती दाहिने चिह्न को काटते हैं। इसी आधार पर 'ब्रजवासी लाल' ने यह निष्कर्ष निकाला है - 'सैंधव लिपि दाहिनी ओर से बायीं ओर को लिखी जाती थी।' अभी हाल में 'के.एन. वर्मा' एवं 'प्रो. एस.आर. राव' ने इस लिपि के कुछ चिह्नों को पढ़ने की बात कही है। सैन्धव सभ्यता की कला में मुहरों का अपना विशिष्ट स्थान था। अब तक क़रीब 200 मुहरें प्राप्त की जा चुकी हैं। इसमें लगभग 1200 अकेले मोहनजोदाड़ो से प्राप्त हुई हैं। ये मुहरे बेलनाकार, वर्गाकार, आयताकार एवं वृत्ताकार रूप में मिली हैं। मुहरों का निर्माण अधिकतर सेलखड़ी से हुआ है। इस पकी मिट्टी की मूर्तियों का निर्माण 'चिकोटी पद्धति' से किया गया है। पर कुछ मुहरें 'काचल मिट्टी', गोमेद, चर्ट और मिट्टी की बनी हुई भी प्राप्त हुई हैं। अधिकांश मुहरों पर संक्षिप्त लेख, एक श्रृंगी, सांड, भैंस, बाघ, गैडा, हिरन, बकरी एवं हाथी के चित्र उकेरे गये हैं। इनमें से सर्वाधिक आकृतियाँ एक श्रृंगी, सांड की मिली हैं। लोथल ओर देशलपुर से तांबे की मुहरे मिली हैं। मोहनजोदाड़ो से प्राप्त एक त्रिमुखी पुरुष को एक चौकी पर पद्मासन मुद्रा में बैठे हुए दिखलाया गया है। उसके सिर में सींग है तथा कलाई से कन्धे तक उसकी दोनों भुजाएं चूड़ियों से लदी हुई हैं। उसके दाहिने ओर एक हाथी और एक बाघ तथा बाई ओर एक भैंसा और एक गैडा खड़े हुए हैं। चौकी के नीचे दो हिरण खड़े हैं। मोहनजोदाड़ो से प्राप्त एक अन्य मुहर भक्त घुटने के बल झुका हुआ है। इस भक्त के पीछे मानवीय मुख से युक्त एक बकरी खड़ी है और नीचे की ओर सात भक्त-गण नृत्य में मग्न दिखाए गए हैं। मोहनजोदाड़ो एवं लोथल से प्राप्त एक अन्य मुहर पर 'नाव' का चित्र बना मिला है। हड़प्पा सीलों का सर्वाधिक प्रचलित प्रकार चौकोर है। मोहनजोदाड़ो, लोथल एवं कालीबंगा से राजमुद्रांक मिले हैं, जिनसें यह संकेत मिलता है कि सम्भवतः इन मुहरों का प्रयोग उन वस्तुओं की गांठो पर मुहर लगाने में किया जाता था जिनका बाहर के देशों को निर्यात किया जाता था।

कनिंघम की यात्रा

जनरल कनिंघम (1814-93) ने 1856 में हड़प्पा की यात्रा करके वहाँ से कुछ मुहरें प्राप्त की थीं, जिन पर सिन्धु लिपि के संकेत उत्कीर्ण थे। कनिंघम इन पुरावशेषों के महत्त्व को समझ तो गए थे, किन्तु वे हड़प्पा के अन्वेषणों को आगे नहीं बढ़ा सके। उन्होंने 1875 में इन मुहरों में से कुछ को प्रकाशित करके ही संतोष कर लिया।

अन्वेषण

सिन्धु सभ्यता के दो प्रमुख स्थल मोहनजोदाड़ो और हड़प्पा के आरम्भिक अन्वेषण का श्रेय दो भारतीय पुरातत्त्ववेत्ताओं को है। जनवरी 1921 में दयाराम साहनी ने हड़प्पा में खुदाई आरम्भ की और 1922 में राखालदास बनर्जी ने मोहनजोदाड़ो में खुदाई आरम्भ की। बाद में पुरातत्त्व विभाग के डायरेक्टर-जनरल जॉन मार्शल (1876-1958) ने यह काम अपने हाथ में ले लिया। मार्शल के नेतृत्व में 1931 तक हड़प्पा तथा मोहनजोदाड़ो की खुदाई होती रही। इस खुदाई का विस्तृत विवरण मार्शल ने तीन खण्डों वाले एक बृहदाकार ग्रन्थ “मोहेंजो-दड़ो एण्ड द इंडस सिविलिजेशन” (लन्दन, 1931) के रूप में प्रकाशित किया। हड़प्पा (मांटगोमरी ज़िला, पाकिस्तान) और मोहनजोदाड़ो (सिन्ध, पाकिस्तान) के प्रकाश में आने के बाद सिन्धु सभ्यता के अन्य अनेक स्थल भी धीरे-धीरे सामने आए। वर्तमान शताब्दी के तीसरे दशक में ऑरेल स्टाइन (1862-1943) ने बलूचिस्तान में अनेक टीलों की खोज की। सिन्धु सभ्यता के अन्वेषण में भारतीय पुरातत्त्ववेत्ताओं ने भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। 1927 और 1931 के बीच ननिगोपाल मजूमदार (1893-1938) ने हड़प्पा और मोहनजोदाड़ो के बीच के प्रदेश की छानबीन की और किरथर पहाड़ियों में खुदाई करते समय ही डाकुओं के हाथों उनकी मृत्यु हुई। मोहनजोदाड़ो की खुदाई में भारतीय पुराविद माधोस्वरूप वत्स तथा काशीनाथ दीक्षित मार्शल के सहयोगी थे। 1925 में दीक्षित ने सिन्धु सभ्यता के दो और स्थल लोहुम्जो-दड़ों तथा लुमुजोनेजो खोजे। अर्नेस्ट मैके के नेतृत्व में 1935-1936 में सिन्ध के नवाबशाह ज़िले के चन्हु-दड़ो नामक स्थान पर खुदाई हुई। इस स्थान से सिन्धु सभ्यता के उत्तरकाल की महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त हुई। 1945 में मॉर्टिमर ह्वीलर ने हड़प्पा की पुन: विधिवत खुदाई आरम्भ की। इस खुदाई में बहुत सी नई चीज़ें मिलीं, जिनमें हड़प्पा का परकोटा विशेष महत्त्व का है।

भारत विभाजन

1947 में भारत विभाजन के कारण मोहनजोदाड़ो, हड़प्पा तथा सिन्धु सभ्यता के अन्य अनेक स्थल भारतीय पुरातत्त्ववेत्ताओं के हाथों से निकल गए। किन्तु सिन्धु सभ्यता केवल सिन्धु प्रदेश में ही सीमित नहीं थी। भारतीय पुराविदों ने वर्तमान भारत में लगभग 200 ऐसे स्थान खोज निकाले हैं, जो सिन्धु सभ्यता के हैं। 1950-1953 में राजस्थान की घग्घर (प्राचीन दृषद्वती) नदी के कछार में सिन्धु सभ्यता के लगभग तीस स्थलों का पता चला है। अम्बाला ज़िले के रोपड़ स्थान के नजदीक भी हड़प्पा संस्कृति के पुरावशेष प्राप्त हुए हैं। काठियावाड़ (गुजरात राज्य) में भी सिन्धु सभ्यता के अनेक स्थल मिले हैं। गुजरात के भावनगर ज़िले में स्थित पडरी के बर्तन के ठीकरों पर हड़प्पाई लिपि प्राप्त हुई है, साथ ही तीन विशिष्ट चित्रित भाण्ड व ताँबे की कलात्मक वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं।

लोथल से प्राप्त सिन्धु मुहर

1935 में सुरेन्द्रनगर के पास रंगपुर के टीलों की खुदाई आरम्भ हुई थी। 1950 के बाद की खुदाई में रंगपुर के समीप के एक टीले से हड़प्पा संस्कृति के पुरावशेष मिले हैं। उत्साहित होकर पुराविदों ने अन्य टीलों को भी खोदना शुरू किया। कई स्थानों पर सिन्धु संस्कृति के अवशेष मिले। इनमें प्रमुख हैं-साबरमती और भगवा नदियों के बीच, अरब सागर से 16 किलोमीटर दूर, लोथल। मिट्टी पर सिन्धु लिपि की मुहरों के ऐसे छापे भी लोथल से मिले हैं, जो अन्यत्र कहीं नहीं मिले थे। काल-निर्धारण की “कार्बन-14 विधि” जांचन से ज्ञात हुआ है कि लोथल में 2200 से 1700 ई. पू. तक बस्ती रही। लोथल की खुदाई में ईटों की बनी हुई 218 मीटर लम्बी और 37 मीटर चौड़ी चतुर्भुजाकार एक गोदी (डॉकयार्ड) भी मिली है। इस गोदी को एक नहर द्वारा भगवा नदी से जोड़ा गया था। ऐसा जान पड़ता है कि समुद्री जहाज़ या नौकाएँ भगवा नदी में आती थीं। मेसोपोटामिया की एक उत्कीर्ण मुद्रा भी लोथल से मिली है। इन प्रमाणों से यह प्रकट होता है कि समुद्री मार्ग से भी सुमेर-बेबीलोन और सिन्धु प्रदेश के बीच गहरे व्यापारी सम्बन्ध थे।

खोज

सन 1947 के बाद भारत में सिन्धु सभ्यता के जो कई स्थल खोजे गए, उनमें प्रमुख हैं-राजस्थान में घग्घर के तट पर स्थित कालीबंगा। यहाँ हड़प्पा और पूर्व-हड़प्पा काल के अवशेष मिले हैं। हड़प्पा की तरह यहाँ भी परकोटे से घिरा हुआ एक ऊँचा दुर्ग था। परन्तु यहाँ की सबसे महत्त्वपूर्ण खोज है-हल से जोता गया एक खेत, जो प्रमाणित करता है कि सिन्धुजन हल का प्रयोग करते थे। सिन्धु सभ्यता के एक अन्य स्थल बणावाली (हिसार ज़िला, हरियाणा) से मिट्टी का बने हल का एक खिलौना भी मिला है। परन्तु यहाँ से सिन्धु लिपि की मुहरें नहीं मिलीं। इसी तरह, ज़िले के कुणाल स्थान से पूर्व-हड़प्पा काल की मुहरें तो मिली हैं, परन्तु उन पर लिपि-संकेत उकेरे हुए नहीं हैं।

धौलावीरा

इधर के वर्षों में धौलावीरा (कच्छ, गुजरात) में एक विकसित हड़प्पा संस्कृति का उदघाटन हुआ है। इस सिन्धु नगर को परकोटे के भीतर एक विशिष्ट आयोजन और विन्यास के अनुसार बसाया गया था। यहाँ की एक अद्वितीय उपलब्धि है-सिन्धु लिपि के दस बड़े चिह्नों से बना हुआ लेख। दुर्ग के उत्तरी द्वार के पास ज़मीन पर पड़े हुए इस लेख का प्रत्येक अक्षर 37 सेन्टीमीटर ऊँचा है। स्फटिक के टुकड़ों से निर्मित ये अक्षर तीन मीटर लम्बे लकड़ी के एक तख़्ते पर जोड़े गए थे। अनुमान है कि यह लेख नगर के प्रवेश द्वार के ऊपर 'नामपट्ट' की तरह लगा हुआ था।

उत्खनन

आज़ादी के बाद सिन्धु सभ्यता के और भी कई स्थलों पर उत्खनन कार्य हुआ। इनमें मुख्य हैं-सुरकोटड़ा (कच्छ), मांडा (जम्मू), भगवानपुरा (कुरुक्षेत्र ज़िला), हुलास (सहारनपुर ज़िला, उत्तर प्रदेश), मीताथल (हरियाणा) आदि। सिन्धु सभ्यता के लोगों की आरम्भिक बस्तियाँ बलूचिस्तान में देखने को मिलती हैं। बाद में सिन्धु के कछार में हड़प्पा तथा मोहनजोदाड़ो जैसे पूर्ण विकसित नगर प्रकट होते हैं। कालान्तर में इन लोगों ने गंगा-यमुना के दोआब में भी अपनी बस्तियाँ बसाई।

अवशेष

1958 में दिल्ली से 45 किलोमीटर उत्तर-पूर्व की ओर, यमुना की एक सहायक नदी के किनारे, आलमगीर नामक स्थान पर हड़प्पा संस्कृति के अवशेष मिले हैं, पर आलमगीर हड़प्पा के लोगों की पूर्व की ओर की अन्तिम सीमा नहीं है। हड़प्पा की तरह के मृदभांड गंगा के किनारे बुलन्दशहर तथा सहारनपुर ज़िलों में भी मिले हैं। दक्षिण के पठार में भी कुछ स्थलों पर सिन्धु सभ्यता के चिह्न प्राप्त हुए हैं। इस तरह मोहनजोदाड़ो तथा हड़प्पा के पाकिस्तान में चले जाने के बाद भी भारतीय पुराविदों के फावड़ों के लिए ऐसा विशाल भारतीय क्षेत्र विद्यमान है, जिसमें सिन्धु सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं और आगे भी प्राप्त हो सकते हैं।

काल निर्धारण

मिस्र तथा सुमेर की प्राचीन सभ्यताओं की तरह सिन्धु सभ्यता का काल-निर्धारण सम्भव नहीं है। मिस्र तथा सुमेर की प्रागैतिहासिक सभ्यताओं के काल-निर्धारण में वहाँ मिली लेखन-सामग्री काफ़ी सहायक सिद्ध हुई है। किन्तु सिन्धु लिपि के अभी तक न पढ़े जाने के कारण सिन्धु सभ्यता के काल-निर्धारण में अन्य विधियों की शरण लेनी पड़ती है। सिन्धु सभ्यता की कुछ उत्कीर्ण मुहरें मेसोपोटामिया की खुदाई में भी मिली हैं। ये मुहरें वहाँ खुदाई के जिन स्तरों में मिली हैं, उन स्तरों का काल पुराविदों को ज्ञात है। इन मेसोपोटामियाई स्थलों की पुरातात्विक खोजबीन से प्रकट होता है कि इन मुहरों के वहाँ पहुँचने का समय 2300 ई.पू. के आस-पास रहा होगा। इस तथा अन्य अनुमानों के आधार पर पुराविद इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि सिन्धु सभ्यता 2600 से 2000 ई. पू. तक अपने चरमोत्कर्ष पर थी।

सिन्धु लिपि की मुहरें

सिन्धु सभ्यता के विभिन्न स्थलों से अब तक 3000 से अधिक उत्कीर्ण मुद्राएँ या मुहरें प्राप्त हुई हैं। सेलखड़ी, चीनी मिट्टी तथा हाथीदाँत की बनी इन मुहरों पर पशु, पक्षी तथा मानव की आकृतियों के साथ सिन्धु लिपि के संकेत उत्कीर्ण हैं। पुराविदों के लिए यह एक पहेली है कि ये मुहरें, इन पर उत्कीर्ण प्रतीकों सहित, किस उद्देश्य से बनाई गई थीं। मेसोपोटामिया से भी बेलन (सिलिंडर) के आकार की मुहरें मिली हैं, परन्तु वहाँ कलशों या भांडों पर मिट्टी के फलकों की सील लगाने के लिए इन मुहरों का इस्तेमाल होता था। सिन्धु सभ्यता की मुहरों का भी उपयोग सील लगाने के लिए ही होता था, ऐसा निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। लोथल की मिट्टी पर इन अंकित मुहरों की छापें मिली हैं, किन्तु वैसी छापें अन्य किसी भी स्थान की मिट्टी पर नहीं मिली हैं। अनेक पुराविदों ने इन मुहरों की कल्पना सिक्के, तावीज, ट्रेड-मार्क आदि के रूप में की है।

मान्यताएँ

सिन्धु लिपि के बारे में भी पुरालिपिविदों ने नाना प्रकार की कल्पनाएँ प्रस्तुत की हैं। सबसे पहले 1925 में एल.ए. वाडेल ने इस लिपि को पढ़ने का प्रयास किया था। उनकी मान्यता थी कि सुमेरी लोग तथा वैदिक आर्य एक ही वंश के थे। उन्होंने सिन्धु लिपि को सुमेरी लेखों के आधार पर पढ़ने का प्रयास किया और इस लिपि में कुछ वैदिक देवताओं को भी खोज निकाला। वाडेल का अनुकरण करते हुए डॉ. प्राणनाथ ने सिन्धु संस्कृति को आर्य संस्कृति तो माना, परन्तु उसकी भाषा को उन्होंने आद्य-संस्कृत या आद्य-प्राकृत का नाम दिया। उन्होंने काफ़ी बाद की ब्राह्मी लिपि के ध्वनिमानों को सिन्धु लिपि के संकेतों पर लागू करने का प्रयत्न किया। डॉ. प्राणनाथ का यह भी सुझाव था कि तांत्रिक प्रतीकों के आधार पर सिन्धु लिपि के संकेतों का अध्ययन किया जाना चाहिए। इस सुझाव का अनुकरण करते हुए शंकरानंद तथा बेनी माधव बरुआ ने सिन्धु लिपि को पढ़ने का यत्न किया। इन दोनों सज्जनों ने इस लिपि को वर्णमालात्मक ही माना। मुम्बई के सेंट जेवियर्स कॉलेज के भारत-पुराविद फ़ादर हेरास ने कल्पना की कि सिन्धु सभ्यता के लोग द्रविड़ जाति के थे, इसीलिए उनकी भाषा भी द्रविड़ परिवार की-प्राक-तमिल-होनी चाहिए। प्रसिद्ध मिस्र-पुराविद फ़्लिंडर्स पेट्री ने मिस्री लिपि के साम्य के आधार पर सिन्धु लिपि में केवल भावचित्रों की ही कल्पना की। पेट्री का मत था कि सिन्धु सभ्यता की इन मुहरों पर केवल अफ़सरों की पदवियाँ अंकित हैं।

ह्रोज़्नी के अनुसार

प्रथम महायुद्ध के जमाने में प्रसिद्ध पुरालिपिविद ह्रोज़्नी ने हित्ती कालीक्षर लिपि का उदघाटन किया था। उसके बाद उन्होंने संसार की बहुत-सी पुरालिपियों को पढ़ने की कोशित की थी, जिनमें क्रीट की लिपि को पढ़ने की असफल कोशिश भी शामिल है। ह्रोज़्नी ने 1939 में सिन्धु लिपि के बारे में भी एक निबन्ध प्रकाशित किया। उनकी मान्यता थी कि सिन्धु सभ्यता के लोग प्राक-हित्ती थे अर्थात भारत-यूरोपीय भाषा-परिवार के थे। इसीलिए उन्होंने सिन्धु लिपि में हित्ती भाषा को खोजने का प्रयत्न किया।

मेरीग्गी के अनुसार

इटली के प्रसिद्ध पुराविद मेरीग्गी ने पेट्रो की इस केवल भावचित्रों वाली मान्यता को अस्वीकार करके, सिन्धु लिपि को भावचित्रों और ध्वनि-संकेतों से युक्त एक मिश्रित योजना माना। उन्होंने कुछ संकेतों को भावचित्र माना और कुछ संकेतों को ध्वनि संकेत। उन्होंने इसके बाद सिन्धु लिपि के अंत्य-प्रयत्नों का अध्ययन करके उसमें विभक्ति-संकेतों की भी खोज की। जब मेराग्गी ने अपनी इस योजना के अनुसार सिन्धु लिपि को पढ़ने की कोशिश की, तो उन्हें इन लेखों में कृषि से सम्बन्धित बातों की ही प्रधानता दिखाई दी।

दे-हेवेसी के अनुसार

1934 में दे-हेवेसी ने एक अदभुत कल्पना की। उन्होंने सिन्धु लिपि को ईस्टर द्वीप की लिपि के साथ जोड़ने का प्रयत्न किया और संकेतों का साम्य दरसाने के लिए इन दोनों लिपियों में से 48 संकेतों की एक तालिका भी प्रकाशित की। सरसरी दृष्टि से कोई भी इस तालिका को देखेगा, तो विश्वास कर बैठेगा कि सिन्धु लिपि और ईस्टर द्वीप की लिपि में अदभुत साम्य है। परन्तु गहराई से विचार करने पर यह साम्य एक भुलावा मात्र जान पड़ता है। एक तो हेवेसी ने इन दो लिपियों के केवल 48 संकेतों में ही समानता दरसाई है और भी ज़ोर-जबरी से, जबकि सिन्धु लिपि में संकेतों की संख्या इससे आठ गुना अधिक है।
दूसरे, हम जानते हैं कि ईस्टर द्वीप की लिपि एक हज़ार साल से अधिक पुरातन नहीं हो सकती है, जबकि सिन्धु लिपि लगभग साढ़े चार हज़ार साल पुरानी है। तीसरे, ईस्टर द्वीप (प्रशान्त महासागर) और सिन्धु प्रदेश के बीच इतनी अधिक दूरी है कि किसी भी प्रकार यह कल्पना नहीं की जा सकती है कि सिन्धु सभ्यता के निवासी इतनी दूर अपनी इस लिपि को ले गए होंगे। अतः दिक्काल के इस महत अन्तर पर विचार करें, तो हेवेसी की यह मान्यता कोरी काल्पनिक उड़ान ही जान पड़ती है।

सिन्धु लिपि की कठिनाई

सिन्धु लिपि का ऐसा कोई लेख अब तक नहीं मिला है, जिसमें 26 से अधिक संकेत हों। मुहरों पर लिपि-संकेतों के साथ पशु-पक्षियों की जो आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं, उनके अध्ययन से ज्ञात होता है कि सिन्धु लिपि दाईं ओर बाईं ओर को लिखी जाती थी। यह भी पता चलता है कि जहाँ लिपि-संकेत दो पंक्तियों में हैं, वहाँ पर ‘ब्युस्त्रफीदान’ पद्धति से उन्हें लिखा गया है, यानी पहली पंक्ति दाईं ओर से बाईं ओर को लिखी गई है, और दूसरी पंक्ति बाईं ओर से दाईं ओर को। ज्ञात होता है कि सिन्धु लिपि में लगभग 400 संकेतों का प्रयोग होता था, किन्तु एक ही संकेत के विविध रूपों को छोड़ दिया जाए तो इन संकेतों की संख्या लगभग 250 रह जाती है। अब यह एक स्पष्ट बात है कि, इतने अधिक संकेतों वाली लिपि वर्णमालात्मक तो नहीं हो सकती। यह भी स्पष्ट है कि चित्रलिपि या भावचित्रात्मक लिपि के लिए इतने संकेत पर्याप्त नहीं हैं।

सुमेरी लिपि

सुमेरी लिपि के अध्ययन से ज्ञात होता है कि आरम्भ में उसमें लगभग 2000 संकेतों का प्रयोग होता था और कालान्तर में यह संख्या केवल 900 रह गई। संकेतों की संख्या में कमी होते जाना लिपि के विकास को व्यक्त करता है। (चीनी लिपि इन नियम का अपवाद है।) सिन्धु लिपि के बारे में और एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सिन्धु सभ्यता के लगभग एक हज़ार वर्षों के दीर्घ-जीवन काल में भी इसके संकेतों के स्वरूपों में कोई विशेष परिवर्तन देखने में नहीं आता। सिन्धु सभ्यता के अन्य पुरावशेषों के निरीक्षण से भी यह बात सिद्ध होती है कि 2600 ई. पू. के आस-पास जिस सभ्यता के हमें दर्शन होते हैं, वह अपने विकास के उत्कर्ष पर पहुँच चुकी थी और अगले एक हज़ार वर्षों तक उसमें कोई विशेष परिवर्तन देखने को नहीं मिलता। सिन्धु लिपि का स्थायी स्वरूप भी इसी तथ्य की ओर इशारा करता है कि, सिन्धु सभ्यता लगभग एक हज़ार वर्षों तक वैसी-की-वैसी बनी रही है।

लिपि-अन्वेषण

सिन्धु लिपि की भाँति ही उसकी भाषा भी अज्ञात ही है। ऐसी स्थिति में लिपि-अन्वेषण के लिए कोई द्वैभाषिक लेख ही सहायक सिद्ध हो सकता है। किन्तु अभी तक इस तरह का कोई का द्वैभाषिक लेख प्राप्त नहीं हुआ है। सिन्धु सभ्यता और सुमेरी सभ्यता के गहरे व्यापारिक सम्बन्ध थे। सिन्धु लिपि की मुहरें मेसोपोटामिया में मिली हैं और मेसोपोटामिया की मुहरें सिन्धु प्रदेश में। इसलिए हमें आशा रखनी चाहिए कि किसी दिन भारत या इराक में कोई ऐसा द्वैभाषिक लेख प्राप्त हो जायेगा, जिसमें सिन्धु लिपि तथा कीलाक्षर लिपि में एक ही बात अंकित की गई हो।

सिन्धु लिपि के दोष

ऊपर सिन्धु लिपि के बारे में जितनी भी परिकल्पनाओं का उल्लेख किया है, उनके दोषों को आसानी से समझा जा सकता है। इन परिकल्पनाओं की दोषपूर्णता इसी से स्पष्ट है कि इन पुरालिपिविदों में से किसी को इस लिपि का उदघाटन करने में आंशिक सफलता भी नहीं मिली है। कुछ पुराविदों ने इस लिपि की आन्तरिक रचना का तथा इसके संकेतों का यांत्रिक विश्लेषण करने का भी प्रयत्न किया है। गाड, सिडनी स्मिथ, लांगडन और हंटर इनमें प्रमुख हैं। गाड ने सिन्धु लिपि में प्राचीन भारोपीय भाषा की कल्पना की है और इसके तीन संकेतों को ‘शब्द’ के अर्थ में पढ़ने का प्रयत्न किया है। हंटर ने सिन्धु लिपि तथा ब्राह्मी लिपि में कुछ साम्य खोजने की कोशिश की। गाड तथा हंटर दोनों ही सिन्धु लिपि को अक्षरात्मक मानते हैं। इसके विपरीत, सिडनी स्मिथ ने किसी भी भाषा का सहारा न लेते हुए इसके संकेतों का यांत्रिक विश्लेषण करने का प्रयत्न किया है। उन्होंने अपना अध्ययन इस लिपि के निर्धारक-संकेतों, पूर्व-सर्ग तथा अंत्य-सर्ग संकेतों को तय करने तक ही सीमित रखा।
कुछ पुराविदों ने सिन्धु लिपि के संकेतों की तुलना बाद के आहत (पंचमार्क) सिक्कों पर पाए जाने वाले चिह्नों के साथ करने की भी कोशिश की है। मौर्यकाल के सोहगौरा ताम्रपत्र पर पाये गए संकेत सिन्धु लिपि के अवशेष माने गए हैं। परन्तु इस परिकल्पना के लिए अभी तक कोई ठोस आधार प्राप्त नहीं हुआ है। इस प्रकार के कुछ प्रतीक-चिह्न तो आज भी देखे जा सकते हैं। इसीलिए इस मान्यता के बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता।

सुधांशु कुमार राय के अनुसार

सिंधु लिपि के उदघाटन के एक-दो दावेदार प्राय हर साल सामने आते हैं। 1968 में सुधांशु कुमार राय के अन्वेषण की समाचारपत्रों में खूब चर्चा रही। उन्होंने अपने अन्वेषण के बारे में दो पुस्तिकाएँ भी प्रकाशित की हैं। सुधांशु कुमार राय सिन्धु में आद्य-संस्कृत भाषा के दर्शन करते हैं। उनके मतानुसार, सिन्धु लिपि आजकल की देवनागरी लिपि जैसी वर्णमालात्मक है। उन्होंने इस लिपि के 48 वर्णाक्षरों की खोज की है। साथ ही, संयुक्ताक्षर तथा स्वर-मात्राओं को भी खोज निकाला है। वे सिन्धु लिपि में कुछ निर्धारक संकेत एवं भावचित्रों के भी दर्शन करते हैं। राय का मत है कि सिन्धु लिपि की मुहरों का इस्तेमाल व्याकरण के नियम सिखाने के लिए होता था। वे कहते हैं, "मोहनजोदाड़ो" निश्चय ही संसार का प्रथम विश्वविद्यालय-नगर था और उसका विशाल स्नानागार, धान्य-कोठार आदि उसके छात्रावास से सम्बन्धित थे।" समझ में नहीं आता कि यदि राय ने सचमुच ही सिन्धु लिपि के रहस्य का उदघाटन कर लिया था, तो उन्होंने अपने अध्ययन को किसी शास्त्रीय पत्रिका में क्यों नहीं प्रकाशित किया?

पशुपति-मुद्रा

वी.एन. कृष्णराव भारतीय पुरातत्त्व-सर्वेक्षण में तकनीकी सहायक के पद पर रहे हैं। सुधांशु कुमार राय की तरह वे भी सिन्धु लिपि में वैदिक संस्कृत भाषा के दर्शन करते हैं। उनका अन्वेषण प्रसिद्ध ‘पशुपति-मुद्रा’ से आरम्भ होता है। इस मुद्रा के बीच में एक योगी या शिव की आकृति है। ऊपर लिपि-संकेत हैं और दाएँ-बाएँ व नीचे पशु-आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं। नीचे बाईं ओर का कोना टूटा हुआ है। कृष्णराव भी यह स्वीकार करते हैं कि सिन्धु लिपि दाईं और बाईं ओर लिखी गई है। अतः इस तथाकथित ‘पशुपति मुद्रा’ में वे उन्हीं पशु-आकृतियों पर विचार करना चाहते हैं, जिनका मुँह बाईं ओर को है। शेर को, जिसका मुँह दाईं ओर है, वे कोई महत्त्व नहीं देते। इसी तरह योगी के आसन के नीचे बनी बकरे या हिरन की आकृति को भी वे महत्त्व नहीं देते। इस आकृति के बाईं ओर, खण्डित भाग में, एक और पशु-आकृति रही है। उनके अनुसार दाईं ओर के पशु हैं-महिष (भैंस), खड्ग (गैंडा)। ऊपर के कोने में मनुष्य (नर) की आकृति है। बाईं ओर शद्रि (हाथी) और पुनः मनुष्य की आकृति है। कृष्णराव का कहना है कि मुद्रा में ऊपर उत्कीर्ण पाँच लिपि-संकेत इन पाँच पशुओं के संस्कृत नामों के आद्याक्षर हैं; जैसे, महिष (म), खड्ग (ख), नर (ना), शद्रि (श) और नर (न)। आद्याक्षरों से ‘मखनाशन’ शब्द बनता है, जो कृष्णराव के अनुसार ‘इन्द्र’ का द्योतक है।

लिपि-संकेत

एक अन्य मुद्रा में योगी की इसी प्रकार की आकृति है और इसके ऊपर पाँच लिपि-संकेत हैं। इस मुद्रा-लेख को पढ़ते हुए कृष्णराव दाईं ओर के दो संकेतों को छोड़ देते हैं और शेष तीनों संकेतों को ‘ईशान’ (रुद्र) पढ़ते हैं। इस मुद्रा में कोई पशु-आकृति नहीं है। इसीलिए कृष्णराव ने यहाँ आद्याक्षर-सिद्धान्त का सहारा नहीं लिया है। एक ही तरह की आकृति एक मुद्रा में मखनाशन (इन्द्र) और दूसरी मुद्रा में ईशान (रुद्र) कैसे हो सकती है? ज़ाहिर है कि उनके अन्वेषण में गड़बड़ है। कृष्णराव ने सिन्धु लिपि को पढ़ने के लिए प्राचीन मिस्र की लिपि, सुमेरी लिपि, रूनी लिपि आदि के संकेतों के मानों का सहारा लिया है। यूरोप की रूनी लिपि किसी भी हालत में दो हज़ार साल से अधिक प्राचीन नहीं है। इसके विपरीत, सिन्धु सभ्यता का अन्त 1500 ई. पू. के पहले ही हो गया था। ऐसी हालत में आगे की एक लिपि के संकेत मानों को सिन्धु लिपि पर कैसे लागू किया जा सकता है। कृष्णराव ने सिन्धु लिपि में कुछ विदेशी शासकों के नाम भी खोजे हैं। एक ओर वे इसमें मिस्र के प्रथम शासक मान (मेनेस या नारमेर, 3200 ई. पू.) का नाम खोजते हैं, तो दूसरी ओर राजा सोलोमन (ई. पू. दसवीं शताब्दी) का। सभी बातों पर विचार करने से ज्ञात होता है कि कृष्णराव ने दिक्काल की सीमाओं का बिल्कुल भी ख्याल नहीं रखा और उनका यह अन्वेषण पुष्ट नहीं है।

डॉ. फ़तहसिंह के अनुसार

दूसरे दावेदार हैं, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर के निदेशक डॉ. फ़तहसिंह। प्रतिष्ठान की शोध-पत्रिका ‘स्वाहा’ में उन्होंने अपना आरम्भिक अन्वेषण प्रकाशित किया है। फ़तहसिंह सिन्धु सभ्यता को आर्य सभ्यता मानते हैं और सिन्धु लिपि में वैदिक भाषा एवं "ब्राह्मण ग्रन्थों और उपनिषदों के प्रतीक" खोजते हैं। सिन्धु लिपि में वैदिक भाषा खोजने के प्रयास से कोई सैद्धान्तिक विरोध नहीं है, पर सिन्धु सभ्यता के उपलब्ध पुरातत्त्वावशेष इसी तथ्य की ओर इशारा करते हैं कि सिन्धु सभ्यता वैदिक सभ्यता से भिन्न थी और वैदिक साहित्य के अध्येता अच्छी तरह जानते हैं कि ऋग्वेद के यातुधर्म में और कालान्तर में रचित ब्राह्मण ग्रन्थों तथा उपनिषदों के धर्म में बड़ा अन्तर है। हम यह स्वीकार करते हैं कि ब्राह्मण और उपनिषदों में आर्यों की संस्कृति और देशज संस्कृति का समन्वय हुआ है। पर ब्राह्मणों और उपनिषदों के प्रतीक अध्यात्मवाद और रहस्य का जामा पहने हुए हैं। इनके विपरीत, ऋग्वेद-कालीन धर्म-कर्म उतना अध्यात्मवादी और रहस्यमय नहीं था। अतः ऋग्वेद को छोड़कर बाद के ब्राह्मणों और उपनिषदों के प्रतीकों को सिन्धु लिपि पर आरोपित करना, अपनी अध्यात्मिकता का परिचय देने के अलावा और कुछ नहीं है।

अक्षरात्मक व भावचित्रात्मक लिपि

डॉ. फ़तहसिंह ने सिन्धु लिपि में अक्षरात्मक व भावचित्रात्मक लिपि-त्रय और लिपि-चतुष्टय के संकेत खोजे हैं। उनका कहना है कि सिन्धु लेख चार प्रकार की लिपियों में लिखे गए हैं। उनका अनुमान है कि इनमें से तीन लिपियाँ दाईं ओर बाईं ओर को लिखी गई हैं और चौथी सम्भवतः बाईं ओर से दाईं ओर को।

संगणक

तीसरे दावेदार हैं, फ़िनलैण्ड के चार वैज्ञानिक-आस्को पारपोला, पी. आल्तो, सिमो पारपोला और एस. कोस्केन्निएमी। इनमें एक भारतविद, दूसरा असीरी पुराविद, तीसरा भाषाविद और चौथा गणितज्ञ है। इन्होंने संगणक (कम्प्यूटर) की सहायता से सिन्धु लिपि के लेखों का विश्लेषण किया है। शब्दों के आरम्भ और अन्त में आने वाले व्याकरणात्मक प्रत्ययों की बारंमबारता ज्ञात करने के लिए ही संगणक की सहायता ली गई है। रूसी पुराविद भी संगणक की सहायता से सिन्धु लिपि के अन्वेषण में जुटे हुए हैं। उन्होंने संगणक की मदद से ही मय लिपि का उदघाटन किया था। इंग्लैण्ड के माइकेल वेंट्रिस ने इसी प्रकार आन्तरिक विश्लेषण करके क्रीट की रैखिक-ब लिपि का उदघाटन किया था। भाषा अज्ञात होने पर पुरालिपि के अन्वेषण का यही तरीक़ा सर्वोत्तम है।

प्राक-द्रविड़ भाषा

रूसी और फ़िनी वैज्ञानिक के अनुसार सिन्धु लिपि में प्राक-द्रविड़ भाषा के दर्शन होते हैं। फ़िनी वैज्ञानिक ने अपने अन्वेषण में कुछ संकेतों के अर्थ जान लिए हैं। इनमें से कुछ यहाँ दिए जा रहे हैं-

  • सम्बन्ध कारक
  • सम्प्रदान कारक, एकवचन
  • कर्त्ता कारक, बहुवचन
  • सम्बन्ध कारक, बहुवचन
  • सम्प्रदान, बहुवचन
  • राजा
  • आदमी
  • स्त्री, कंघी
  • तारा
  • छह तारे (कृत्तिका नक्षत्र)
  • मन्दिर, राजमहल

इन फ़िनी वैज्ञानिकों की विधि वैज्ञानिक है, इसमें सन्देह नहीं। परन्तु इनके अध्ययन में भी कमियाँ हैं। प्राक-द्रविड़ भाषा के व्याकरण के बारे में इनकी जानकारी पूर्णत यथार्थ नहीं है। इनके अध्ययन की यह शुरुआत मात्र है।

लोथल का उत्खनन कार्य

लोथल के उत्खनन कार्य का नेतृत्व करने वाले प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता डॉ. शिकारिपुर रंगनाथ राव ने भी सिन्धु लिपि के बारे में अपना अन्वेषण प्रकाशित किया है।

मौलिक चिह्न

राव का मत है कि आरम्भिक हड़प्पा संस्कृति (2500-1900 ई. पू.) की सिन्धु लिपि में 390 चिह्न थे, जिनमें लगभग 40 मौलिक चिह्न थे। किन्तु परवर्ती हड़प्पा संस्कृति (1900-1600 ई. पू.) की सिन्धु लिपि में सिर्फ़ 20 मौलिक चिह्न रह गए थे। इसका अर्थ यह हुआ कि परवर्ती सिन्धु लिपि वर्णमालात्मक बन चुकी थी।

यह कैसे हुआ?

यह कैसे हुआ? राव का कहना है कि यह पश्चिम एशिया की सेमेटिक लिपि के प्रभाव से हुआ। उन्होंने कनानी और फ़िनीशियन जैसी उत्तरी सेमेटिक लिपियों के संकेतों में और परवर्ती सिन्धु लिपि के संकेतों में साम्य भी खोजा है। इतना ही नहीं, उन्होंने सेमेटिक ‘व्यंजनमाला’ के ध्वनिमानों की सहायता से ही परवर्ती सिन्धु लिपि के 20 चिह्नों की ‘वर्णमाला’ को पढ़ने का प्रयत्न किया है। राव का कहना है कि परवर्ती सिन्धु लिपि की ‘वर्णमाला’ में 14 या 15 व्यंजनाक्षर हैं और 5 स्वराक्षर। हम जानते हैं कि सेमेटिक लिपियों में स्वराक्षर नहीं थे। लेकिन यूनानियों ने उत्तरी सेमेटिक लिपि के आधार पर अपनी भाषा के लिए जब नई लिपि बनाई, तो उसमें उन्होंने स्वरों के लिए चिह्न बना लिए थे। राव का अध्ययन यदि सही है तो हमें कहना पड़ेगा कि परवर्ती हड़प्पा संस्कृति के लोगों ने भी ऐसा ही किया था।

इस ‘सिन्धु वर्णमाला’ की भाषा क्या थी?

इस ‘सिन्धु वर्णमाला’ की भाषा क्या थी? अपने अध्ययन से राव इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि सिन्धु लोगों की भाषा भारत-यूरोपीय परिवार की तथा भारत-ईरानी वर्ग की थी। साथ ही वे यह जानकारी भी देते हैं कि जो 360 शब्द उन्होंने खोजें हैं, उनमें 30 शब्द भारत-यूरोपीय भाषा के नहीं हैं।

परिणाम

राव इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि सिन्धु लिपि की भाषा वेदों की प्राचीन संस्कृत भाषा से काफ़ी मिलती है। उन्होंने कुछ मुहरों पर ‘राजा’ के लिए ‘पाल’, ‘पालक’, ‘त्र’ आदि शब्दों की खोज भी की है। राव ने ‘सिन्धु वर्णमाला’ का सेमेटिक लिपियों के साथ साम्य दरसाने के लिए जो तालिका दी है, उसमें उन्होंने ब्राह्मी लिपि के कुछ अक्षर दिए हैं। अतः लगता है कि ब्राह्मी वर्णमाला परवर्ती ‘सिन्धु वर्णमाला’ से बनी थी। पर वे यह भी स्वीकार करते हैं कि सिन्धु लिपि दाईं ओर से बाईं ओर को लिखी जाती थी। संक्षेप में, यह है एस.आर. राव का अध्ययन। लेकिन गहराई से देखें तो, इसमें कई न्यूनताएँ हैं। इसीलिए हमें मानना पड़ता है कि सिन्धु लिपि अभी भी अज्ञात बनी हुई है।

मुद्रालेखों की भाषा

सिन्धु लिपि के उदघाटन के नए दावेदार डॉ. नटवर झा की मान्यता है कि सिन्धु मुद्रालेखों की भाषा वैदिक संस्कृत है और लिपि पूर्व-ब्राह्मी। वे कहते हैं कि अधिकांश सिन्धु मुहरों में पूर्ववर्ती वैदिक शब्दों को, प्रमुखतः ऋग्वेद के शब्दों को, प्रस्तुत किया गया है। इतना ही नहीं, डॉ. नटवर झा का मत है कि सिन्धु लेखों में क्षेत्रमिति से सम्बन्धित शुल्वसूत्रों और प्रमुख उपनिषदों के विषयों का भी प्रस्तुतीकरण देखने को मिलता है।

निघण्टु शब्द संग्रह

डॉ. नटवर झा को अपनी इस परिकल्पना के लिए प्रेरणा मिली यास्क द्वारा संकलित निघण्टु नामक वैदिक शब्द-संग्रह से और उन शब्दों पर लिखे गए उनके निरुक्त नामक भाष्य से। यास्क ईसा पूर्व क़रीब पाँच-छह सौ साल पहले हुए। कुछ पण्डितों का मत है कि निघण्टु नामक वैदिक शब्द-संग्रह यास्क ने स्वयं तैयार किया था, और कुछ अन्य पण्डितों का मत है कि उन्हें यह परम्परा से प्राप्त हुआ। लगता है कि निघण्टु किसी एक व्यक्ति की कृति नहीं है।

यास्क

महाभारत के शान्तिपर्व में मोक्षपर्व के 342 वें अध्याय के दो श्लोकों में यास्क का उल्लेख है और कहा गया है कि उन्होंने पाताललोक में नष्ट हुए निरुक्तशास्त्र को पुनः प्राप्त किया। कुछ बाद के दो श्लोकों में बताया गया है कि ‘वृष’ का अर्थ धर्म है और प्रजापति-कश्यप ने मुझे (वासुदेव को) ‘वृषाकपि’ कहा है। निरुक्त के अध्येताओं को महाभारत के उन उल्लेखों की काफ़ी पहले से जानकारी रही है। ‘वृषाकपि’ शब्द निघण्टु में भी मिलता है। इसीलिए कुछ पण्डित परिणाम पर पहुँचे कि प्रजापति-कश्यप निघण्टु के प्रणेता हैं। निघण्टु व निरुक्त के डॉ. लक्ष्मणसरूप जैसे गम्भीर अध्येता इस युक्ति को स्वीकार नहीं करते। मगर डॉ. नटवर झा का मत है कि "यास्क ने अपने निरुक्त के निर्माण के लिए कश्यप प्रजापति द्वारा निर्मित निघण्टु नामक कोश को आधार बनाया था।" इस सन्दर्भ में एक मजे की बात यह है कि यास्क-संहिता जो 14 निरुक्तकार हुए हैं, उनमें वेदमंत्रों को अर्थहीन बताने वाले कौत्स का तो नाम है, किन्तु प्रजापति-कश्यप का नहीं है। बावजूद इसके, डॉ. नटवर झा ने सिर्फ़ महाभारत के उपर्युक्त श्लोकों को गड्डमड्ड करके अपना मत बनाया कि प्रजापति-कश्यप का वैदिक शब्द-संग्रह सिन्धु लेखों में प्रस्तुत हुआ है, और चूंकि उनके अनुसार यास्क ने ‘पाताललोक’ या ज़मीन के भीतर दबे (यानी सिन्धु सभ्यता के स्थलों में दबे) इस शब्द-संग्रह का उद्धार किया, इसीलिए सिन्धु लेखों को यास्क के निघण्टु व निरुक्त के आधार पर पढ़ा जा सकता है।

व्यंजनमालात्मक

डॉ. नटवर झा के मतानुसार सिन्धु लिपि प्रमुखतः व्यंजनमालात्मक है। इसमें केवल तीन ही स्वर-वर्ण हैं और शब्द के आरम्भ के सभी अक्षरों को केवल एक ही संकेत (U) से व्यक्त किया गया है। मुद्राओं को उन्होंने बाईं ओर से दाईं ओर को पढ़ा, तो कुछ को दाईं ओर से बाईं ओर को और कुछ को दोनों ओर से।

वैदिक सभ्यता का अंग

डॉ. नटवर झा ने अपने इस प्रयास में सिन्धु सभ्यता की उपलब्ध पुरातात्त्विक सामग्री पर और इसके निर्धारित कालक्रम पर तनिक भी ध्यान नहीं दिया। वे बिना किसी आधार के सिन्धु सभ्यता के उत्कर्ष काल को ईसा के पाँच हज़ार साल पहले रखते हैं और वैदिक काल को उसके भी काफ़ी पीछे ले जाते हैं। उनका उद्देश्य है येन-केन-प्रकारेण यह सिद्ध करना कि सिन्धु सभ्यता वैदिक सभ्यता का ही एक परवर्ती अंग है। ऐसी निराधार मान्यताएँ वेदों के प्रति हमारी अंधभक्ति को तो बढ़ावा दे सकती हैं, परन्तु प्राक-ऐतिहासिक काल की सिन्धु सभ्यता पर कोई नया प्रकाश नहीं डालती। ऐरावथम महादेवन ने सिन्घु लेखों का संग्रह प्रकाशित किया है। उनकी मान्यता है कि सिन्धु मुहरों में उनके स्वामियों के नाम अंकित हैं। वे इन लेखों में द्रविड़ परिवार की भाषा खोजी जाने की उम्मीद रखते हैं।

व्याकरणात्मक विश्लेषण

सिन्धु लिपि में कोई द्रविड़ भाषा खोजता है, कोई वैदिक भाषा। यह बात भी नज़रअंदाज़नहीं करनी चाहिए कि सिन्धु लिपि में इन दोनों के अलावा कोई तीसरी भाषा निहित हो सकती है। इसीलिए इस लिपि के अन्वेषण का सर्वोत्तम तरीक़ा यही है कि क्रीट की रैखिक-ब लिपि की तरह इसका अध्ययन इसके अतिरिक्त व्याकरणात्मक विश्लेषण से आरम्भ किया जाए।

सुमेर के साथ सम्बन्ध

सुमेर के साथ सिन्धु सभ्यता के गहरे सम्बन्ध थे। यदि कोई द्वैभाषिक लेख प्राप्त हो गया होता तो इस लिपि के उदघाटन में आसानी होती। लगता है कि किसी द्वैभाषिक लेख के प्राप्त होने पर ही अब इस लिपि का रहस्योदघाटन हो पाएगा। किन्तु तब तक इसके आन्तरिक विश्लेषण के प्रयास जारी रहने चाहिए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. स्टुअर्ट पिगॉट, 'प्रीहिस्टॉरिक इण्डिया', पृष्ठ 14

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