तमिल लिपि

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तमिल भाषा के प्राचीनतम लेख दक्षिण भारत की कुछ गुफ़ाओं में मिलते हैं। ये लेख ई.पू. पहली-दूसरी शताब्दी के माने गए हैं और इनकी लिपि ब्राह्मी लिपि ही है। लेकिन इसके बाद सातवीं सदी तक तमिल लिपि के विकास का कोई सूत्र हमारे हाथ नहीं लगता।

दानपत्र

सातवीं शताब्दी में पहली बार कुछ ऐसे दानपत्र मिलते हैं, जो संस्कृत और तमिल दोनों ही भाषाओं में लिखे गए हैं। संस्कृत भाषा के लिए ग्रन्थ लिपि का ही व्यवहार देखने को मिलता है। तमिल भाषा की तत्कालीन लिपि भी ग्रन्थ लिपि से मिलती-जुलती है। पल्लव राजा परमेश्वर वर्मन के कूरम दानपत्र में संस्कृत और तमिल दोनों ही भाषाओं के लेख मिलते हैं। इसी प्रकार, पल्लव राजा नंदि वर्मन के कसाकुडि-दानपत्र और उदयेंदिरम् के दानपत्र में तमिल अंश देखने को मिलते हैं। कूरम दानपत्र 7वीं शताब्दी का है और इसके तमिल लेख 'अ', 'आ', 'इ', 'उ', 'ओ', 'च', 'ञ', 'ण', 'त', 'न', 'प', 'य' और 'व' अक्षर उसी दानपत्र के संस्कृत लेख के अक्षरों से मिलते हैं। कसाकुडि-दानपत्र 8वीं शताब्दी का है, और इसके भी बहुत-से अक्षर ग्रन्थ लिपि से मिलते-जुलते हैं।

अभिलेख

पल्लव शासक, अपने उत्तराधिकारी चोल और पाण्ड्यों की तरह, संस्कृत के साथ स्थानीय जनता की तमिल भाषा का भी आदर करते थे, इसीलिए उनके अभिलेख इन दोनों भाषाओं में मिलते हैं। नौवीं-दसवीं शताब्दी के अभिलेखों को देखने से पता चलता है कि तमिल लिपि, ग्रन्थ लिपि के साथ-साथ स्वतंत्र रूप से विकसित हो रही थी। इन दो शताब्दियों के तमिल लेखों में प्रमुख हैं- पल्लवतिलकवंशी राजा दंतिवर्मन के समय का तिरुवेळ्ळरै लेख, राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज तृतीय के समय के तिरुक्कोवलूर और वेल्लूर लेख। इनमें दंतिवर्मन के समय का तिरुवेळ्ळरै लेख सुन्दर तमिल काव्य में है।

पल्लवों की तरह चोल राजाओं के अभिलेख भी संस्कृत और तमिल दोनों में मिलते हैं। चोल राजा राजराज 985 ई. में तंजावुर की गद्दी पर बैठा था। उसने दक्षिण भारत के अधिकांश प्रदेश पर अधिकार करके सिंहल के साथ-साथ लक्कादिव- मालदीव द्वीपों को भी अपने राज्य में मिला लिया था। उसके बाद 1012 ई. में राजेन्द्र चोल राजा बना। राजेन्द्र ने एक जंगी बेड़ा लेकर श्रीविजय (सुमात्रा) पर आक्रमण करके शैलेन्द्रों को पराजित किया था। उसने गौड़ देश को भी अपने राज्य में मिला लिया था। इन दो चोल राजाओं का शासन दक्षिण भारत के इतिहास का अत्यन्त गौरवशाली अध्याय है। इन्होंने संस्कृत के साथ-साथ तमिल भाषा को भी आश्रय दिया था। इनकी विजयों की तरह इनका कृतित्व भी भव्य है। इनके अभिलेख संस्कृत भाषा (ग्रन्थ लिपि) और तमिल भाषा (तमिल लिपि) दोनों में ही मिलते हैं। राजेन्द्र चोल का ग्रन्थ लिपि में लिखा हुआ संस्कृत भाषा का तिरुवलंगाडु दानपत्र तो अभिलेखों के इतिहास में अपना विशेष स्थान रखता है। इसमें तांबे के बड़े-बड़े 31 पत्र हैं, जिन्हें छेद करके एक मोटे कड़े से बाँधा गया है। इस कड़े पर एक बड़ी-सी मुहर है।

  • तमिल लिपि में राजेन्द्र चोल का तिरुमलै की चट्टान पर एक लेख मिलता है। उसी प्रकार, तंजावुर के बृहदीश्वर मन्दिर में भी उसका लेख अंकित है। इन लेखों की तमिल लिपि में और तत्कालीन ग्रन्थ लिपि में स्पष्ट अन्तर दिखाई देता है।
  • विजयनगर के राजाओं ने भी ग्रन्थ लिपि के साथ-साथ तमिल लिपि का प्रयोग किया है। शक सं. 1308 (1387 ई.) का विजयनगर के राजा विरूपाक्ष का शोरेक्कावूर से तमिल लिपि में दानपत्र अपने राज्य के तमिलभाषी क्षेत्र में मिला है।
  • 15वीं शताब्दी में तमिल लिपि वर्तमान तमिल लिपि का रूप धारण कर लेती है। हाँ, उन्नीसवीं शताब्दी में, मुद्रण में इसका रूप स्थायी होने के पहले, इसके कुछ अक्षरों में थोड़ा-सा अन्तर पड़ा है। शकाब्द 1403 (1483 ई.) के महामण्डलेश्वर वालक्कायम के शिलालेख के अक्षरों तथा वर्तमान तमिल लिपि के अक्षरों में काफ़ी समानता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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