कीलाक्षर लिपि

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कीलाक्षर लिपि एक अत्यधिक प्राचीन लिपि है। इसके अक्षर देखने में कील जैसे दिखाई पड़ते हैं, इसलिए इस लिपि को 'कीलाक्षर लिपि' के नाम से पुकारते हैं। गीली मिट्टी की ईटों अथवा पट्टिकाओं पर कठोर कलम या छेनी से टंकित किए जाने के कारण इस लिपि के अक्षरों की आकृति स्वाभाविक रूप से कील की सी हो जाया करती थी। इस प्रकार के अक्षरों और इनसे बनी लिपि का उपयोग सबसे पहले ग़ैर-सामी सुमेरियों ने किया था।

निर्माणकर्ता

दक्षिणी बैबीलोनिया अथवा दजला-फरात के मुहानों के दोआब में बसे प्राचनी सुमेरियों को इस लिपि के निर्माण का श्रेय दिया जाता है। कालक्रम से भाषाएँ बदलती गईं, पर यही प्राचीन सुमेरी लिपि बनी रही। एलामी, बाबुली, असूरी (अथवा असुर), खत्ती, उरार्तू के निवासी, सभी ने बारी-बारी से इस कीलाक्षर लिपि का अपने-अपने राज्याधिकारों में उपयोग किया था। आज हज़ारों छोटे-बड़े अभिलेख इस लिपि में लिखे हुए उपलब्ध हैं, जिनका संग्रह 7वीं सदी ई. पू. में ही प्राचीन पुराविद और संग्रहकर्ता असीरिया के राजा असुरबनिपाल ने निनेवे के अपने ग्रंथागार में कर लिया था।[1]

अभिलेख

निनेवे की खुदाई से प्राप्त अभिलेख अब तुर्की, ईरान, सोवियत, जर्मनी, फ़्राँस, इंग्लैंड, शिकागो और पेंसिलवेनिया के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। जल प्रलय की पहली चर्चा करने वाला बाबुली महाकाव्य 'गिलगमेश' भी इन्हीं कीलाक्षरों में अनेक ईटों पर लिखा गया था, जिसकी मूल प्रति लेनिनग्राद के एरमिताज संग्रहालय में सुरक्षित हैं। खत्ती रानी ने खत्तियों और मिस्री फराऊओं ने परस्पर युद्ध बंदकर शांति स्थापित करने के लिए अद्वैत के उपासक मिस्री नृपति इख़नातून को अंतर्जातीय विधि स्थापक स्वरूप जो पहला पत्र लिखा, वह इन्हीं कीलाक्षरों में लिखा गया था।

बोगजकोई का वह प्रसिद्ध संधिपत्र भी, जिसके द्वारा खत्तियों और मितन्नियों का आपसी युद्ध बंद किया गया था और जिसमें साक्षी स्वरूप भारतीय ऋग्वैदिक देवताओं- इंद्र, मित्र, वरुण, नासत्यों, का उल्लेख किया गया है, इन्हीं कीलाक्षरों में लिखा है। कीलाक्षरों के उपयोग की सीमा एलाम से तुर्की तक, अरब से अर्मीनिया तक थी।

उद्भव

कीलाक्षर लिपि के लिए यूरोपीय भाषाओं में समानार्थक शब्द 'क्यूनीफ़ार्म' है। इस लिपि का उद्भव कब हुआ, यह कह सकना संभव नहीं है, पर इसमें संदेह नहीं कि इसका व्यवहार ई. पू. तीसरी सहस्राब्दी से पूर्व अवश्य शुरू हो गया था। विद्वानों का मत है कि इस लिपि का प्रादुर्भाव प्रथमत: चित्रलिपि से हुआ और वह शब्दचिह्न, ध्वन्यात्मक, स्वरात्मक दशाओं से गुजरकर वर्णात्मक स्थिति को प्राप्त हुई। यह लिपि आरंभ में व्यंजन प्रधान थी; धीरे-धीरे स्वरों के उदय से वर्णात्मक बनी और इस कालाविधि में अनेक भाषाओं ने अपने को इसके द्वारा व्यक्त कर इसे मान्यता दी। अमरीकी, भारतीयों, चीनियों, सिंधियों, क्रीतियों और संभवत: मिस्रियों की चित्रलिपि को छोड़कर संसार की प्राय: लिपियाँ-बाबुली और असूरी, खत्ती और फिनीकी इब्रानी और अरबी, ग्रीक और रोमन, अरमई और फ़ारसी, इसी कीलाक्षर लिपि से निकली हैं। उसकी उपलिपियों का परिवार बड़ा है और आज समस्त संसार उसी लिपि का, उसके अनंत विकसित रूपों में, उपयोग कर रहा है।[1]

रहस्यभेद

इस लिपि का रहस्यभेद 19वीं सदी के मध्य में तब हुआ, जब ईरान स्थित अंग्रेज़ राजदूत रालिंसन ने दारा के लिखवाए बेहिस्तून के शिलालेख की त्रिभाषिक इबारत को अन्य विद्वानों की सहायता से पढ़ डाला। उसमें प्राचीन फ़ारसी, एलामी और बाबुली भाषाओं में दारा की विजय प्रशस्ति व्यक्तिवाची नामों के कारण आसान था। जब प्राचीन फ़ारसी वाले पहले खाने की इबारत पढ़ ली गई तो उसकी मदद से दूसरे और तीसरे खानों की एलामी और बाबुली भी पढ़ने में देर न लगी। इस प्रकार रोज़ेट्टा स्टोन की मिस्री लिपि की ही भाँति बेहिस्तून की यह त्रिभाषिक कीलाक्षर लिपि भी पढ़ी गई, यह घटना 19वीं सदी के ऐतिहासिक आश्चर्यों में गिनी जाती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 कीलाक्षर लिपि (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 19 मार्च, 2014।

बाहरी कड़ियाँ