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वट्टेळुत्तु लिपि

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  • वट्टेळुत्तु लिपि का विकास, तमिल लिपि की तरह, ब्राह्मी से ही हुआ है।
  • तमिल लिपि को त्वरा से घसीट के साथ लिखने के कारण 7वीं शताब्दी के आस-पास दक्षिण के प्रदेशों में यह लिपि अस्तित्व में आई थी।
  • पाण्ड्य शासकों ने अपने अभिलेखों में इसका उपयोग किया है।
  • तंजावूर के दक्षिण में और मलाबार तथा तिरुवितांकुर (ट्रावंकोर) में इस लिपि का बहुत व्यवहार हुआ है।
  • तिरुवितांकुर (ट्रावंकोर) में तो अभी उन्नीसवीं शताब्दी तक इस लिपि का व्यवहार देखने को मिलता था।
  • दक्षिण भारत की लिपियों के विशेषज्ञ बार्नेल का मत था कि आरम्भ में तमिल भाषा के ग्रन्थ इसी लिपि में लिखे जाते थे।
  • इस लिपि के गोलाकार अक्षरों को देखने से पता चलता है कि ताड़पत्रों पर लोहे की कील से लिखने के लिए ही यह लिपि उपयुक्त थी।
  • पत्थरों पर गोलाकार अक्षरों को खोदने में काफ़ी कठिनाई होती है। इसीलिए राजराज चोल ने इस वट्टेळुत्तु लिपि के स्थान पर उसकी सीधे अक्षरों वाली ‘कोल-एळुत्तु’ शैली को पसन्द किया था।


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