नरसी मेहता

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नरसी मेहता अथवा नरसिंह मेहता (अंग्रेज़ी:Narsinh Mehta) (जन्म 1414 ई. जूनागढ़) गुजराती भक्ति साहित्य की श्रेष्ठतम कवि थे। उनके कृतित्व और व्यक्तित्व की महत्ता के अनुरूप साहित्य के इतिहासग्रंथों में "नरसिंह-मीरा-युग" नाम से एक स्वतंत्र काव्यकाल का निर्धारण किया गया है जिसकी मुख्य विशेषता भावप्रवण कृष्णभक्ति से अनुप्रेरित पदों का निर्माण है। पदप्रणेता के रूप में गुजराती साहित्य में नरसी का लगभग वही स्थान है जो हिन्दी में महाकवि सूरदास का है।

जीवन परिचय

गुजराती साहित्य के आदि कवि संत नरसी मेहता का जन्म 1414 ई. में जूनागढ़ के निकट तलाजा ग्राम में एक नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ था। माता-पिता का बचपन में ही देहांत हो गया था। इसलिए अपने चचेरे भाई के साथ रहते थे। अधिकतर संतों की मंडलियों के साथ घूमा करते थे और 15-16 वर्ष की उम्र में उनका विवाह हो गया। कोई काम न करने पर भाभी उन पर बहुत कटाक्ष करती थी। एक दिन उसकी फटकार से व्यथित नरसिंह गोपेश्वर के शिव मंदिर में जाकर तपस्या करने लगे। मान्यता है कि सात दिन के बाद उन्हें शिव के दर्शन हुए और उन्होंने कृष्णभक्ति और रासलीला के दर्शनों का वरदान मांगा। इस पर द्वारका जाकर रासलीला के दर्शन हो गए। अब नरसिंह का जीवन पूरी तरह से बदल गया। भाई का घर छोड़कर वे जूनागढ़ में अलग रहने लगे। उनका निवास स्थान आज भी ‘नरसिंह मेहता का चौरा’ के नाम से प्रसिद्ध है। वे हर समय कृष्णभक्ति में तल्लीन रहते थे। उनके लिए सब बराबर थे। छुआ-छूत वे नहीं मानते थे और हरिजनों की बस्ती में जाकर उनके साथ कीर्तन किया करते थे। इससे बिरादरी ने उनका बहिष्कार तक कर दिया, पर वे अपने मत डिगे नहीं।

पिता के श्राद्ध के समय और विवाहित पुत्री के ससुराल उसकी गर्भावस्था में सामग्री भेजते समय भी उन्हें दैवी सफलता मिली थी। जब उनके पुत्र का विवाह बड़े नगर के राजा के वजीर की पुत्री के साथ तय हो गया। तब भी नरसिंह मेहता ने द्वारका जाकर प्रभु को बारात में चलने का निमंत्रण दिया। प्रभु श्यामल शाह सेठ के रूप में बारात में गए और ‘निर्धन’ नरसिंह के बेटे की बारात के ठाठ देखकर लोग चकित रह गए। हरिजनों के साथ उनके संपर्क की बात सुनकर जब जूनागढ़ के राजा ने उनकी परीक्षा लेनी चाही तो कीर्तन में लीन मेहता के गले में अंतरिक्ष से फूलों की माला पड़ गई थी। निर्धनता के अतिरिक्त उन्हें अपने जीवन में पत्नी और पुत्र की मृत्यु का वियोग भी झेलना पड़ा था। पर उन्होंने अपने योगक्षेम का पूरा भार अपने इष्ट श्रीकृष्ण पर डाल दिया था। जिस नागर समाज ने उन्हें बहिष्कृत किया था अंत में उसी ने उन्हें अपना रत्न माना और आज भी गुजरात में उनकी वह मान्यता है।[1]

रचनाएँ

नरसिंह मेहता ने बड़े मर्मस्पर्शी भजनों की रचना की। गांधी जी का प्रिय भजन ‘वैष्णव जन तो तेणे कहिये’ उन्हीं का रचा हुआ है। भक्ति, ज्ञान और वैराग्य के पदों के अतिरिक्त उनकी यह कृतियां प्रसिद्ध हैं-

  • ‘सुदामा चरित’
  • ‘गोविन्द गमन’
  • ‘दानलीला’,
  • ‘चातुरियो’
  • ‘सुरत संग्राम’
  • ‘राससहस्त्र पदी’
  • ‘शृंगार माला’
  • ‘वंसतनापदो’ और
  • ‘कृष्ण जन्मना पदो’।[1]

संतों के साथ बहुत-सी कथाएँ जुड़ी रहती हैं। नरसी मेहता के संबंध में भी ऐसी अनेक घटनाओं का वर्णन मिलता है। इनमें से कुछ का उल्लेख स्वयं उनके पदों में मिलने से लोग इन्हें यथार्थ घटनाएं भी मानते हैं। उन दिनों हुंडी का प्रचलन था। लोग पैद-यात्रा में नकद धन नहीं ले जाते थे। किसी विश्वस्त और प्रसिद्ध व्यक्ति के पास रुपया जमा करके उससे दूसरे शहर के व्यक्ति के नाम हुंडी (धनादेश) लिखा लेते थे। नरसिंह मेहता की गरीबी का उपहास करने के लिए कुछ शरारती लोगों ने द्वारका जाने वाले तीर्थ यात्रियों से हुंडी लिखवा ली, पर जब यात्री द्वारका पहुंचे तो श्यामल शाह सेठ का रूप धारण करके श्रीकृष्ण नरसिंह की हुंडी का धन तीर्थयात्रियों को दे दिया।[1]

निधन

नरसी मेहता का निधन 1480 ई. में माना जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 लीलाधर, शर्मा भारतीय चरित कोश (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: शिक्षा भारती, 414।

बाहरी कड़ियाँ

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